दंगों का दावानल : गोधरा
गोधरा
में हुए जघन्य नरसंहार में इंसानी जिन्दगियों को फूस
की तरह जला कर राख कर दिया।इस हृदयविदारक भयानक
हत्याकान्ड की प्रतिक्रिया स्वरूप गुजरात के कुछ
हिस्सों में भीषण नर संहार प्रारम्भ हो गया। अंग्रेजों
ने आजादी के साथ ही दोनो सम्प्रदायों के बीच
वैमन्स्यता का जो जीवाणु छोडा था, वह समय–समय पर अपना
प्रभाव दिखाता रहता है, धर्म और मजहब के नाम पर मानव
ही मानव के खून का प्यासा रक्तपात में संलिप्त रहा है।
जब
अपने लोगो के बीच अविश्वास एवं नफरत की ऐसी खाइयां खुद
जाय कि खून की नदी ही उनके बीच बह सके, इससे बढकर
दुर्भाग्य की बात किसी देश के लिए और क्या हो सकती है।
गोधरा में जो घटा, वह अचानक हुयी घटना नही थी उसके
पीछे कोई गहरी साजिश थी।
वहीं विपक्षी राजनीति के ठेकेदारों ने अपना वर्चस्व
बनाये रखने के लिये वोट की घृणित चाल चलते रहे, गोधरा
में आग से जलते हुये लोगो की लाशों पर यह राजनेता
संवेदना के घडियाली आंसू की एक बूँद भी नही टपका सके
और अपनी तुष्टिकरण की नीति के चलते मूक बने रहे।
क्षोभ से व्याकुल गुजराती जनमानस के अन्दर भी हैवानियत
का जहर फैलने लगा। गुजरात के हिन्दू और मुसलमान एक
दूसरे के खून के प्यासे मार काट में संलिप्त हो गये।
कुछ विपक्षी राजनैतिक दल गुजरात में हिंसा जारी रखने
के लिए अराजक तत्वों को भडकाने में लगे रहे, इन्होंने
जम कर गुजरात के अल्पसंख्यकों
में अफवाहें फैलायी और उन्हें राज्य सरकार का
असहयोग करने के लिये प्रेरित किया।
गुजरात की मोदी सरकार ने राज्य मे फैल रही हिंसा को
रोकने का हरसम्भव प्रयास किया, गुजरात पुलिस ने दस
हजार राउन्ड से अधिक गोलियां चलाई, जिसमें सैकडो लोग
मारे गये। इसके अतिरिक्त दंगो पर नियन्त्रण के लिये
सेना का सहयोग भी लिया गया। काबिले गौर है कि गोधरा के
भयावह हत्याकांड के फलस्वरूप पहली बार लाखो लोगो ने
दंगे में हिस्सेदारी की। समाज के हर वर्ग तक इसकी
पहुँच हुयी, और सतह के नीचे सक्रिय कोई घृणा भाव इसे
शान्त नही होने दे रहा था।
ठीक उसी समय जब मानवता खून के आंसू से भीगी हुयी
त्राहि–त्राहि कर रही थी इस संवेदनशील मौके का फायदा
उठा कर राजनेता अपनी तीखी प्रतिक्रिया से जलती हुयी आग
मे घी डालने लगे साथ ही मीडिया की कलम की धार में
पैनापन आगया। देश को कलंकित करने वाली घटनाओं का जोर
शोर से दुष्प्रचार होने लगा।
अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ एवं नकारात्मक मानसिकता
से ग्रस्त विपक्षी राजनेताओं का दल जिस तरह से
भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विश्व हिन्दू
परिषद को बदनाम करने में लगा हुआ है इससे न तो राष्ट्र
का कोई कल्याण होगा और न ही मृतको के परिजनों के घावों
पर मलहम ही लगाया जा सकता है। यह जरूर है कि इन
राजनेताओं के दुष्प्रचार से भारत की छवि विदेशों में
खराब हो रही है ।
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गुजरात मे हिंसा की रिपोर्टिग के लिये प्रिन्ट
मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनो पर ही पक्षपात
पूर्ण रवैया अपनाने का दोष लगता रहा है, इसने दंगे
के दौरान मीडिया पर सवालिया निशान लगा दिया है।
यह पहला दंगा था जिसकी रिपोर्टिग में प्रिन्ट
मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया के अलाव ईमेल, एस एम
एस का इस्तेमाल हुआ। इससे दंगे की आग और
भडकी। ये लोग सजग विदेशी मीडिया से प्रेरणा ले
सकते थे जिन्होंने ११ सितंबर के बाद संतुलन दिखाया
और कहीं पर भी लाशों के वीभत्स रूप को प्रदर्शित
नही होने दिया।
आज गुजरात दानवाकार चुनौती की तरह मुँह बाये हमारे
सामने खडा है, गोधरा कान्ड पर जिस मानवाधिकार के
कानो पर जूँ तक नही रेंगी, वह भी अब सक्रियता के
साथ अपनी आख्या प्रस्तुत करने लगा है।
प्रधानमन्त्री बाजपेई ने दंगा ग्रस्त क्षेत्रो के
दौरे के दौरान कहा कि गुजरात में हुए दंगे गोधरा
कान्ड की तीव्र प्रतिक्रिया हैं, अगर गोधरा कान्ड
नही होता तो गुजरात के दंगे को भडकने से रोका जा
सकता था। किन्तु आज इस घटना ने हमारे मुँह पर
कालिख पोतने का काम किया है।
दूसरी तरफ विपक्ष के अर्नगल आरोपों के कारण भारतीय
मूल्यों और परम्पराओ के विरोधियों को बल मिलता है।
आज जब भारत में ही हिन्दुत्व के बारे में भ्रामक
प्रचार होगा उसे फासीवादी विचार धारा से जोडा
जायेगा तो फिर विश्व के तमाम देश तो ऐसा कहेंगे
ही।
भारतीय परम्परा अद्वैत की उपासक है, हिन्दुत्व में
अन्य उपासना पद्धतियों के लिये जैसा सम्मान है
वैसा विश्व के किसी अन्य दर्शन में नही मिलता,
किन्तु इन बातों को विघटन रूप में प्रस्तुत करने
वाले राजनेताओं की आंखो पर सता के मद की पट्टी चढी
हुयी है।
विपक्ष की मांग पर गुजरात के मुख्यमन्त्री मोदी की
सरकार को अपदस्त करने तथा गुजरात दंगो पर संसद में
चर्चा एवं गुजरात पर मत विभाजन वाले नियम १८४ के
अन्तरगत विपक्ष द्वारा लाये गये निंदा प्रस्ताव के
पक्ष मे १८२ मत व विरोध में २७६ मत पडे तथा
सम्पूर्ण विपक्ष की स्वार्थ परक आलोचनाओं को करारा
झटका लगा।
काश ये विपक्षी राजनेता गोधरा कान्ड के तुरन्त बाद
यदि
सता पक्ष के
साथ मिलकर अपनी सक्रियता दिखाते, लोगो के दुख दर्द
को बांटते तो शायद हैवानियत का जहर गुजरातियों के
अन्दर घुलने न पाता।
वे अपनी संवेदना से उनकी भवनाओं को गहराई से
आत्मसात कर सकते थे और सौहार्द की स्थापना
में योगदान दे सकते थे।
इस यथार्थ को नकारा नही जा सकता कि दंगे में
हिन्दू मरे या मुसलमान मरता तो हिन्दुस्तानी ही
है, हिन्दुओं का नुकसान हो या मुसलमानों का,
वास्तव में नुकसान तो हिन्दुस्तान का ही होता है।
— बृजेश कुमार शुक्ल |