सामयिकी भारत से

आर्थिक विकास की संभावनाओं और घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों पर गिरीश मिश्र के विचार-


भारतीय अर्थव्यवस्था का भविष्य


हमारी अर्थव्यवस्था विकसित देशों में पैदा होकर सर्वत्र फैली अति मंदी के चंगुल से काफी कुछ बाहर आ गई है और उसने आर्थिक विकास के मार्ग पर बढने की रफ्तार तेज कर दी है। हमारी वार्षिक विकास की दर २००७ में अतिमंदी का दौर शुरू होने के पूर्व, यानी २००६-०७ में ९.७ प्रतिशत हो गई थी और भारतीय अर्थव्यवस्था एशिया में तीसरे स्थान पर चीन और जापान के बाद पहुँच चुकी थी। उम्मीद की जा रही थी कि अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो वह जापान को पीछे धकेल कर दूसरे स्थान पर काबिज हो जाएगी। कुछ लोग भारत के महाशक्ति बनने का सपना भी देखने लगे थे। किन्तु, दुर्भाग्यवश अतिमंदी के कारण विकास दर में भी सुस्ती आई और वह २००७-०८ में ९.२ प्रतिशत तथा २००८-०९ में ६.७ प्रतिशत पर आ गई।

वर्तमान वित्तीय वर्ष २००९-१० में आशा है कि वह ७.२ प्रतिशत पर पहुँच जाएगी। जो भी हो, भारतीय अर्थव्यवस्था को उतना नुकसान नहीं हुआ है जितना कई अन्य देशों को हुआ है। इसका एक बडा कारण नेहरू-इंदिरा युग की आर्थिक नीतियों को नहीं छोडना रहा है। कांग्रेस-नीत संप्रग की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी ने कई महीने पहले 'हिन्दुस्तान टाइम्स' द्वारा आयोजित एक समारोह में इस तथ्य को रेखांकित किया था। यहाँ हम इसके समर्थन में दो बातों का उल्लेख करना चाहेंगे। पहली, नवउदारवाद के गढ़, शिकागो स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स से अभिन्न रूप से जुडे रघुराम जी राजन (जो कभी अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के मुख्य आर्थिक सलाहकार थे) की अध्यक्षता में बनी एक समिति ने भारतीय मुद्रा को पूँजी खाते में पूर्ण परिवर्तनीय बनाने के सलाह दी थी। मगर परिस्थितियों में बदलाव के कारण इसे लागू नहीं किया जा सका था। जब देश में खेतिहरों द्वारा आत्महत्या करने की दुखद घटनाओं को देखते हुए सरकार ने कर्जमाफी जैसी कदम उठाए तब इन्हीं राजन साहब ने उसका जोरदार विरोध किया। उनका कहना था कि इससे कर्जादरों की आदतें बिगड़ने का खतरा पैदा होगा- लोग कर्ज लेंगे मगर नहीं लौटाएँगे क्योंकि वे यह मानकर चलेंगे कि देर-सबेर उसे सरकार माफ कर देगी।

दूसरी ओर, कौशिक बसु ने, जो अभी भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं, 'हिन्दुस्तान टाइम्स' में अपने नाम से एक पत्र लिखकर राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना का विरोध किया क्योंकि उनके अनुसार इससे काहिलपन बढेग़ा। कई 'ज्ञानी' लोगों के हवाले से लंदन के दैनिक पत्र 'फाइनेंसियल टाइम्स' (२५ फरवरी) ने लिखा है कि इस योजना से गाँव के गरीबों को रोजगार और मजदूरी मिलने से खाद्यान्नों की माँग बढ़ रही है जिससे उनकी कीमतों में इजाफा हो रहा है। पिछले वर्ष की तुलना में इस साल खाद्य पदार्थों की कीमत १८ प्रतिशत बढी है। अगर यह तर्क सही है तो देश में गरीबी बढनी चाहिए जिससे क्रयशक्ति के अभाव में माँग और परिणामत: कीमतें नहीं बढेंगी। मप्र के पूर्व राज्यापाल बलराम जाखड़ के रिश्तेदार अजय जाखड जो भारत कृषक समाज के अध्यक्ष हैं, नरेगा के विरुद्ध हैं क्योंकि उनके अनुसार खेतिहरों की परेशानी बढ गई है। कारण है: मजदूरों द्वारा मजदूरी की ऊँची दर की माँग। इस सबके कारण हमारे देश में मनोरोगियों की संख्या बढ रही है।

