सवाल उठता है कि वह
कौन-सा विश्व-विद्यालय है जहाँ इन बुनियादी तत्वों का
प्रशिक्षण दिया जाता है। साफ़ दिखलाई पड़ता है कि यह
एक रास्ता है जिस पर चलने वाले कम ही अभिनेता,
रंगकर्मी हुए हैं जो वहाँ तर निकल सके जहाँ तक रास्ता
जाता है। बहुतेरे मार्ग की अड़चनों और त्रासदियों में
उलझ कर आधे रास्ते तक ही रह गए।
इससे इनकार नहीं किया जा
सकता कि आज के 'रंगमंचीय-परिप्रेक्ष्यों' में वामपंथी
चिंतनधारा प्रभावी है। वे कलाकार जिन्होंने अधिक समय
रंगकर्म से संबंधित ज्ञान, ध्यान अर्जित करने में
लगाया, उनके सामने 'आधुनिक रंग बोध' से जुड़ी प्रखरता
का मुहाना भारतीय मूल के रंगाचार्यों से तो कम,
पाश्चात्य नाटककारों के कार्यों, उनके अध्ययन, चिंतन,
मनन, प्रयोगों एवं शोध आदि से अटा पड़ा है। बतोल्ट
ब्रैंट, पीटर ब्रुक, रूस के नाटककार-निर्देशक,
स्टैंनिसलॉस्की और उनके अनुयायी इवगेनी बख़्तानगोब के
नाम सदा प्रमुखता से आते हैं।
बतौल्ट ब्रेंट आज के
संदर्भों में भी समसामायिक हैं, हर तल पर, चाहे वह
बौद्धिक विमर्श का तल हो या रंगकार्मिक क्रियाशीलता
का। यथार्थ की जितनी बुनियादी पकड़ ब्रैंट में दिखी-
शायद किसी अन्य नाटककार में नहीं। आज के जाने-माने
रंगकर्मी 'ब्रैंटियन प्रभाव' से अछूते नहीं हैं।
ब्रैंट का थ्री पेनी ओपरो, खड़िया का घेरा, अपवाद और
नियम परिपक्व रंग निर्देशकों और 'सिस्टम बेस्ड' स्कूल
वालों और उनके प्रबुद्ध दर्शकों के दिलो-दिमाग़ में आज
भी छा जाने वाली प्रस्तुतियों में शुमार हैं। ''कॉकेशियन
यॉक सर्किल'' (लेखक-बतौल्ट बेंट) जिसका अनुवाद 'खड़िया
का घेरा' नाम से कमलेश्वर जी ने किया है, आज भी उच्च
बौद्धिकता के स्तर पर मंचित किया जा रहा है, सराहा जा
रहा है।
छत्तीसगढ़ मेले और
लोक नाट्य के तत्वों का भरपूर प्रयोग करने में माहिर
नाटककार हबीब तनवीर स्वयं को 'बेंटियन थॉट' से
प्रभावित मानते हैं। स्टैनिस लॉस्की और उनके अनुयायी
इवगेनी बख़्तानगोव का योगदान 'नाट्य स्कूलों' में
पढ़ाने के लिए सर्वोत्तम 'टैक्स्ट' घोषित किया जा चुका
है। नवागंतुक एक्टर के लिए बहुत कुछ मूल्यवान इन
नाटककारों-निर्देशकों ने दिया है।
इन नाटककारों के
परस्पर तुलनात्मक अध्ययन या किसी तरह के घालमेल का कोई
अलग 'स्पेस' निर्धारित करने की कतई गुंजाइश नहीं है।
एक तरफ़ हम पाते हैं कि बेंट (मूलतः) क्रांतिकारी हैं।
वे उच्चकोटि के बुद्धिजीवी हैं। मंच पर प्रदर्शन का
मामला हो, निर्देशकीय प्रतिभा की दृष्टि का सवाल हो या
अभिनय-तकनीक के प्रश्न हों, हर पहलू पर उनके विचार
बेबाक हैं। तर्कपूर्ण व पूर्णतया यथार्थ संगत। इसीलिए
कला की दुनिया में वे 'गैर मिथ्यावाद' के जनक कहे जाते
हैं। वहीं हम पाते हैं कि पीटर ब्रुक अभिनय और
रंगमंचीय प्रस्तुतियों को लेकर बिल्कुल अलग किस्म का
आयाम प्रस्तुत करते हैं। उनका 'हॉली-थियेटर' नाट्य जगत
के लिए क्रांति है। पीटर ब्रुक कहते हैं, ''नाटकों के
संसार में सब कुछ नश्वर है। मरण धर्मा है, यहाँ शाश्वत
कुछ भी नहीं है।''
उक्त विचार 'रंगभूमि'
से जुड़े एक ध्रुव को स्थापित करते हैं, दूसरा ध्रुव
यह भी कि उस ज़मीन को पुनर्जीवित करना पड़ता है। इस
सत्य की यात्रा का आधा-अधूरा रह जाना रंगयात्रा की
त्रासदी है। रंगक्षेत्र में बरसने वाली इस त्रासदी को
रंगकर्मियों, निर्देशकों के अलावा कौन समझ सकता है?
