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                           बीते 
                          हुए वर्ष की प्रमुख साहित्यिक कृतियों पर विभिन्न आलोचकों की 
                          टिप्पणियों का संकलन 
 
                          
                  वर्ष २००९ में हिंदी का साहित्यिक परिदृश्य 
 
                          कविता का क्षितिज व्यापक हुआ इस साल 
                          कई अच्छी किताबें आई हैं। इनमें कुछ कविता संग्रह हैं। 
                          लेकिन उनका उल्लेख करने से पहले मैं वर्ष २००९ की एक खास 
                          बात बताना चाहूँगा। इस साल हिंदी में अपनी तरह का एक नया 
                          प्रकाशन जुड़ा है। इस साल कृष्णा सोबती के लंबे 
                          कहानीनुमा उपन्यास 'मित्रो मरजानी' की टाइपोग्राफिक 
                          व्याख्या करती किताब आई है। इसे तैयार करने में नरेंद्र 
                          श्रीवास्तव ने जबर्दस्त कल्पनाशीलता का परिचय दिया है। 
                          नरेंद्र देवनागरी लिपि को सुंदर बनाने के विशेषज्ञ हैं। 
                          कविता की जिस किताब ने इस वर्ष मुझे बेहद आकर्षित किया 
                          है, वह है राकेश रंजन की 'चाँद में अटकी पतंग'। हालाँकि 
                          इसका शीर्षक मुझे बहुत पसंद नहीं आया, लेकिन इसमें कई 
                          कविताएँ बहुत अच्छी हैं। पारंपरिक काव्य भाषा से हटकर इस 
                          संग्रह की कविताओं की भाषा बहुत भदेस है। पर इस 
                          उबड़-खाबड़ भाषा का इन कविताओं में अत्यंत रचनात्मक 
                          प्रयोग हुआ है। इसी तरह सुंदर चंद ठाकुर के कविता संग्रह 
                          'एक दुनिया है असंख्य' की कविताएँ भी काफी अच्छी हैं।
                           मैं 
                          काव्य में छंदों का बड़ा आग्रही रहा हूँ। लेकिन इन दिनों 
                          काफी प्रयोग हो रहे हैं, जो आकर्षक हैं। असल में, भाषा 
                          और शिक्षा के प्रसार से भावबोध का जनतांत्रीकरण हो रहा 
                          है। पहले सिद्धहस्त लोग कविता करते थे। अब बड़ी संख्या 
                          में सामान्य लोग लिख रहे हैं। ऐसे में, कभी-कभी साधारण 
                          लोगों द्वारा भी असाधारण कविताएँ लिखी जा रही हैं। 
                          बहरहाल, इस वर्ष की साहित्यिक उपलब्धियों में मैं पहाड़ 
                          से निकलने वाली पत्रिका आधारशिला का जिक्र जरूर करूंगा। 
                          वाचस्पति इसके संपादक हैं। इसका त्रिलोचन अंक बहुत ही 
                          अच्छा है। इसी तरह, कबीर पर पुरुषोत्तम अग्रवाल की 'अकथ 
                          कहानी प्रेम की' साल की महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। वरिष्ठ 
                          कथाकार हृदयेश का आत्मकथात्मक उपन्यास 'जोखिम' भी २००९ 
                          की एक उपलब्धि है। 
 (विश्वनाथ त्रिपाठी, वरिष्ठ आलोचक)
 
 
                          किसी ने नहीं तोड़ी नई जमीन
 
  किसी 
                          ने इस साल नई जमीन नहीं तोड़ी। ऐसी कोई किताब नहीं आई, 
                          जिसकी साल भर निर्विवाद चर्चा रही हो। ज्यादातर कविता व 
                          कहानी संग्रहों और उपन्यासों में नयापन कम और दोहराव 
                          ज्यादा देखने को मिला। अलबत्ता कुछ पत्रिकाओं के 
                          विशेषांकों ने साहित्य जगत में हलचल मचाई। कुछ नए 
                          साहित्यकारों ने आषाढ़ की बारिश में माटी की खुशबू का 
                          एहसास कराया। वसुधा के कहानी पर आधारित दो विशेषांक, नया 
                          ज्ञानोदय के कहानी विशेषांक आए। अजय नावरिया के संपादन 
                          में हंस के दो युवा कहानी विशेषांक प्रकाशित हुए। इन 
                          अंकों ने साहित्य जगत का ध्यान जरूर आकृष्ट किया। वसुधा 
                          और ज्ञानोदय की तो खूब चर्चा रही। कविता और कहानियों के 
                          जो संग्रह आए, उनमें कुछ नवोदित रचनाकारों ने ध्यान जरूर 
                          खींचा। उमाशंकर चौधरी के कविता संग्रह 'मरते हैं पर 
                          शहंशाह सो रहे थे' और पवन करण के 'अस्पताल के बाहर 
                          टेलीफोन' की कविताओं ने ताजगी का एहसास जरूर कराया। 
                          सूरजपाल चौहान के कहानी संग्रह 'नया ब्राह्मण' ने भी 
                          ध्यान खींचा। उपन्यासों में तीन कृतियों की ओर लोगों का 
                          ध्यान गया। राजू शर्मा के 'विसर्जन', अखिलेश के 
                          'अन्वेषण' और अजय नावरिया के 'उधर के लोग' में माटी की 
                          सोंधी महक का एहसास हुआ। आलोचना में लखनऊ के वीरेंद्र 
                          यादव की रचना उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता ने भी ध्यान 
                          खींचा है। उसमें ताजगी दिखाई देती है। कविताओं के लिए 
                          अंकुर पुरस्कार और कहानियों के लिए रमाकांत स्मृति 
                          पुरस्कार प्राप्त करने वाले मिथिला के उमाशंकर चौधरी 
                          रहते तो दिल्ली में हैं, लेकिन उनकी रचनाओं में 
                          मिथिलांचल के लोकरंग और हकीकत की सुगंध दोनों मिलती है। 
                          इंदौर के सत्यनारायण पटेल पुलिसकर्मी हैं, लेकिन जमीनी 
                          हकीकत को उन्होंने अपनी कालबेलिया में पेश किया है। 
                          हजारीबाग के पंकज मित्र फणीश्वर नाथ रेणु की परंपरा का 
                          संवहन कर रहे हैं। तीनों युवा रचनाकारों में संभावना 
                          दिखाई देती है। 
 (काशीनाथ सिंह, प्रसिद्ध कहानीकार)
 
