सामयिकी भारत से

खबरों की बदलती दुनिया की खबर लेता हुआ संजय द्विवेदी का आलेख-


समाचार चैनलों का मिक्स मसाला


भरोसा नहीं होता कि खबरें इतनी बदल जाएँगी।समाचार चैनलों पर खबरों को देखना अब मिक्स मसाले जैसे मामला है।खबरिया चैनलों की होड़ और गलाकाट स्पर्धा ने खबरों के मायने बदल दिए हैं।खबरें अब सिर्फ सूचनाएँ नहीं देती, वे विशिष्टता में बदल रही हैं।हर खबर का ताज़ा खबर में बदल जाना सिर्फ खबर को रोचक बनाना भर नहीं है।दरअसल, यह उसके चरित्र और प्रस्तुति का भी बदलाव है। खबरें अब निर्दोष नहीं रहीं।वे अब सायास हैं, कुछ सतरंगी भी।आज यह कहना मुश्किल है कि आप समाचार चैनल देख रहे हैं या कोई मनोरंजन चैनल।कथ्य और प्रस्तुति के मोर्चे पर दोनो में बहुत अंतर नहीं दिखता।

मनोरंजन चैनलों पर चल रहे रियालिटी शो, नृत्य संगीत और हास्य-व्यंग्य के तमाम कार्यक्रमों की पुनःप्रस्तुति को देखना बहुत रोचक है। समाचार चैनल इनसे होड़ लेने की दौड़ में समाचारों की प्रस्तुति को ज्यादा से ज्यादा नाटकीय और
मनोरंजक बनाने पर लगे हैं। ऐसे में उस सूचना का क्या हो जिसके इंतजार में दर्शक न्यूज चैनल पर आता है।

खबरों का खबर होना सूचना का उत्कर्ष है, लेकिन जब होड़ इस कदर हो तो खबरें सहम जाती हैं, सकुचा जाती हैं और किनारे खड़ी हो जाती हैं। खबर का प्रस्तोता स्क्रीन पर आता है और वह बताता है कि यह खबर आप किस नज़र से देखेंगे।पहले खबरें दर्शक को मौका देती थीं कि वह समाचार के बारे में अपना नज़रिया बनाए। अब खबर आपको अपना नज़रिया बनाने के लिए बाध्य करती है। आपको किस ख़बर को किस नज़रिए से देखना है, यह बताने के लिए छोटे पर्दें पर तमाम सुंदर चेहरे हैं जो आपको अपनी खबर के साथ बहा ले जाते हैं। ख़बर अपराध की है तो कुछ खतरनाक शक्ल
के लोग, खबर सिनेमा की है तो कुछ सुदर्शन चेहरे, ख़बर गंभीर है तो कुछ गंभीरता का लबादा ओढ़े चेहरे!

कुल मिलाकर मामला अब सिर्फ ख़बर तक नहीं है। ख़बर तो कहीं दूर बहुत दूर, खडी है…ठिठकी हुई सी। उसका प्रस्तोता बताता है कि आप ख़बर को इस नज़र देखिए।वह यह भी बताता है कि इस ख़बर का असर क्या है और इस खबर को देख कर आप किस तरह और क्यों धन्य हो रहे हैं! वह यह भी जोड़ता है कि यह ख़बर आप पहली बार किसी चैनल पर देख रहे हैं।दर्शक को कमतर और ख़बर को बेहतर बताने की यह होड़ अब एक ऐसी स्पर्धा में तब्दील हो गई है जहाँ ख़बर अपना असली व्यक्तित्व को खो देती है और वह बदल जाती है नारे में, चीख में, हल्लाबोल में या एक ऐसे मायावी संसार में जहाँ से कोई मतलब निकाल पाना ज्ञानियों के ही बस की बात है।

