सामयिकी

जापान के अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में वक्तव्य देती सुषम बेदी

जापान में दूसरे अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन के बाद

जापान का हिंदी संसार
सुषम बेदी


जैसे कि कुछ सालों से इधर जगह जगह विदेशों में हिंदी के कार्यक्रम शुरू हो रहे हैं उसी तरह जापान में भी पिछले दस बीस साल से हिंदी पढ़ाई जा रही होगी मैंने यही सोचा था जबकि सुरेश ऋतुपर्ण ने टोकियो यूनिवर्सिटी और फारन स्टडीज की ओर से विश्व हिंदी सम्मेलन का आमंत्रण भेजा तो वहाँ पहुँचने के बाद मेरे लिये यह सचमुच बहुत सुखद आश्चर्य का विषय था कि दरअसल जापान में हिंदी पढ़ाने का कार्यक्रम १०० साल से भी अधिक पुराना है और वहाँ सन १९०८ से हिंदी पढ़ाई जा रही है। अखिर हम भूल कैसे सकते हैं कि जापान के साथ भारत के सम्बन्ध उस समय से चले आ रहे हैं जब छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का वहाँ आगमन हुआ। यह जरूर है कि सीदे भारत से न आकर यह धर्म चीन और कोरिया के जरिये से आया। इस विश्व विद्यालय की लाइब्रेरी भी बहुत सम्पन्न है। वहाँ लगभग ६०-७० हजार के करीब हिंदी की पुस्तकें और पत्रिकाएँ हैं।

२८ से ३० जनवरी तक होने वाले इस हिंदी सम्मेंलन में कई तरह के पैनल्स थे जिन में हिंदी से जुड़े अनेक विषयों जैसे कि हिंदी प्रचार में सिनेमा, संगीत व मीडिया का योगदान, २१वी सदी में हिंदी का बदलता स्वरूप, जापान में हिंदी विविध आयाम, हिंदी का वैश्विक परिदृश्य इत्यादि की भली भाँति चर्चा हुरई तथा दूसरे देशों में हिंदी सवरूप के बारे में भी जानकारी मिली। सारे परचे हिंदी में पढ़े गए। जापानी विद्वानों ने भी अपने परचे हिंदी में ही पढ़े। मुझे अमरीका में आदत है कि ज्यादातर हिंदी सम्बंधी परचे अँग्रेजी में ही पढ़े जाते हैं।

इसलिये यह सुखद बदलाव था। पहली बार जापानी हिंदी विद्वानों से मिलने का मौका हुआ। प्रोफेसर तकेशी फूजी तो विभाग के अध्यक्ष थे। प्रोफेसर तोशियोतनाका ७४ वर्ष के हैं और अब अवकाश प्राप्त हैं। उन्होंने इलाहाबाद जाकर हिंदी सीखी थी। मेरे लिये सुखद आश्चर्य यह भी था कि जब क जापानी हिंदी प्रोफेसर श्री हिदेयाकी इशिदा से मुझे मिलवाया गया कि वे मुझसे बात करना चाहते हैं तो मैं हैरान हुई। और ज्यादा हैरानी हुई जब उन्होंने अपने द्वारा सम्पादित जापानी की हिंदी साहित्य पत्रिका मुझे दिखाई। उसमें मेरी कहानी विभक्त का अनुवाद छपा था। मेरे लिये अचरज यह था कि जापानी भाषा में भी मेरी कहानी का अनुवाद हुआ है कि ये लोग नये साहित्य में भी रुचि रखते और उसे पढ़ते हैं। उससे जुड़े हैं और उसका अनुवाद भी कर रहे हैं। दरअसल जापान में अनुवाद का काम बहुत गंभीरता से लिया जाता है और विश्व भर का साहित्य अनुवाद के माध्यम से जापानियों को उपलब्ध है। सभाग्र में बैठे हुए जो खास ब मुझे महसूस हो रही थी वह यह कि हिंदी का संसार सचमुच बहुत फैल गया है। यों तो मुझे हिंदी सम्मेलनों की इस बत से काफी कोफ्त हुआ करती थी कि यह रसकारी अफसरों के विदेश घूमने का बहाना है वर्मा कुछ हिंदी से जुड़े लोगों को इकट्ठा करने का लाभ क्या और इसमें सरकार का पैसा फालतू में बहाना मेरे लिये तकलीफ देह ही होता था। यों भी इन सम्मेलनों में साहित्य और साहित्यकारों को तो दूर ही रखा जाता है जबकि मेरे लिये भाषा की महत्ता तभी है अगर उसक साहित्य और साहित्याकार शीर्षस्थ है। साहित्य के बिना तो भाषा यों ही मर जाती है। उसका अस्तित्व कहाँ रहता है। आज अगर संस्कृत जिंदी है तो इसलिये न कि उसका महान साहित्य मृत्युंजय है।

