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रंगमंच

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छत्तीसगढ़ के लोकनाट्य
- निरंजन महावर


छत्तीसगढ़ अपनी लोक परम्पराओं के मामले में अत्यंत समृद्ध है। यहाँ की लोक संस्कृति जहाँ सम्पूर्ण देश के प्रभावों को आत्मसात करती रही,  वहीं दूसरी ओर यहाँ के भीतरी आदिवासी अंचल लंबे समय तक बाहरी दुनिया के लिए लगभग बंद जैसे रहे। इसके कारण आदिवासी कला बाह्य प्रभावों से बची रही। उपरोक्त कथन विरोधाभासी प्रतीत होता है परन्तु यहाँ की भौगौलिक स्थिति में यह बात सही है। इस तथ्य का प्रमाण यहाँ के आदिवासियों के लोक नृत्य एवं लोक गीत हैं बस्तर से ले कर सरगुजा तक फैले हुए विभिन्न आदिवासी समुदायों में विद्यमान उनके नृत्यों को ध्यान पूर्वक देख जाए तो ज्ञात होता है कि अनेक आदिवासियों ने अपने नृत्य,  गीत,  मिथ कथाएँ, संगीत आदि सभी कला रूपों को काफी हद तक सुरक्षित रखा है। सरगुजा रायगढ़ ने सरहुल, करमा छत्तीसगढ़ के मैदानी भागों में साल्हो (ददरिया) डंडा, सूवा नृत्य तो बस्तर में हुलकी ककसाड और गौर सींग नृत्य सभी अपनी अपनी परंपरागत शैलियों में सुरक्षित है। इन नृत्य एवं गीतों के अलावा यहाँ कुछ परंपरागत समृद्ध मंचीय कला रूप भी विद्यमान है।

भतरा -


भतरा नाट के दो नाट्य रूप प्रचलित हैं। रायपुर, गुर्ग, राजनाँद गाँव जिलों में नाचा और पंडवानी नाट्य रूप विद्यमान हैं। विलासपुर और कवर्धा जिलों में रहस् नाट्य स्वरूप यहाँ की विशिष्ट सांकृतिक पहचान है, गम्मत लगभग बस्तर को छोड़ कर सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में प्रचलित है। गम्मत के भी दो रूप प्रचलित हैं खड़ी गम्मत या खड़े गम्मत और बैठे साज की गम्मत। रहस् जिसे रतनपुरिया रहस् के नाम से भी जाना जाता है रासलीला का ही एक रूप है। इस नाट्यरूप में कृष्ण की बाल लीलाओं का ही मंचन किया जाता है। रहस् रास शब्द का ही अपभ्रंश रूप है। वाजिद अली शाह भी अवध में रास लीला का मंचन रहस के नाम से ही करते थे।
 
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भतरा नाट’’ उड़ीसा से लगाने वाले बस्तर के पूर्वी क्षेत्र में प्रचलित है जहाँ भतरा जन जाति निवास करती है। इस नाट्य में प्रमुख रूप से भतरा जन जाति ही भाग लेती है। इसलिये इस शैली का नामकरण उन्हीं के नाम पर भतरा नाट पड़ गया है। बस्तर के पूर्व शासक जब जगन्नाथपुरी की यात्रा पर गए थे तब वे अपने साथ बस्तर के बहुत से आदिवासियों को भी ले कर गए थे। वहाँ से आने के पश्चात उन्होंने अपने साथ जाने वाल्व यात्रियों को जनेऊ धारण करवा कर उन्हें हिंदू धर्मावलंबी बना लिया और उन्हें भद्र जन कहा। इस भद्र शब्द का ही अपभ्रंश कालांतर में भतरा हो गया। जगन्नाथ पुरी से वापस आ कर बस्तर में भी जगन्नाथ का मंदिर बनवाया और भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा का आयोजन करने लगे। जगन्नाथपुरी में रथ यात्रा के अवसर पर आयोजित नृत्य,  नाट्य, जन संकीर्तन आदि परम्पराओं के प्रभाव भी बस्तर की रथ यात्रा में अपनाए जाने लगे। उन सभी परम्परों के मध्य भतरा नाट्य का उद्भव हुआ। वर्तमान में भी भतरा नाट पर उडिया प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पडता है २०वी शताब्दी के आरंभिक काल तक भातर नाट के मुखौटे व वेशभूषा जगन्नाथपुरी से ही मँगाए जाते थे। नाट की पोथियाँ भी उडिया भाषा में ही उपलब्ध हैं। भतरी एक स्वतन्त्र भाषा है जो छत्तीसगढ़ी व हल्बी भाषा का विस्तार मानी जाती है जिस पर उडिया भाषा का भी काफीप्रभाव दिखाई देता है। अधिकाँश भतरा नाट महाभारत, रामायण एवं पौराणिक आख्यानों के कथानकों पर ही केंद्रित रहते है। रावण वध, कंस वध, कीचक वध आदि नात अधिक लोकप्रिय हैं। भतरा नाट में भारत मुनि के नाट्य शास्त्र की अनेक बातें विद्यमान हैं नट नटी का प्रवेश और प्रस्तावना, मंचन के पूरे समय तक विदूषक का टेढी मेढी लकड़ी ले कर उपस्थित रहना, पूर्व रंग में गणेश एवं सरस्वती की आराधना करना आदि अनेक तत्व भतरा नाट में विद्यमान हैं जो नाट्य शास्त्र से उत्प्रेरित हैं।


