२७ मार्च विश्व रंगमंच
दिवस के अवसर पर
नाटक - क्रमिक विकास,
प्रयोग और प्रयोजन
वंदना शुक्ल
-- मार्क्स का अत्यंत प्रसिद्ध कथन है
कि अभी तक दार्शनिकों ने दुनिया की व्याख्या की थी,
लेकिन सवाल दुनिया को बदलने का है। बदलने का अर्थ
तकनीकी विकास (विचारगत/विकास गत और आधुनिकीकरण के
सन्दर्भ) से लिया जाये या सामाजिक क्रांति से? जहाँ तक
सामाजिक (बदलाव) क्रांति का प्रश्न है इस दौर में या
कहें परिवर्तन की प्रक्रिया के तहत अन्यान्य
वैचारिक/प्रायोगिक पहलों के साथ साहित्य व कलाओं की
सार्थक भागीदारी भी गौरतलब है, इसे नकारा नहीं जा
सकता, क्यूँकि कमोबेश सभी कलाओं में तत्कालीन समय से
संवाद करने की अद्भुत क्षमता देखी जा सकती है!
इस सन्दर्भ में
महान चित्रकार सैयद हैदर रजा का ज़िक्र करना संभवतः
तर्कसंगत होगा! रजा हिन्दुस्तान के एकमात्र मूर्धन्य
चित्रकार हैं जिन्होंने अपने चित्रों में कविताओं का
निरंतर इस्तेमाल किया है! रजा ने मुक्तिबोध की कविता
से एक चित्र ‘’तम शून्य’’ शीर्षक से बनाया, जिस पर
अंकित शब्द थे ‘’इस तम शून्य में तैरती है जगत समीक्षा
‘’! रेनर मारिया रिल्के कि कविता को उसके फ्रेंच
अनुवाद में (गौरतलब है कि रजा फ़्रांस में ही बस गए
थे) के चित्र का शीर्षक था ‘’दूर से आती मौन की आवाज़
सुनो’’! यदि संदर्भित परिप्रेक्ष्य में नाट्य
प्रासंगिकता की बात की जाये तो, नाटक में पात्रों के
माध्यम से संप्रेषित किये जाने वाले संवादों, कथ्य और
दर्शकों की संवेदनाओं विचारों के साथ एक प्रत्यक्ष
साम्य स्थापित होता है! इस प्रत्यक्ष /अप्रत्यक्ष
वार्तालाप में उन दौनों के मध्य, एक वैचारिक पुल
निर्मित होता है!
नुक्कड़ नाटकों में
ये सम्वादशीलता और सम्प्रेषण क्रिया अपेक्षाकृत और
घनीभूत हो जाती है! गौरतलब है कि किसी भी कला के दो
मुख्य प्रयोजन हो सकते हैं- एक, शुद्ध मनोरंजन और
दूसरा वैचारिक जागरूकता, लोक क्रांति सघन
संवेदनात्मकता जहाँ कलम को हथियार बन जाना होता है!
उल्लेखनीय है देश कि आजादी के पूर्व कुछ कविताओं/गीतों
का प्रयोग जन जागृति और जोश की भावना भरने के मकसद से
ही किया गया था मसलन बिस्मिल की ये कविता ‘’यों खड़ा
मकतल में कातिल कह रहा है बार बार, क्या
तमन्ना-ए-शहादत, भी किसी के दिल में है! इसके अतिरिक्त
कुव्यवस्थाओं, अराजकता आदि के खिलाफ भी कवियों लेखकों
नाटककारों ने कला के माध्यम से समय २ पर अपना रोष दर्ज
किया! सफ़दर हाशमी की कविता...‘’देवराला की छाती
से धुंआ अभी तक उठता है, रूप कुंवर की चीत्कार को, आज
भी भारत सुनता है। ’’
जहाँ तक नुक्कड़
नाटकों के उद्भव (ज़रूरत) का प्रश्न है, ये नाटक उस आम
जनता के लिए हैं जो टिकट खरीद कर नाटक नहीं देख पाते!
