पाठक
यजमानों को चिठ्ठापंडित का नमस्कार। अभिव्यक्ति
में नया स्तंभ शुरू करने की घोषणा हुई है। चिठ्ठा
जगत की ख़बर रखने को कहा गया है हमें। यजमान अब
क्या कहें, हिंदी में अकेले ही 400 से ज्यादा चिठ्ठे
निकलते हैं। चिठ्ठाकार अपनी सारी खुशी और सारा दुख एक
दूसरे से यहीं बांट लेते हैं। हमने भी सोचा
इस तरह सबके दुख सुख का हिस्सा बनने का मौका
मिलेगा तो क्यों न ये काम कर के कुछ पुण्य
कमाया जाए। आज से हम हर महीने चिठ्ठा जगत की
सैर करवाने की कोशिश करेंगे और कुछ चुने हुए
चिठ्ठों को आपके साथ यहां बांटेंगे। मगर पहले यह
देखते हैं कि आख़िर चिठ्ठा है क्या?
ब्लाग(चिठ्ठा)जो कि
वेबलॉग का संक्षिप्तिकरण है, एक तरह का रोज़ नामचा
या पत्रिका है जिसे ब्लॉगर अपने ब्लॉग पर लिखता है।
सामूहिक रूप से अंतर्जाल पर विचारों का
आदानप्रदान, ईमेल, अंतर्जालीय गुट और चैट के
बाद ब्लॉगिंग की शुरूआत
हुई। इसमें अंतर्जाल पर नाना प्रकार के टूल्स या औज़ार
उपलब्ध कराए गए जिससे न सिर्फ़ अपने ब्लॉग पर अन्य
स्थलों की कड़ी(लिंक)दी जा सके बल्कि पत्रिका पर टिप्पणी करने और अपने विचार व्यक्त
करने की भी व्यवस्था हो। श्री जस्टिन हाल को कुछ
सर्वप्रथम चिठ्ठाकारों में गिना जाता है जिन्हें
व्यक्तिगत चिठ्ठापत्री का पिता भी कहा जाता है। जार्न बार्जर जो कि एक अमेरिकी
ब्लॉगर है ने 1997 में वेबलॉग शब्द पहली बार
प्रयोग किया था। बाद में इसका ब्लॉग शब्द के रूप
में संक्षिप्तीकरण पीटर महौल्ज़ ने किया। अंग्रेज़ी
में ब्लॉगिंग शुरू होने के बाद लोगों ने अपनी
भाषा में भी ब्लॉगिंग करनी शुरू कर दी और इसी तरह
हिंदी में भी ब्लॉगिंग या चिठ्ठा लिखना शुरू हुआ।
आंकड़ों के अनुसार जहां अंग्रेज़ी में सबसे
ज्यादा ब्लॉग बने हैं वहीं हिंदी में भी विश्व भर
से लगभग 6 प्रतिशत ब्लॉग प्रकाशित होते हैं। हिंदी
में इस तरह अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता से कई
छुपी हुई प्रतिभाएं सामने आईं। कुछ चिठ्ठाकारों ने
अपनी कविताओं को चिठ्ठे में लिखा तो कुछ बहुत अच्छे
कहानीकार भी सामने आए। चिठ्ठाकारी के चलते कुछ
साहित्य प्रेमियों ने तो बहुत कुछ अच्छे संकलन बना
डालें। हिंदी में चिठ्ठा लिखने के लिए अधिक जानकारी
आप यहां
से ले सकते हैं।
आइए दिसंबर माह में
प्रकाशित हुए कुछ अच्छे चिठ्ठों पर नज़र डालते हैं
हिंदी चिठ्ठाकारों ने
मिल कर चिठ्ठों की एक श्रंखला बनाई हैअनुगूंज।
जिसके अंतर्गत एक शीर्षक दिया जाता है और उस शीर्षक
पर चिठ्ठाकार अपना मत व्यक्त करते हैं। हर महीने एक
शीर्षक और उस पर अपने विचार। दिसंबर माह का
शीर्षक था "(अति)आदर्शवादी संस्कार सही या
ग़लत?" जिस पर अनेक चिठ्ठाकारों ने अपने
विचार रखे। जीतेंद्र
चौधरी ने एक ओर आदर्शवादिता की खिल्ली उड़ाइर
और दूसरी
ओर मिर्ज़ा जी के शब्दों में उसका व्यावहारिक पक्ष
भी प्रस्तुत किया। अनेक चिठ्ठाकारों ने इस
विषय पर अपनेअपने मत प्रकाशित किए। अतुल
अरोरा,
अनूप कुमार शुक्ल, पंकज
नरूला, रवि