भतरा नाट के आयोजन की तिथि की घोषणा कोटवार आम की टहनी को हिला हिला कर समीपस्थ किसी हाट-बाज़ार में करता है। नाट का मंचन जिस गाँव में किया जाता है उस गाँव में उत्सव जैसा वातावरण बन जाता है। गाँव के प्रमुख मार्गों को आम के पत्तों से सजाया जाता है। कहीं कहीं बाँस के एक प्रवेश द्वार भी बनाते हैं जिसे आम के पत्तों से सजाया जाता है मंच भूमि से एक फुट ऊँचा बनाया जाता है जिसके चारों कोनों पर बाँस बल्लियाँ खड़ी करके ऊपर चन्दोबा तान दिया जाता है। जहाँ बिजली की व्यवस्था नहीं है वहाँ दोनों ओर बाँस बल्लियों पर ही पेट्रोमेक्स लटका दिए जाते हैं। मंच चारों से खुला होता है ओर मंच के चारों ओर दर्शक बैठते हैं। मंच में पीछे की ओर संगीत संगत बैठती है। मंच पर कलाकारों के पहुँचने के लिए दर्शकों के बीच लगभग तीन फुट चौड़ा मार्ग छोड़ दिया जाता है। दर्शकों के बैठने के स्थान पर पानी छिड़क कर धन का पैरा बिछा दिया जाता है। समीप के किसी मकान में कलाकारों के सजने संवरने की
व्यवस्था होती है। उसी स्थान से कलाकार मंच पर आना जाना करते हैं। मंच पर प्रवेश एवं मंच पर प्रस्थान नाटकीय अभिनय के साथ होता है।

नाट्य प्रदर्शन रात्रि ९ बजे के आस पास प्रारंभ होते हैं और सुबह ४, ५ बजे तक चलते हैं। नाट्य प्रदर्शन के बीच बीच में नृत्य एवं छोटे छोटे हास्य प्रहसन भी चलते रहते हैं जिससे कि दर्शक ऊबे नही। भतरा नाट धान की फसल कटने और उसकी सिंचाई आदि पूर्ण होने के पश्चात आरम्भ हो जाते हैं। बसंत एवं गीष्म ऋतुओं में नाट के आयोजन किसी ना किसी गाँव में चलते रहते हैं।द र्शक दस पन्द्रह किलोमीटर दूर से भी पैदल चल कर या साइकिलों पर नात देखने आते हैं।बस्तर में नाट देखने वालों कि संख्या विशाल है। प्रत्येक प्रदर्शन में देखने वालों की संख्या आठ से दस हज़ार होना आम बात है। एक नाट मंडली एक ही नाटक करती है। ग्रामीण जनों को ज्ञात है कि किस गाँव की मंडली कौन सानाट करती है। बराबर एक ही नाट करने के कारण कलाकार उसमे पारंगत हो जाते हैं। बस्तर में जबरदस्त जन उत्साह देख कर आश्चर्य चकित होना पड़ता है।


