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                            १
 उत्तरांचल का लोकनाट्य- पाँडव नृत्य
 - प्रो. हरिमोहन
 
 'आज 
							दा मेरा भाई द्वापर की बात, द्वापर की बात... लांदा 
							द्वापर की बात... द्वापर माँ छई छया कृष्ण अवतार, 
							कृष्ण अवतार भायो कृष्ण अवतार....‘’सूत्रधार‘ का स्वर पहाड़ की वादियों में गूँज उठता है। 
							जीवन की नश्वरता का धूसर रंग, जीवन-मरण और करूणा-जैसी 
							संवेदनाओं से ओत-प्रोत उसकी वाणी दर्शकों के हृदयों 
							में परंपरागत पौराणिक आख्यान के प्रति एक नयी उत्सुकता 
							पैदा कर रही है। लौकिक धरातल पर यह वाणी आसपास के 
							गाँवों से आयी अपार भीड़ को करूणाप्लावित करने लगती है, 
							’’कौरवों को वंश हव्ये सइल विनाश, पाँडवों को वंश बये 
							कृष्णजी की आस... युद्ध का तेरहवाँ दिन चक्रव्यूह 
							रचनाए....‘‘
 
 यह ’चक्रव्यूह‘ के आरंभ का दृश्य है, जिसे हम सब दर्शक 
							रोमांच एवं कौतुक के भाव से देख रहे है। 
							गढ़वाल-उत्तरांचल में परंपरागत रूप से लोकगीत और 
							लोकनाट्य का मिला-जुला रूप ’पांडव नृत्य‘ प्रचलित है। 
							प्रायः ’पांडव‘ को लोकनृत्य की एक शैली ही कहा गया 
							है-लेकिन इसके प्रर्दशन से लगता है कि यह बहुत ही 
							सशक्त लोकनाट्य विधा है।
 
 वास्तव में पांडव नृत्य में औसतन अठारह प्रकार के 
							तालों पर न्त्य होता है, जो लोक विधान होते हुए भी, 
							अनूठी शास्त्रीयता लिए है। पांडव नृत्य में सबसे 
							आर्कषक होता है ’चक्रव्यूह‘ नाटक। इस नाटक में महाभारत 
							की उस विख्यात, किंतु विस्मृत कथा का मंचन किया जाता 
							है, जिसमें गुरु द्रोणाचार्य द्वारा रचे गये 
							’चक्रव्यूह‘ भेदन का प्रकरण अनुस्यूत है। इस मार्मिक 
							कथा-प्रसंग के अनुसार चक्रव्यूह के सातवें द्वार पर 
							आकर कौरवों ने मिलकर अभिमन्यु का वध कर दिया था।
 
 निर्जन से पर्वतीय ’गंधारी गाँव‘ में इस बार चक्रव्यूह 
							के आयोजन को देखना बहुत ही रोमांचक और सुखद अनुभव था। 
							यों गढ़वाल के दूरस्थ कई गांवों में चक्रव्यूह लोकनाट्य 
							आयोजन परंपरागत रूप से हजारों वर्षों से होता चला आ 
							रहा है लेकिन इस बार का आयोजन कुछ अलग था। इस संस्था 
							द्वारा एक परियोजना बनायी गयी, भारतेंदु नाट्य अकादमी, 
							लखनऊ के सुरेश काला ने इसे निर्देशित करने का जिम्मा 
							लिया। कथोपकथन में पारसी और नौटंकी नाट्य शैली के 
							तत्व, संगीत में सांग शैली का प्रवेश और वेशभूषा में 
							मथुरा की रामलीला शैली के अवांछित तत्व घुस आये हैं, 
							साथ ही गढ़वाल के प्रसिद्ध लोक संगीत तथा ढोल के तालों 
							का प्रयोग कम होने लगा है। इससे मुक्ति पाने और इस 
							परंपरागत लोकनाट्य को उसकी प्राचीन गरिमा लौटाने का 
							प्रयास किया जाए। इसके लिए उन्होंने गंधारी गाँव के 
							कलाकारों को लेकर नया प्रयोग किया।
 
