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                            १1
 नाटककार और रंगमंच
 -मोहन राकेश
 
 और 
							लोगों की बात मैं नहीं जानता, केवल अपने लिए कह सकता 
							हूँ कि आज की रंगमंचीय गतिविधि में गहरी दिलचस्पी रखते 
							हुए भी मैं अब तक अपने को उसका एक हिस्सा महसूस नहीं 
							करता। कारण अपने मन की कोई बाधा नहीं, अपने से बाहर की 
							परिस्थितियाँ हैं। एक तो अपने यहाँ, विशेष रूप से 
							हिन्दी में, उस तरह का संगठित रंगमंच है ही नहीं 
							जिसमें नाटककार के एक निश्चित अवयव होने की कल्पना की 
							जा सके, दूसरे उस तरह की कल्पना के लिए मानसिक 
							पृष्ठभूमि भी अब तक बहुत कम तैयार हो पायी है। 
 रंगमंच का जो स्वरूप हमारे सामने है, उसकी पूरी कल्पना 
							परिचालक और उसकी अपेक्षाओं पर निर्भर करती है। नाटककार 
							का प्रतिनिधित्व होता है एक मुद्रित या अमुद्रित 
							पांडुलिपि द्वारा, जिसकी अपनी रचना-प्रक्रिया मंचीकरण 
							की प्रक्रिया से अलग नाटककार के अकेले कक्ष और अकेले 
							व्यक्तित्व तक सीमित रहती है। इसीलिए मंचीकरण की 
							प्रक्रिया में परिचालक को कई तरह की असुविधा का सामना 
							करना पड़ता है—नाटककार से उसे कई तरह की शिकायत भी 
							रहती है। ऐसे में यदि नाटककार समझौता करने के लिए 
							तैयार हो, तो उसकी पांडुलिपि की मनमानी शल्य-चिकित्सा 
							की जाने लगती है—संवाद बदल दिये जाते हैं, स्थितियों 
							में कुछ हेर-फेर कर दिया जाता है और चरित्रों तक में 
							हस्तक्षेप किया जाने लगता है। पर यदि नाटककार का अहं 
							इसमें आड़े आता हो, तो उस पर रंगमंच के ‘सीमित ज्ञान’ 
							का अभियोग लगाते हुए जैसे मजबूरी में नाटक को ‘ज्यों 
							का त्यों’ भी प्रस्तुत कर दिया जाता है।
 
 नाटककार की स्थिति एक ऐसे ‘अजनबी’ की रहती है जो केवल 
							इसलिए कि पांडुलिपि उसकी है, एक नाटक के सफल अभिनय के 
							रास्ते में खामखाह अड़ंगा लगा रहा हो। वैसे यह असुविधा 
							भी तभी होती है जब नाटककार दुर्भाग्यवश उसी शहर में 
							रहता हो जहाँ पर कि नाटक खेला जा रहा हो। अन्यथा नाटक 
							को चाहे जिस रूप में खेलकर केवल उसे सूचना-भर दे देने 
							से काम चल जाता है।
 
 कुछ वर्ष पहले मेरा नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ इलाहाबाद 
							में खेला गया था, तो उसमें से अम्बिका की भूमिका हटाकर 
							उसकी जगह बाबा की भूमिका रख दी गयी थी। मुझे इसकी 
							सूचना मिली थी नाटक के अभिनय के दो महीने बाद। कुछ 
							परिचालकों की दृष्टि में एक नाटककार को अपने नाटक के 
							साथ इतना ही सम्बन्ध रखना चाहिए कि वह अभिनय की जो 
							थोड़ी-बहुत रायल्टी दी जाए, उसे लेकर सन्तुष्ट हो रहे। 
							कुछ-एक तो नाटककर के इतने अधिकार को भी स्वीकार नहीं 
							करना चाहते।
 
 इस सिलसिले में मुझे डेढ़-दो साल पहले बम्बई में 
							सत्यदेव दुबे से हुई बातचीत का ध्यान आता है। दुबे की 
							रंग-निष्ठा का मैं प्रशंसक हूँ, परन्तु आद्य रंगचार्य 
							का ‘सुनो जनमेजय’ खेलने के बाद इस प्रश्न को लेकर 
							उन्होंने नाटककार के साथ जो रुख अपनाया, वह नि:सन्देह 
							प्रशंसनीय नहीं था। मेरी बात उनसे ‘सुनो जमनेजय’ के 
							सन्दर्भ में ही हुई थी—उससे पहले जब उन्होंने मेरा 
							नाटक खेला था, तो मैंने यह प्रश्न उनके साथ नहीं उठाया 
							था। तब कारण था दुबे की लगन और उनके कार्य के प्रति 
							मेरा व्यक्तिगत स्नेह। ‘सुनो जनमेजय’ के सन्दर्भ में 
							भी बात रायल्टी को लेकर उतनी नहीं थी, जितनी आज की 
							रंग-सम्भावना में नाटककार के स्थान और उसके अधिकारों 
							को लेकर। वह बातचीत मेरे लिए दुखदायी इसलिए थी कि 
							नाटककार और परिचालक के बीच जिस सम्बन्ध-सूत्र के 
							उत्तरोत्तर दृढ़ होने पर ही हमारी निजी रंगमंच की खोज 
							निर्भर करती है, उसमें उसी को झटक देने की दृष्टि 
							लक्षित होती थी।
 