माओपाटा -

बस्तर का दूसरा नाट्य माओपाटा है जो यहाँ कि मुरिया जन जाति में प्रचलित है।यह लोक नाट्य शिकार कथा पर आधारित है जिसमे आखेट पर जाने कि तैयारी से लेकर शिकार पूर्ण हो कर शिकारियों के सकुशल वापस आने पर समारोह मनाने कि तैयारी तक कि घटनाओं का नाटकीय मंचन किया जाता है। नाट्य क्षेत्र के विद्वानों का मत है कि नाट्य विधा का उद्भव आदिम काल में आखेट प्रसंगों के नाटकीय वर्णन से ही हुआ होगा। आखेट के पश्चात जब शिकारी वापस आते थे तो शिकार के अवसर पर घटित रोमांचक घटनाओं का वर्णन वह नाटकीय ढंग से अपने कबीले के लोगों के सम्मुख प्रस्तुत करते थे।इसी बिंदु पर नाटक का उद्भव हुआ होगा। आखेट से सकुशल लौटने पर वह अपने देवी देताओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करते थे और इस अवसर पर वह अपने हथियारों और पैरों को भूमि पर पटक कर अपने भावनाएँ अभिव्यक्त करते थे और उल्लास पूर्वक समूह रूप में चक्कर लगते थे या पंक्तिबद्ध हो कर देवताओं का अभिवादन करते थे और प्रन्नता व्यक्त करने के लिए भांति भांति की चीत्कारें और आवजे निकालते थे। इन
अभिव्यक्तियों ने ही कालांतर में नृत्य और गीतों का रूप ग्रहण किया होगा।

माओपोटागौर (बाइसन) के सामूहिक आखेट पर आधारित नृत्य नाट्य है। आखेट पर जाने के लिए ग्रामीण पुरुष गाँव के एक स्थान पर एकत्र होते हैं। गाँव की स्त्रियाँ उनकी मंगल कामना करते हुए गीत गा कर उन्हें विदा करती हैं। शिकारी वन में जा कर भिन्न भिन्न प्रकार की किलकारियाँ करते हैं। और वहाँ एक ‘’गौर’’ प्रकट होता है। शिकारी उसे घेरते हैं और वह वन्य पशु एक शिकारी पर आक्रमण करके उसे घायल करके घेरा तोड़ कर भाग जाता है। शिकारी चेतना हीन हो जाता है। शिकारी उसे ले कर गाँव की गुडी (पूजा स्थल) में ले कर जाते हैं। वहाँ सिरहा घायल व्यक्ति की जाँच करता है और पता है कि अभी उसकी नाड़ी चल रही है। वह देवी देवताओं को मदिरा का तर्पण करके स्वयं मदिरापान करता है फिर पराशक्तियों का आह्वान करता है। पराशाक्तियाँ उसके शरीर में प्रकट होती हैं और वह मोरपंख की झाडू से घायल शिकारी की झाड़ फूँक करने लगता है। थोड़ी देर में घायल शिकारी की चेतना लौट आती है और वह उठ कर बैठ जाता है। उस शिकारी के स्वस्थ होने पर सभी ग्रामवासी प्रसन्न हो उठते हैं। स्त्रियाँ पुनः मंगलगीत गा कर शिकारियों को आखेट के लिए विदा करती हैं। शिकारी पुनः वन में पहुँच कर किलकारियाँ लगा कर गौर को बुलाने लगते हैं। गौर वन के भीतर से प्रकट हो कर इधर उधर भागने लगता है। सभी शिकारी धनुष बाण व टँगिये (कुल्हाड़ी) से उस पर आक्रमण करते हैं और गौर वहीं ढेर हो जाता है। शिकारी उसे उल्टा लटका कर गाँव में ले आते हैं। उसे गाँव की गुडी के सम्मुख रख कर शिकारी बैठ जाते हैं। स्त्रीयाँ गुडी के सामने एकत्रित हो कर नृत्य करते हुए गीत गा कर देवी देताओं के प्रति आभार प्रकट करती हैं। अंत में सिरहा, देवताओं को मदिरा का तर्पण करते हुए सभी उपस्थित जनों को प्रसाद रूप में मदिरा
पान करवाता है। शिकारी एवं सभी गाँव वासी आनंद मनाते हैं।

इस नृत्य नाट्य में दो युवक गौर बनते हैं। एक युवक सामने झुक कर खड़ा होता है और दूसरा युवक उसकी झुक कर पीठ पकडता है। सामने वाला युवक सींग लगा हुआ मुखौटा धारण करता है जो एक कम्बल के साथ सिला हुआ होता है। वह कम्बल दोनों युवक ओढ़ कर गौर का रूप धारण करते हैं। कम्बल के पीछे के भाग को पूँछ के सदृश बनाया जाता है। सम्पूर्ण नृत्य नाट्य में बाईसन की आक्रामक मुद्रा का गतिमान अभिनय, शिकारियों के रूप में युवकों का अभिनय एवं सिरहा का अभिनय बहुत ही नाटकीय एवं प्रभावशाली होता है। माओपाटा घोटुल के युवक युवतियों का एक प्रमुख नृत्य
नाट्य है जिसे वे रुचिपूर्वक अभिनीत करते हैं।