दरअसल हिदी क्षेत्र बहुत बड़ा है! शौकिया रंगमंच का
विस्तार हो रहा है! पर वो अपने आप को संकटग्रस्त पाता
है। वजह।?...उसे कम खर्च और सशक्त कथ्य के ताज़े नाटक
चाहिए पर कहाँ हैं नाटककार? नतीजतन नुक्कड़ नाटक इस
लिहाज़ से उसके लिए अधिक सुलभ हैं। बल्कि इनका
उद्देश्य ही है किसी सभाग्रह के व्यवस्थित मंच के बिना
सीधे, ‘’आम’’जनता से जुडना, उनकी समस्याओं से सरोकार
जैसे अभाव, मंहगाई, बढती हुई जनसंख्या, प्रशासनिक और
राजनीतिक भ्रष्टाचार, प्रदूषण आदि...।जन जीवन से जुडी
समस्याओं से रु-ब-रु कराना! ! कहानी के बारे में कहा
जाता है कि कहानी जीवन को बयान तो करती है पर वो जीवन
नहीं हो सकती’’, पर नाटक उसे एक मंच एक जीवन देता है
उसके समानांतर एक प्रश्न व विचार प्रत्यक्षतः प्रस्तुत
करता है। नाइजीरियाई लेखक चिनुआ अचीबे ने लिखा है ‘’जब
हम किसी कहानी को पढते हैं,तो हम केवल उसकी घटनाओं के
द्रष्टा ही नहीं बनते, बल्कि उस कहानी के पात्रों के
साथ हम तकलीफों में भी साझा करते हैं।” यही मर्म इतनी
ही शिद्दत और गंभीरता से नाटक में भी अपेक्षित और
ज़रूरी रहता है। एक सफल नाटक की यही वास्तविकता भी है।
नाटक ज़िंदगी को देखना, उसे ज़ज्ब करना और कहानी
प्रस्तुत करते सम्पूर्ण सम्वेद्नओं और सच्चाइयों-
अनुभूतियों के साथ उसे दर्शकों के समक्ष पेश करना।
हर
बड़े सर्जक को पुराने ढांचे को तोड़कर नया बनाना होता
है! नई संभावनाएँ टटोलनी होती है। यूँ तो नाटक
विधा का प्रारंभ भरत मुनि द्वारा लिखित ‘’नाट्यशास्त्र
‘’(लगभग ४५०० वर्ष पूर्व)माना जाता है!।इसमें नाटक के
सभी रूपों यथा पार्श्व संगीत, मंच संयोजन,
वेश-भूषा,कथ्य आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है!
तत्पश्चात, इसे ठोस रूप से (प्रयोगात्मक तौर पर
)क्रियान्वित करने का श्रेय जाता है भारतेंदु को। वे
हिंदी रंगमंच के पिता कहे जाते हैं। प्रसिद्ध आलोचक
राम विलास शर्मा कहते हैं भारतेन्दु के नेतृत्व मे
महान साहित्यिक पार्दुरभाव हुआ।’’ भारतेंदु कवि, लेखक,
संपादक और नाटककार भी थे। उन्होंने ‘’भारत
दुर्दशा’’,’’नीलदेवी’’, वैदिक हिंसा हिंसा न भवति’’
आदि लिखे, लेकिन अंधेर नगरी सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय
नाटक है और आज भी अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखे हुए है।
यह हास्य के साथ २ एक राजनीतिक कटाक्ष भी है। इसे अनेक
मूर्धन्य नाटककारों ने कई भाषाओँ में किया, जैसे,
बी.वी. कारंथ, प्रसन्ना, अरविन्द गौड़, संजय उपाध्याय
आदि। प्रसिद्ध लेखक अमृतलाल नागर भारतेंदु के प्रशंसक
थे। उन्होंने अनुवाद की प्रशंसा करते हुए कहा
‘’’’मुद्राराक्षस करो, देखो, भारतेंदु ने उसका कितना
अच्छा अनुवाद किया है, और क्यूँ किया है?’’ इसकी
विशेषता बताते हुए वे कहते हैं ‘’सशक्त जटिल कथ्य,
आधुनिक सन्दर्भ, राजनैतिक, सामाजिक सांस्कृतिक
संघर्ष,नाट्यकला और भाषा सबका चरम बिंदु है यह और
‘सर्जनात्मक अनुवाद‘ है। आजादी के पूर्व रंगमंच को
स्थापित करने और उसकी बारीकियों को आगामी पीढ़ी तक