थियेटर स्कूलों से निकल कर ऊँचाइयों तक पहुँचे
अभिनेताओं में ओम पुरी, राज बब्बर, नसीरुद्दीन शाह,
मनोज वाजपेयी, अशुतोष राणा, आशीष विद्यार्थी जनप्रिय
हो चुके हैं। सवाल यह उठता है कि शहरों, छोटे नगरों
में रहने वाले रंगकर्मी 'क्यों दिशाहीन हैं? वहाँ
क्यों भटकाव की स्थिति है? ग़ौरतलब है कि नाटक की
दुनिया की अपनी अहमियत है जबकि फ़िल्मी दुनिया पूरी
तरह व्यवसायिक है।
सालों साल ग्रुपों
में रियाज़ करने के बाद रंगकर्मी स्वयं को अच्छा
निर्देशक भी साबित करने के लिए संघर्ष करता है। उसके
पास मोहन राकेश, बादल सरकार, धर्मवीर भारती, कृष्ण
चंदर, शंकर शेष, लक्ष्मी नारायण लाल जैसे उर्वर लेखकों
के सरोवर हैं। यह उलाहना कतई लाज़मी नहीं है कि हिंदी
रंगमंच के पास उर्वर मस्तिष्क के लेखकों की कमी है। यह
ज़रूर है कि साधनाभाव, अर्थाभाव की ही भांति
प्रेक्षागृहों तक पहुँचने वाले दर्शकों का भी अभाव है।
रंगमंचीय
सेतु-निर्माण की अड़चनों में टेलिविजन, डिश एंटिना,
वीडियो और काफी हद तक रेडियो के लोकल चैनलों से
प्रसारित होने वाले सस्ते मनोरंजन हैं। फिल्मी दर्शकों
की तुलना में आज भी बुद्धिजीवी रंगदर्शकों की संख्या
कमतर है।
रंगक्षेत्रों से माँग
तो यह भी उठती रही है कि नाट्य-निर्देशकों का भी
प्रशिक्षण आवश्यक है। जब नए रंगकर्मियों की 'स्कूलिंग'
की व्यवस्था हमारी सरकार के पास नहीं है तो वरिष्ठ
रंगकर्मियों, निर्देशकों के लिए कुछ नया सीखने-सिखाने
का प्रश्न उभर कर आ ही नहीं पाता है।
उत्तर प्रदेश में
भारतेंदु नाट्य एकैदमी, लखनऊ के अतिरिक्त कोई
प्रशिक्षण संस्थान नहीं है। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, नई
दिल्ली का त्रैवार्षिक पाठ्यक्रम भी 'रंगजगत' की
बुनियादी माँगों को पूरा कर पाने में असमर्थ है। वहाँ
साधन-संपन्न लड़के ही अध्ययन व अभ्यास के लिए पहुँच
पाते हैं। ग्रुपों के अभ्यासार्थियों के लिए उतना संभव
नहीं है।
भारतेंदु नाट्य
एकैदमी, लखनऊ का रंगमंडल खत्मकर दिए जाने के कारण वहाँ
से निकले छात्र बेरोज़गारी की टप-टपाहट के शिकार हो
चले है। इन मान्यता प्राप्त सरकारी संस्थानों की
त्रासदी यह है कि यहाँ का 'सिस्टम', अपने १५ या २०
छात्रों को काम या रोज़गार की सुनिश्चितता नहीं दे
पाता है। बार-बार सरकारी उद्घोषणाओं के बाद भी कि
प्रादेशिक रंगमंडलों की स्थापना आवश्यक है, जहाँ
प्रतिभाएँ अपना अध्ययन, अभ्यास जारी रख सकें। अभी तक
