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रंगमंच



बाल रंगमंच की सार्थकता
- नताशा अरोड़ा


ईसा पूर्व चतुर्थ शती में महान राजनीतिज्ञ व अर्थशास्त्र के प्रणेता चाणक्य ने एक बार मार्ग में कुछ बालकों को नाटक खेलते देखा। राजा बने बालक के न्यायाधीश रूप के अभिनय ने चाणक्य को न केवल विस्मित किया वरन उस बालक में उन्होंने अखंड भारत की परिकल्पना के मूर्त रूप व उज्ज्वल भविष्य को पहचाना। यही बालक उनकी छत्रछाया में पोषित होकर प्रथम सम्राट बना- चंद्रगुप्त मौर्य। शेष इतिहास गवाह है कि इस एक छोटी-सी घटना ने भारत के इतिहास की धारा बदल दी। बाल रंगमंच की प्राचीनता व उपादेयता के लिए अन्य किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं।

जब टी.वी. संस्कृति ने हमारे घरों में प्रवेश नहीं किया था तब घर-घर, गली-मोहल्लों के बच्चे अपने खेलों में छोटे-छोटे नाटक प्रहसन किया करते थे। माँ की पुरानी साड़ियों, पन्नियों व दफ्ती से बने मुकुटों, इधर-उधर से जोड़ी दादी-नानी के पिटारों की चीजों, घर के तख्तों के मंच पर चादरों के पर्दे बनाकर खेले जाने वाले नाटकों की मधुर याद आज भी ताजा है। राम-कृष्ण लीलाएँ, सत्य हरिश्चंद्र कथा जैसे पौराणिक विषयों के साथ अकबर-बीरबल के हास्य भरे किस्से, लाल बुझक्कड़ बूझिया और अँग्रेजों के खिलाफ आंदोलन आदि प्रिय विषय हुआ करते थे। बच्चों के अति प्रिय इन नाटकों के प्रभावी पक्ष की गंभीरता को नकारा नहीं जा सकता। कला की विभिन्न विधाओं, रचनात्मकता और सर्जनात्मकता का विकास, सद्वृत्तियाँ, सही सोच की प्रेरणा और इसके मिस एक राष्ट्रीय सद्चरित्र का निर्माण किसी भी संस्कृति के विकास का महत्वपूर्ण पहलू है। यह भी कि ये आयोजन उनके लिए ऐसे झरोखे खोलते हैं जहाँ वे किताबी दुनिया से बाहर झाँक पाते हैं, छोटी बँधी दुनिया से परे विशाल आकाश में उड़ती कल्पना में। जहाँ भय की सिहरन होती है वहीं नव उपलब्धियों का रोमांच भी। उनको एक मंच मिलता है अपनी अप्रतिबंधित निर्मल सोच की प्रस्तुति का, जो अद्भुत पहलुओं को उजागर कर हमें चिंतन-मंथन पर विवश करता है। बच्चों को स्वतंत्र लेखन व प्रस्तुति के अवसर दिए ही जाने चाहिए।
हम सभी जानते हैं कि अधिकाधिक लोगों से मिलना व आपसी संवाद बच्चों के संपूर्ण व्यक्तित्व विकास के लिए जरूरी है। यह भी कि गंभीर व जटिल विषयों, समस्याओं का रोचक रूप से सरलतापूर्वक मंचीकरण जन-जन को प्रभावित कर सकता है। हर वर्ग के दर्शकों तक पहुँचने वाले नुक्कड़ नाटक इसमें सर्वाधिक सक्षम हैं। ऊर्जावान आत्मविश्वास से लबरेज बच्चों की इस दिशा में भागीदारी की कोशिश की जानी चाहिए।

अंतर्राज्यीय व अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में एक मेच्योर थियेटर की सार्थकता विशिष्ट कही जा सकती है। भारत के बहुरंगी-बहुभाषी स्वरूप में न केवल रंगमंचीय स्वरूप व प्रस्तुतियाँ भी बहुरंगी हैं जो एक-दूसरे को नए-नए तरीके सिखाती हैं, अभिनव कलाएँ दिखाती हैं वरन् एक-दूसरे को समीप लाते हुए देश की एकता और अखंडता में सहायक होती हैं।

