भारत
में आतंकवादी हमलों के परिप्रेक्ष्य में हाल की घटनाओं
का उल्लेख करते हुए ओमकार
चौधरी का आलेख-
भारत की
सुरक्षा चिंताएँ
मुंबई
पर हमले के चौदह महीने बाद तक देश में कोई बड़ा आतंकवादी
हमला नहीं हुआ। अब पुणे में एक बेकरी को निशाना बनाया
गया तो तमाम तरह की नुक्ताचीनी शुरू हो गई है। क्या हम
आश्वस्त हो सकते हैं कि भारत अब सुरक्षित है? यह सही है
कि पहले के मुकाबले गृह मंत्रालय ज्यादा चुस्त-चौकस नजर
आ रहा है। केन्द्र और राज्यों के बीच बेहतर तालमेल और
सूचनाओं का आदान-प्रदान हो रहा है। सूचनाओं पर त्वरित
कार्रवाई भी होती दिख रही है। केन्द्र सरकार ने
राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन कर दिया है। अवैध गतिविधि
निरोधक अधिनियम को और कड़ा बना दिया गया है। समुद्री
किनारों की सुरक्षा चाक चौबंद कर दी गई है, लेकिन क्या
इतने भर से यह मान लेना सही होगा कि खतरा टल गया है और
अब आतंकवादी वारदातें नहीं होंगी? भारतीय निजाम को न तो
इस तरह की खुशफहमी पालनी चाहिए और अच्छी बात यह है कि
उसने पाली भी नहीं है। अभी बहुत से मोर्चे हैं, जिन पर
काम करने की जरूरत है। हमारे सुरक्षा और खुफिया तंत्र
में भारी खामियाँ हैं, जिन्हें जल्द से जल्द दूर करना
होगा। राज्य सरकारों को और संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से
काम करना होगा।
सुरक्षा विशेषज्ञों का यह मानना है कि विगत एक साल में
यदि आतंकवादी कोई संगीन वारदात नहीं कर पाए हैं, तो इसकी
वजह कुछ हद तक सरकारी चौकसी है और बड़ा कारण पाकिस्तान
के अंदरूनी हालात हैं। आईएसआई, वहाँ की सेना के भारत
विरोधी मानसिकता के अफसर और सरकार जेहादियों से जूझ रहे
हैं। लगभग प्रतिदिन वहाँ किसी न किसी शहर में बड़ी
आतंकवादी वारदात हो रही है, जिनमें बेकसूर लोग मारे जा
रहे हैं। सेना, पुलिस, अधिकारी और नेता उन जेहादियों के
निशाने पर हैं जो अपने अस्तित्व की जंग लड़ रहे हैं।
पहले जम्मू-कश्मीर और भारत उनके एजेंडे में पहले स्थान
पर थे, अब वे थोड़ा नीचे खिसक गए हैं। वेद मारवाह ने हाल
में एक पत्रिका से कहा कि भारत से खतरा टला नहीं है।
वहाँ जंग जीतने या हारने की सूरत में उनकी बंदूकों की
नाल भारत की ओर होंगी। उनका जाल और ढाँचा बरकरार है।
सवाल है कि यदि खतरा कम नहीं हुआ है तो क्या हमारी
सुरक्षा-खुफिया एजेंसियाँ और सरकारें पहले के मुकाबले ऐसे हालातों का सामना करने के लिए बेहतर तैयारियों के
साथ कमर कसकर तैयार हैं? जवाब है- नहीं। यह सही है कि गृह
मंत्री के तौर पर पी चिदम्बरम के काम-काज ने माहौल बदला
है, लेकिन क्या हर स्तर पर अधिकारी उतनी ही मुस्तैदी से
सुरक्षा को चाक-चौबंद करने में जुटे हैं? यह नहीं भूलना
चाहिए कि भारत की सुरक्षा को अब बाहर से नहीं, भीतर से
भी गंभीर खतरा उत्पन्न होता दिख रहा है। नक्सली आंदोलन
अब असहनीय हिंसा के रास्ते पर बढ़ चुका है। जो लोग अब तक
इसे सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समस्या बताकर नक्सलियों
से वार्ता शुरू कर उन्हें विकास की मुख्य धारा में वापस
लाने की पैरवी करते थे, उनके माथे पर शिकन नजर आने लगी
है। १९६७ में बहुत छोटे से क्षेत्र से शुरू हुआ
नक्सलबाड़ी आंदोलन देखते देखते बीस राज्यों तक विस्तार
पा चुका है। जाहिर है, अब नक्सलवादी कानून-व्यवस्था को
छिन्न-भिन्न कर सरेआम सत्ता को चुनौती देने लगे हैं।
यह सही है कि सीमा पार के आतंकवाद में कमी आई है। इसकी
वजह भारत की ओर से शुरू की गई कूटनीतिक लड़ाई भी है।
पाकिस्तान के अंदरूनी हालात भी और उस पर अमेरिका सहित
अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का दबाव भी, लेकिन यह हालत हमेशा
रहने वाली नहीं है। पाकिस्तानी हकूमत कश्मीर का राग अभी
भी पहले की तरह अलाप रही है। वहाँ के कुछ सिरफिरे मंत्री
अब भी आतंकवादियों की करतूत को जेहाद बताकर आग से खेलने
की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए भारत को वे तमाम सुरक्षा
उपाय करने ही होंगे, जिनसे अतंकवादियों की घुसपैठ रुके।
घुसपैठ कर भी जाएँ तो वारदात नहीं करने पाएँ। कर दें तो
जल्द से जल्द उन्हें कठोर सजा मिले। इसके लिए कड़े कानून
बनाने, सुरक्षा-खुफिया एजेंसियों को चाक चौबंद करने,
सरकारों की एप्रोच में बुनियादी अंतर लाने और खासकर
सुरक्षा तंत्र को जवाबदेह बनाने की जरूरत है। |