पंडवानी -

छत्तीसगढ़ के मैदानी भाग में पंडवानी, नाचा, और रहस नाट्य रूप विद्यमान हैं। पंडवानी शब्द पांडव वाणी अर्थात पांडव कथा से बना है। पंडवानी का वर्तमान स्वरूप धीरे-धीरे कई दौर की यात्रा के पश्चात विकसित हुआ है आरम्भ में पंडवानी गोंड परधानों द्वारा गई जाने वाली एक लम्बी गाथा के रूप में प्रचलित थी। गोंड प्रधान गोंड जनजाति के भात या या मीरासियों के सामान ही एक जाति है जो कभी गोंड जन जाति का ही अंग रही होगी। परधान गाथा गायक,  तीन प्रमुख गाथाएँ गाते हैं: पंडवानी, गोंडवानी, रामायणी। एक अन्य गाथा कराम्सिनी का भी उल्लेख मिलता है, परन्तु वह गाथा विलुप्त हो गयी है। करमा की कथा,  करमा नृत्य एवं गीत तो बचे हुए हैं, परन्तु गाथा विलुप्त हो चुकी है। पंडवानी में पांडव कथा अर्थात महाभारत की कथा, रामायणी में रामायण की कथा और गोंडवानी में गोंड राजाओं एवं उनके पूर्वजों की कथा समाविष्ट है। परधान इन गाथाओं को सारंगी बजा कर गाते थे। फसल कट कर कोठार में पहुँचने के बाद दूर दूर तक फैले अपने जजमानो के यहाँ लंबी यात्राओं पर निकलते हैं। गाथाएँ गा कर एवं अपनी वंशावली का बखान करके वे अपने जजमानों से भेंट में अन्न वस्त्र एवं नकद धन राशि प्राप्त करते हैं।
 
नाचा –

छत्तीसगढ़ के रायपुर, धमतरी, महासमुंद, दुर्ग, राजनांदगाँव आदि जिलों में नाचा व्यापक रूप से प्रचलित है। नाचा अपने आप में एक पूर्ण विद्या है नाचा का उद्भव खड़े साज़ की गम्मत से हुआ है जो मराठा छावनियों में सैनिकों के मनोरंजन का साधन थी। मराठी के तमाशा एवं छत्तीसगढी के नचा दोनों का ही उद्भव मराठा छावनियों कि गम्मत से हुआ है। तमाशा ने महाराष्ट्र की लोक परम्पराओं को अपना कर, अपने नाट्य स्वरूप का विकास किया है, तो वहीँ दूसारी ओर नाचा ने छत्तीसगढ़ क्षेत्र की लोक परम्पराओं को अपना कर अपने नृत्य स्वरूप का विकास किया। उड़ीसा पर आक्रमण करने जब नाट्य सेना जा रही थी तब मार्ग में पडने वाली छत्तीसगढ़ की राजधानी रतनपुर को भी उसने अपने आधीन कर लिया। मराठों ने अपने प्रशासन हेतु छत्तीसगढ़ में दो स्थानों पर अपने अधिकारी नियुक्त किये। एक बिलासपुर एवं दूसरा रायपुर में।

मराठों की सेना के मनोरंजन हेतु कुछ गम्मतिये भी हुआ करते थे, जो नाचने गाने के साथ ही कुछ हलके फुलके हास्य प्रधान प्रहसन भी प्रस्तुत किया करते थे। ये सभी गम्मातिये पुरुष होते थे और वे स्त्रियों के अभिनय हेतु साड़ी का पल्ला सिर पर डाल कर उनकी नाटकीय नकल उतारते थे। गम्मत में स्त्रियों की नक़ल करने वाला एक विशेष पात्र होता था जिसे नाच्या कहते थे। इसी पात्र के आधार पर छत्तीसगढ़ी नाट्य स्वरूप का नाम ‘नाचा’ पड़ा।’’नाच्या’’ मराठी तमाशे के एक अन्य पात्र सोंगाड्या से भिन्न है। वर्तमान में भी तमाशा में नाच्या और सोंगाड्या के समानांतर एक नए पात्र का उद्भव हुआ जो जोक्कड़ कहलाता है। आरंभ में तमाशा और नाच्या दोनों में ही पुरुष कलाकार ही स्त्री पात्रों का भी अभिनय करते थे कालांतर में मराठी तमाशा में स्त्री पात्रों का अभिनय करने हेतु कोल्हाटी जाति की लडकियाँ तमाशा में सम्मिलित हुईं, वहीं छत्तीसगढ़ी नाचा में देवार जाति की लडकियाँ सम्मिलित हुईं। कोल्हाटी एक प्राचीन जाति है, जो नटों की भांति करतब प्रदर्शित करके आजीविका चलाती है। इनमें नटों जैसी तीव्र गति एवं शारीरिक लोच के कारण तमाशा के नृत्य अत्यधिक तीव्रगति लिए हुए है। देवार बालाएँ गायन में अधिक कुशल हैं। दोनों ही जातियाँ परंपरागत रूप से नाचने गाने एवं करतब आदि प्रदर्शन करती रही हैं। इसलिए नाट्य क्षेत्र से जुड कर उन्होंने इन नाट्य स्वरूपों को नए आयाम प्रदान किये और दोनों ही लोक नाट्यों को अपने योगदान से समृद्ध किया।

