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क्या समाचार पत्रों में सांस्कृतिक राष्ट्रवादी भावना की उपेक्षा हो रही है।
डॉ. सौरभ मालवीय
जब मैं ‘हिन्दी समाचार पत्रों में
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रस्तुति का अध्ययन’, इस विषय पर शोध कर रहा था तब
हिन्दी समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद और सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद की विषयवस्तु के तुलनात्मक अध्ययन की ओर गहराई से विश्लेषण करने का अवसर
प्राप्त हुआ। यह विश्लेषण रोचक तो था ही राष्ट्रीय मुद्दों पर कुछ महत्त्वपूर्ण
सत्यों को उजागर करने वाला भी था। आगे बढ़ने से पहले हमें पूँजीवाद, समाजवाद,
साम्यवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विशेषताओं को संक्षेप में जान लेना चाहिये।
पूँजीवाद,
समाजवाद, साम्यवाद और सास्कृतिक राष्ट्रवाद-
पूंजीवाद उत्पादक शक्तियों के स्वामित्व और संचालन की
वह पद्धति है जिसके अतर्गत उत्पादक शक्तियों और व्यक्तियों को अपनी क्षमता तथा
प्रतिभा के अनुसार पूंजी उत्पादन, संग्रहण, विनियोग और व्यापार पर सामान्यत: कोई
प्रतिबन्ध नहीं होता। समाजवाद वह सामाजिक व्यवस्था है
जिसके अंतर्गत जीवन और समाज के सभी साधनों पर संपूर्ण समाज का स्वामित्व होता है –
जिसका उपयोग पूर्ण समाज के कल्याण और विकास की भावना को लक्ष्य करके किया जाता है।
साम्यवाद का ध्येय समाज में सर्वहारा और शोषित वर्ग
के बीच पूंजी, अवस्था, व्यवस्था और अवसरों की समान उपलब्धता सुनिश्चित करना है।
इसके समकक्ष सांस्कृतिक राष्ट्रवाद वह परिकल्पना है
जिसमें राष्ट्र की रचना का आधार आर्थिक या
राजनैतिक न होकर सांस्कृतिक होता है।
लेखों का अध्ययन
इस शोध कार्य में कुल १३
राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्रों और दो प्रमुख राष्ट्रीय पत्रिका सहित कुल १५ पत्र और
पत्रिकाओं का अध्ययन किया गया। शोध विधि के रूप में अन्तर्वस्तु विश्लेषण और
अक्रमिक (रैंडम) सर्वेक्षण विधि का प्रयोग किया गया। निष्कर्षों से पता चला कि
पूंजीवाद पर सर्वाधिक लेख दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुए। पत्र में इन्हें सर्वाधिक
४६ प्रतिशत स्थान प्राप्त हुआ। साम्यवाद पर सर्वाधिक लेख दैनिक जागरण में प्रकाशित
हुए। पत्र में इन्हें २५ प्रतिशत स्थान प्राप्त हुआ। समाजवाद पर सर्वाधिक ४६
प्रतिशत लेख जनसत्ता में प्रकाशित हुए हैं। तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से सम्बंधित
सर्वाधिक लेखों को दैनिक जागरण में स्थान मिला है। पत्र ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
को ३३ प्रतिशत स्थान दिया है।
संपादकीय लेखों का अध्ययन
इन
पत्र-पत्रिकाओं के संपादकीय को देखें तो पूंजीवाद पर सर्वाधिक सम्पादकीय इंडियन
एक्सप्रेस और टाइम्स ऑफ इंडिया में समान रूप से ३६-३६ प्रतिशत प्रकाशित हुए,
साम्यवाद पर सर्वाधिक सम्पादकीय दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुए हैं पत्र में
इन्हें २१ प्रतिशत स्थान दिया गया, समाजवाद से संबंधित सर्वाधिक संपादकीय दैनिक
हिन्दुस्तान, जनसत्ता और पायनियर में ३६-३६ प्रतिशत प्रकाशित हुए, जबकि सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद से संबंधित सम्पादकीय दैनिक जागरण में (२० प्रतिशत) प्रकाशित हुए।
संपादक के नाम पत्रों का अध्ययन
संपादक के नाम पत्रों का अध्ययन करने से निष्कर्ष मिला कि पूंजीवाद से संबंधित
सर्वाधिक संपादक के नाम पत्र (३६ प्रतिशत) इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुए,
साम्यवाद से संबंधित संपादक के नाम पत्र को सर्वाधिक स्थान दैनिक ट्रिब्यून में २१
प्रतिशत मिला, समाजवाद से संबंधित सर्वाधिक संपादक के नाम पत्र दैनिक हिन्दुस्तान,
टाइम्स ऑफ इंडिया, द हिन्दू तथा इंडियन एक्सप्रेस ने ३५-३५ प्रतिशत प्रकाशित किया
जबकि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संबंधित सर्वाधिक संपादक के नाम पत्र २० प्रतिशत
दैनिक जागरण में प्रकाशित हुए।
चित्रों का
अध्ययन
चित्रों के अध्ययन के अनुसार पूंजीवाद से संबंधित