                           
 
                          आलोचना विधा के लिए उम्मीद 
                          
 आलोचना की विधा में इस वर्ष मुख्यत: तीन किताबें ऐसी रही 
                          हैं, जिन्हें मैं याद करना चाहूँगा। पहली तो, अंतिका 
                          प्रकाशन से निकली सुरेंद्र चौधरी की तीन किताबों की 
                          सीरीज है। ये किताबें हैं- 'साधारण की प्रतिज्ञा: अंधेरे 
                          से साक्षात्कार', 'इतिहास : संयोग और सार्थकता' और 
                          'हिंदी कहानी : रचना और परिस्थिति'। स्व. सुरेंद्र चौधरी 
                          की गिनती पिछले दौर के सर्वश्रेष्ठ आलोचकों में होती रही 
                          है। उनकी लेखनी की यही विशेषता रही कि उन्होंने रचना को 
                          सामाजिक संदर्भ और ऐतिहासिक दृष्टि से देखा। हालाँकि 
                          उनकी अधिकांश सामग्री बिखरी हुई है, लिहाजा ये तीन 
                          किताबें आगे चलकर महत्वपूर्ण हो सकती हैं। दूसरी किताब, 
                          जो मुझे आलोचना विधा में पसंद आई, वह है अभिषेक रौशन की 
                          'बालकृष्ण भट्ट' और आधुनिक हिंदी आलोचना का 'आरंभ'। इस 
                          किताब को तैयार करने में काफी मेहनत की गई है। अब तक के 
                          उपलब्ध-अनुपलब्ध लेखों का अध्ययन कर हिंदी आलोचना का 
                          इतिहास इसमें दिखाने का सार्थक प्रयास किया गया है। इसी 
                          तरह, बादल सरकार पर आलोचनात्मक शैली में लिखी गई अशोक 
                          भौमिक की 'बादल सरकार : व्यक्ति और रंगमंच' को भी मैं इस 
                          साल की बेहतरीन किताबों में से एक कहूँगा। अशोक भौमिक 
                          चित्रकार हैं, किंतु बंगाल के प्रसिद्ध नाटककार बादल 
                          सरकार के व्यक्तित्व व कामों पर लिखी यह किताब आलोचना 
                          विधा में अलग पहचान बनाती है। उपन्यास की बात करें, तो 
                          मृदुला गर्ग का 'मिलजुल मन' मुझे अच्छा लगा। मृदुला जी 
                          के दूसरे उपन्यासों की तरह इसमें भी मध्यवर्गीय जीवन की 
                          समस्याओं, विडंबनाओं और कठिनाइयों की अभिव्यक्ति की गई 
                          है। इसी तरह, झारखंड के रणेंद्र भी इस साल अपने उपन्यास 
                          ग्लोबल गाँव के देवता से अलग पहचान बनाते हैं। 
                          आदिवासियों के शोषण, दमन और त्रासदी की दर्दनाक 
                          अभिव्यक्ति इस उपन्यास से इतर नहीं मिल सकती।
 
 
 (मैनेजर पांडेय, चर्चित आलोचक)
 
                           
 