पर इस बार मैंने यह भी सोचा कि आज की हिंदी साहित्य या साहित्यकार की ही नहीं रही वह पत्रकार की भी है, शिक्षक और छात्रों की तो है ही, राजभाषा विभाग की भी है, रंगमंच की और बम्बइया सिनेमा की भी। देखा जाय तो बम्बइया सिनेमा ने तो हिंदी को सारी दुनिया में पहुँचाया हुआ है। और बहुत से युवक युवतियों की हिंदी सीखने में रुचि हिंदी फिल्में देखने के बाद ही जगती है। तो सुरेश ऋतुपर्ण ने इस विभिन्न तबको के प्रतिनिधियों को कान्फ्रेंस में बुलाया हुआ था जिसकी वजह से मैं सोचती हूँ सारी कान्फ्रेंस खूब रोचक बनी रही। एक ओर जापानी हिंदी विद्वानों ने हिंदी शिक्षण और शोध के अनुभव हमसे बाँटे तो वहीं पत्रकार जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने हमें अज्ञेय के जापान के साथ पुराने रिश्ते और उससे जुड़ी उनकी कविताओं की चर्चा की। अवकाश प्राप्त राजभाषा अधिकारी और कवि बुद्धिनाथ मिश्र ने सरकारी हिंदी की समस्याओं पर प्रकाश डाला और सुरेश जी के हिंदी छात्रों ने जापानी लोककथा पर आधारित नाटक पेश कर दर्शकों को मोह लिया। इसके साथ ही मेरे जैसे दूसरे देशों का प्रतिनिधित्व करने वाले भी सम्मिलित थे जैसे कि डेन्मार्क से अर्चना पैन्यूली, हंगरी से मारिया नगेशी, ट्रिनिडाड से हंस हनुमान सिंह, मारिशस से गुलशन सुखलाल और अमरीका से मैं। न सब ने अपने अपने देशों में हिदी की स्थिति की चर्चा की। इसके अलावा दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदी शिक्षक माधुरी सुबोध और अमीषा अनेजा ने भारत से लुप्त होती हिंदी की बात की तथा कंप्यूटर पर हिंदी सिखाने की वेबसाइट तैयार करने वाले गगन शर्मा ने हिंदी वेबसाइट दिखाई। जापान के ओसाका शहर की यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्राध्यापक सुपरिचित लेखक हरजेन्द्र चौधरी ने हिंदी अध्यापन की समस्यों की चर्ची की।

छात्र-छात्राओं द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रमसबसे ज्यादा आनंदमयी थी शेखर सेन की मंचीय प्रस्तुति उन्होंने तुलसी, कबीर और विवेकानंद पर हिंदी में एक नाट्य तैयार किये हैं जिनकी प्रस्तुति भारत में तो हो ही चुकी है पर मेरे लिये वह बहुत ही सुखद अनुभव था। उन्होंने यों तो इन लाटको से कुछ अंश ही प्रस्तुत किये लिन उनका भिनय औ गायन बहुत ही प्रभावशाली थे। साथ ही जिस तरह से उन्होंने किंवदंतियों और काव्य आधार पर कबीर और तुलसी जीवन की नाट्यात्मक कहानी पेश की वह बेहद रोचक बनी थी। इसके अलावा दो और बम्बइया फिल्म हस्तियाँ थीं- पटकथा लेखक अतुल तिवारी और गायिका रेखा भारद्वाज। रेखा ने सूफी गायन से लेकर अपने लोकप्रिय फिल्मों के गीतों (ससुराल गेंदा फूल, डार्लिंग) से हम सबको मोह लिये।