नाचा मूलतः हास्य प्रधान नाट्य स्वरूप हैं। चूँकि इस विधा का उद्भव गम्मत से हुआ है इसलिए हास्य प्रधान विषयों पर ही नाचा के कथानक केंद्रित हैं। गम्मत का अर्थ ही हँसी मजाक पूर्ण मनोरंजन है। नाचा के कलाकार अत्यंत प्रतिभाशाली होते हैं और वो किसी भी विषय को अपने नाटक का विषय बना कर प्रतुत्पन्न मति के जरिये नाटकीय पटकथा का खाका, नाटक के पात्रों का संवाद, गीत, नाट्य संगीत आदि क्रय आपसमे मिल बैठ कर कर लेते हैं। नाचा का मंच अधिकतर अत्यंत सामान्य होता है और नाचा के पात्रों कि वेश भूषा साधारण होने के कारण नाचा की प्रस्तुतियाँ अत्यल्प सा
धनों से भी संपन्न की जा सकती हैं।

नाचा में पारी, जोक्कड़ नजरिया आदि स्थायी पात्र होते हैं। परी ना तो अंग्रेजी की फेयरी है और ना ही अलौकिक सुंदरी, जो किसी अन्य लोक से आती है। नाचा की परी एक सामान्य भोली भाली किन्तु नेक स्त्री है। जोक्कड़ और परी के संवादों को सुनकर दर्शक हँसी से लोटपोट होने लगते हैं, तो दूसरी ओर मंच पर काँसे के लोटों को सिर पर रख कर परी नृत्य करने लगती है उसके नृत्य के साथ ही सिर पर आड़ा रखा हुआ लोटा भी घूमने लगता है। परी का अभिनय भी
पुरुष कलाकार ही निभाता है।

नाचा नाट्य की क्षमता और संभावना का विलक्षण उपयोग हबीब तनवीर ने किया है। संस्कृत नाटक मृच्छकटिक से लेकर शेक्सपियर और ब्रेख्त के नाटकों तक का मंचन नाचा शैली में करके नाचा को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित किया गया है। छत्तीसगढ़ के ग्रामीणों में भरपूर शिष्ट हास्य मौजूद है, जो नाचा में सहज रूप से प्रकट है। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण बहुत अच्छे बातूनी हैं और अपनी मुहावरेदार भाषा में घंटों बातें करते रहते हैं। यह गुण नाचा के पात्रों द्वारा बोले जाने वाले संवादों में भी सहज ही प्रकट होता है। भारत के अनेक लोकनाट्य जहाँ एक ओर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के आक्रमण से लगभग नष्ट होने के कगार पर पहुँच गए हैं। वही छत्तीसगढ़ के जनता में नाचा के प्रति आज भी गहरा आकर्षण और अनुराग बना हुआ है।

