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रंगमंच



मलयालम नाटक का उद्भव
और विकास

--कुन्नुकुषि कृष्णनकुट्टी


पूर्व से लेकर पश्चिम तक तथा उत्तर से लेकर दक्षिण तक, भारतीय भाषाओं का साहित्य, संस्कृत वाड्.मय से अनुप्राणित है, कथा (कहानी एवं उपन्यास) कविता, नाटक आदि का आधार एवं पुरा रूप संस्कृत ग्रंथों से प्रवाहित हैं, इनमें वेद, उपनिषद, पुराण, काव्य (नाटक जो दृश्य काव्य है) आदि सम्मिलित हैं, प्राचीन मलयालम नाटकों पर भी संस्कृत नाटकों की छाप देखी जा सकती है, लेकिन इनमें मलयालम नाटककारों ने अपनी मौलिक प्रतिभा का प्रदर्शन किया है।

 कालिदास के पूर्ववर्ती भास के नाटक, संस्कृत भाषा के इतिहास पुराणों से लिये गये हैं, तो भी उनमें भास की मौलिकता देखी जा सकती है, कालिदास के शकुन्तला नाटक की कथावस्तु महाभारत के शकुन्तलोपाख्यान से ली गयी है, उसी कथावस्तु से जब कालिदास की मौलिक प्रतिभा मिल गई तो  अभिज्ञान शाकुन्तलम बना जिसमें कालिदास की मौलिकता देखी जा सकती है। शूद्रक (मृच्छकटिकम), भवभूति (उत्तर रामचरितम्), विशाखदत्त (मुद्रा-राक्षस) आदि कृति-कर्ता के नाम बिजली जैसे हमारी स्मृति में कौंधते हैं, तो दूसरों के नाम क्यों नहीं ? संस्कृत के सैंकड़ों नाटककारों ने भरत के नाट्य शास्त्र के तत्वों का अनुपालन कर नाटक लिखे, लेकिन भास, कालिदास आदि ने नाट्य तत्वों से बाहर निकलकर नाटकीयता को अधिक महत्व दिया, यही मौलिक प्रतिभा है।

मौलिक प्रतिभा का अनवरत धारा प्रवाह संस्कृत से अन्य भारतीय भाषाओं को आप्लावित करने लगा, जिसके फलस्वरूप भारतीय साहित्य की अन्तरात्मा एक रही, नाटकों की भी यह बात पाई जाती है, यह आश्चर्य की बात है कि मलयालम नाटक साहित्य और हिन्दी नाटक साहित्य दोनों का श्रीगणेश कालिदास के विख्यात नाटक शाकुन्तलम के अनुवाद से हुआ, हिन्दी मे राजा लक्ष्मण सिंह ने 1861 में अपना अनुवाद प्रकाशित किया तो केरल वर्मा वलियकोयित्तम्पुरान ने 1882 में, दोनों नाटकों का काफी मंचन हुआ जिसकी लोकप्रियता ने मलयालन नाट्य विधा के विकास की दिशा तय की।

इस काल में अनूदित नाटकों की एक परम्परा आयी, साथ-साथ अनुकरण भी, पारम्परिक रीति से अलग होकर मौलिक प्रतिभाएँ भी उभर आयीं। इस काल में कुंजुकुट्ट तंपुरान (चंद्रिका) कोचुण्णितंपुरान (कल्याणी) के सी केशव पिल्लै (लक्ष्मी कल्याणम) कंडत्तिल वर्गीस माप्पिलै (एब्रायकुट्टी) आदि मौलिक रचनाकार और उनकी रचनाएँ प्रमुख हैं। इनमें केशव पिल्लै की मौलिक प्रतिभा, भाषा पर अधिकार एवं कल्पनाशीलता विशेष उल्लेखनीय है। मुंबई की पारसी नाटक कम्पनियों का प्रभाव, हिन्दी नाटक के प्रारंभकाल पर भी पड़ा था, उसी समय से तमिल भाषा में भी पारसी कंपनी के अनुकरण स्वरूप कुछ नाटक रचे गये जिसमें संगीत, नृत्य एवं चमचमाती वेशभूषा को प्रमुखता दिया गया, उसी रीति में के सी पिल्लै ने ’’सदारामा‘‘ नामक संगीत नाटक मलयालम में लिखा जो मंच पर काफी लोकप्रिय रहा, इसी परंपरा में चक्रपाणि वारियर का हरिश्चंद्र चरित, अच्युत मेनन का नैषध (नल-दमयन्ती) नाटक, महाकवि कुट्टमत्तु का बालगोपालन (भास के बालचरित पर आधारित) आदि नाटकों का प्रचार हुआ, नाटकों की अनुकरणात्मक परंपरा की हास्यास्पद टिप्पणी के रूप में मुंशी राम कुरूप ने चक्की-चंकरन् नाटक लिखा जिसने मलयालम नाटकों की दिशा बदल दी। इसके बाद के नाटकों में सामयिक समाज का चित्रण किया जाने लगा।

