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निमाड़ का लोकनृत्य काठी
कुँअर उदय सिंह
अनुज
म.प्र. के खरगोन, खण्डवा एवं बड़वानी जिलों के क्षेत्र
को ‘निमाड़’ कहा जाता है। ‘निमाड़ी’ यहाँ की प्रमुख बोली
तथा ‘काठी’ प्रतिनिधि लोकनाट्य है। बलाई जाति के नर्तक
इस लोकनाट्य को करते हैं।
काठी नर्तक शिवभक्त होते हैं। इस नृत्य की कथा वस्तु
और पारम्परिक पूजन अनुष्ठान शिव-पार्वती से जुड़ा हुआ
है। यह नृत्य देवप्रबोधिनी एकादशी से प्रारम्भ होता है
तथा महाशिवरात्रि पर इसका समापन होता है। देवी पार्वती
की पूजा के इस नृत्य में ‘काठी’ सजाई जाती है। बाँस के
एक मीटर लम्बे टुकड़े के ऊपरी सिरे पर बेर की लकड़ी आड़ी
बाँध कर इसे ‘क्रास’ का आकार दिया जाता है। जंगल से
लकड़ी काट कर लाना और बाँधना यह कार्य विधि-विधान से
पूजन द्वारा सम्पन्न किया जाता है। बाँस के ऊपरी सिरे
पर सफेद कपड़े से मोरपंख बाँधकर मुकुट की तरह सजाया
जाता है। ‘क्रास’ के आकार को सफेद कपड़े से लपेट कर
बाहुओं का आकार दिया जाता है तथा लाल पीले वस्त्रों से
इसकी सजावट की जाती हैं कपड़े के एक छोर पर
पैसा-सुपारी, कुमकुम चावल बाँधे जाते हैं इस सजी-धजी
ध्वजा को ‘काठीमाता’ कहा जाता है। इसे जमीन पर नहीं
रखा जाता है। बाँस को नीचे आधार देने के लिए लकड़ी के
एक पहिए का उपयोग होता है।
काठी नर्तकों की वेशभूषा चित्ताकर्षक होती है। इस भूषा
को ‘बागा’ कहते हैं। लाल रंग के लट्ठे के कपड़े को नीचे
से घाघरे का आकार दिया जाता है। ऊपरी भाग, कमीज की पीठ
पर सफेद कपड़े से चाँद-सूरज की आकृतियाँ सिली होती हैं।
सामने बटन लगाने की जगह के आसपास सफेद कपड़े की सीधी
पट्टी सिलकर इसे सजाया जाता है। घाघरे के घेर में भी
कमर से नीचे की ओर तिकोने आकार की सफेद कपड़े की ये
पट्टियाँ उस परिधान के सौन्दर्य को बढ़ा देती हैं।
नर्तक गले में रंग-बिरंगी मालाएँ धारण करते हैं। सफेद
कपड़े पर कौड़ियों को टाँककर पट्टा बनाया जाता है जिसे
सजावट के लिए कमर के घेरे पर बाँधा जाता है। सर पर लाल
पगड़ी पहनी जाती है इसे सफेद दुपट्टे से दाढ़ी के नीचे
से घुमाकर बाँधा जाता है ताकि नर्तक के गालों वाला
हिस्सा ढँका रहे, साथ ही नृत्य के दौरान पगड़ी उछलकर
गिरने न पावे। इस दुपट्टे को ‘काठा’ कहा जाता है।
पगड़ी में रंग-बिरंगी कलगी बाँधी जाती है जो नाचते समय
हिलती हुई नृत्य मुद्रा तथा नर्तकों को अतिरिक्त
आकर्षण प्रदान करती है, पगड़ी में सजावट के लिए चमकीला
गोटा-किनारी लगाया जाता है। चेहरे पर हलका सा मेक-अप
रहता है। ललाट पर चंदन-टीका, भौंह के ऊपर से आँखों के
दोनों छोरों से नीचे उतरती हुई टिपकी दार रंगोली तथा
गालों पर गोंद से चमक चिपकाई जाती है। बाहों में
बाजूबंद बाँधा जाता है। आँखों में काजल, पैरों में
घुँघरू, घाघरे के नीचे चूड़ीदार पायजामा, वेशभूषा के
आवश्यक अंग हैं। ‘वागा’ धारण करने के पश्चात जनेऊ जैसे
‘सेली’ पहनी जाती है। सेली में ‘सिंगी’ बाँधी जाती है
जो कमर के पास लटकती रहती है। यह वेषभूषा प्रमुख नर्तक
की होती है इसे बड़ा भगत तथा सहायक नर्तक को छोटा भगत
कहा जाता है। सहायक नर्तक एक से अधिक हो सकते हैं।
इन प्रमुख तथा सहायक नर्तकों के अलावा दो व्यक्ति और
होते हैं। एक, जो सजी-धजी काठी माता को उठा कर नर्तक
दल के साथ चलता है। इसे ‘रजाल्या’ (सेवक) कहते हैं।
दूसरा, जो नृत्य के दौरान पीतल की थाली बजाता है, इसे
‘खोरदार’ कहा जाता है। ये दोनों व्यक्ति नृत्य के
दौरान गाये जाने वाले गीत की पंक्तियों को दोहराने तथा
अर्थाने का काम भी करते हैं। इनकी वेशभूषा साधारण
धोती-कुर्ता, पगड़ी-अंगोछा होती है। दल के सभी सदस्य