रहस-

कृष्ण लीला पर केंद्रित रहस् नाट्य बिलासपुर जिले एवं उसके आसपास के क्षेत्र में प्रचलित है। नाट्य वैष्णव भक्ति आंदोलन से उद्धृत इसलिए उसमे धार्मिक अनुष्ठान समाहित हैं रहस् का आयोजन एक यज्ञ की भांति किया जाता है। रहस का मंच संचालन करने वाला रहस् पंडित कहलाता है और रहस् का आयोजन करने वाला यजमान। रहस् के आयोजन की तिथि कई माह पूर्व ही निश्चित हो जाती है। आयोजन एक बड़े समारोह की तरह होता है। सम्पूर्ण गाँव को,  जिसमे रहस् का आयोजन होता है उसे ब्रज मंडल मान कर उसकी नाट्य की जाती है। गाँव में मिट्टी की बड़ी बड़ी विशाल मूर्तियाँ स्थापित की जाती हैं। किसी स्थान पर भीम की मूर्ति तो किसी स्थान पर कंस की। महाभारत के आरम्भ में अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए रथ पर सारथी रूप में सवार कृष्ण की भी प्रतिमा बनाई जाती है। इसके आलावा
रासलीला के प्रसंगों पर आधारित प्रतिमाएँ जैसे पूतना वध,  बकासुर वध, महारास आदि की प्रतिमाएँ भी बनाई जाती हैं।

कुल प्रतिमाएँ एक सौ छब्बीस तक बनाई जाती हैं। परन्तु अपने साधनों के आधार पर उनकी संख्या और आकार निश्चित किये जाते हैं। प्रतिमाएँ रहस संपन्न होने पर उन्ही स्थानों पर छोड़ दी जाती हैं। जो वर्षा एवं वायु-धूप से क्षीण होती हुई मिट्टी में मिल जाती हैं। ग्रामीण जनों के आस्था है कि इससे उनके गाँव की भूमि पवित्र हो जाती है। और उस पर किसी प्रकार की विपत्ति नहीं आ पाती।

वैष्णव भक्ति आंदोलन से प्रेरित छत्तीसगढ़ी रहस नाट्य में ग्राम में मिट्टी की मूर्तियाँ स्थापित किया जाना यह उसकी अपनी विशिष्टता है। मूर्तिया बनाने का कार्य चितेरा जाति के कलाकार करते हैं जो उड़ीसा से आकार छत्तीसगढ़ी में बसे हैं। कुछ प्रतिमाएँ मंच भी स्थापित की जाती हैं। जिनमें ब्रह्मा,  गरुड़, हनुमान आदि की प्रतिमाएँ सम्मिलित हैं। मंच के बीचों बीच एक स्तंभ बनाया जाता है जो कदम के वृक्ष का प्रतीक होता है। इस स्तंभ की परिक्रमा करते हुए ही नाट्य प्रस्तुतियाँ होती हैं आगे आगे कलाकार अभिनय करते हुए चलते हैं और पीछे पीछे संगत,  वाद्यों को गले में लटकाए हुए चलती है। रहस् का कथानक रतनपुर के प्रसिद्ध साहित्यकार बाबू रेवाराम ने तैयार किया था। जिसे रहस् गुटका कहा जाता है। वह हस्त लिखित गुटका सभी रहस्धारियों के पास उपलब्ध है। इस गुटके का साहित्य वृन्दावन कि रासलीला के
साहित्य पर ही आधारित है। जिसमे सूरदास एवं अष्टछाप के कवियों कि कवियों कि रचनाओं को सम्मिलित किया गया है।

रहसलीला रात्रि नौ बजे आरम्भ होती है और प्रातः काल तक चलती है रहस के प्रसंगों के बीच बीच में गम्मतिये भी छोटे छोटे मनोरंजक प्रसंग प्रस्तुत करते हैं। जोक्कड़ परी का खेल आदि प्रस्तुत किये जाते हैं। रहस् एवं गम्मत के सभी कलाकार पुरुष होते हैं और वे हे स्त्री के ही पात्रों का भी अभिनय करते हैं। लीला के कुछ प्रसंग गाँव के भिन्न भिन्न स्थलों पर भी आयोजित होते हैं। जैसे कंस वध गाँव की चौपाल पर या मालगुजार या यजमान के घर के सामने, कालिया मर्दन लीला गाँव के बड़े तालाब पर होती है जहाँ एक नाव पर कालिया नाग की प्रतिमा बनायीं जाती है।कृष्ण अपने बाल साखों के साथ दूसरी नाव पर बैठ कर जाते हैं और उसे नाथ कर वश में करते हैं। रहस् का आयोजन आठ दिन, इक्कीस दिन या एक माह का होता है।यह आयोजन काफी खर्चीला होता है। इसीलिए इसे आयोजित करना सबके बसकी बात नहीं है। पूर्व में गाँव के मालगुजार या धनी कृषक इस आयोजन के यजमान बन जाते थे और सभी ग्रामीण अपनी यथाशक्ति उसमे सहयोग प्रदान करते थे। आजकल दो चार वर्षों में एक आध बार रहस् के आयोजन की खबर मिलती है।

१२ मार्च २०१२

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