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रंगमंच

भरत की सौंदर्य दृष्टि
-भारतेंदु मिश्र


भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में भारतीय सौन्दर्यशास्त्र के मूल तत्व अपने मौलिक रूप में विद्यमान हैं। इस दिशा में डॉ. सुरेन्द्र एस. बारलिंगे, प्रो. के. सी. पांडेय, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. कमलेशदत्त त्रिपाठी तथा प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी जैसे विद्वानों ने बहुत गम्भीरता से काम किया है। असल में भारतीय सौन्दर्य परम्परा वैदिक सभ्यता के आविर्भाव के साथ ही विकसित हुई। पाराशर्यशिलालिभ्यामभिक्षुनटसूत्रयो: (अष्टाध्यायी) के सन्दर्भ में डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल कहते है-‘आर्ष वांगमय की यह सारी सामग्री इतना ही संकेत दे पाती है कि इस देश में भरतों की एक परम्परा थी। सम्भवत: इन भरतों या भरत जनों में से किसी एक विशिष्ट व्यक्ति या पूरे वंश का संबन्ध नटसूत्रों से रहा हो।’ (पाणिनि कालीन भारतवर्ष-पृ.३१५)

अर्थात भरतमुनि का सौन्दर्य चिंतन भी आर्ष परम्परा जितना ही प्राचीन रहा होगा। यह अलग बात है कि भरत की सौन्दर्य दृष्टि किसी एक व्यक्ति, वंश, जाति या किसी सामंत अथवा राजा के नाम से प्रचलित या विकसित नही हुई। भरत की सौन्दर्य चेतना अपने आप में बहुलता में व्याप्त भारतीय सामाजिक विकास की गति के साथ ही विकसित हुई है जो आज भी विकासमान है। भरत लोक को ही प्रमाण मानते हैं- तल्लोकप्रमाणम हि विज्ञेयं नाट्यम (ना.शा.) शताब्दियो की विकास यात्रा के पुनरीक्षण करने से ज्ञात होता है कि लोक के आलोक में ही भारतीय सौन्दर्य चेतना का विकास हुआ है। प्राचीन लोकायत मत और शैवमत ही किसी न किसी रूप में भारतीय सौन्दर्य दर्शन का मूल हेतु रहा है। सहृदय सामाजिक सदैव भरत के सामने आलोचक के रूप में बैठा रहा है। लोक में प्राश्निक भी हैं।

विभिन्न कलाओं के पारखी प्राश्निक अलग- अलग सामाजिक संरचना के साथ दीक्षित-निर्मित हुए हैं। उनके लोक अलग हैं। उनकी मान्यताएँ भी अलग हैं, उनकी कलाओं के सरोकार भी अलग हैं। परंतु वे सब के सब मिलकर एक नाटक की रचना भूमि पर बात करते हैं। यह सब संभव हुआ है भरत के लोकवादी दृष्टिकोण से, क्योंकि भरत के रंगमंच पर स्त्री-पुरुष, राजा–रंक, ब्राह्मण-शूद्र, स्वधर्मी-विधर्मी, मूर्ख-विद्वान, दुखी, थके हुए, शोकाकुल, गृहस्थ तथा सन्यासियों सभी का समान रूप से स्वागत है। भरत का रंगमंच है ही इतना सुन्दर कि उसकी ओर सभी खिचे चले जाते हैं—
सर्वोपदेशजनं नाट्यमेंतद भविष्यति दुखार्तानामं श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम।(ना.शा.१/१११)

भरत का यह नाट्यशास्त्र अपने आप में पंचम वेद कहा जाता है। भरत की समन्वय दृष्टि के कारण ही उनका यह ग्रंथ समस्त ललित कलाओं ,शिल्प कलाओं तथा लोक कलाओं की नैसर्गिक विकास यात्रा का प्रमुख दस्तावेज माना जाता है। मंच पर अपनी–अपनी भूमिकाओं में नियुक्त नट-नटी,भरत जाति के हैं। मंच के पीछे–नीचे-दाँये-बाँये सब कहीं अपनी छोटी-बडी भूमिका निभाने वाले रंगकर्मी वास्तव में भरत के ही वंशज हैं। अर्थात भरत के रंगमंच पर कोई वर्जना नही है,उनका रंगमंच सबके लिए है। शारदातनय ने भावप्रकाशन नामक अपने ग्रंथ में नाट्यशास्त्र के दो संस्करणो का उल्लेख किया है,उनके अनुसार भरत कोई एक व्यक्ति विशेष नही है वरन भरत तो एक प्रकार की जाति है जो नाना प्रकार के वर्ण,  वेश, विन्यास, भाषा, वय, कर्म और चेष्टा को धारण करती है। अत:इस रंगजाति के लोग ही भरत कहे जाते होंगे-
भाषावर्णोपकरणै:नानाप्रकृतिसंभवम
वेषं वय:कर्मं चेष्टा विभ्रद भरत उच्यते।(भावप्रकाश)