नंगे पैर रहते हैं।
इस नृत्य का मुख्य वाद्य ‘ढाक’ है जो छोटी झुग्गी के
आकार का होता है। इसे रस्सी से बाँध कर कमर तक लटकाकर
रखा जाता है ताकि आसानी से बजाया जा सके। ढाक पर चमड़ा
चढा होता है इसे मरसिंग नामक वृक्ष की एक ओर झुकी डंडी
से बजाते हैं। ‘ढाक’ के सुर में सुर मिलाते हुए
‘खोरदार’ पीतल की थाली को तालबद्ध बजाता है और नृत्य
गति पकड़ता है। पूर्णचक्र, अर्द्धचक्र के घेरों में
नाचते हुए ‘ढाक’ के इशारे पर पीतल की थाली बजती है जो
नृत्य को उड़ान प्रदान करती है।नर्तक दल रुकते हैं, गीत
की पंक्तियाँ गाते हैं और पुनः नृत्य में लीन हो जाते
हैं। इस बीच ‘खोरदार’और ‘रजाल्या’ इन पंक्तियों को
दोहराते हैं। ‘ढाक’ वाद्य गमक बदलता रहता है। यह
निपुणता नर्तक दल के हाथों में होती है। ‘ढाक’ की
ध्वनि की ‘लय’ के साथ पीतल की थाली की ‘ताल’ की
जुगलबंदी के साथ नर्तक दल का पद-संचालन, घाघरे के घेर
का हवामेंलहराना, ऐसा समाँ बाँधते हैं कि पूछो मत।
काठी गीतों की कथा वस्तु पौराणिक ऐतिहासिक होती है।
इनमें चार लोक गाथाएँ प्रमुख हैं। राजा हरिश्चन्द्र,
सुरिया जो महाजन, गोंडेणनार तथा भीलणों बाल-कथा निमाड़ी
बोली का ठेठपन काठी गीतों का प्राण है, सौन्दर्य है।
निमाड़ी संस्कृति के विशेषज्ञ वसंत निरगुणे ने लिखा है
कि- ‘संत सिंगाजी ने जिस निमाड़ी का प्रयोग अपने पदों
में किया है उससे कहीं अधिक ठेठ निमाड़ी काठी-प्रबंधों
में प्राप्य है। काठी की निमाड़ी संत सिंगाजी (संवत्
१५७६ से १६१६) से बहुत पहले की निमाड़ी है।’
यह दल गाँव-गाँव घर-घर जाकर मातृशक्ति पार्वती की पूजा
स्तुति के गीत ‘निमाड़ी बोली’ में गाते हैं। बदले में
ग्रामीण जन इन्हें अन्न-वस्त्र दान देते हैं जो इनकी
जीविका का आधार होता है। देव प्रबोधिनी एकादशी से
प्रारम्भ हेाकर महाशिवरात्रि तक ४ माह चलने वाला यह
पवित्र नृत्य अनुष्ठान पचमढ़ी के महादेव मंदिर में
समाप्त होता है। सुविधा अनुसार नर्तक दल पचमढ़ी के
अलावा बीजागढ महादेव, छिरवेल महादेव, चारुवा महादेव,
या बड़केश्वर महादेव में भी समापन करते रहे हैं। अगली
देव प्रबोधनी एकादशी तक समापन पश्चात् ‘वागा’ उतार
दिया जाता है। इन ४ माहों के अलावा बाकी समय में नर्तक
दल मेहनत-मजदूरी करके जीवन-यापन करते हैं। बलाई जाति
के ये नर्तक आर्थिक रूप से गरीब होते हैं फिर भी आस्था
की इस जोत को हजारों वर्षों से इन लोगों ने जगाए रखा
है। भारत की समस्त सांस्कृतिक गतिविधियाँ कम पढ़े-लिखे,
मेहनतकश लोगों की आस्था और समर्पण भाव के कारण ही
जीवित हैं। सभी पर्वों, त्यौहारों, अनुष्ठानों की डोली
इसी वर्ग के काँधों पर सजी है। इसमें विभिन्न जातियाँ
शामिल हैं। हिन्दुस्तान का खाता-पीता, पढा-लिखा आधुनिक
समाज तो इसका दर्शक मात्र है, सहभागी नहीं।
काठी लोकनाट्य के नर्तक दल निमाड़ में अनेक गाँवों में
फैले हुए हैं। इस लोकनाट्य को भोपाल, दिल्ली, अहमदाबाद
तक व्यापक प्रतिष्ठा दिलाने में सुप्रसिद्ध लोकनर्तक
स्व. पद्मशंकर, ग्राम-भाड़ली, जिला-खरगोन एक प्रमुख नाम
है। इन्हें म.प्र. शासन द्वारा ‘शिखरसम्मान’ से
सम्मानित किया गया था।
उपभोक्ता संस्कृति के इस समय में जबकि बाजार हमें
लीलता जा रहा है, काठी लोकनाट्य के कलाकारों की ओर
शासन द्वारा ध्यान देकर इस परम्परा को जीवित रखा जाना
चाहिए। लोकगीत, लोकनाट्य, माँडणे, पर्व-त्यौहार यदि
इन्हें हम बचा नहीं पाए तो हमारी पहचान नष्ट हो जाएगी।
हम कितने ही आधुनिक हो जाएँ लेकिन इस अंधे समय की अंधी
दौड़ में अपनी भारतीयता की पहचान को बचाए रखना, हम सभी
की सामूहिक व नैतिक जिम्मेदारी है।
७ जुलाई २०१४ |