उत्तर केरल (मलाबार प्रदेश) ब्रिटिश शासन के अधीन रहा और इसलिए उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के मन में परिवर्तन लाने की आवश्यकता थी, परंपरागत संकुचित विचार धारा से उन्हें मुक्त कर नवीनता की ओर उन्मुख करने का प्रयास, साहित्यकार कर रहे थे। बी टी भट्टतिरी, एम पी भट्टतिरी, के दामोदरन आदि के नाटक इस संदर्भ में स्मरणीय हैं, मलयालम के ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में मान्यता प्राप्त सी वी रामन पिल्लै की कल्पनाशीलता एवं रचनाकौशल उनके प्रहसनों में निखरने लगे। सामाजिक प्रगति में अवरोध डालने वाली समस्याओं को केंद्रबिन्दु बनाकर लिखे गये उनके प्रहसन, मंच पर नव्य अनुभूति प्रदान करते थे। उनके कथा पात्र, अन्य नाटकों के पात्र से भिन्न थे। वे सच्चे एवं साधारण मनुष्य थे।

इससे पहले तक राम-सीता, कृष्ण-राधा, नल-दमयन्ती, राजा-रानी आदि नाटक मंच पर प्रत्यक्ष होते थे, जो साधारण मनुष्य से सीधे संबंधित नहीं होते थे, जो कार्य वर्षो पहले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र नामक क्रान्तदर्शी ने भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी आदि नाटकों द्वारा कर दिखाया, वही कार्य सी वी ने अपने प्रहसनों द्वारा किया, वही काम मलयालम में सी वी रामन पिल्ले तथा उनके बाद ई वी कृष्णपिल्लै नामक हास्य नाटककारों ने किया। उनका ’’कवितक्केस‘‘ नामक रूपक भारतीय नाट्य साहित्य में उल्लेखनीय है जिसमें काव्यानुकरण करने वाले कवियों, काव्य से विमुख वकीलों, केवल कानूनी अनुच्छेदों पर ध्यान केंद्रित करने वाले न्यायाधीशों का जीता-जागता सरसचित्रण मिलता है, अन्य गहरे विषयों पर भी नाटक लिखने में ई वी कृष्णपिल्लै विख्यात थे, राजा केशवदास इरविकुट्टि पिल्लै, सीतालक्ष्मी आदि उनके हास्येतर नाटक हैं,

नाटक को काव्यों में रमणीय विधा कहा गया है, उस रमणीयता को प्रधानता देते हुए अनंतर पीढ़ी के कल्पनाशील लेखकों ने रूप-भावों में नये नये नाटक लिखे, इन रचनाओं पर विदेशी नाटकों का गहरा प्रभाव पड़ा था। इब्सन, बर्नार्डशा आदि के नाटकों ने समस्त भारतीय नाट्य विधा को प्रभावित किया था। इन नाटककारों में प्रो. एन कृष्ण्पिल्लै का नाम उल्लेखनीय है। उनके नाटक प्रक्षकों और पाठकों के लिए रसनीय हैं। उनके कथा पात्र मध्यमवर्गीय परिवार के हैं और चर्चित समस्याएँ भी उसी परिसर की हैं। विख्यात सिनेमा अभिनेता तिक्कुरिशि सुकुमारन नायक का कार्यक्षेत्र नाटक साहित्य और रंगमंच था। उनके रंगमंच प्रवेश के पूर्व ही संगीत नाटकों का प्रचार विविध संघों द्वारा हो रहा था। इन नाटकों में संगीत, नृत्य, चमत्कार, चमचमाहट आदि सुलभ थे और ये नाटक सामान्य जनता के मनोरंजन के साधन थे। तिक्कुरिशि ने मलयालम रंगमंच का परिमार्जन किया। मंच के और पर्दे के बाहर विराजमान गायक हार्मोनियम वादक एवं अन्य संगीत यंत्र वादकों को पर्दे के अंदर बिठा दिया। तिक्कुरिशि के नाटकों में मनोवैज्ञानिक आधार अधिक था। तिक्कुरिशि, मुतुकुलम राघवन पिल्लै, गोविन्दनकुट्टि आदि प्रतिभाशाली नाटककार-अभिनेता सिनेमा क्षेत्र की व्यस्तता में उलझ गये तो नाट्य विधा को कुछ अच्छे रचनाकारों से हाथ धोना पड़ा।   

कैनिक्करा पद्मनाभ पिल्लै एवं कैनिक्करा कुमार पिल्लै नामक सहोदर, टी एन गोपीनाथन नायर, के. पद्मनाभन नायर, पी के वीर राघवन नायर, एस एल पुरम सदानन्दन, सी एल जोस, तोप्पिल भासी, मोहम्मद, एन एन पिल्लै, तिक्कोडियन, कोवूर, एन पी चेल्लप्पन नायर, शिवदास मेनोन, ब्रह्मव्रत, जगति एन के आचारी, उरूब, सी जे तोमस, पोनकुन्नम वर्की, नागवल्ली, केशव देव श्रीकंठन नायर आदि अनेक नाटककारों ने इस समय मलयालम नाटक के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया।