सर्वाधिक चित्र इंडियन एक्सप्रेस में ३६ प्रतिशत प्रकाशित हुए, साम्यवाद से संबंधित
सर्वाधिक चित्रों को दैनिक ट्रिब्यून (२१ प्रतिशत) में स्थान मिला, समाजवाद से
संबंधित चित्रों को सर्वाधिक स्थान टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस में ३५-३५
प्रतिशत प्राप्त हुआ जबकि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संबंधित सर्वाधिक चित्रों को १८
प्रतिशत स्थान साप्ताहिक पत्रिका इंडिया टुडे में मिला है।
विश्लेषणात्मक समाचारों का अध्ययन
पूंजीवाद
से संबंधित सर्वाधिक विश्लेषणात्मक समाचार इंडियन एक्सप्रेस में ३६ प्रतिशत
प्रकाशित हुए, साम्यवाद से संबंधित सर्वाधिक विश्लेषणात्मक समाचार इंडियन एक्सप्रेस
हिन्दुस्तान टाइम्स, दैनिक ट्रिब्यून, पंजाब केसरी तथा दैनिक हिन्दुस्तान में २०-२०
प्रतिशत संख्यात्मक रूप से स्थान प्राप्त हुए, समाजवाद से संबंधित सर्वाधिक
विश्लेषणात्मक समाचार इंडियन एक्सप्रेस में ३६ प्रतिशत प्रकाशित हुए और सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद से संबंधित सर्वाधिक विश्लेषणात्मक समाचार साप्ताहिक पत्रिका इंडिया
टुडे में १८ प्रतिशत प्रकाशित हुए हैं।
पाठकों की रुचि का सर्वेक्षण
शोध से प्राप्त निष्कर्ष के अनुसार एक चौथाई पाठक
राजनीतिक समाचारों में तुलनात्मक तौर पर अधिक रूचि रखते हैं, जबकि शेष पाठकों की
रूचि प्रान्तीय और स्थानीय समाचारों में है। केवल १० प्रतिशत पाठकों की रूचि विचार
प्रधान समाचारों में नहीं है। और लगभग एक तिहाई पाठक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से
संबंधित समाचारों को पढ़ना चाहते हैं। कुल मिलाकर यह कि पत्रों व पत्रिकाओं में
पाठकों की अभिरूचि के अनुसार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संबंधित खबरों को गुणात्मक
तौर पर पर्याप्त स्थान नहीं मिल रहा है, लगभग ३० प्रतिशत पाठक सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद की अवधारणा से परिचित नहीं हैं। और लगभग दो तिहाई पाठकों का मानना है कि
पत्र-पत्रिकाओं में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संबंधित समाचारों को वर्तमान से अधिक
महत्व मिलना चाहिए। शोध का निष्कर्ष यह है कि
जिस मात्रा में पाठक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से संबंधित पाठय सामग्री और विषयवस्तु
को पढ़ना चाहते हैं, पत्र-पत्रिकाओं में अपेक्षात्या काफी कम संख्या में सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद से संबंधित समाचार, विश्लेषण, लेख, चित्र संपादकीय व संपादक के नाम पत्र
प्रकाशित होते हैं। यह असंतुलन इस शोध में बार-बार उभर कर सामने आया है।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आवश्यकता
पत्रकारिता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में एक
अन्योन्याश्रित संबंध है। ऊपर किए गए विश्लेषण से भी यह साफ हो जाता है कि
राष्ट्रवाद वास्तव में सांस्कृतिक ही होता है। राष्ट्र का आधार संस्कृति ही होती है
और पत्रकारिता का उद्देश्य ही राष्ट्र के विभिन्न घटकों के बीच संवाद स्थापित करना
होता है। देश में चले स्वाधीनता संग्राम के दौरान ही भारतीय पत्रकारिता का सही
स्वरूप विकसित हुआ था और हम देख सकते हैं कि व्यावसायिक पत्रकारिता की तुलना में
राष्ट्रवादी पत्रकारिता ही उस समय मुख्यधारा की पत्रकारिता थी। स्वाधीनता के बाद
धीरे-धीरे इसमें विकृति आनी शुरू हो गई। पत्रकारिता का व्यवसायीकरण बढ़ने लगा। देश
के राजनीतिक और सामाजिक ढांचे में भी काफी बदलाव आ रहा था। स्वाभाविक ही था
कि
पत्रकारिता उससे अछूती नहीं रह सकती थी। फिर देश में संचार क्रांति आई और पहले
दूरदर्शन और फिर बाद में इलेक्ट्रानिक चैनलों पदार्पण हुआ। इसने जहां पत्रकारिता
जगत को नई ऊंचाइयां दीं, वहीं दूसरी ओर उसे उसके मूल उद्देश्य से भी भटका दिया।
धीरे-धीरे विचारों के स्थान पर समाचारों को प्रमुखता दी जाने लगी, फिर समाचारों में
सनसनी हावी होने लगी और आज समाचार के नाम पर केवल और केवल सनसनी ही बच गई है।