 वर्षों बाद बड़ी संख्या में दूर-दूर से आये दर्शकों ने 
							देखा कि अपनी भाषा-बोली में परंपरागत पहनावे में 
							सजे-धजे पात्रों ने, अपने ही लोक वाद्यों के बीच, 
							पंडवानी तथा बगड्वाली शैली में कथागायन और नृत्य 
							भंगिमाओं के साथ इस लोकविधा का प्रर्दशन किया। ढोल, 
							दमाऊ, भंगकोरा, बांसुरी, हुड़का, डौर, सिम्पल, शंख और 
							घंटा-जैसे लोकवाद्यों ने और उनके साथ पांडव एवं कौरव 
							पक्ष के पात्र बने स्थानीय कलाकारों ने इस लोकनाट्य 
							रूप को जीवंतता प्रदान की, जिसमें शैलेन्द्र, राकेश 
							भट्ट, गिरीश, फूलचन्द, गौतम, मोहित, अंजू, अंजना, 
							सुनीता-जैसे स्थानीय गायकों ने अपने सधे हुए स्वर से 
							प्राण फूँक दिये। चक्रव्यूह लोकनाट्य की परंपरागत कथा 
							को नया रूप दिया-डॉ. दाताराम पुरोहित ने। चोपता मार्ग 
							पर स्थित यह छोटा-सा गाँव आज चक्रव्यूह नाटक के मंचन 
							का रंगस्थल बना हुआ था। खुले में तरह-तरह के लाल, 
							पीले, नीले, सफेद, रंगीन कपड़ों, साड़ियों से चक्रव्यूह 
							बनाया गया। पात्रों की योद्धाओं वाली वेशभूषा थी, 
							जिनकी कमर में बंधे फेंटे उनके कमर कसकर युद्ध में कूद 
							पड़ने के संकल्प और निश्चय को दर्शा रहे थे। स्त्री 
							पात्र द्रौपदी, पीले रंग की कमीज और लाल रंग का घाघरा 
							धारण किये थी, जिसके सिर पर बंधा लाल रंग का रेशमी 
							ढाँटू उसे महाभारत की द्रौपदी में परिणत कर रहा था।
 
 ’चक्रव्यूह‘ के मर्मज्ञ और इस आयोजन के प्रमुख 
							सूत्रधार डॉ. अरविन्द दरमोड़ा का कहना है कि महाभारत 
							युद्ध के तेरहवें दिन चक्रव्यूह रचा जाता है। इसकी 
							रचना गुरु द्रोणाचार्य ने की थी। इस बात को केवल वही 
							जानते थे कि अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ सप्तसंतपत को 
							युद्ध में गया हुआ है। कौरव पक्ष से युद्ध का संदेश 
							मिलता है। पांडव पक्ष के सम्मुख समस्या उठ खड़ी होती है 
							कि इस चुनौती से किस तरह निपटा जाए ? युधिष्ठिर चिंतित 
							हो अपने लोगों से पूछते हैं कि इस युद्ध को कौन लड़ेगा 
							? वे जानते थे कि चक्रव्यूह बेधने की कला केवल अर्जुन 
							ही जानता था और इस समय वह बाहर है। युद्ध शिविर में 
							उपस्थित अभिमन्यु सहर्ष इस युद्ध के लिए तत्पर हो जाता 
							है। सब आश्चर्य में पड़ते हैं और उसे रोकना चाहते हैं 
							लेकिन अभिमन्यु बताता है कि मैंने माता के गर्भ में इस 
							विधा को सुना था। इस संदर्भ को चिंतित युधिष्ठिर के 
							सम्मुख अभिमन्यु बना पात्र इन पंक्तियों में गाकर 
							व्यक्त करता है:-
 ’पांड वंश का सूरज नारायणजी सूण। यी पृथ्वी पर धर्म का 
							आधार जी। दादी कुंती का अवतारी पुत्र जी सूण। मैंने ऽ 
							ऽ चक्रव्यूह लड़ने की विद्या मैंने बड़ा-बड़ा भजे दगड़ी 
							भिड़ने की सरणा मैन माँ क गर्भ म सूणी छै...।‘‘ जब 
							अभिमन्यु युद्ध के लिए प्रयाण करता है तो सारे दर्शक 
							रोमांचित हो जाते हैं। विशेष रूप से महिलाएँ उसकी ओर 
							चावल फेंकती रहती हैं मानो उसकी विजय की कामना कर रही 
							हों।
 