हर ख़बर कैसे ताज़ी या विशेष हो सकती है, यह सोचना ही रोचक है। टीवी ने खबर के शिल्प को ही नहीं बदला है।वह बहुत कुछ फिल्मों के करीब जा रही है, जिसमें नायक हैं, नायिकाएँ हैं और खलनायक भी।साथ मे है कोई जादुई निदेशक। ख़बर का यह शिल्प दरअसल खबरिया चैनलों की विवशता भी है। चौबीस घंटे के हाहाकार को किसी मौलिक और गंभीर प्रस्तुति में बदलने के अपने खतरे हैं, जो कुछ चैनल उठा भी रहे हैं। पर अपराध, सेक्स, मनोरंजन से जुड़ी खबरें मीडिया की आजमायी हुई सफलता का फंडा है। हमारी नैसर्गिक विकृतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली खबरें खबरिया चैनलों पर अगर ज्यादा जगह पाती हैं तो यह पूरा का पूरा मामला कहीं न कहीं टीआरपी से ही जाकर जुड़ता है। इतने प्रभावकारी माध्यम
और उसके नीति नियामकों की यह मजबूरी और आत्मविश्वासहीनता समझी जा सकती है।

बाजार में टिके रहने के अपने मूल्य हैं।ये समझौतों के रूप में मीडिया के समर्पण का शिलालेख बनाते हैं।शायद इसीलिए जनता का एजेंडा उस तरह चैनलों पर नहीं दिखता, जिस परिमाण में इसे दिखना चाहिए। समस्याओं से जूझता समाज, जनांदोलनों से जुड़ी गतिविधियाँ, आम आदमी के जीवन संघर्ष, उसकी सफलताएँ या विद्रूपताएँ हमारे मीडिया पर उस तरह प्रस्तुत नहीं की जाती कि उनसे बदलाव की किसी सोच को बल मिले।पर्दें पर दिखती हैं रंगीनियाँ, अपराध का अतिरंजित रूप, राजनीति का विमर्श और सिनेमा का हाहाकारी प्रभाव। क्या खबरें इतनी ही हैं? व्यक्ति और मनोरंजन की पत्रकारिता ह
मारे सिर चढ़कर नाच रही है। शायद इसीलिए मीडिया से जीवन का विमर्श, उसकी चिंताएँ और बेहतर समाज बनाने की तड़प की जगह सिकुड़ती जा रही है।कुछ अच्छी खबरें जब चैनलों पर साया होती हैं तो उन्हें देखते रहना एक अलग तरह का आनंद देता है।

एनडीटीवी ने ‘मेघा रे मेघा’ नाम से बारिश को लेकर अनेक क्षेत्रों से अपने नामवर रिपोर्टरों से जो खबरें करवाईं थीं वे अद्भुत थीं।उनमें भाषा, स्थान, माटी की महक, फोटोग्राफर, रिपोर्टर और संपादक का अपना सौंदर्यबोध भी झलकता है। प्रकृति के इन दृश्यों को इस तरह से कैद करना और उन्हें बारिश के साथ जोड़ना तथा इन खबरों का टीवी पर चलना एक ऐसा अनुभव है जो हमें हमारी धरती के सरोकारों से जोड़ता है। इस खबर के साथ न ताज़गी का दावा था न विशिष्टता का लेकिन वे न केवल देखी गई और महसूस भी की गई बल्कि ताज़ी और विशेष भी बन गईं।

कोकीन लेती युवापीढ़ी, राखी और मीका का चुंबन प्रसंग, करीना या सैफ अली खान की प्रेम कहानियों से आगे जिंदगी के ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जो इंतजार कर रहे हैं कि उनसे पास भी कोई रिपोर्टर आएगा और जहान को उनकी भी कहानी सुनाएगा। सलमान और कैटरीना की शादी को लेकर काफी चिंतित रहा मीडिया शायद उन इलाकों और लोगों पर भी नज़र डालेगा जो सालों-साल से मतपेटियों मे वोट डालते आ रहे हैं, इस इंतजार में कि इन पतपेटियों से कोई देवदूत निकलेगा
जो उनके सारे कष्ट हर लेगा !