हस्तांतरित करने का अभूतपूर्व कार्य किया आगा हश्र
कश्मीरी और पृथ्वीराज कपूर ने।” ‘’पठान’’ और ‘’दीवार’’
उनके प्रसिद्ध नाटकों में से हैं।
साहित्य अकादमियों की स्थापना होने के बाद इस नाट्य
आन्दोलन में, जिस मूर्धन्य कलाकार का नाम लिया जा सकता
है वो हैं, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व
निर्देशक इब्राहिम अलकाजी। नाट्य रंग के नए प्रयोगों
एवं प्रतिभा को उन्होंने खुले हृदय से सराहा और
प्रेरणा दी! इसी सन्दर्भ में...। यद्यपि
उन्होंने काफ्का के उपन्यास ‘’द ट्रायल’’ पर आधारित
‘’जोज़फ़ का मुकादमा’’, मैन विदाउट शेडोज़
‘’(सार्त्र), और द फादर (इस्तिंद बर्ग) जैसी विश्व
कृतियों का निर्देशन/रूपांतरण भी किया, लेकिन मोहन
महर्षि द्वारा विज्ञान पर लिखे गए नाटक
‘’आईन्स्ताइन’’को सबसे उल्लेखनीय माना। उन्होंने कहा
‘’लन्दन, न्यूयार्क या पेरिस में होने पर इसी नाटक को
दुनिया की एक अहम घटना माना जाता।’’ वस्तुतः यह एक
अद्वितीय नाटकों की श्रेणी में आता है। उल्लेखनीय है
कि विज्ञान पर आधारित मोहन महर्षि के इस नाटक को मैंने
देश के एक प्रसिद्ध इंजीनियरिंग कॉलेज के
छात्र-छात्राओं द्वरा निर्देशित/अभिनीत देखा है, उस
नाटक का शिल्प कथ्य तो निस्संदेह उत्कृष्ट था, पर उन
विद्यार्थियों का अभिनय इतना अनोखा और अद्भुत था (मंच
सज्जा, से लेकर मेक-अप तक) कि बहुत दिनों तक स्मृति
में छाया रहा। नई पीढ़ी किस तरह के नाटक चाहती हैं आज
इसका सबूत भी था माना जा सकता है ये!
इस क्रम में इप्टा
(इण्डियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन) की भूमिका को
नकारा नहीं जा सकता! आजादी के आंदोलन को नाटक और
जन गीतों के माध्यम से जन सामान्य तक पहुँचाने में
इप्टा कि महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। जाने-माने अभिनेता
ए के हंगल और बलराज सहनी की ये अभिनय पाठशाला कही जा
सकती है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री आई. के. गुजराल ने भी
इप्टा के मंच पर कभी जन गीतों में हिस्सेदारी की थी!
आजकल लोक कहानियों एवं एकल नाटकों का मंचन भी बढा है।
अलख नंदन निर्देशित नट बुंदेले से लेकर भिखारी ठाकुर
के ‘’बिदेसिया’’(निर्देशक संजय उपाद्ध्याय) तक के
नाटकों को भरपूर सराहना मिली। वहीं इंदौर की सुमन
धर्माधिकारी, मुंबई की असीमा भट्ट, वसंत पोद्दार,
विप्लव दास अजय कुमार (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के
स्नातक, अजय कुमार ने निराला कि कविता ‘’राम की शक्ति
पूजा‘’ का वाचिक एकल अभिनय किया है। ये एकल नाटक के
प्रयोग काफी सराहे गए! शेखर सेन (सुप्रसिद्ध शास्त्रीय
संगीत गायिका अनीता सेन के पुत्र), जन साधारण के बीच
कबीर के भजनों को गाते और उनकी व्याख्या करते हैं!
कलकत्ते के विप्लव दास अच्छी चुनी हुई कहानियों को
गाँव कस्बों में जाकर छोटे मंचों पर नाटक (डायलोग्स)के
साथ प्रस्तुत करते हैं! संजय उपद्ध्याय ने कथा कविता
एवं एकल प्रस्तुतियों को भी निर्देशित किया है!