इस समय राज्य की अनेक रंगशालाएँ को किसी नवीनता की अपेक्षा थी। रंगशालाओं की इस अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए वरिष्ठ एवं युवा पीढ़ी के अनेक नाटककारों ने दर्जनों नाटक लिखे। कावालम नारायण पणिक्कर, जी शंकरपिल्लै, पी आर चंद्रन, एस के मारार, एब्रहाम जोसफ, एषिक्करा अंबुजाक्षण, कालटी गोपी, कुर्याकोस, ई पी राजगोपालन, कटविल शशि, सी पी राजशेखरन, के एस कृष्णन, कटवूरचंद्रन पिल्लै, वी टी नंदकुमार, वासु प्रदीप, श्रीरंगम विक्रमन नायर आदि नाम नाटक के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

इनमें से कुछ व्यावसायिक नाट्य संघों से संबंधित नाटककार हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण तोप्पिल भासी के पी ए सी नामक संस्था के स्थापक सदस्यों में एक हैं। भासी एवं उनके सहयोगी रंगकर्मियों ने केरल के प्रेक्षकों की नाटकीय अवधारणा को पलट दिया और रूढ़ि से नवीनता की ओर विकास के चरण बढ़ाए। संक्षेप में कहें तो 1956 में भारत में पहली बार एक वामपंथी (साम्यवादी नेतृत्व में) सरकार को सत्तारूढ़ करने में सहायता देने वाले अनेक शक्ति केंद्रों में एक ’’के.पी..सी.’’ भी था। कैनिक्करा सहोदरों ने अपनी नाटक रचनाओं द्वारा मलयालम भाषा और रंगमंच को असीम शक्ति से भर दिया।

टी एन गोपिनाथन नायर के नाटकों को पढ़ने और देखने के बाद संस्कृत आचार्यों की इस उक्ति की सार्थकता परिलक्षित होती है-’’काव्येषु नाटकम् रम्यम्’’। एन एन पिल्लै के नाटक गंभीर हैं तो भी मनोरंजन के उत्तम माध्यम हैं। निजी नाटक संघ के द्वारा नाटकों को लोकप्रिय बनाने में पिल्लै ने बड़ी सेवा की है। ये सब गतकाल की मीठी स्मृतियाँ हैं। लेकिन वर्तमानकाल में भी मलयालम नाटकों में बहुत महत्वपूर्ण कार्य हो रहे हैं।

समसामयिक नाटककारों में नाट्यधर्म एवं लोकधर्म दोनों को समर्पित एक व्यक्ति हैं- कावालम नारायण पणिक्कर। नाटक के आंगिक-वाचिक-आहार्य एवं सात्विक अभिनय तत्वों पर प्रयोगात्मक कार्य करने वाले असाधारण रंगकर्मी हैं कावालम नारायण पणिक्कर। वे रचनाकार भी हैं।

सी जे थॉमस एक ऐसे अविस्मरणीय नाटककार हैं जिन्होंने नाटकीय शैली एवं रंगकर्म की परंपरा को झकझोरते हुए ’’अवन वीण्डुम वरून्नु’’, ’’१२८ का क्राइम नंबर २७’’ नामक नाटक लिखे। मलयालम नाटकों की चर्चा करते समय कलानिलयम कृष्णन नायर को विस्मृत करना अन्याय होगा। वे नाटककार या अभिनेता नहीं थे, लेकिन वर्षों तक केरल में और केरल के बाहर स्थायी नाटक वेदी चलाने वाले थे। इस स्थायी नाटकवेदी द्वारा सैंकड़ो अभिनेताओं को उन्होंने आश्रय दिया और नाटको के प्रति जनता को उत्सुक बनाया।

’’रूप के आरोपण से नाटक बनता है’’, ’’अवस्था की अनुकृति नाटक है’’ आदि उक्तियों के अनुरूप भावों का रूपारोपण, रूपों में भावरोपण, अवस्था की अनुकृति आदि के लिए असंख्य अनुभव, तीव्र अनुभूति, कुशल अभिव्यक्ति आदि आवश्यक हैं। फिर भी असंख्य मलयालम नाटक लिखे गए हैं। नाटकों के लगभग डेढ़ सौ वर्षों के इतिहास में ऐसे समय भी आए जब रंगमंच के योग्य नाटकों के लिए लोग तरस रहे थे। लेकिन दूसरी ओर यह भी सही है कि आज अनेकानेक योग्य नाटक, रंगमंच पाने के लिए तड़प रहे हैं। इलेक्टोनिक मीडिया रूपी ’’छाया-ग्रहणी’’ राक्षसी मुँह बाये खड़ी है। कौन उसकी पकड़ से बच सकेगा! नाटक का विकास कैसे होगा ? खाने-पीने के लिए भी जिनके पास समय की कमी है, वे नाटक देखने के लिए घर से दूर रंगशालाओं में कैसे जाएँ ? क्यों जाएँ ? ये समस्या आज मलयालम नाटक को भी है।

२० अगस्त २०१२

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