 चक्रव्यूह के सात द्वार थे, जो रंग-बिरंगे कपड़ों से 
							बनाये गये थे। अभिमन्यु प्रथम द्वार पर पहुँचता है, तो 
							वहाँ जयद्रथ मिलता है। इसे अभिमन्यु आसानी से अकेला 
							पार कर जाता है। उसके साथ के शेष लोग बाहर ही रह जाते 
							हैं। अब वह दूसरे द्वार पर पहुंचता है। वहाँ 
							द्रोणाचार्य हैं। वह गुरु द्रोणाचार्य को प्रणाम करता 
							है। वे उसे समझाते हैं। अंततः अभिमन्यु का मार्ग छोड़ 
							देते हैं। तीसरे द्वार पर दुःशासन मिलता है। अभिमन्यु 
							उससे जूझता है और दुःशासन को परास्त करता हुआ चौथे 
							द्वार तक पहुँचता है। चौथे द्वार पर कर्ण मिलता है। 
							अभिमन्यु उससे भी युद्ध करता है और उसे भी पराजित करके 
							पाँचवें द्वार पर लक्ष्मण और शल्य मिलते हैं। अभिमन्यु 
							उनसे भी लड़ता है। इस युद्ध में लक्ष्मण मारा जाता है। 
							अभिमन्यु अब छठे द्वार पर पहुंचता है। वहाँ उसे 
							कृपाचार्य और अश्वत्थामा मिलते हैं। अभिमन्यु 
							अश्वत्थामा को भी पराजित कर देता है और सातवें द्वार 
							तक आ पहुंचता है। इस अंतिम सातवें द्वार पर शकुनि और 
							दुर्योधन तैनात हैं। अभिमन्यु अपने हथियार रख देता है। 
							शकुनि और दुर्योधन अपने अन्य सैनिकों के साथ मिलकर 
							अभिमन्यु पर वार करने लगते हैं। गुरु द्रोणाचार्य 
							उन्हें निहत्थे पर वार करने से रोकते हैं और कहते हैं 
							कि यह युद्ध के नियमों का उल्लंघन है तथा धर्म विरुद्ध 
							है लेकिन द्रोणाचार्य की इस बात को कोई नहीं सुनता। 
							अभिमन्यु मारा जाता है। सब लोग एकत्र होते हैं। सभी रो 
							पड़ते हैं। ऐसे में दर्शकों का भी उनके साथ रो पड़ना 
							स्वाभाविक ही है।
 
 यह मार्मिक करुण दृश्य देखकर उनका साधारणीकरण हो जाता 
							है। एक तरह से यह प्रदर्शन का चरम बिंदु है। अभिमन्यु 
							का शव पड़ा है। युधिष्ठिर एवं कृष्ण पास ही खड़े हैं। सब 
							शोकाकुल हैं और मौन हैं। अर्जुन कहता है, ’’मेरा भैजी 
							बोला झट बांछ खोला ... मेरौ अभिमन्यु कांठा कौ सूरिजो, 
							जोड़िको मलेसु आज कैन फट्टाये....मेरो अभिमन्यु कलेजा 
							कि फांक ...झटपट बतावा कैन गए सांक, या बीठो की फ्यूली 
							फूलण नि दिन्यो....‘‘ (आप मौन क्यों हैं ? मेरे दिल का 
							जो सूरज और मेरे कलेजे का टुकड़ा है, तुरंत बताओ यह 
							हालत किसने की ? इस फूल को खिलने से पहले ही किसने मसल 
							दिया ?) तब कृष्ण उसे समझाते हुए संदेश देते हैं-’’सोक 
							न कर तू हे अर्जुन, ये दिन आंदा रैंदा....विरजू औंदा 
							जोस अतौंदा, आंसू देखी चलि जांदा...ये को सोक न कर, हे 
							ये जी...यो तो अमर ह्वै चली गै....भारत मां जन्मी कारण 
							से...आज उरिप सों ह्वैगै...सोक न कर तू हे अर्जुन...‘‘ 
							(हे अर्जुन तू शोक मत कर। ये दिन तो मनुष्य के जीवन 
							में आते-जाते रहते हैं। कभी सुख है, कभी दुःख है। ये 
							तो आंसू देकर चले जाते हैं। तेरा पुत्र अभिमन्यु तो 
							अमर हो गया है, वह भारत माता के उऋण हो गया है।)
 
 नदी, पर्वत, आकाश, जंगल, हवा और गंधारी गाँव, गाँव में 
							इस लोकनाट्य को दूर-दूर से देखने आये स्त्री-पुरुष, 
							बाल-वृद्ध समान भाव से इस शोकपूर्ण वातावरण में डूब 
							जाते हैं। अर्जुन को श्रीकृष्ण द्वारा दी गयी सांत्वना 
							और जीवन की क्षणभंगुरता तथा मातृभूमि पर सर्वस्व 
							न्यौछावर कर देने की प्रेरणा देते चले आ रहे हैं।
 
                            ११ नवंबर २०१३ |