लोक में व्याप्त जनमानस के समन्वय की ऎसी दृढ संकल्पना भरत या भरतों के सामने अवश्य विद्यमान रही होगी, जिसके आधार पर नाट्यशास्त्र की शताब्दियों पुरानी सौन्दर्य दृष्टि अविकल रूप से भारतीय लोक मानस में आज भी विद्यमान है।सामाजिक समन्वय की यही चेतना परवर्ती समग्र संत साहित्य में कबीर-नानक-नामदेव-मीरा आदि की कविताओं में भी साफ साफ दिखाई देती है।

भरत की सौन्दर्य चेतना की दूसरी सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता उनकी रसवादी दृष्टि है। भरत कहते है- यो अर्थो हृदयसंवादी तस्य भावो रसोद्भव:। शरीरं व्याप्ते तेन शुष्कं काष्ठमिवाग्निना।।(ना.शा.) कोई वस्तु या कृति सुन्दर है अथवा उदात्त है यह उस वस्तु के आस्वाद पर निर्भर करेगा।रस आस्वाद होने के साथ-साथ आस्वाद्य भी है। कलाकार को सृजनात्मकता का आनन्द मिलता है और सहृदय या रसिक को साधारणीकरण की प्रक्रिया में रसानुभूति का आनन्द मिलता है। वह रस की अनुभूति मनुष्य को आमूल प्रभावित करती है। रसचर्या के क्षणविशेष में नट और सहृदय सामाजिक दोनो अपनी निजता से ऊपर उठ जाते हैं। भरत की यह रसदृष्टि ही भारतीय मनोविज्ञान की सैद्धांतिकी के रूप में विकसित हुई। मेरी दृष्टि में भरत का रससूत्र (विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगात रसनिष्पत्ति:) ही भारतीय मनोविज्ञान का पहला सूत्र है।रस का स्थायी भाव, स्थायी भावो के विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव आदि की परिकल्पना भरत ने जिस समय की होगी वह न केवल उस समय मौलिक रही होगी, वरन आज भी उस रसदृष्टि को चुनौती देने वाला विश्वसाहित्य में कोई नही है। भरत की रस चेतना अपने आप में संपूर्ण है।

शब्द-रूप-रस-स्पर्श-गन्ध के माध्यम से ही मनुष्य किसी द्रव्य की सुन्दरता का आकलन करता है। भरत के रस सिद्धांत में इन सभी इन्द्रिय बोधों की समग्र चेतना व्याप्त है। सौन्दर्यानुभूति की तीन कोटियाँ है—

  • सौन्दर्य व्यक्ति सापेक्ष होता है-अर्थात किसी व्यक्ति को कोई वस्तु किसी समय में बहुत सुन्दर लग सकती है, दूसरे को वही वस्तु सामान्य और तीसरे को वही वस्तु उसी समय में असुन्दर प्रतीत हो सकती है। इसके मूल में व्यक्ति की रुचि ,मनोदशा या मनोसंरचना ही प्रमुख कारण है।

  • सौन्दर्य काल सापेक्ष होता है-अर्थात किसी व्यक्ति को एक ही वस्तु एक समय विशेष पर बहुत सुन्दर प्रतीत होती है।कुछ समय बाद वही वस्तु सामान्य लगने लगती है और फिर एक समय आता है कि वही वस्तु असुन्दर भी प्रतीत होने लग सकती है।