रतलामी, रमण
कौल, आशीष श्रीवास्तव आदि
के विचार ज़ोरदार रहे।
कालेज के दिनों
में दुपहिये साइकिल पर अनूप शुक्ल भारत भ्रमण
के लिए निकले थे। इस अनुभव को
वे बड़ी ही रोमांचक शैली में चित्रों के साथ विस्तार
से लिख रहें हैं। "इलाहाबाद से हम सबेरे चले
थे। कुछ ही देर में शहर के बाहर आ गए। बनारस की
तरफ़ जाने वाले संगम पुल पर कुछ देर खड़ेखड़े
गंगायमुना संगम को देखते रहे। दोनों के पानी
का रंग अलग दिखाई दे रहा था। हम तीनों 'टीनएजर्स'
शेरशाह सूरी मार्ग पर चलते हुए बनारस की तरफ़ बढ़
चले। करीब 30 कि .मी .चलकर हंडिया तहसील
पहुंचकर एक ढ़ाबे की चारपाइयों पर लेट गए। मैं तथा
अवस्थी अपनी रिन की चमकार वाली सफ़ेद ड्रेस के कारण
लोगों के कौतूहल का विषय बने थे। ढाबे में
चायनाश्ता
किया। हमारी आंखें अनजाने ही डी .पी .पांडे को खोज
रहीं थीं।" यह रोमांचक संस्मरण आप
उनके चिठ्ठे फुरसतिया
पर पढ़ सकते हैं।
ई स्वामी के लेख
'अपने
अपने सांताक्लॉज़.' ने सर खुजाने और सोचते
रह जाने के लिए बाध्य कर दिया। "समय के साथ
बच्चे बड़े होते हैं सांता का सच तो क्या जीवन के
अन्य कटु सत्यों से भी परिचित होते हैं। हर बच्चे की
यह नियति है पहले बड़ों के दिखाए परीलोकों में
अपनी तार्किकता को ताक पे रख निरीह विश्वास के सहारे
विचरण और फिर यथार्थ का सामना छले जाने का
भाव या मूर्ख बनाए जाने का भाव जिसे खुद को यह
कह कर समझा लेना की वो मेरी खुशी के लिए ही झूठ
बोले थे फिर यही दोहराव अगली पीढ़ी के साथ।
क्यों करते हैं हम ऐसा?" ऐसे ही आदर्शवादी
विचार कितने सही, कितने ग़लत, के ईदगिर्द
घूमते इस लेख में पढ़े जा सकते है।
लालटू
सिंह हिंदी के जाने माने लेखक हैं। उन्होंने अपने चिठ्ठे पर
एक बड़े ही गंभीर मुद्दे पर चर्चा की चाहे आज की
कश्मीर समस्या हो या बरसों पहले हुए बंटवारे का
दर्द, दर्द तो दर्द है। उनके शब्दों में, "बचपन
से ही देश के बंटवारे और दंगों से पीड़ित लोगों
की व्यथाएं सुनते आया हूं। मेरी मां का बचपन पूर्व
बंगाल (आज के बांग्लादेश) में गुज़रा। पिता
पंजाबी सिख थे।" वो आगे कहते हैं, "मेरा
जद्दी गांव (जैसा पंजाबी में कहते हैं) रामपुराफूल
से थोड़ी दूर मंडी कलां (या गुलाबों की मंडी)
है। बचपन में गांव आते तो रात को सोने के पहले
दादी से बंटवारे की कहानियां सुनते। यह भी सुना
था कि किस तरह गांव के मुसलमान आकर उससे पूछते
थे कि गांव के सरदार उनके बारे में क्या सोचते
हैं। फिर एक दिन इस भरोसे के साथ कि तुम्हें सुरक्षित
सीमा पार करवा देंगे मुसलमानों को गांव के
बाहर ले गए और वहां पहले से ही तलवारें और
गंडासे लिए गुरू के सिख खड़े थे (अब सोचते हुए
आंखें भर आती हैं, उन दिनों लगता था वाह खून का
बदला खूनѴ।" उनके चिठ्ठे 'आइए
हाथ उठाएं हम भी' पर यह संस्मरण पूरा
पढ़ा जा
सकता हैं।
रवि रतलामी जो एक
वरिष्ठ चिठ्ठाकार और अभिव्यक्ति के सुपरिचित लेखक हैं, ने
अपने नए लेख में चिठ्ठे लिखने और पढ़ने को एक
लत बताया है और व्यंग्यात्मक अंदाज़ में तर्क प्रस्तुत