ऐसी योजनाओँ को कोई अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका है।
रंगकर्मियों में आपसी
विमर्श, सेमिनार आदि का कोई प्रचलन नहीं है। ओम पुरी
जैसे अभिनेता का कहना है कि सरकार के पास हम कलाकारों
के लिए कुछ भी नहीं है। अब ऐसी स्थिति में भारतीय
रंगमंच की समुन्नत परंपरा बखानी नहीं जा सकती है। रंग
कर्मियों की व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाएँ उन्हें नए
प्रयोग करने पर उकसाती अवश्य हैं किंतु दालरोटी की
समस्याओं और सरकारी स्तर से इस विधा के प्रति
निष्क्रियता के फलस्वरूप कोई 'पाथ-वे' नहीं निर्मित हो
सका। नेमिचंद जैन, राज बिसारिया, हबीब तनवीर, इब्राहिम
अल्का जी, मोहन महर्षि, बी.वी. कारंथ और कृष्ण नारायण
कक्कड़ सरीखी कुछ शख्सियतें हैं जिन्होंने 'रंगधारा'
को अपनी करनी, लेखनी से समृद्ध करने में कोई कसर नहीं
बाकी रक्खी, लेकिन नई पीढ़ी के कलाकारों को इन
पितामहों के कर्मों-कर्तव्यों से भी अधिक कुछ चाहिए।
इसमें संदेह नहीं है, यह आज की माँग है।
यहाँ पर श्री राज
बिसारिया का नाम उत्तर प्रदेश की 'कला और साहित्य' की
बगान को हरियाली प्रदान करने के लिए सदा ही याद रखा
जाएगा, निःसंदेह आप ने पारंपारिकता की लीक से हट कर
युवा रंगकर्मियों को आधुनिक रंगबोध से परिचित कराया,
रंग निष्ठा सिखाई, उन्हें रंगानुशासन दिया। प्रदेश भर
के सैंकड़ों रंगकर्मियों, निर्देशकों को उन्होंने
'पाश्चात्य रंगमंच' के गूढ़ सिद्धातों से परिचित
कराया।
रंगकर्मी आज हाथ पर
हाथ धरे बैठे हुए हैं। उन्हें क्या करना चाहिए के
अलावा कुछ और तरह के कार्य व्यापारों में वे उलझे हुए
है। ज़्यादातर लोग बेरोज़गारी की मार खा रहे हैं। बहुत
सोचकर, चाहकर भी वे किंकर्तव्यविमुढ़ हैं।
इस तरह से रंग
क्षेत्र में जो 'त्रासद-शून्य' उत्पन्न हुआ है, इसका
सामना हर रंगकर्मी कर रहा है। हाल ही में आयोजित एक
सेमिनार में डॉक्टर बिसारिया ने संदर्भित सवालों को
उठाते हुए कहा कि रंगकर्मी स्वयं से पूछें कि वे कहाँ
हैं? यह कोई ग़लत टिप्पणी तो नहीं है। यदि रंगकर्मी
जागरूक है तो इससे भी महत्तर प्रश्नों के हल निकाल
सकने की सामर्थ्य उसमें हैं, बशर्ते वे युद्धक्षेत्र
की मार-काट जैसी गतिविधियों में न संलग्न हों उन्हें
एकजुट होना होगा। रंगक्षेत्र और रंगाकाश को फिर से
अधिसंख्य रंग-नक्षत्रों के उजास से भरा जा सकता है।
५ जनवरी
२००९ |