पाकिस्तानी संसद में पारित
१८वें संशोधन के विषय में
डॉ. वेदप्रताप
वैदिक की टिप्पणी-
प्रतीक्षा
किसी बड़े नेता की
पाकिस्तान जब से पैदा हुआ है, ज्यादातर वक्त वह फौज के
शिकंजे में कसा रहा। जाहिर है कि जिन्ना और लियाक़त के
सपनों का पाकिस्तान एक सपना ही है। लेकिन उसकी संसद ने
१८वाँ संशोधन क्या पास किया, बुझे हुए चिरागों में रोशनी
पैदा हो गई है। कई लोग मान रहे हैं कि राष्ट्रपति आसिफ
ज़रदारी ने ऐतिहासिक साहस और त्याग का परिचय दिया है।
उन्होंने अपने पर खुद ही कतर लिये हैं। अब राष्ट्रपति
अपनी मर्जी से प्रधानमंत्री या संसद को भंग नहीं कर
सकेगा। ज़रदारी अब जिया, इज़हाक या मुशर्रफ की तरह अपनी
तानाषाही नहीं चला सकेंगे। प्रधानमंत्री युसफ रज़ा गिलानी
अब पाकिस्तान के 'सीइओ' बन गए हैं। क्या यह सच है?
औपचारिक तौर पर यह सच है लेकिन वास्तविकता क्या है?
सच्चाई यह है कि अब भी सारी शक्तियाँ आसिफ जरदारी के पास
ही हैं। १८वें संशोधन की ९५ धाराओं में से कई ऐसी हैं,
जो उन्हें तानाशाह बना देती हैं। एक धारा के मुताबिक
पाकिस्तान के राजनीतिक दलों के मुखियाओं को यह अधिकार है
कि वे चाहें जिस सांसद को बर्खास्त कर सकते हैं याने
पार्टी अध्यक्ष चाहे तो प्रधानमंत्री को पार्टी से
निकालकर प्रधानमंत्री पद छोड़ने को मजबूर कर सकता है।
ज़रदारी नाम मात्र के राष्ट्रपति जरूर बन गए हैं लेकिन
उन्होंने संविधान से ऐसा अधिकार ले लिया है कि उनका
प्रधानमंत्री अब नाम मात्र का नेता रह गया है। पिछले
दिनों एक उप-चुनाव में गिलानी ने बहुत जोर लगाया लेकिन
वे अपने भाई को टिकिट नहीं दिला सके। वह ज़रदारी के चमचे
को ही मिला।
यह
मामला सिर्फ ज़रदारी और गिलानी के बीच का नहीं रह गया है।
सभी पाकिस्तानी पार्टियाँ खुश हैं क्योंकि सभी का
नेतृत्व परिवारवादी है। सभी पार्टियाँ प्राइवेट लिमिटेड
कंपनी की तरह चल रही हैं। मुस्लिम लीग (न) के अध्यक्ष
मियाँ नवाज़ शरीफ हैं और उनके छोटे भाई शाहबाज पंजाब के
मुख्यमंत्री हैं। मुस्लिम लीग (का.) के अध्यक्ष चौधरी
शुजात हुसैन हैं और उनके भाई परवेज़ भी मुख्यमंत्री थे।
पीपल्स पार्टी के अध्यक्ष बिलावल भुट्टो हैं और उनके
१८वें संशोधन में 'पार्टी अध्यक्ष' शब्द की जगह 'पार्टी
मुखिया' शब्द का इस्तेमाल किया गया है ताकि बिलावल की
जगह ज़रदारी असली शक्तियों का इस्तेमाल कर सकें। यह
प्रावधान बहुत ही आपत्तिजनक है, क्योंकि जो पार्टी
अध्यक्ष खुद संसद में नहीं चुना गया है या देश के बाहर
रहता है, वह या उसके द्वारा नामजद कोई भी पार्टी मुखिया
चुने हुए सांसद या मंत्री या प्रधानमंत्री को बर्खास्त
कर सकता है। इस संशोधन ने पार्टी के वार्षिक आंतरिक
चुनाव की अनिवार्यता भी खत्म कर दी है। याने अब
पाकिस्तान के सांसद अपने पार्टी-अध्यक्षों के
हाथ की कठपुतली बन
जाएंगें।
यह संशोधन अब ऐसे
प्रधानमंत्री को भी वैधता दे रहा है, जिसे संसद में
बहुमत प्राप्त नहीं है। याने पार्टी-अध्यक्ष जिसे चाहे
उसे अपनी पार्टी और संसद पर प्रधानमंत्री बनाकर थोप सकता
है। यदि अगले चुनाव में पीपल्स पार्टी को बहुमत न मिले
तो भी वह राज कर सकती है। इस संशोधन ने वह बंदिश भी उठा
ली है, जिसके कारण कोई व्यक्ति दो बार से ज्यादा लगातार
प्रधानमंत्री नहीं बन सकता था। नवाज शरीफ गदगद हैं।