 रंगमंच की पूरी प्रयोग-प्रक्रिया में नाटककार केवल एक 
							अभ्यागत, सम्मानित दर्शक या बाहर की इकाई बना रहे, यह 
							स्थिति मुझे स्वीकार्य नहीं लगती। न ही यह कि नाटककार 
							की प्रयोगशीलता उसकी अपनी अलग चारदीवारी तक सीमित रहे 
							और क्रियात्मक रंगमंच की प्रयोगशीलता उससे दूर अपनी 
							अलग चारदीवारी तक। इन दोनों को एक धरातल पर लाने के 
							लिए अपेक्षित है कि नाटककार पूरी रंग-प्रक्रिया का एक 
							अनिवार्य अंग बन सके। साथ यह भी कि वह उस प्रक्रिया को 
							अपनी प्रयोगशीलता के ही अगले चरण के रूप में देख सके।
 
 यहाँ इतना और स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मैं इस बात 
							की वकालत नहीं करना चाह रहा कि बिना नाटककार की 
							उपस्थिति के उसके किसी नाटक की परिचालना की ही न 
							जाए—ऐसी स्थिति की कल्पना अपने में असम्भव ही नहीं, 
							हास्यास्पद भी होगी। न ही मैं यहाँ उस स्थिति पर 
							टिप्पणी करना चाहता हूँ जहाँ नाटककार स्वयं परिचालना 
							का भी दायित्व अपने ऊपर ले लेता है। नाटककार-परिचालन 
							या परिचालन-नाटककार की स्थिति अपने में एक स्वतन्त्र 
							विषय है जिसकी पूर्तियों और अपूर्तियों की चर्चा अलग 
							से की जा सकती है। यद्यपि हमारे यहाँ गम्भीर स्तर पर 
							इस तरह के प्रयोगों से अधिक उदाहरण नहीं हैं, फिर भी 
							मराठों में पु.ल. देशपांडे और बँगला में उत्पल दत्त के 
							नाट्य-प्रयोग इन दोनों श्रेणियों के अन्तर्गत विचार 
							करने की पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत कर सकते हैं। यहाँ 
							मेरा अभिप्राय नाटक की रचना-प्रक्रिया के रंगमंच की 
							प्रयोगशीलता के साथ जुड़ सकने की सम्भावनाओं से है। एक 
							नाटक की रचना यदि रंग-प्रक्रिया के अन्तर्गत होती है, 
							तो बाद में उसे कहाँ-कहाँ और किस-किस रूप में खेला 
							जाता है, इसमें नाटककार की भागिता का प्रश्न नहीं रह 
							जाता, रह जाता है केवल उसके अधिकारों का प्रश्न।
 
 रंगमंच के प्रश्न को लेकर पिछले कुछ वर्षों से बहुत 
							गम्भीर स्तर पर विचार किया जाने लगा है—उसकी 
							सम्भावनाओं की दृष्टि से भी और उन ख़तरों की दृष्टि से 
							भी जो उसके अस्तित्व के लिए चुनौती बनते जा रहे हैं। 
							बड़े-बड़े परिसंवादों में हम बड़े-बड़े प्रश्नों पर 
							विचार करने के लिए जमा होते हैं। रंगमंच को दर्शक तक 
							ले जाने या दर्शक को रंगमंच तक लाने के हमें क्या उपाय 
							करने चाहिए? प्रयोगशील रंगमंच को आर्थिक आधार पर किस 
							तरह जीवित रखा जा सकता है? किन तकनीकी या दूसरे 
							चमत्कारों से रंगमंच को सामान्य दर्शक के लिए अधिक 
							आकर्षक बनाया जा सकता है? सर्वांग (टोटल) रंगमंच की 
							सम्भावनाएँ क्या हैं? विसंगत रंगमंच के बाद की दिशा 
							क्या होगी? घटना-विस्फोट के प्रयोग हमें किस रूप में 
							करने चाहिए? इन सब परिसंवादों में जाकर लगता है कि ये 
							सब बड़ी-बड़ी बातें केवल बात करने के लिए ही की जाती 
							हैं—अपने यहाँ की वास्तविकता के साथ इनका बहुत कम 
							सम्बन्ध रहता है।
 