प्रसन्ना द्वारा राष्ट्रीय थियेटर फोरम की स्थापना की
गई है।
हिन्दुस्तान आज प्रयोगवादी हो चला है और इस दौर में
मौलिक नाटकों का मंचन, इंटरप्रिटेशन सशक्त,संपादन, आदि
की कोशिशें जारी है, बावजूद इस उत्साह के इस दिशा में
अपेक्षित कार्य एवं लंबे समय से चली आ रही एकरसता, ,
पुनरावृत्तियों, भाषागत संकटों आदि से मुक्ति पाना अभी
शेष है! प्रयोगों के इसी तारतम्य में मै कुछ
व्यक्तिगत अनुभव, जो कुछ नाटकों के दर्शक के रूप में
और अभिनीत करके प्राप्त हुए प्रस्तुत करना चाहती हूँ।
सप्रयोजन
नाटकों की श्रेणी में महान नाटककार, लेखक, प्रयोग
धर्मी हबीब तनवीर जी की नाट्य धर्मिता, प्रयोग और
संलग्नता के सन्दर्भ में जितना कहा जाये कम है! ये
आश्चर्यजनक है कि उच्च शिक्षित, विदेशों में रहे हुए
उन्होंने, यहाँ आकर अपनी कर्मस्थली भारत के उन पिछड़े
हिस्सों गाँवों को भी बनाया जिनके बाशिंदों के लिए दो
जून की रोटी जुटाना एक समस्या होती है, कला और
अन्य आभिजात्य शौक तो दूर की कौड़ी होते है। हबीब
तनवीर ने नौ फिल्मों में अभिनय भी किया है, जिसमे
रिचर्ड एटनबरो की ‘’गांधी’’ भी शामिल है। प्रथम जाना
जाने वाला नाटक ‘’आगरा बाजार’’ काफी पसंद किया गया।
भोपाल में ‘’नया थिएटर’’ की शुरुआत, भोपाल गैस त्रासदी
पर भी एक फिल्म के साथ साथ उन्होंने भास्, विशाखादत्त,
भवभूति जैसे पौराणिक संस्कृत नाटककारों से लेकर
यूरोपियन क्लासिक्स शेक्सपियर, मोलियर, ब्रेख्त,
लोर्का आदि भी किये! इसके अतिरिक्त आगरा बाज़ार, शतरंज
के मोहरे भी प्रसिद्ध नाटकों में से हैं! सबसे
महत्त्वपूर्ण बात ये कि उन्होंने छत्तीस गढी लोक कथाओं
और वहीं के स्थानीय लोगों का ग्रुप बनाकर छत्तीसगढी
में ही नाटक किये जिनमे मिट्टी की गाड़ी, गाउ का नाम
ससुराल मोर नाउ दामाद,चरणदास चोर, बहादुर कल्हरिन, आदि
प्रसिद्ध नाटक हैं! भोपाल में हबीब तनवीर के नाटकों का
फेस्टिवल किया गया था जिसे देखने का सौभाग्य प्राप्त
हुआ था! बगैर किसी खास ताम-झाम के, ’पारंपरिक
वादय-यंत्रों के साथ साक्षात संगीत’’ और शुद्ध छत्तीस
गढी बोली में मंचित उन बेहद सफल नाटकों ने नाट्य
पुरोधाओं के भाषासंबंधी उन सभी दुराग्रहों को विनम्रता
पूर्वक खारिज कर दिया था, जिनका रुदन इस क्षेत्र का एक
स्थाई भाव बन गया था! जिनमे विशेषतः बहादुर
कल्हारिन की मार्मिक और झकझोर देने वाली कथा (लोक कथा
पर आधारित) बहादुर कल्हारिन में ‘’गुलाबबाई’’की वो
बुलंद आवाज़, गायन आज तक मस्तिष्क में ज्यूँ का त्यूँ
छाया है!।!
कहते हैं मनुष्यता और मानवता के बेहतरीन क्षण अवसाद से
गुजर कर ही पैदा होते हैं, लोक संगीत,लोक पीड़ा से ही
ज़न्म लेता है! ये न सिर्फ नाटक की अपूर्व सफलता का
सबूत हैं बल्कि इस बात का प्रमाण भी कि हमारी
सांस्कृतिक दीवार की ये ईंटें, ये लोक कलाएँ आज भी
कितनी संभावनाओं और संवेदनाओं से भरी हुई हैं! ’’गिरीश
रस्तोगी के अनुसार ‘’हिंदी प्रदेश की संस्कृति,बोलियाँ
उनकी महक और गमक इतनी विविध और रोचक है कि हमें दूर
दूर तक जाने को प्रेरित करती है!।’’हबीब तनवीर के
नाटकों को देखकर यहीं लगा कि कलाकार ‘बनने’’के लिए कला
की औपचारिक शिक्षा विधिवत ज्ञान और उसीके एन सामने एक
स्वच्छंद अनगढ़ चरित्र को ‘’नाटकीय चरित्र’’में ढाल
पाने कि चुनौती और कमाल...।सम्पूर्ण प्रशिक्षित नाट्य
संसार को हतप्रभ और चमत्कृत करने वाली घटना थी!