जिस होटल में हम सब भाग लेने वाले ठहरे थे, यूनिवर्सिटी वहाँ से डेढ़ घंटे का रास्ता थी, सो तों दिन सबह हम सब साथ कान्फ्रेंस के लिये बस में बैठकर जाया करते। मुझे इस बस के सफर में भी खासा आनंद आता। कभी ओम थानवी राजनैतिर जगत की कोई गप सुना रहे होता कभी बुद्धिनाथ जी कोई चुटकी लेते तो शेखर सुनाते कोई विनोदमय चुटकुला। सफर बड़े आराम से कट जाता। यह कहना जरूरी होगा कि सम्मेलन के आयोजक सुरेश ऋतुपर्ण का सारा इंतजाम बढ़िया था। उनके अलावा उनका पूरा परिवार (उनकी पत्नी मधूलिका और बेटियाँ नेहा व जी) ही एक तरह से हमारी आवभगत में तैनात था। जिसने मुझे और मेरे पति राहुल बेदी को बहुत छू लिया। मधूलिका सबकी जरूरियात का पूरा ख्याल रख रही थीं।

एक और जरूरी बात- हिंदी के साथ जुड़ा है हिंदुस्तानी भोजन यानि का विश्व के किसी भी कोने में हिदी का सम्मेलन हो, आपको हिंदी खाना परोसा जाएगा। यों मै तो इस बात में विश्वास नहीं रखती कि जिस भी देश में जाएँ वहाँ का खाने के बजाय देसी खाना ही खाएँ। पर समझ में आ गया कि जो भारत से ने वाले डेलीगेशन होता है उसकी भोजन संबंधी बहुत सी समस्याएँ होती है, जैसे कि शाकाहार यया लहसुन प्याज का परहेज वगैरह। मैं जब अमरीका से चली थी तो सोचा था कि खूब जापानी खाना खाऊँगी। मुझे तैम्पुरा सुशी वगैरह स्वादिष् भी लगती हैं पर पता लगा कि भोजन का इंतजाम करने के लिये भारतीय रेस्त्रां के साथ पक्का किया गया है। सभी लंच और डिनर इसी रेस्त्रां के मालिक श्री व श्रीमती चंद्राणी के जिम्मे थे। यह भी हैरानी लगी कि दर असल उसके द्वारा परोसा भोजन बहुत ही स्वाद्ष्ट था और हर दिन का मेन्यू भी अलग था। कान्फ्रेंस की आखिरी शाम तो उन्होंने कमाल ही कर दिया और हम जापान में भारतीय खाने के आनंद को आज तक याद करते हैं।सम्मेलन में बोलते हुए बुद्धिनाथ मिश्र

इस सम्मेलन को इस वर्ष करने का एक मुख्य कारण यह भी था कि इस साल भ्रत और जापान के राजनयिक सम्बंधो के साठ बरस पूरे हुए हैं। उद्घाटन जापान में भारत के राजदूत आलोक प्रसाद ने किया और समापन ओसाका में भारतीय कौंसल जनरल विकास स्वरूप ने जो खुद भी एक पन्यासकार हैं। और उनके उप्यास पर धारित फिल्म स्लमडाग मिलनेयर का विश्व भर में चर्चा है।

हममें से कुछ लोग सम्मेलन खत्म होने पर जापान की यात्रा पर चल दिये। सुरेश और मधूलिका बी साथ थे। टोकियो में रासबिहारी बोस की समाधि पर गए। गिंजा और सेंसेजी मंदिर के दर्शन किये। सके बाद रेल से यात्रा कर के हम हिरोशिमा और कयोटो गए जिसने इस सारे अनुभव में नये आयाम जोड़ दिये।

२७ फरवरी २०१२