                          कुछ यादगार किताबों का वर्ष
 मेरी समस्या यह है कि मैं केवल पढ़ने के लिए नहीं पढ़ 
                          पाता। उम्र के इस मोड़ पर आने के बाद मैं वही किताबें 
                          पढ़ पाता हूँ, जो रचनात्मक स्तर पर बेहतर होने के साथ 
                          तार्किकता की कसौटी पर भी खरी उतरें। अब किताबों को 
                          चर्चित करने के पीछे बाजार का भी दबाव होता है। फिर भी 
                          इस साल मैंने कुछ यादगार किताबें पढ़ी हैं। इनमें सबसे 
                          पहले मैं अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास 'अपवित्र 
                          आख्यान' का नाम लूँगा। हालाँकि यह किताब पिछले साल छपी 
                          है, लेकिन मैंने इस साल इसे पढ़ा। इसमें हिंदू-मुसलिम 
                          रिश्तों को जिस तरह से व्याख्यायित किया गया है, वह बेहद 
                          प्रभावित करता है। इसमें जो तार्किकता, ईमानदारी और 
                          भावात्मक सघनता है, उसकी तारीफ करनी ही पड़ेगी। नवीन 
                          नैथानी के कहानी संग्रह सौरी की कहानियाँ भी मुझे अच्छा 
                          लगा। रोमांटिकता और रहस्य उनकी इस संग्रह की कहानियों 
                          में भी हैं, जो उनकी कहानियों की एक खास पहचान ही है। 
                          स्थानीय रंग उनकी रचनाओं को खास पहचान देते हैं। एक 
                          लैटिन अमेरिकी उपन्यासकार रॉबर्टो बोलानो के उपन्यास 
                          २६६६ को भी मैंने इस साल पढ़ा। इसमें आस्था और 
                          अंधविश्वास के बीच जैसा संघर्ष है और भावनाओं और 
                          संवेदनाओं के जो ब्योरे हैं, वे विस्मित करने वाले हैं। 
                          लैटिन अमेरिकी देशों में ज्यादातर तानाशाही रही है, 
                          इसीलिए बोर्खेज, मार्खेज और रॉबर्टो बोलानो जैसे 
                          उपन्यासकार उसके खिलाफ लिखते हुए जादुई यथार्थवाद की 
                          शैली अपनाते हैं। किश्वर देसाई की लिखी नरगिस की जीवनी 
                          डार्लिंग जी का हिंदी अनुवाद भी मुझे अच्छा लगा। यह 
                          किताब सुनील दत्त और नरगिस से जु़डी कई नई जानकारियाँ तो 
                          देती है, इसका इंडेक्स भी आँखें खोल देने वाला है। 
                          फिल्मों आदि पर इस तरह की किताबें हिंदी में शायद ही 
                          देखी जाती हों। अंत में मैं पुष्पराज की नंदीग्राम डायरी 
                          का उल्लेख करना चाहूँगा। हालाँकि मैं लेखक की स्थापनाओं 
                          से सहमत नहीं हूँ। लेकिन घटनास्थल में जोखिमों के बीच 
                          रहकर जिस तरह यह किताब लिखी गई, उस प्रयास को अनदेखा 
                          नहीं कर सकते।
 
 (पंकज बिष्ट, विरष्ठ कथाकार)
 
                           
 
                          महिला लेखन की ताकत बढ़ी
 मेरे खयाल से यह साल महिला लेखन के लिए बहुत महत्वपूर्ण 
                          रहा। हालाँकि पिछले दो-तीन साल से लेखिकाएँ अपनी छाप 
                          छोड़ रही हैं। इस दौरान जितनी आत्मकथाएँ आई हैं, उनमें 
                          से ज्यादातर महिलाओं की हैं। अपनी जिंदगी के बारे में 
                          खुलकर लिखना आसान नहीं है। इसके बावजूद चंद्रकिरण 
                          सोनरेक्सा, मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान और खुद मेरी 
                          आत्मकथाएँ आईं। यानी स्त्रियाँ अब पहले की तरह डरपोक 
                          नहीं रहीं, अब वे अपने बारे में साहस के साथ लिख सकती 
                          हैं, जो सचमुच एक बड़ी बात है। इस साल मैंने जो 
                          उल्लेखनीय किताबें पढ़ीं, उनमें सबसे पहले मैं अनामिका 
                          के दो उपन्यासों, दस द्वारे का पिंजरा और तिनके-तिनके 
                          पास का जिक्र करना चाहूँगी। हालाँकि ये उपन्यास इस वर्ष 
                          नहीं आए, लेकिन मैंने इसी साल इन्हें पढ़ा। अनामिका का 
                          लेखन मुझे हमेशा से ही मुग्ध करता रहा है। रजनी गुप्ता 
                          का उपन्यास भी अच्छा लगा। ममता कालिया का उपन्यास 
                          दुक्खम-सुक्खम पढ़ा, जो मुझे बहुत अच्छा लगा। अजय 
                          नावरिया का उपन्यास मैं अभी पढ़ रही हूँ। कुल मिलाकर मैं 
                          यही कहूँगी कि महिला लेखन को मैं बड़ी उम्मीद से देख रही 
                          हूँ। पुरानी लेखिकाओं के अलावा अल्पना मिश्र और मनीषा 
                          कुलश्रेष्ठ जैसी लेखिकाएँ भी अपना छाप छोड़ रही हैं। यह 
                          संयोग नहीं है कि इस दौरान भारतीय राजनीति में भी 
                          महिलाओं की तूती बोल रही है, सोनिया गांधी से लेकर सुषमा 
                          स्वराज तक।
 
 (मैत्रेयी पुष्पा, चर्चित उपन्यासकार)
 
                          ४ जनवरी 
                          २०१० |