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कश्मीर- नाट्य लेखन व मंचन
- मोतीलाल क्यूम
कश्मीर में दूसरी सदी से १२ वीं सदी के बीच संस्कृत
नाट्य लेखन और मंचन की एक मजदूत परंपरा रही। इस
कालखण्ड में अनेक नाट्याचार्य हुए जिन्होंने भरतमुनि
के नाट्यशास्त्र पर अपनी-अपनी टीकाएं लिखीं जिनमें से
सबसे प्रमाणिक एक टीका अभिनव गुप्त (१०/११ वीं सदी)
द्वारा रचित ’’अभिनव भारती’’ थी। सुल्तान जैनुल अब्दीन
के शासन काल में कश्मीरी में चरित काव्य रचे गए और कहा
जाता है कि १४ वीं सदी में इनका मंचन राज दरबार में
किया गया। दुर्भाग्य से कश्मीरी विद्वानों,
दार्शनिकों, अलंकार शास्त्रियों तथ संस्कृत कवियों की
रचनाओं का पूर्णतः अनुवाद नहीं हो पाया जिससे अतीत के
बारे में पूर्ण जानकारी उपलब्ध नहीं हो पा रही है।
केवल ’’अगम अदम्बरा’’ जैसी कुछ रचनाएं उपलब्ध हैं वरना
शेष जानकारी तो कश्मीरी अलंकार शास्त्रियों तथा
मूल्यवादियों के संदर्भों से ही प्राप्त करनी पड़ती है।
आधुनिक शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ छात्रों ने
कॉलेजों में नाट्य मंचन प्रारंभ किया। १९२४-२५ में
महाराजा हरिसिंह की ताजपोशी के अवसर पर मुंबई की
एल्फ्रेड कंपनी को नाटक खेलने के लिए आमंत्रित किया
गया था। महाराजा नाटक को देखकर इतने प्रभावित हुए कि
उन्होंने इच्छा प्रकट की कि श्रीनगर एवं जम्मू के लोग
भी मिलकर एक स्थानीय नाटक मण्डली बनाएं। इस प्रकार
महाराजा के संरक्षण में एमेच्योर्स ड्रामेटिक कंपनी की
स्थापना हुई, जिसने ’’बिल्वमंगल’’, ’’सूरदास’’,
’’महाभारत’’, ’’बेवफा कातिल’’, ’’खूबसूरत बला’’,
’’यहूदी की लड़की’’ जैसे नाटक पारसी शैली में एवं उर्दू
जुबान में खेले। ये नाटक जम्मू और श्रीनगर दोनों जगहों
पर खेले गए। इन नाटकों के अधिकतक कलाकार राज्य सरकार
के कर्मचारी तथा तनख्वाहदार थे। यह कंपनी केवल १९३७ तक
ही सक्रिय रह पाई।
इस कंपनी के अलावा और भी कई नाटक कंपनियाँ बनीं,
जिन्होंने ’’बेताब’’ तथा ’’ आगा हश्र कश्मीरी’’ द्वारा
लिखित नाटकों का श्रीनगर, बारामूला तथा अनंतनाग में
मंचन किया। कश्मीरी भाषा में पहला नाटक श्री नंदलाल
कौल ने लिखा। यह नाटक सत्य हरिश्चंद्र की कथा पर
आधारित था और इसका मंचन काफी लोकप्रिय रहा। श्री कौन
ने वैसे तो कई और नाटक भी लिखे, परंतु जो प्रसिद्धि
’’सत्य हरिश्चंद्र’’ को मिली वैसी उनके अन्य नाटकों को
नहीं मिली। सन् १९०० के चौथे दशक में कई शैकिया थियेटर
ग्रुप बने और उन्होंने पौराणिक कथाओं तथा सामाजिक
विषयों पर कई नाटक कश्मीरी भाषा में खेले। कई कश्मीरी
नाटकों के नाम तो हिन्दी में भी रखे जाते थे,
जैसे-’’चित्र’’, ’’समाज की भूल’’ आदि। इन नाटकों में
संवाद बोलने का लहजा पारसी थियेटर वाला ’’धूम धड़ाके’’
का नहीं था, बल्कि यथार्थादी था। इन नाटकों में
प्रयुक्त गीतों की धुनें, फिल्मी गीतों पर आधारित होती
थीं।
देश के विभाजन और उसके उपरांत कबायलियों के हमले के
बाद, कवियों, कलाकारों तथा नाटककारों ने अपना एक
सांस्कृतिक मंच बना लिया और नाटकों तथा गानों के जरिए
स्थानीय समस्याओं पर केन्द्रित रचनाएं प्रस्तुत करने
लगे। १९६० तक केवल कुछ ही नाटककार स्टेज के लिए लिखते
थे, मगर श्रीनगर में १९६२ में टैगोर हॉल के उद्घाटन के
बाद से परिदृश्य पूरा ही बदल गया। अब मंचकारों के लिए
पूर्ण प्रकाश व्यवस्था के साथ एक ’’प्रीसिनियम’’
थियेटर उपलब्ध था। इस सांस्कृतिक मंच ने प्रगतिशील
प्रवृत्तियों पर बल दिया और बहुत से नए नए लेखकों को
सामने लाया और लोगों में थिएटर के प्रति जागरूकता पैदा
की। इस मंच द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले नाटक
स्थानीय समस्याओं पर आधारित होते थे, ये खुले मंच पर
खेले जाते थे और गीत-संगीत से भरपूर होते थे।
श्री दीनानाथ नादिम ने अपना पहला कश्मीरी ऑपेरा
’’बाम्बुर याम्बरजल’’ १९५३ में लिखा। इसके बाद नूर
मुहम्मद रोशन के साथ मिलकर १९५६ में ’’हीमाल नागराज’’
लिखां ये दोनों की ऑपेरा, सरकारी तत्वावधान में खेले
गए।
१९५८ में जम्मू-कश्मीर एकेडेमी ऑफ आर्ट, कल्चर एण्ड
लैंग्वेजेज की स्थापना हुई। १९६४ से हर वर्ष श्रीनगर
और जम्मू में नाट्य प्रतियोगिताएं एवं उत्सव नियमित
रूप से होने लगे। दर्जनों नाटक लेखक सामने आए और टैगोर
हॉन नाट्य गतिविधि का केन्द्र बिन्दु बन गया। १९७० से
नाट्य कार्यशालाएं और उससे अगले वर्श से नाटक लेखकों
के लिए कार्यशालाएं आयोजित की जाने लगीं। इसी दौर में
गिरीश कर्नाड, बादल सरकार, विजय तेंदुलकर तथा अन्य
नाटककारों के प्रख्यात नाटक हिन्दी और कश्मीरी में
खेले गए। इन आधुनिक नाटकों के अलावा ग्राम्य और लोक
नाट्य भी काफी संख्या में मंचित किए जाने लगे। एक तरह
से श्रीनगर में शौकिया थिएटर क्लबों की बाढ़ सी आ गई।
नव युवकों की रुचि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी)
में भी जागृत हुई और कुछ ने तो वहाँ दाखिला भी लिया और
छात्रवृत्ति भी प्राप्त की। कश्मीरी नाटककारों के कई
नाटक इस दौर में छपे और कई को राज्य सरकार द्वारा
सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों के रूप में पुरस्कृत भी किया
गया। अब तक चार कश्मीरी नाटककारों को ’’साहित्य
अकादमी’’ पुरस्कार भी मिल चुका है। छठी पंचवर्षीय
योजना से राज्य के जिलों में भी नाट्य मंचन सुविधा का
विस्तार कर दिया गया है।
२४
सितंबर २०१२ |