दिल्ली, कोलकाता, मुंबई जैसे महानगरों से परे छोटे शहरों-कस्बों-गाँवों में भारत बसता है। ऐसे आयोजनों में इनकी भागीदारी महत्वपूर्ण है। चंद संस्थाएँ इस दिशा में कार्य भी कर रही हैं। केरल का सूर्य चिल्ड्रेन थियेटर, अगरतला त्रिपुरा का नाट्य भूमि ग्रुप थियेटर, धनबाद झारखंड का कला निकेतन, उत्तरांचल का दून घाटी रंगमंच जैसी कई ग्रुप संस्थाएँ हैं जिन्हें नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पर्फामिंग आर्ट्स (नीपा) ने अवसर प्रदान किए कि वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बच्चों के लिए आयोजित थियेटर फेस्टिवल में भाग ले सकें।

संचार साधनों के विकास के कारण तेजी से सिमटते विश्व मे किसी भी देश की घटनाओं व समस्याओं से पूरा विश्व प्रभावित होता है चाहे वह प्राकृतिक प्रलय हो अथवा जनसंख्या वृद्धि, भयंकर रोग हों या रंगभेद के सवाल, धर्म की आड़ में पनपते असामाजिक तत्व हों या शैक्षिक सामाजिक प्रश्न। सर्वोपरि हैं पर्यावरण और आतंकवाद से उपजते खतरे। विभिन्न देशों द्वारा मेज के आप-पार बैठकर वैचारिक आदान-प्रदान और सहयोग के वायदे ही पर्याप्त नहीं। जिस तेज गति से विश्व विनाश के कगार पर जा रहा है, उसे बचाने के लिए चौतरफा प्रयत्न ही इस गति को रोक सकते हैं। यह एक सार्वभौम सत्य है कि आपसी द्वेष-लड़ाइयाँ, हथियारों की बढ़ोतरी व शक्ति प्रदर्शन से हम इन विभीषिकाओं को नहीं रोक सकते। यह भी उतना ही सत्य है कि आतंक पर अपनत्व की ही विजय हो सकती है। संवेदना, बंधुत्व, जियो और जीने दो के मानवीय भाव ही इन पर रोक लगा सकते हैं। इस दृष्टि से थियेटर की सामयिकता और बढ़ जाती है। रंगमंच पर अभिनीत दृश्य ही नहीं, उसके साथ-साथ उनके पीछे दूसरे देशों से सौहार्द भरे आपसी संवाद जो समीपता बढ़ाते हैं वे समन्वय और सामंजस्य के विलक्षण प्रतीक हैं।

राजनैतिक परिदृश्य में राजनेता चाहे जो रूप प्रकट करने को विवश हों किंतु कलाकार केवल सौहार्द लाता-ले जाता है। जिस पर भी बाल रंगमंच, सोने पर सुहागा! इनके कैनवास का विस्तार संपूर्ण विश्व को समेट लेता है। भारत के ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के संदेश वाहक इनसे बेहतर कोई नहीं। इसी के साथ हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत विश्व मंच पर उभरकर जो प्रकाश फैला रही है उसमें इसकी महत्वपूर्ण पात्रता से इंकार नहीं किया जा सकता। वस्तुतः यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान ही है जो सदियों से मनुष्य को समीप ला रहा है, जहाँ सीमाएँ, जातीय रंगभेद कोई मायने नहीं रखते।

बाल थियेटर के विकास की दिशा में किए जाने वाले प्रयत्नों की सराहना, प्रोत्साहन व सहयोग आज की जरूरत है। भारत की विभिन्न भाषाओं सहित हिंदी में भी अच्छा बाल साहित्य उपलब्ध है। अनेकों कहानियाँ ऐसी हैं जिनका मंचन हो सकता है।