 यूँ उन देशों में भी जहाँ के लिए ये प्रश्न अधिक संगत 
							हैं, अब तक आकर वास्तविकता का साक्षात्कार कुछ दूसरे 
							ही रूप में होने लगा है। बहुत गम्भीर स्तर पर 
							विचार-विमर्श होने के बावजूद रंगमंच (अर्थात् नाटक से 
							सम्बद्ध रंगमंच का अस्तित्व वहाँ भी उत्तरोत्तर अधिक 
							असुरक्षित होता जान पड़ता है। परन्तु हमें उधर के 
							प्रश्नों पर विचार करने का मोह इतना है कि हम शायद तब 
							तक अपनी वास्तविकता के साक्षात्कार से बचे रहना 
							चाहेंगे जब तक कि विश्व-मंच पर ‘अर्द्ध-विकसित देशों 
							में रंगमंच की स्थिति’ जैसा कोई विषय नहीं उठा दिया 
							जाता और तब भी बात शायद कुछ आँकड़ों के आदान-प्रदान तक 
							ही सीमित रह जाएगी।
 
 हमारे यहाँ या हमारी स्थिति के हर देश में रंगमंच का 
							विकास-क्रम वही होगा जो अन्य विकसित देशों में रहा है, 
							यह भी एक तरह की भ्रान्त धारणा है। शीघ्र से शीघ्र उस 
							विकास-क्रम में से गुज़र सकने के प्रयत्न में हम 
							प्रयोगशीलता के नाम पर अनुकरणात्मक प्रयोग करते हुए 
							किन्हीं वास्तविक उपलब्धियों तक नहीं पहुँच सकते, केवल 
							उपलब्धियों के आभास से अपने को अपनी अग्रगामिता का 
							झूठा विश्वास दिला सकते हैं। यह दृष्टि बाहर से रंगमंच 
							को एक ‘नया’ और ‘आधुनिक’ रूप देने की है, अपने निजी 
							जीवन और परिवेश के अन्दर से रंगमंच की खोज की नहीं। उस 
							खोज के लिए आवश्यक है अपने जीवन और परिवेश की गहरी 
							पहचान—आज के अपने घात-प्रतिघातों की रंगमंचीय 
							सम्भावनाओं पर दृष्टिपात। यह खोज ही हमें वास्तविक नए 
							प्रयोगों की दिशा में ले जा सकती है और उस रंगशिल्प को 
							आकार दे सकती है जिससे हम स्वयं अब तक परिचित नहीं 
							हैं।
 
 अपने रंग-शिल्प पर बाहरी दृष्टि से विचार करने के कारण 
							ही हम अपने को न्यूनतम उपकरणों की अपेक्षा से बँधा हुआ 
							महसूस करते हैं और यह अपेक्षा तकनीकी विकास के साथ-साथ 
							उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। साथ ही हमारी निर्भरता भी 
							बढ़ती जा रही है और हम अपने को एक ऐसी बन्द गली में 
							रुके हुए पा रहे हैं जिसकी सामने की दीवार को इस या उस 
							ओर से बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता पाकर ही तोड़ा जा 
							सकता है। परन्तु मुझे लगता है कि हम इस गली में इसलिए 
							पहुँच गये हैं कि हमने दूसरी किसी गली में मुड़ने की 
							बात सोची ही नहीं—किसी ऐसी गली में जो उतनी हमवार न 
							होते हुए भी कम-से-कम आगे बढ़ते रहने का मार्ग तो दिये 
							रहती।
 
 तकनीकी रूप से समृद्ध और संश्लिष्ट रंगमंच भी अपने मन 
							में विकास की एक दिशा है, परन्तु उससे हटकर एक दूसरी 
							दिशा भी है और मुझे लगता है कि हमारे प्रयोगशील रंगमंच 
							की वही दिशा हो सकती है। वह दिशा रंगमंच के शब्द और 
							मानव-पक्ष को समृद्ध बनाने की है—अर्थात् न्यूनतम 
							उपकरणों के साथ संश्लिष्ट से संश्लिष्ट प्रयोग कर सकने 
							की। यहीं रंगमंच में शब्दकार का स्थान महत्त्वपूर्ण हो 
							उठता है—उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण जितना कि हम अब 
							तक समझते आये हैं।
 