किए हैं।
"चिठ्ठों की लत लगाने में चिठ्ठे का एक खास गुण
बहुत ही ख़तरनाक है। वह यह है कि किसी का कोई चिठ्ठा
टाइप्ड हो ही नहीं सकता। नीरस नहीं हो सकता। उसमें एकरसता का अनुभव आ ही नहीं सकता।
चिठ्ठाकार एक दिन तो अपने आंगन में बिछी बर्फ़ की
बात करता है तो दूसरे दिन भीषण गर्मी में अपनी
नानी के गांव के नीम के पेड़ की छांव तले बिताए
लम्हों की। इसी तरह विभिन्न चिठ्ठाकार
जाने कहां से खोजखोज कर विषयों को लाते रहते
हैं, उस पर लिखते रहते हैं।" यह लेख उनके चिठ्ठे
छींटे और बौछार पर एक
लत यह भी के अंतर्गत पढ़ा जा सकता है।
जया
का हिंदी चिठ्ठा उनकी पसंदीदा कविताओं का छोटा सा
संग्रह है और इस बार उन्होंने धर्मवीर भारती की
सुप्रसिद्ध कनुप्रिया को यहां
पोस्ट किया है।
"सुनो मेरे प्यार
यह काल की अनंत पगडंडी पर
अपनी अनथक यात्रा तय करते हुए सूरज और चंदा,
बहते हुए अंधड़
गरजते हुए महासागर
झकोरों में नाचती हुई पतियां
धूप में खिले हुए फूल और
चांदनी में सरकती हुई नदियां
इनका अंतिम अर्थ आखिर है क्या?
केवल तुम्हारी इच्छा? . . ."
मत्सु एक
ऐसे चिठ्ठाकार हैं जो मूल रूप से जापानी हैं।
जापानी मातृभाषा वाले शायद वे पहले हिंदी
चिठ्ठाकार हैं। उन्होंने हिंदी में स्नातक की उपाधि प्राप्त
की है और भारत भ्रमण भी कर चुके हैं। नमस्ते नामक
अपने हिंदी चिठ्ठे में वे भारत का ज़िक्र अक्सर करते रहते
हैं। दिसंबर के महीने में
उन्होंने जापान में भारत की बढ़ती शोहरत और
बेहतर छवि की चर्चा की है। 'आवरण
कथाः भारत' नामक अपनी इस पोस्ट में उन्होंने कहा है,
"प्राचीन युग से तो बौद्ध धर्म का सुदूर देश
था भारत। फिर आधुनिक युग की शुरूआत से द्वितीय
विश्वयुद्ध के अंत तक, इतिहास की हज़ारों ख्वाहिशें
ऐसी तरह दोनों मुल्कों को करीब ले आईं थीं,
जब रवींद्रनाथ ठाकुर (टैगोर) और सुभाष चंद्र
बोस यहां आए, मेरी यूनिवर्सिटी के हिंदीउर्दू
विभागों (जो पहले एक ही हिंदुस्तानी विभाग थे)
की स्थापना भी हुई। युद्ध के बाद भी एक न्यायाधीश,
राधा बिनोद पाल थे, जिन्होंने तोक्यो युद्ध
अपराध न्यायाधिकरण में अकेले ऐसा अनुरोध किया
कि तब तक जापान निर्दोष ही है जब तक न्याय की
समानता के अनुसार जय पाने वाले देशों को भी
अपने युद्धअपराध का दोष न लगाया जाए। शीतयुद्ध के दौरान
जापानी सरकार के विदेश नीति के नक्शे में भारत
थोड़ा दूर हो गया था, जहां सत्तर के दशक में
जापानी नागरिकों के लिए विदेश यात्रा आज़ाद होने
के बाद भारत ऐसी यात्रियों की बड़ी मंज़िल होने
लगा। फिर भी आम लोगों के बीच भारत की छवि
जैसी की तैसी रही थी।"
आलोक पुराणिक भारत के
जानेमाने व्यंग्य लेखक हैं। उनके
व्यंग्य लेख उनके चिठ्ठे पर पढे़ जा सकते हैं। उनका
व्यंग्य लेख "प्रपंचतंत्र कथा नंबर चार ज्ञान
वितरण की कथा" उठाएं ।
बांटू और डांटू के कथपोकथन के .जरिए उन्होंने कटाक्ष
किया है लोगों की मनोवृति पर। "अगले
दिन दफ़्तर में बांटू भी आ गया और जो कर्मचारी