'आर्थिक समीक्षा के अनुसार विनिर्माण क्षेत्र मंदी के दौर से लगता है कि बाहर आने लगा है। उसकी विकास दर २००६-०७ में १४.९ प्रतिशत थी जो घटकर २००७-०८ में १०.३ और २००८-०९ में ३.२ प्रतिशत पर आ गई थी। चालू वर्ष में उसके ८.९ प्रतिशत होने की आशा की जा रही है। इसके विपरीत, कृषि क्षेत्र की स्थिति चिन्ताजनक बनी हुई है। कृषि उत्पादन की विकास दर २००७-०८ में ४.७ प्रतिशत थी जो २००८-०९ में १.६ प्रतिशत हो गई। आशंका है कि चालू वर्ष में उसमें ऋणात्मक यानी -०.१ प्रतिशत की विकास दर्ज होगी। याद रहे कि कृषि क्षेत्र पर हमारी ६० प्रतिशत जनसंख्या रोजी-रोटी के लिए निर्भर है। अत: कृषि क्षेत्र की पैदावार में गिरावट से हमारी बहुसंख्यक जनसंख्या प्रभावित होगी। दक्षिण पश्चिम मानसून का बुरा होना ही इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। राज्य भी काफी हद तक उत्तरदायी है।

कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश अपर्याप्त रहा है। सिंचाई की सुविधाओं का पर्याप्त विस्तार नहीं हो रहा है। नेहरू-इन्दिरा काल में बनी नहरों का नियमित सफाई न होने के कारण उसमें रेत जम जाने के कारण उनकी सिंचाई क्षमता कम होती जा रही है। सडक़ों, बिजली, कीमत प्रबंधन आदि की स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में चीनी मिलों में ताला लगने के बाद नकदी फसलों को उगाने के अवसर तेजी से घटे हैं। इन सब कारणों से गरीबी बढती जा रही है। गाँवों से शहरों की ओर पलयान और नगरों में मलिन बस्तियों के विस्तार में तेजी आई है।

हाल में आई गरीबी से जुडी सुरेश तेंदुलकर और अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्टों की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र के एक अध्ययन के अनुसार अतिमंदी ने २००८-०९ में ही ३ करोड चार ४० लाख लोगों की गरीबी की रेखा के नीचे धकेल दिया है। जनगणना के आंकड़ों के अनुसार १९९१ और २००१ के बीच ८० लाख कृषि क्षेत्र से अन्यत्र पलायन कर गए। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद सिर्फ २००८ में १६,१३६ खेतिहरों ने आत्महत्या कर ली। १९९७ और २००८ के बीच कुल मिलाकर १,९९,१३२ खेतिहरों द्वारा आत्महत्या की गई।

'आर्थिक समीक्षा' के अध्याय दो के लेखक हैं सरकार के मख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु। इसमें उन्होंने समावेशी विकास की अवधारणा की विस्तार से व्याख्या करने तथा यह बतलाने की कोशिश की है कि यह नया विचार है। वस्तुत ऐसा कुछ भी नहीं है। यह एक पुरानी और बदनाम अवधारणा 'ट्रिकल डाउन' सिद्धांत को नए परिधान में प्रस्तुत करने की कोशिश है। इस सिद्धांत का मानना है कि सरकार को राष्ट्रीय आय के वितरण को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यदि अधिकांश राष्ट्रीय आय थोड़े से लोगों के पास जाती है तो चिंतित नहीं होना चाहिए। अंतत: उस आय का एक बडा भाग रिस या टपक कर निचले तबकों को प्राप्त होगा। नवउदारवादी वाशिंगटन आम राय पर आधारित भूमंडलीकरण के पक्षधरों का इसमें अटूट विश्वास है। हमारे योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने इसके समर्थन में कई शोध पत्र लिखे हैं। मगर कई लोग इसे गलत और अमानवीय मानते हैं। दिवंगत प्रो. गालब्रेथ ने कहा था कि यह बहुत कुछ वैसे ही है जेसे किसी छकड़े को काफी दाना खिलाया जाय जिससे उसकी लीद में कुछ दाने बाहर आ जाएँ जिनको चुगकर गौरेयाँ जिन्दा रहें। साज सज्जा जो भी हो 'समावेशी विकास' और 'ट्रिकल डाउन' सिद्धान्त में सारत: कोई अंतर नहीं है। हम कह सकते हैं कि जब धनवानों की बारात चलेगी तो हाथी, घोडा, पालकी, रॉल्सरॉयस आदि पर सभ्रांत लोग चलेंगे और साथ-साथ चँवर डुलने और झाडू लगाने वाले ही होंगे। वधू के घर पर सबको हैसियत के अनुसार खाना पीना मिलेगा कोई भूखा न रहेगा।