लगभग इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए पिछले दिनों (एक
रिपोर्ट के अनुसार), जिले आजमगढ़ के गाँव कप्तान गंज
में एन.एस.डी. (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) के सहयोग से
एक माह की नाट्य कार्यशाला का आयोजन किया गया जिसके
अंतर्गत १२ वर्ष से लेकर ४० वर्ष तक के ग्रामीण
प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया तथा शिवमूर्ति जी की
कहानी तिरियाचारित्तर (नाट्य रूपांतरण/निर्देशन
भारतेंदु कश्यप का मंचन हुआ! एक और नाट्य मनीषी
का नाम उद्धृत करना चाहूँगी, केरल के सुविख्यात रंग
निर्देशक पद्म विभूषण ‘’श्री कवलम नारायण पणिक्कर...!
उन्होंने हिन्दी रामायण और ग्रीक एपिक का फ्यूज़न भी
बनाया! और ग्रीस,सोवियत यूनियन सहित कई देशों
में नाटकों के प्रदर्शन भी किये! वे भास् के
रूपकों के मंचन के लिए विख्यात हैं! बल्कि भास्
के रूपकों को पुनर्प्रतिष्ठित करने में महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभाई है! मलयालम के जाने माने नाट्य लेखक, कवि
और संगीत के मूर्धन्य कलाकार भी हैं! विक्रमोशीर्यम,
मध्यमाव्ययोध, स्वप्नवासवदत्तं, उरुभंगम आदि नाटकों का
सफल मंचन किया! उनके अनुसार ‘’हमें किसी भी नाटक की
संरचना और उसकी प्रेक्षकों के सम्मुख प्रस्तुति के
सन्दर्भ में सोचना चाहिए! उल्लेखनीय है कि भास् के
नाटक दो महाकाव्यों पर आधारित हैं ‘’रामायण और महाभारत
‘’!, उज्जैन में होने वाले कालिदास समारोह में श्री
पणिक्कर जी को आमंत्रित किया गया था भास् का नाटक
‘’दूत वाक्यम ‘के ’निर्देशन के लिए! म. प्र. से चुने
गए कलाकारों को लेकर उन्होंने इस नाटक का निर्देशन
किया था! संगीत नृत्य प्रधान इस नाटक को मूल संस्कृत
में ही मंचित किया गया था! नृत्य निर्देशन
मोहिनीअट्टम की देश की सुप्रसिद्ध नृत्यांगना भारती
शिवाजी ने किया, जो पणिक्कर जी को अपना गुरु मानती
हैं!
इस
नाटक में डायलोग्स को सीधे २ न बोलकर एक धुन में गया
जाता था एवं नृत्य नाटक का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा था!
! चित्र पटम का इस्तेमाल किया गया था! मुझे याद है कि
कृष्ण का विराट स्वरुप दिखाने के लिए मंच पर चार कृष्ण
दिखाए गए थे, जिनमे प्रकाश और संगीत का अद्भुत संयोजन
किया गया था ! वह दृश्य मन्त्र मुग्ध कर देने वाला
था,एक अभूतपूर्व, अलौकिक चमत्कार था! मैंने काफी
निकट से देखा था उसका प्रभाव! कुछ वक़्त के लिए महसूस
हुआ कि हम उसी काल उसी स्थिति में हैं! मै उस
वक़्त मंच पर ही मौजूद थी उस नाटक की एक किरदार के रूप
में! म. प्र. कला परिषद की ओर से जब इस नाटक के
लिए चयन हुआ तब खुशी इस बात की थी, कि पणिक्कर जी जैसे
महान नाट्यधर्मी और भारती शिवाजी (जिनका शास्त्रीय
नृत्य हम सिर्फ बड़े आयोजनों में देख पाते थे), के
निर्देशन में काम करने का अवसर मिलेगा पर मुझे ये
जानकर थोड़ी निराशा हुई थी कि ये नाटक संस्कृत मूल में
ही मंचित होना है, (हिंदी नाटकों की दर्शक संख्या भी
मैं जानती थी...फिर संस्कृत में नाटक होना) लेकिन
कीर्ति मंदिर सभाग्रह में दर्शक संख्या (हाउस फुल) और
निर्देशन की बारीकियाँ और नए प्रयोग को प्रत्यक्षतः
देखकर मन अभिभूत हो गया!