 पिछले दिनों दो-एक परिचर्चाओं में मैंने नाटककार के 
							रंगमंच की बात इसी सन्दर्भ में उठायी थी। मैंने पहले 
							ही कहा है कि इसका अर्थ नाटककार को परिचालक की भूमिका 
							देना नहीं है—बल्कि परिचालना-पक्ष पर दिया जानेवाला 
							अतिरिक्त बल हमें अनिवार्यत: जिस गतिरोध की ओर लिये जा 
							रहा है, रंगमंच को उससे मुक्त करना है। शब्दों का 
							रंगमंच केवल शब्दकार का रंगमंच नहीं हो सकता—शब्दकार, 
							परिचालक और अभिनेता, इनके सहयोगी प्रयास से ही उसके 
							स्वरूप का अन्वेषण और परिसंस्कार किया जा सकता है। 
							इसका स्वीकृति-पक्ष है शब्दकार को अपनी रंग-परिकल्पना 
							का आधार-बिन्दु मानकर चलना और अस्वीकृति-पक्ष उन सब 
							आग्रहों से मुक्ति जिनके कारण रंग-परिचालना का मानवेतर 
							पक्ष उत्तरोत्तर अधिक बल पकड़ता दिखाई देता है।
 
 इसके लिए अपेक्षित है शब्दकार का पूरी रंग-प्रक्रिया 
							के बीच उसका एक अनिवार्य अंग बनकर जीना—अपने विचार को 
							उस प्रक्रिया के अन्तर्गत ही शब्द देना—उसी तरह अपने 
							आज के लिखे हर शब्द को कल तक के लिए अनिश्चित और 
							अस्थायी मानकर चलना अर्थात परिचालक और अभिनेता की तरह 
							ही शब्दों के स्तर पर बार-बार रिहर्सल करते हुए आगे 
							बढऩा। परन्तु यह सम्भव हो सके, इसके लिए परिचालक की 
							दृष्टि में भी एक आमूल परिवर्तन अपेक्षित है—उसे इस 
							मानसिक ग्रन्थि से मुक्त होना होगा कि पूरी 
							रंग-प्रक्रिया का नियामक वह अकेला है। उस स्थिति में 
							वह अकेला नियामक होगा जब इस तरह की रंग-प्रक्रिया के 
							अन्तर्गत एक नाटक का निर्माण हो चुकने के बाद वह उसे 
							प्रस्तुत करने जा रहा हो—अर्थात् जब अन्तत: नाटक एक 
							निश्चित पांडुलिपि या मुद्रित पुस्तक का रूप ले चुका 
							हो। परन्तु जिस रंग-प्रक्रिया के अन्तर्गत वह 
							पांडुलिपि निर्मित हो रही हो, उसमें मूल नियामक 
							नाटककार ही हो सकता है और परिचालक वह मुख्य सहयोगी जो 
							उसके हर अमूर्त विचार को एक मूर्त आकार देकर—या न दे 
							सकने की विवशता सामने लाकर स्वयं भी लेखन-प्रक्रिया 
							में उसी तरह हिस्सेदार हो सकता है जैसे प्रस्तुतीकरण 
							की प्रक्रिया में नाटककार।
 
 इसका कुछ अनुभव मुझे उन दिनों का है जिन दिनों कलकत्ते 
							में रहकर मैंने ‘लहरों के राजहंस’ का तीसरा अंक फिर से 
							लिखा था। मुझे यह स्वीकार करने में संकोच नहीं है कि 
							बिना रात-दिन श्यामानन्द के साथ नाटक के वातावरण में 
							जिये, आधी-आधी रात तक उससे बहस-मुबाहिसे किये, और नाटक 
							की पूरी अन्विति में एक-एक शब्द को परखे वह अंश अपने 
							वर्तमान रूप में कदापि नहीं लिखा जा सकता था। परन्तु 
							साथ यह भी कहना चाहूँगा कि श्यामानन्द के प्रस्तुतीकरण 
							में नाटक का उतना अंश जो शेष अंश से बहुत अलग पड़ गया 
							था, उसके पीछे भी यह सहयोगी प्रयास ही मुख्य कारण था। 
							कम-से-कम हिन्दी नाटक के सन्दर्भ में शायद पहली बार 
							लेखन और प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया को उस रूप में साथ 
							जोड़ा जा सका था। इसे सम्भव बनाने के लिए जो अनुकूल 
							वातावरण मुझे वहाँ मिला था, मैं समझता हूँ कि उसी तरह 
							के वातावरण में रंगमंच की वास्तविक खोज की जा सकती 
							है—लेखन के स्तर पर भी और परिचालना के स्तर पर भी।
 
                            ६ 
							फरवरी २०१२ |