समाचार पत्रों द्वारा सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद की उपेक्षा
भाषा और तथ्यों की बजाय बाजार और समीकरणों पर जोर बढ़
गया है। ऐसे में यदि पत्रकारिता में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की उपेक्षा हो रही है तो
यह कोई हैरानी का विषय नहीं है। जैसा कि ऊपर किए गए अध्ययन में हम देख सकते हैं कि
देश के प्रमुख मीडिया संस्थान सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रति उदासीन बने हुए हैं।
कई मीडिया संस्थान तो विरोध में ही कमर कसे बैठे रहते हैं। ऐसा नहीं है कि यह सब
कुछ पाठकों को पसंद हो। ऊपर प्रस्तुत सर्वेक्षण के परिणामों में हमने देखा है कि
पाठकों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रति पर्याप्त रूचि है लेकिन वे न केवल विवश
हैं, बल्कि आज के बाजार केंद्रित पत्रकारिता जगत में उनकी बहुत सुनवाई भी नहीं है।
एक समय था जब पाठकों की सुनी जाती थी। यह बहुत पुरानी बात भी नहीं है। १५-१६ वर्ष
पूर्व ही इंडिया टूडे द्वारा अश्लील चित्रों के प्रकाशन पर पाठकों द्वारा आपत्ति
प्रकट किए जाने पर उन चित्रों का प्रकाशन बंद करना पड़ा था। परंतु इन १५-१६ वर्षों
में परिस्थितियां काफी बदली हैं। आज पाठकों की वैसी चिंता शायद ही कोई मीडिया
संस्थान करता हो।
आशा की किरण
बहरहाल एक ओर हम जहां यह पाते हैं कि आज के मीडिया जगत में काफी गिरावट आई है और
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का स्वर कमजोर पड़ा है तो दूसरी ओर आशा की नई किरणें भी
उभरती दिखती हैं। आशा की ये किरणें भी इस संचार क्रांति से ही फूट रही हैं। आज
मीडिया जगत इलेक्ट्रानिक चैनलों से आगे बढ़ कर अब वेब पत्रकारिता की ओर बढ़ गया है।
वेब पत्रकारिता के कई स्वरूप आज विकसित हुए हैं, जैसे ब्लाग, वेबसाइट, न्यूज पोर्टल
आदि। इनके माध्यम से एक बार फिर देश की मीडिया में नए खून का संचार होने लगा है। इस
नए माध्यम का तौर-तरीका, कार्यशैली और चलन सब कुछ परंपरागत मीडिया से बिल्कुल अलग
और अनोखा है। जैसे, यहां कोई भी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत पत्रकारिता कर सकता है। वह
ब्लाग बना सकता है और वेबसाइट भी। हालांकि इन नए माध्यमों में सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद के प्रभाव का अध्ययन किया जाना अभी बाकी है लेकिन अभी तक जो रूझान दिखता
है, उससे कुछ आशा बंधती है। पत्रकारिता की इस नई विधा को परंपरागत पत्रकारिता में
भी स्थान मिलने लगा है और इसकी स्वीकार्यता बढ़ने लगी है। परिवर्तन तो परंपरागत
मीडिया में भी होना प्रारंभ हो गया है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रभाव समाचारों
और विचारों में झलकने लगा
है।
नई-नई पत्र-पत्रिकाएं इस मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए शुरू हो रही हैं। स्थापित
पत्र-पत्रिकाएं में भी ऐसे स्तंभ और स्तंभकारों को स्थान मिलने लगा है। आशा यही की
जा सकती है कि जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपनी जड़ों से कट कर नहीं रह सकता, वैसे ही
पत्रकारिता भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से कट कर नहीं रह पाएगी और शीघ्र ही वह
स्वाधीनता से पहले के अपने तेवर में आ जाएगी।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का भविष्य
आज पत्रकारिता एक अत्यंत प्रबल माध्यम बन चुका है। विश्व में कोई भी समाज इसको
दुर्लक्षित नहीं कर सकता। हम यदि इस अत्यंत सबल माध्यम में भारत का चिरन्तन तत्व भर
सकें तो भारत की मृत्युंजयता साकार हो उठेगी। साथ ही साथ हम राष्ट्र ऋण से भी स्वयं
को उऋण करने का प्रयास कर सकते हैं। अपनी भावी पीढ़ी को हम यदि गौरवशाली अतीत का
भारत बतायेंगे तो वही पीढ़ी भविष्य के सर्वसत्ता सम्पन्न भारत का निर्माण करेगी और
हमारी भारतमाता परमवैभव के सिंहासन साधिकार विराजमान होगी। जगद्गुरूओं का देश भारत
फिर मानवता को जाज्वल्यमान आलोक देगा इसी में जन-जन का कल्याण सन्निहित है क्योंकि
जो संस्कृति अभी तक दुर्जेय सी बनी है, जिसका विशाल मन्दिर आदर्श का धनी है। उसकी
विजय ध्वजा ले हम विश्व में चलेंगे।
१२ दिसंबर २०११ |