अपने इस अनुभव को मैं जीवन की कुछ गिनी चुनी
उपलब्धियों में से एक मानती हूँ! वर्त्तमान में देश भर
में कई संस्थाएँ, नाट्य ग्रुप गंभीरता पूर्वक कार्य कर
रहे हैं परवेज़ अख्तर का ‘’पटना रंगमंच’’,मूलतः बिहार
के संजय उपाध्याय (जो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से
निर्देशन में स्नातक हैं) के नाट्य समूह और ‘’सफरमैना
’’के संस्थापक-निर्देशक ’’अरविन्द गौड़ का नाट्य
–दल’’अस्मिता ; बिलासपुर इप्टा, नाचा थियेटर रायपुर,
कला मंदिर ग्वालियर म. प्र. रंगपीठ मुंबई, ’’प्रयोग’’
भोपाल, जे. एन. यू. इप्टा, नया थिएटर भोपाल, विवेचना
जबलपुर आदि, एवं नई पीढ़ी के निर्देशकों में देवेन्द्र
राज अंकुर, उषा गांगुली, मानव कौल, अरुण पांडे,
अरविन्द गौड़ आदि नाट्य दल और निर्देशक नए प्रयोग और
रंगमंच को एक नई दिशा दे रहे है!
भोपाल, सांस्कृतिक गतिविधियों का गढ़ रहा है और
निस्संदेह भारत भवन के रूप में सांस्कृतिक विरासत को
आगे बढ़ाने की कड़ी में प्रसिद्ध कवि/लेखक श्री अशोक
बाजपेई के योगदान को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता!
भारत भवन देश में अपनी एक अलग पहचान रखता है,जहाँ
रूपंकर कलाओं (जिनका प्रारंभ महान कलाकार जे
स्वामीनाथन के कर-कमलों से हुआ), देश के सुविख्यात
नाटककार/लेखक कारंथ, जो एन.एस.डी. (राष्ट्रीय नाट्य
विद्यालय) के निर्देशक भी रह चुके थे, १९८० में
प्रारंभ हुई म. प्र. ,की प्रथम रेपेट्री के निर्देशक
बनाये गए! ( उन्होंने कन्नड़ फ़िल्में भी बनाईं! तथा
प्रसिद्ध लेखक/अभिनेता गिरीश कर्नाड के साथ कुछ
फिल्मों में संगीत भी दिया)! कारंथ जी ने इस कला को नई
पहचान, नए आयाम दिए और अनेक कलाकारों को पहचान दिलाने
में अभूतपूर्व योगदान दिया!
ये सच है, कि हिन्दी नाटक कम लिखे जा रहे हैं लिहाजा
नाटककारों को विदेशी या अन्य भाषा से अनुवादित/अनूदित
नाटकों से काम चलाना पड़ रहा है...लोक कथाओं के नाट्य
रूपांतरण के बढते चलन तथा कहानियों के नाट्य रूपांतरण
से हिंदी नाटकों के अभाव की खाना पूर्ती की जा रही है!
सुविख्यात लेखक भीष्म साहनी ने एक साक्षात्कार में कहा
था कि ‘’ ’हिंदी का लेखक रंगमंच के निकट नहीं आ पाया!
रंग मंच नहीं मिल रहा है’’! ये कहना गलत नहीं होगा कि
हिन्दी नाटक का दर्शक अमूमन रूचि रखते हुए भी टिकिट
खरीदकर नाटक देखना नहीं चाहता, (हालाकि स्थिति पहले से
बेहतर है बावजूद इसके ), दूसरी ओर कितनी ही समर्पण की
बात कर ली जाये पर नाटकीय रुचि के चलते उसी के बलबूते
जीवन यापन कठिन होता है! मूलतः नाटक एक सामूहिक कला
है, इसके लिए अभ्यास स्थल से लेकर वेश भूषा, मंच
सज्जा, ध्वनि-लाइटिंग, सभाग्रह का किराया तमाम व्यय
व्यक्ति/संस्था को वहन करने होते हैं!
सरकारी अनुदान प्राप्त रेपेतरीज़ को छोड़ दिया जाये तो
शौकिया नाटककारों को टिकिट या अधिक से अधिक सोविनियर
के विज्ञापनों पर ही विशेषतः निर्भर रहना पड़ता है!