दूसरे शब्दों में इस संशोधन ने १९७३ के संविधान के अनेक
प्रावधानों की वापसी की है और ज़िया व मुशर्रफ की
कारस्तानियों को रद्द किया है लेकिन जन-प्रतिनिधियों को
सच्ची सत्ता प्रदान नहीं की है। अब भी पाकिस्तान के
संविधान का मूल स्वरूप सामंती है।
इस संशोधन में यदि ये सामंती प्रावधान नहीं होते तो क्या
पाकिस्तान में लोकतंत्र आ जाता? इसमें भी शक है। आज भी
पाकिस्तान की असली मालिक फौज ही है। सत्ता के बटखरों को
एक पलड़े से दूसरे पलड़े पर रख देने से तराजू का चरित्र
नहीं बदलता। यदि असली शक्तियाँ राष्ट्रपति से लेकर
प्रधानमंत्री को दे दी जाती तो भी क्या हो जाता? क्या
पाकिस्तान का कोई प्रधानमंत्री फौज की सहमति के बिना
अपने बालों में कंघी भी कर सकता है? प्रधानमंत्री
मोहम्मद अली, जुल्फिकार अली भुट्टो और मियाँ नवाज की
मिसालें हमारे सामने हैं। पाकिस्तान नामक राष्ट्र का
असली एजेंडा अपनी जनता की सेवा, खुशहाली और मजबूती नहीं
है बल्कि सिर्फ एकसूत्री है-- वह है, भारत से अपनी
रक्षा। भारत-भय ही आज तक पाकिस्तान की राजनीति का सबसे
बड़ा निर्णायक-तत्व बना हुआ है। पाकिस्तान की संसद, जनता
या नेता इस भारत-भय के विरुद्ध एकमात्र गारंटी है। इसी
लिए १८वाँ संशोधन कितनी ही उठापटक कर ले, पाकिस्तानी फौज
जिस दिन चाहेगी,
पाकिस्तान-सरकार को उठाकर पटक मारेगी। इसीलिए इस संशोधन
का भारत-पाक संबंधों पर कोई नाटकीय प्रभाव नहीं होगा।
इसका यह अर्थ नहीं है कि १८वाँ संशोधन बिल्कुल निरर्थक
है। इससे पाकिस्तान की आंतरिक विसंगतियाँ दूर होंगी।
पाकिस्तान के प्रांतों को पहली बार काफी अधिकार मिले
हैं। प्रांतों की प्राकृतिक संपदा पर केंद्र और उनका
बराबरी का हक होगा। प्रांतों के अपने नागरिक ही उनके
राज्यपाल होंगे। राज्यपालों के अधिकारों में कटौती करके
प्रांतीय विधानसभाओं की शक्तियाँ बढ़ाई गई हैं। सरकारी
नौकरियों में प्रांतीय प्रतिनिधित्व को सुधारा जाएगा।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का मुसलमान होना अनिवार्य है
लेकिन मुख्यमंत्रियों पर से यह अनिवार्यता हटा दी गई है।
बलूच और सिंधी राष्ट्रवादी इन कदमों से संतुष्ट नहीं हैं
लेकिन इसमें शक नहीं कि अब 'पंजाबी दादागीरी' का पुराना
आरोप थोड़ा पतला पड़ेगा। सरहदी सूबे को 'खैबर-पख्तूनख्वाह'
नाम देकर पठानों के ज़ख्मों पर मरहम जरूर लगाया गया है
लेकिन अब इसी सूबे के हज़ारा लोगों ने बगावत की राह पकड़
ली है। सराइकी भाषी भी अब अलग प्रांत की मांग कर रहे
हैं। कई नए सिरदर्द खड़े हो रहे हैं। इस संशोधन मे जजों
की नियुक्ति अधिक पारदर्शी बनाने का प्रावधान किया है।
लेकिन उसे भी अदालत में चुनौती दी जा रही है।
इस संशोधन ने फौजी तख्ता-पलटों को गैरकानूनी करार दिया
है और 'मजबूरी के सिद्धांत' को रद्द कर दिया है लेकिन
अगर फौज तख्ता पलट कर ही देगी तो नेता क्या कर लेंगे?
उन्हें उसे मजबूरी में मानना ही पड़ेगा। जिन्ना द्वारा
खड़े किए गए इस नकली राष्ट्र को पटरी पर लाने के लिए
संविधान के प्रावधान काफी नहीं हैं। जरूरी यह है कि उसका
मूल एजेन्डा बदले। यह काम कोई बड़ा नेता ही कर सकता है।
क्या पाकिस्तान के किसी वर्तमान नेता के दिल में कोई ऐसी
महत्त्वाकांक्षा है?
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