लेकिन उनके भ्रम अब टूट चुके हैं। पथराई आँखों से वे किसी ख़बरनवीस की आँखों की प्रतीक्षा में हैं कि कोई आए और उनके दर्द को लिखे या आवाज़ दे।कहानियों में कहानियों की तलाश करते बहुत से पत्रकार और रिपोर्टर उन तक पहुँचने की कोशिश भी करते रहे हैं।यह धारा लुप्त तो नहीं हुई है लेकिन मंद जरूर पड़ रही है। बाजार की मार, माँग और प्रहार इतने गहरे हैं कि हमारे सामने दिखती हुई ख़बरों ने हमसे मुँह मोड़ लिया है।हम तलाश में हैं ऐसी कहानी की जो हमें रातों-रात नायक बना दे, मीडिया में हमारी टीआरपी सबसे ऊपर हो, हर जगह हमारे अखबार/चैनल की ही चर्चा हो। इस बदले हुए बुनियादी आदर्श ने खबरों को देखने का हमारा दृष्टिकोण बदल-सा दिया है।

हम खबरों को रचने की होड़ में हैं क्योंकि रची गई ख़बर विशेष तो होगी ही।विशिष्टता की यह तलाश कहाँ जाकर रूकेगी, कहा नहीं जा सकता।खबरें भी हमारा मनोरंजन करें, यह एक नया सच हमारे सामने है। खबरें मनोरंजन का माध्यम बनीं, तभी तो बबली और बंटी एनडीटीवी पर खबर पढ़ते नजर आए।टीआरपी के भूत ने दरअसल हमारे आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। इसलिए हमारे चैनलों के नायक हैं- राखी सावंत, बाबा रामदेव और राजू श्रीवास्तव। समाचार चैनल ऐसे ही नायक तलाश रहे हैं और गढ़ रहे हैं। कैटवाक करते कपड़े गिरे हों, या कैमरों में दर्ज चुंबन क्रियाएँ, ये कलंक
विज्ञापन के काम आते हैं। लांछन अब इस दौर में उपलब्धियों में बदल रहे हैं।

‘भोगो और मुक्त हो,’ यही इस युग का सत्य है। कैसे सुंदर दिखें और कैसे ‘मर्द’ की आँख का आकर्षण बनें यही टीवी न्यूज चैनलों का मूल विमर्श है। जीवन शैली अब ‘लाइफ स्टाइल’ में बदल गयी है। बाजारवाद के मुख्य हथियार ‘विज्ञापन’ अब नए-नए रूप धरकर हमें लुभा रहे हैं। नग्नता ही स्त्री स्वातंत्र्य का पर्याय बन गयी है। मेगा माल्स, ऊँची ऊँची इमारतें, डियाइनर कपड़ों के विशाल शोरूम, रातभर चलने वाली मादक पार्टियाँ और बल्लियों उछलता नशीला उत्साह। इस पूरे परिदृश्य को अपने नए सौंदर्यबोध से परोसते, उगलते न्यूज चैनल एक ऐसी दुनिया रच रहे है जहाँ बज रहा है सिर्फ देहराग, देहराग और देहराग। अब तो यह कहा जाने लगा है खबर देखनी है तो डीडी न्यूज पर जाओ, कुछ डिबेट देखनी है तो लोकसभा चैनल लगा लो।

हिंदी के समाचार चैनलों ने यह मान लिया है हिंदी में मनोरंजन बिकता है। अंधविश्वास बिकता है। बकवास बिकती है। राखी, राजू, सुनील पाल बिकते हैं। हालांकि इसके लिए किसी समाचार समूह ने कोई सर्वेक्षण नहीं करवाया है। किंतु यह आत्मविश्वासहीनता न्यूज चैनलों और मनोरंजन चैनलों के अंतर को कम करने का काम जरूर कर रही है। विचार के क्षेत्र में नए प्रयोगों के बजाए चैनल चमत्कारों, हाहाकारों, ठहाकों, विलापों की तलाश में हैं। जिनसे वे आम दर्शक की भावनाओं से खेल सकें। यह क्रम जारी है, जारी भी रहेगा। जब तक आप रिमोट का सही इस्तेमाल नहीं सीख जाते।

 

५ जुलाई २०१०