विश्व के समग्र व
यथेष्ट विकास के लिए महिलाओं का विकास की मुख्य धारा
से जुडा होना परम आवश्यक है। नारी की स्थिति समाज
में जितनी महत्वपूर्ण, सुदृढ़, सम्मानजनक व सक्रिय
होगी, उतना ही समाज उन्नत, समृद्ध व मज़बूत होगा। इस
बात को आधुनिक विचारक व चिंतक भी स्वीकार करते हैं
कहा भी गया है - ``यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते
तत्र देवता'' अर्थात जहाँ नारी पूज्य है वहाँ देवता
निवास करते हैं।
सृष्टि के आरंभ से
नारी अनंत गुणों की आगार रही है। पृथ्वी की सी
क्षमता, सूर्य जैसा तेज, समुद्र की सी गंभीरता,
चंद्रमा की सी शीतलता, पर्वतों की सी मानसिक उच्चता
हमें एक साथ नारी हृदय में दृष्टिगोचर होती है। वह
दया करुणा, ममता और प्रेम की पवित्र मूर्ति है और
समय पड़ने पर प्रचंड चंडी का भी रूप धारण कर सकती
है। वह मनुष्य के जीवन की जन्मदात्री भी है। नर और
नारी एक दूसरे के पूरक है।
नारी का त्याग और
बलिदान भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है। प्रसाद
जी की यह पंक्तियाँ - 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत पग-पग तल में, पीयूष स्रोत सी बहा करो,
जीवन के सुंदर समतल में आज भी अपनी सार्थकता व्यक्त
करती हैं।
किंतु बदलते समय और
विश्व के औद्योगीकरण के साथ महिलाओं के मानवीय गुणों
की गहरी परीक्षा का प्रारंभ हुआ। यह महसूस किया जाने
लगा कि काम, पैसा और मेहनत का मूल्य मानवीय
विशेषताओं से आगे निकलने लगा है और महिलाएँ इस दौड़
में पीछे रह गई हैं। उनकी इस पीड़ा को विश्व के अनेक
देशों मे आवाज़ मिली पुरुषों के समान अधिकार की एक
नई आवाज़ ने जन्म लिया।
उनके उत्थान और
पुरुषों के समान अधिकार प्रदान करने के लिए विश्व ने
कई करवटें बदली। ८ मार्च १९०८ में ब्रिटेन में
महिलाओं ने 'रोटी और गुलाब' के नारे के साथ अपने
अधिकारों के प्रति सजगता दिखाते हुए प्रदर्शन किया।
रोटी उनकी आर्थिक सुरक्षा और गुलाब अच्छे जीवन शैली
का प्रतीक था।
अपने अधिकार और
विकास के प्रति सजग इस महिला संगठन को सामाजिक
मान्यता एवं सहयोग प्राप्त हुआ तथा १९११ में प्रथम
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ऑस्ट्रिया, डेनमार्क,
जर्मनी एवं स्विटजरलैंड में आयोजित किया गया।
अलग-अलग देशों की
सरकारों ने अपनी-अपनी स्थित के अनुसार इस संबंध में
नियम बनाए एवं वैधानिकता प्रदान किया। प्रथम
अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष मैक्सिको में हुआ। चर्तुथ
अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के अवसर पर बीजिंग में
विश्व के लगभग १८९ देशों ने हिस्सा लिया और विश्व भर
मे महिलाओं के जीवन को सुधारने के लिए कठिन लक्ष्य
के प्रति दृढ संकल्प और एकजुटता दिखाई।
१९७५ मे
अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष का भारत में उद्घाटन करते
हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने
१६ फरवरी को नई दिल्ली में राष्ट्रीय महिला दिवस पर
कहा था, ''ऐसा कोई काम नहीं है जिसे महिलाएँ पुरुषों
के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नही कर सकती।''
भारतीय महिलाओं को
कानूनी और राजनैतिक बाधाओं का सामना इतना अधिक नहीं
करना पड़ा जितना सामाजिक स्थिति का। बदलती
परिस्थितियों के साथ आज भारत में भी महिलाओं को
सशक्त व सबल बनाने के प्रयासों का प्रभाव परिलक्षित
हो रहा है।
पूर्व की अपेक्षा
महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक हिस्सेदारी
बढ़ी है। उसने महत्वपूर्ण व असरदार भूमिकाएँ निभा कर
न सिर्फ़ पुरुषों के वर्चस्व को तोड़ा है, बल्कि
पुरुष प्रधान समाज का ध्यान भी अपनी ओर आकृष्ट किया
है।
आज विश्व में
महिलाओं का शोषण सामाजिक स्तर पर भी है और
सांस्कृतिक स्तर पर भी लेकिन सर्वाधिक शोषण सामाजिक
स्तर पर है। परंपराओं के साथ महिला को जितना अधिक
जोड़ दिया गया है या महिला उनसे जितनी अधिक जुड़ी
हुई है, उसके कारण न केवल उसके अधिकारों का हनन होता
है अपितु यह शोषण का एक ज़रिया बन जाता है।
यह सच है कि
महिलाएँ परंपराओं की संरक्षक हैं और परंपराएँ
सामाजिक सुख और सुविधा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं
किंतु इनको बनाए रखने में यदि महिलाओं का सुख और
भविष्य दाँव पर लगने लगे तो इन्हें बदलने में संकोच
नहीं होना चाहिए। इस विषय में विश्व का जनमत
धीरे-धीरे मुखर होने लगा है और यह समझा जाने लगा है
कि परंपराओं और सुख सुविधा के लिए महिलाओं की आर्थिक
सुरक्षा की बलि नहीं दी जानी चाहिए।
समूचे विश्व को इस
बात पर विचार करना होगा कि महिलाओं को आर्थिक स्तर
पर स्वतंत्रता कैसे प्राप्त हो। इस आर्थिक दुनिया
में आर्थिक आज़ादी के बिना पुरुषों के वर्चस्व को
समाप्त नहीं किया जा सकता।
दूसरी तरफ़ एक ऐसा
समाज भी है जहाँ रूढ़िवादी नेतृत्व धर्म के नाम पर
महिलाओं के अधिकारों का हनन करता है। इस समस्या के
निराकरण के लिए महिलाओं को अधिक से अधिक शिक्षित
करने के लिए एक ईमानदार प्रयास होना चाहिए। भारत
सहित अनेक इस्लामी देशों में यह सबसे बड़ी समस्या
है।
अमेरिका जैसे
विकसित राष्ट्र में भी महिलाओं के प्रति होने वाली
घरेलू हिंसा, दुराचार और शोषण की समस्याएँ प्रकाश
में आती रहती हैं।
परंपरागत सामाजिक
ढाँचे में परिवर्तन करके महिलाओं को एक स्वाभाविक
सम्मान दिलाने के लिए राजनीति में अधिकाधिक भागीदारी
बनानी पड़ेगी जिससे महिलाएँ अधिकारों और सम्मान की
खुली हवा में उन्मुक्त साँस लें सके।
- बृजेश कुमार
शुक्ल |