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व्यक्तित्व

 

 

अभिव्यक्ति में इंशा अल्ला खाँ की रचनाएँ 

गौरव गाथा में
कहानी
रानी केतकी की कहानी

 


इंशा अल्ला खाँ

सैय्यद इंशाअल्लाह खाँ के पूर्वज समरकंद के एक प्रतिष्ठित वंश के थे। ये लोग पहले कश्मीर में आकर रहे और फिर वहाँ से दिल्ली आए। यहाँ शाही दरबार में इन लोगों का अच्छा मान हुआ। इंशाअल्लाह खाँ के पिता माशाअल्लाह खाँ अच्छे कवि और हकीम थे। यथासमय वे भी अपने पूर्व पुरूषों को भाँति तत्कालीन बादशाह के दरबार में हकीम नियत हुए। पर उस समय चुगताई वंश की शक्ति क्षीण हो चुकी थी। अतएव माशाअल्लाह खाँ ने दिल्ली छोड़कर मुर्शिदाबाद जा बसने की ठानी। वहाँ के नवाब के यहाँ इनका अच्छा आदर हुआ। 

नवाब सिराजुद्दौला का नाम इतिहास प्रसिद्ध है। यही इस समय बंगाल के अधिकारी थे। इनके दरबार में विद्वानों और गुणीजनों का अच्छा आदर होता था। माशाअल्लाह खाँ मुर्शिदाबाद में बस गए और आनंद से अपने दिन बिताने लगे। यहाँ इनके पुत्र इंशाअल्लाह खाँ का जन्म हुआ। बालक इंशाअल्लाह का स्वभाव चंचल और बुद्धि तीव्र थी। पिता से शिक्षा पाकर वे छोटी उमर में ही कविता करने लग गए थे। 

जब बंगाल में राजनीतिक अवस्था चिंताजनक हुई, तब सैयद इंशाअल्लाह खाँ मुर्शिदाबाद से दिल्ली चले आए। उस समय दिल्ली के राजसिंहासन पर शाह आलम विराजते थे। यद्यपि ये धनशून्य और शक्तिहीन थे, केवल नाम के बादशाह रह गये थे, तथापि इनको काव्य से प्रेम था। वे स्वयं कविता करते और गुणी कवियों का आदर भी करते थे। उन्होंने इंशाअल्लाह खाँ को अपने दरबार में रख लिया। इंशाअल्लाह खाँ बड़े विनोद–प्रिय थे। वे केवल कविता ही नहीं करते थे, बल्कि समय समय पर विनोदमय कहानियाँ भी रचकर दरबार में सुनाया करते थे जिससे उनकी बहुत कुछ पूछ रहती और मान–मर्यादा भी कम न थी। पर दिल्ली पति शाह आलम धनहीन होने के कारण इनकी यथेष्ट आर्थिक सहायता नहीं कर सकते थे, इसलिये इन्हें प्रायः अर्थ कष्ट बना रहता था। 

अतः इन्हें अपने कष्टों की निवृत्ति के लिये किसी दूसरे दरबार का आश्रय लेने की आवश्यकता हुई। उस समय अवध के नवाब आसफुद्दौला के दान और उदारता की चर्चा चारों ओर फैल रही थी। ' जिसका न दे मौला, उसे दे आसफुद्दौला' तक लोग प्रायः कहा करते थे। सैयद साहब ने भी उसी दरबार का आश्रय लेने का निश्चय किया। वे लखनऊ आए और नवाब साहब की सेवा में उपस्थित हुए। क्रमशः इनका मान बढ़ने लगा। कुछ समय के अनंतर एक दिन यौं ही हँसी हँसी में इनमें और नवाब सआदत अली खाँ में कुछ मनमुटाव हो गया। तब से ये दरबार छोड़ एकांत वास करने लगे। सात वर्ष एकांतवास में बिता संवत् १८७५ में ये स्वर्ग सिधारे।

सैय्यद इंशाअल्लाह खाँ फारसी और अरबी भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे। आपने उर्दू में भी कविता की है। प्रांतीय वीलियों से भी आप भली–भांति परिचित थे और कभी कभी उसका प्रयोग भी कर लेते थे।
 
 

प्रमुख कृतियाँ – 

इंशा का तुर्की रोजनामचा
दरिया ए लताफत
इंशा की दो कहानियाँ

 
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