नवउदारवादी चिन्तन का प्रभाव वित्तमंत्री के भी बजट भाषण में स्पष्ट रूप से दिखता है। उनके अनुसार अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका सक्रिय और मुख्य न होकर सहायक की होगी। मुख्य भूमिका निजी क्षेत्र और बाजार की होगी। राज्य सिर्फ सहयोग करेगा। नवउदारवादी चिंतन में फैसिलिटेटर शब्द का इस्तेमाल हुआ है। अर्थ की दृष्टि से दोनों शब्द एक दूसरे के पर्याय हैं। श्री मुखर्जी के शब्दों में राज्य एक ऐसा वातावरण बनाएगा जिसमें निजी क्षेत्र बाजार द्वारा संचालित हो। वित्त मंत्री ने रेखांकित किया है: 'संघीय बजट सरकारी लेखा का विवरण मात्र नहीं हो सकता। उसे सरकार की दृष्टि और भावी नीतियों को प्रतिबिम्बित करना चाहिए।' इस प्रकार श्री मुखर्जी ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत सरकार की नीतियाँ अब राष्ट्रीय आंदोलन तथा नेहरू-इंदिरा युग की प्रतिबद्धताओं से दूर चली गई है। वे अब नवउदारवादी चिंतन को प्रतिबिम्बित करेंगी। सर्वोच्च स्थान पर राज्य नहीं बल्कि बाजार बैठेगा। वह जमाना लद गया जब बाजार समाज में सन्निहित था।

अब बाजार समाज पर हावी है। आर्थिक विकास का उद्देश्य समाज में समता और क्षेत्रीय दृष्टि से संयतुलन लाना नहीं रह गया है। अनेक देशी-विदेशी शक्तियाँ बेचैन हैं। वे चाहती हैं कि नवउदारवादी आर्थिक चिन्तन को तेजी से पूरी तरह लागू कर दिया जाए। 'फाइनेंशियल टाइम्स' के जेम्स लेमात ने फरवरी ४ के अंक में लिखा कि डॉ. मनमोहन सिंह ७७ वर्ष की आयु पार कर चुके हैं। अगली बार वे शायद प्रधानमंत्री नहीं बन पाएँ। हो सकता है कि राहुल गांधी उनकी जगह लें जिनका वास्ता नेहरू-गांधी परिवार के साथ है। अत: इस शंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि वे नवउदारवादी चिंतन को धत्ता बता कर नेहरूवादी चिंतन को अपना लें। इसलिए तत्काल प्राप्त अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। 'वॉल स्ट्रीट जर्नल के दक्षिण एशिया ब्यूरो प्रधान पॉल बेकेट ने प्रणब मुखर्जी के नाम एक खुला पत्र प्रकाशित कर कहा है कि अब वामपंथियों का दबाव नहीं है और भाजपा ने खुद ही अपना बंटाधार कर लिया है। अत: नवउदारवादी आर्थिक सुधार कार्यक्रम की गाड़ी स्पष्ट दौड़नी चाहिए। यह पत्र बजट पेश होने के एक दिन पूर्व यानी २५ फरवरी को छपा था। अब देखना है कि आने वाले समय में सरकार आम आदमी के साथ अपनी प्रबिद्धता तथा नवउदारवादी चिंतन की अपेक्षाओं के बीच कैसे तालमेल बिठाती है।

२९ मार्च २०१०