जबलपुर के ‘’विवेचना’’नाट्यदल के निर्देशक श्री वसंत
कहते हैं ‘’ऑडिटोरियम तो भर जाता है, लेकिन ये ज़रूर
हैं कि आर्थिक रूप से घाटे में ही रहते हैं! फिर भी हम
लोग पिछले सत्रह साल से ‘’विवेचना राष्ट्रीय नाट्य
समारोह’’कर रहे हैं! समारोह में मुंबई, देहली जैसी
जगहों से सभी बड़े निर्देशकों /दलों को बुला चुके हैं!
कुछ मित्रगण, कुछ दानदाता, थोड़ी बहुत सकारी मदद से
काम चल ही जाता है!’’
इंजीनियरिंग
की पढ़ाई बीच में छोड़कर रंगमंच से जुड़ने और अब तक
पाँच सौ से ज्यादा युवाओं को रंग कर्म का व्यवहारिक
प्रशिक्षण दे चुके प्रसिद्ध रंगकर्मी अरविन्द गौड़
कहते है ‘’मैंने आज तक सरकार से एक पैसा नहीं लिया! और
अप्रशिक्षित युवाओं के साथ काम करता हूँ! लोग अपने बल
पर रंगमंच करें तो पता चले दूसरों के पैसे पर शीशे का
घर बनाकर उसमे बैठ जाना बहुत आसान है! ’’‘’पिछले दिनों
मुंबई में एक स्थानीय अखबार में पढ़ा कि ‘’मराठी
नाटकों का दर्शक आज भी टिकिट खरीदकर सभाग्रह में जाकर
नाटक देखता है, रूचि लेता है!’’ महेश कुँवर द्वारा
मंचित और अनूदित नाटक वहाँ चर्चित रहे हैं! जबकि मुंबई
एक ऐसा महानगर है जहाँ सांस्कृतिक आकर्षणों की कमी
नहीं, बावजूद इसके नाटकों के प्रदर्शनों की संख्या और
दर्शकों कि उसमें उत्साहपूर्ण हिस्सेदारी भले ही मराठी
नाटकों में हो पर विधा की दृष्टि से एक शुभ संकेत तो
है ही!! दरअसल आज हिंदी नाटक के सामने कुछ चुनौतियाँ
हैं!
एक ओर तो हिन्दी नाटक कम लिखे जा रहे हैं, दूसरी ओर
अनूदित नाटकों को अपेक्षानुकूल दर्शक नहीं मिल रहे
हैं! (स्थापित दलों को छोड़ दिया जाये तो) संभवतः
वक़्त की नब्ज़ टटोलते हिन्दी नाट्य लेखक/निर्देशकों
को हिन्दी कहानियों में अधिक विस्तार दिख रहा है,
नतीजतन उत्साही निर्देशकों के सामने दो ही रस्ते बचते
हैं, या तो वो ‘’स्कंदगुप्त, अंधायुग’’से लेकर ‘’सूर्य
की अंतिम किरण......या ‘’कथा एक कंस की’’जैसे पुराने
प्रख्यात बहुआयामी लोक क्रांति के नाटक खेलें (दोहराव
करें) या फिर किसी अनूदित नाटक या किसी कहानी/लोक कथा
आदि का नाट्य रूपांतरण कर उसे मंचित करें!!
हलाँकि थोडा विषय परिवर्तन करना पड़ रहा है, पर जहाँ
तक हिन्दुस्तान की भाषा यानी हिंदी कि व्यापकता का
प्रश्न है, वो गिने चुने प्रदेश जहाँ हिंदी बड़ी
संख्या में बोली जाती है, वो भी अंग्रेजी के आभामंडल
की चकाचौंध में हिंदी के बढते अँधेरों को देख नहीं पा
रहे हैं या देखना नहीं चाहते! कुछ ने तो इस
स्वीकारोक्ति को आत्मसात भी कर लिया है कहते हैं कि
‘’अंग्रेज़ी भारतीय परिवेश और संस्कृति में रच बस कर
ठेठ भारतीय ही हो गई है इसलिए उसे भारतीय भाषा ही
मानना चाहिए! ’’यद्यपि वैश्वीकरण के इस युग में
अँग्रेजी के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता पर जहाँ
किसी भाषा को अन्य भाषा के समक्ष अपने ही देश में बेघर
की तरह रहना पड़े उस त्रासदी से सावधान ज़रूर हो जाना
चाहिए! आवश्यकता है इस समस्या को एक अभियान का रूप
देने की!
२६
मार्च २०१२ |