  • सौन्दर्य स्थिति सापेक्ष है-अर्थात सामाजिक मानसिक परिस्थितियों के आधार पर भी सौन्दर्य की अनुभूति और अभिव्यक्ति में परिवर्तन देखा जा सकता है। इन सब परिस्थितियों में मन ही कारण है। क्योंकि सौन्दर्य की न्यूनता अधिकता या उदासीनता को मन ही तय करता है। मन में व्याप्त स्थायी भाव आदि ही तो रसानुभूति के प्रमुख कारक है। कालांतर में भरत की यही रस चेतना समस्त भारतीय कलाओं को प्रभावित करती हुई आगे बढती है। काव्यशास्त्र के प्राय: सभी प्राचीन आचर्यों ने रस को काव्यकला का परमप्रयोजन माना है।काव्य कला के विभिन्न सिद्धांत क्रमश:—भामह-अलंकार, वामन-रीति, आनन्दवर्धन-ध्वनि, कुंतक-वक्रोक्ति तथा क्षेमेंन्द्र का औचित्य सिद्धांत कही न कही भरत की रसवादी सौन्दर्य चेतना से गहरे तक प्रभावित है।

भरत का रस सिद्धांत है ही बहु आयामी खासकर नाटक के सन्दर्भ में ही भरत रस की तीन अवस्थाओं का संकेत करते हैं—‘एवं रसाश्च भावाश्च त्रयवस्था नाटके स्मृता:’(ना.शा.७/१३०) भरत के अनुसार रस प्रेक्षक और नट के बीच स्वयमेंव रूपांतरित होता है।वह कभी-कभी प्रतीकों के माध्यम से स्वयमेंव स्पन्दित होता है।विभाव-अनुभाव-व्यभिचारी के संयोग से प्रकट हुए स्थायीभाव का रस रूप में स्वयमेंव रूपांतरण हो जाता है। इस रूपांतरण की स्वाभाविक प्रक्रिया में रस की अभिव्यक्ति भी होती है और अनुभूति भी। वस्तुत: भरत का रस सूत्र ही भारतीय सौन्दर्य दर्शन का केन्द्रबिन्दु है। भरत के अनुसार मंचीय रस आठ है,स्थायी भी आठ है परंतु भावोद्रेक दो ही मनोदशाओं के रूप में प्रकट होता है और वो है– हर्ष या विषाद। (हर्षादीन अधिगच्छन्ति-ना.शा. निर्णयसागर-पृ.९३) सृजन की प्रक्रिया तथा आस्वादन की प्रक्रिया दोनो का लक्ष्य रस ही है। भरत के अनुसार रस ही सौन्दर्य है, रस ही आनन्द है, और रस ही ब्रह्म है।

अभिनय, काव्य, संगीत, नृत्य, वास्तु, स्थापत्य, चित्र, आदि सभी ललित कलाओं के माध्यम अलग–अलग है किंतु रस की अभिव्यक्ति और अनुभूति सभी कला रूपो में समान रूप से होती है। नाटक में तो सभी ललित कलाएँ एकाकार होकर प्रकट होती है। इसी लिए नाटक में सब प्रकार के प्रेक्षकों को अलग-अलग स्तर पर रसानुभूति होती है। यह रसानुभूति की प्रक्रिया नाटक में बहुत सहज होती है। नाट्क में कला और शिल्प अर्थात उपयोगी कला रूपो की भी आवश्यकता होती है। नाट्यशास्त्र में भरत इन सभी की यथा- अवसर चर्चा करते हुए आगे बढ़ते है। भरत की सौन्दर्य दृष्टि से कुछ बचा ही नही है।

भरत आगे चलकर नाट्य के संतुलन की बात करते हैं। यह संतुलन ही तो सौन्दर्य की अभिलाषा जगाता है-- एवं गानं च नाट्यं च विविधाश्रयम अलातचक्रप्रतिमं कर्तव्यम नाट्ययोक्तृभि:। (ना.शा.२८/७) अर्थात अभिनय, गायन, वाद्य, नृत्य आदि का संतुलन ही रसव्यंजक है। भरत के अनुसार नाट्य के विविध प्रयोगो को अलातचक्र के समान प्रस्तुत करना चाहिए। अलातचक्र का अर्थ है आग का गोला या बनते बिगडते वृत्त जो वास्तव में कुछ नही होते किंतु पलीता लकडी का दण्ड तथा मदारी के घुमाने का क्रम और इन सब के समन्वय द्वारा ही अलातचक्र की सृष्टि होती है। यह विविधि कलाओं के संतुलन और लोकवादी समन्वय की रूप रेखा ही भरत की सौन्दर्य दृष्टि का मूलतत्व है। ऎसे ही कला रूपों के माध्यम से रसोद्रेक होता है। संक्षेप में यही भारतीय सौन्दर्य सिद्धांत की आधार भूमि है। 

३ मई २०१०

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