पिछले दिन कार्रवाई नहीं करवा पाए थे, वो आज
बांटू के पास आकर बोले, सर कल तो डांटू ने एक
हज़ार रूपये लेकर कुछ कर्मचारियों की प्राबलम साल्व
की है। आप बताइए कि आप क्या कुछ कम में राज़ी हो
जाएंगे।"
बांटू भलमनसाहत का
मारा बोला, "अरे मैं तो अपने साथियों को
एक मिनट में बता देता हूं कि पुराना रिकार्ड कैसे
उड़ाया जाए।"
बांटू ने एक मिनट में कमांड सबको बता दी। बचे
हुए कर्मचारियों ने अपने कंप्यूटर से पुराने रिकार्ड
उड़ा दिए।
बांटू की इस हरकत पर डांटू ने उससे कहा "तेरे
जैसे लोग ही ज्ञान का मर्यादा का हनन करते हैं
और ज्ञान को सस्ता बनाते हैं।"
इस पर बांटू ने कहा "पर मैंने तो सुना है
कि ज्ञान बांटने से बढ़ता है।"
यह सुनकर डांटू बोला "अरे बेवकूफ़ कुछ
नहीं बढ़ता है, बल्कि सम्मान घटता है। ज्ञान
बेचना चाहिए, इससे सम्मान भी बढ़ता है और नोट
भी बढ़ते हैं। देख, तूने पूरा ज्ञान एक ही बारे में
इन कर्मचारियों को दे दिया है सो अगली बार
कर्मचारी न तेरे पास आएंगे न मेरे पास। खुद ही
कमांड देकर रिकार्ड उड़ा देंगे।"
भावनाओं की सही
अभिव्यक्ति जिस तरह कविता के ज़रिए की जा सकती है
और किसी विधा में शायद उतनी सुंदरता के साथ
नहीं। कविता प्राण है साहित्य की। चिठ्ठाजगत में कई
उदीयमान और कुछ प्रतिष्ठित कवि भी अपनी कविताएं लिखते रहते
हैं।
"लिख चुके प्यार के गीत बहुत कवि अब धरती के
गान लिखो।
लिख चुके मनुज की हार बहुत अब तुम उस का अभियान
लिखो।।"
महावीर शर्मा के चिठ्ठे पर उनकी 'धरती
के गान लिखो' शीर्षक इस सुंदर कविता का आनंद उठाइए।
सुनील दीपक अपने चिठ्ठे पर देश विदेश की यात्रा कथाएं और
चित्र प्रकाशित करते हैं। इस बार उन्होंने
अपने बचपन के एक अनुभव को शब्दों में पिरोया। 'श्वेत
पुष्प' शीर्षक वाली यह रोचक कहानी यहां पढ़ी जा
सकती है।
फोटोग्राफी
के शौकीन भी हिंदी चिठ्ठाकारों में कम नहीं।
भ्रमण के अंतर्गत सह्याद्री पहाडों
की सैर के
अनुभव को चित्रों के माध्यम से पेश किया अतुल
सवनीस ने अपने चिठ्ठे 'ठेले पर हिमालय में' और
मानसी ने प्रस्तुत किए
आसमान के नाना रूप।
दिसंबर माह
का अंत आते आते शुरू हो गई नए साल की सुगबुगाहट।
वर्ष 2006 के लिए चिठ्ठाकारों ने अपने
संदेश देने शुरू किए। प्रत्यक्षा ने एक सुंदर
हाइकुनुमा कविता लिखी
पुराना साल
दुबका खरगोश
बीता समय
इस तरह एक वर्ष बीत
गया। हिंदी चिठ्ठा जगत ने बहुत प्रगति की। कई नये
चिठ्ठाकारों का इस जगत में आगमन हुआ और कुछ
चिठ्ठाकारों ने कम लिखा। मगर कुल मिला कर इस साल
हिंदी में 3000 से कुछ कम चिठ्ठे प्रकाशित हुए। अगला
साल सबके लिए मंगलमय हो और नयेनये
चिठ्ठाकार हिंदी चिठ्ठा जगत से जुड़ते रहें, हमारी यही
कामना है। आप भी अगर चिठ्ठा लिखना चाहते हैं तो
चले आइए इस सभा में और जो कुछा भी आपके मन
में है लिख डालिए।
चिठ्ठापंडित जी हर महीने यहां,
इसी तरह चिठ्ठा जगत में होने वाले कार्यकलापों पर
नज़र डालेंगे। आप सभी को नववर्ष की हार्दिक
शुभकामनाएं और अभी के लिए रामराम।