रेयान इंटरनेशनल स्कूल चिल्ड्रेन फेस्टिवल का आयोजन करता है। अभी पिछले दिनों नोएडा के कैंब्रिज स्कूल में आयोजित ‘हर्ष मंजरी’ सांस्कृतिक समारोह में लगभग बयालीस स्कूली छात्रों के नाटक, सामाजिक समस्याओं को उजागर करते नुक्कड़ नाटक नई पीढ़ी की जागरूकता की आशा बँधा रहे थे। फिर भी जन जागरूकता की कमी खटकती है। मात्र उन प्रदर्शनों में जाना, जहाँ अपना बच्चा भाग ले रहा है- पर्याप्त नहीं। ऐसे आयोजनों की निरंतर आवश्यकता है।

टी.वी. में विज्ञान की फंतासी कहानियाँ बच्चों को आकर्षित करती हैं। बाल साहित्य में रोचकता से भरपूर सामान्यज्ञान व विज्ञान की कहानियों पर भी अच्छा लेखन हुआ है। पानी की कहानी, हवा की कहानी जैसे विषय ऐसी वार्तालाप शैली में लिखे गए हैं कि प्रहसन बन सकते हैं। किंतु आज भी नाटकों में राजा-रानी व परीलोक की कथाएँ अधिक मंचित होती हैं। कोमल भावनाओं को छूने वाली परीकथाओं की महत्ता को स्वीकारते हुए यह भी ध्यान रखना होगा कि वैज्ञानिक आविष्कारों के इस युग में रंगमंच को पिछड़ने से बचाना है। अंतरिक्ष की कहानियाँ भी तो परीलोक जैसी आकर्षक, तथापि आधुनिक ज्ञान से भरी हो सकती हैं। दसवें मेच्योर नाट्य उत्सव में गत वर्ष, भारत के असम, बंगाल, उड़ीसा, त्रिपुरा, महाराष्ट्र, दिल्ली, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, केरल आदि के अतिरिक्त विश्व के नार्वे, ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, बांग्लादेश, बेल्जियम आदि के बाल कलाकारों द्वारा प्रस्तुत नाटकों में भी विज्ञान फंतासी का अभाव दिखा। सर्वाधिक आवश्यक है बाल नाटकों में हास्य मनोरंजन। अच्छे व स्तरीय हास्य नाटक अधिकाधिक लिखे व मंचित किए जाने चाहिए। मेलोड्रामा यानी अति नाटकीयता - आँसू इसका हिस्सा नहीं होने चाहिए और न ही इन्हें प्रोफेशनल दृष्टि से आँकना चाहिए और न वयस्कों के पूर्वाग्रही सोच से।

खुशी का विषय है कि पिछले नाट्य महोत्सव में दिल्ली कान्वेंट द्वारा प्रस्तुत हिंदी नाटक ‘नई राहें’ ने अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज की। यह नाटक आज की दूषित राजनीति व सभी ओर फैले भ्रष्टाचार पर व्यंग्य करते हुए विश्व स्तर पर पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर गहरी चोट करने में सक्षम रहा। विदेशी दर्शकों द्वारा भी सराहा गया। स्पष्ट है कि इतिहास की जकड़न से निकलकर थियेटर आज नए रास्ते तलाशने में भी प्रयत्नशील है।

बाल रंगमंच से जुड़ी कुछ व्यावहारिक समस्याएँ भी हैं। राष्ट्रीय प्रसिद्धि प्राप्त लखनऊ रंगमंच के वयोवृद्ध कलाकार हरीकृष्ण अरोड़ा उर्फ ‘हल्लो भइया’ से जब मेरी बातचीत हुई तब उन्होंने कहा कि टी.वी. कलाकार बनने की चाह इतनी बढ़ रही है कि जैसे ही मंच पर आने का मौका मिलता है, बिना भली प्रकार अभिनय समझे/सीखे चंद फिल्मी नृत्य-नाट्य प्रदर्शन/चयन के कार्यक्रमों की ओर बच्चों से भी अधिक उनके अभिभावक रुख करना पसंद करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि सुनियोजित ढंग से छाते जा रहे, बाल कलाकारों से युक्त विज्ञापन भी बड़ा आकर्षण हैं। एक दौड़-सी लगी है। इन सबका प्रभाव बालमंच के स्वस्थ विकास में बाधक है। प्रसिद्ध बाँसुरी वादक, संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष हरिप्रसाद चौरसिया ने भी पिछले दिनों कहा था कि ‘जिज्ञासा की कमी है। शोर-हुल्लड़ अधिक मच रहा है। संगीत नाट्य कला की शास्त्रीयता को बचाना जरूरी है।’ यह कथन बाल थियेटर पर भी लागू होता है। नीपा, जिसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उत्सव प्रारंभ किए, उसके महासचिव बी.एम.डी. अग्रवाल अपने लंबे अनुभव से कहते हैं कि बड़े शहरों में तो फिर भी कुछ सुविधाएँ हैं किंतु दूर-दराज क्षेत्रों में सुविधाओं का अभाव है, प्रदर्शन के लिए वहाँ केवल समर्पित ग्रुप्स अपने सीमित साधनों से, जो बन पाता है, करते हैं। न स्थान है, न ट्रेनिंग, न वर्कशाप, न जन जागरूकता है, न दर्शक सहयोग। नए दौर से अपरिचित रह जाते हैं अतः नव नाटक का मंचन नहीं हो पाता। सबसे बड़ी समस्या आर्थिक है। इसके बावजूद नई संस्थाएँ उभर रही हैं।

दूसरी ओर एन.एस.डी. (नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) द्वारा बाल एमेच्योर थियेटर के क्षेत्र में कई वर्षों से निरंतर विकास कार्य हो रहा है। हर प्रदेश में कार्यशालाओं के आयोजन किए जाने लगे हैं। संगीत नाटक अकादमी द्वारा थियेटर को अपने समर्पित योगदान के कारण सम्मानित व एन.एस.डी. के वर्तमान निदेशक प्रो. देवेंद्र राज ‘अकुंर’ ने आधुनिक भारतीय नाटक मंच में ‘कहानी का रंगमंच’ - एक नवीन शुरूआत की जिसमें एमेच्योर कलाकारों को भी पूरे अवसर मिलते रहे हैं। ‘जश्न-ए-बचपन’ भी एन.एस.डी की सार्थक उपलब्धि है। इस दिशा में ‘संस्कार रंग टोली’ (आठ से सोलह वर्ष की आयु हेतु) की स्थापना महत्वपूर्ण कदम है। बच्चों के साथ-साथ अभिभावकों, अध्यापकों व रुचि रखने वाले लोगों के लिए भी आयोजित की जाती है। एन.एस.डी. के प्रयत्नों की सराहना करते हुए ‘हल्लो भइया’ भी अन्य छोटी संस्थाओं की आर्थिक समस्या को स्वीकारते हैं।

बाल रंगमंच के इस बहुपक्षीय रूप में कुछ बातें विरोधात्मक-सी लगती हैं तो कहीं प्रश्नों के उत्तरों की चर्चा से नए प्रश्न उभरते दिखाई देते हैं। प्रश्नों के पूरे उत्तर ढूँढे ही जाएँ या मिल ही जाएँ, यह जरूरी नहीं होता, हो भी नहीं सकता। चिंतन-मंथन की प्रक्रिया की निरंतरता ही विकास की ओर बढ़ता कदम होता है। फिर भी प्रयत्न तो चलते ही रहने चाहिए-

दूर हैं मंजिलें गर तो क्या हर्ज है
हाय-तौबा मचाने से क्या फायदा
काम करते चलो, ये बड़ी बात है
सिर्फ बातें बनाने से क्या फायदा!

१७ नवंबर २०१४

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