रामकिंकर
बैज
आधुनिक
भारतीय मूर्ति कला के जनक रामकिंकर बैज का जन्म १९०६ ईस्वी
में बंगाल के बांकुरा ज़िले में हुआ। उनका झुकाव बचपने से
कला के प्रति था। बांकुरा अपने लोक कला, जैसे टेराकोटा के
मंदिरों, मूर्तियों और चित्रकारी के लिए विश्वप्रसिद्ध रहा
है। स्थानीय कला का बैज पर बड़ा प्रभाव पड़ा। लोक कलाओं तथा
धरोहरों से प्रभावित होकर वे प्रतिलिपियाँ, चित्र और
मिट्टी से गढ़ कर आकृतियाँ बनाने लगे। तकरीबन उनकी उमर
सोलह- सत्रह वर्ष रही होगी जब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन
अपने चरम पर था। बैज ने प्रमुख स्वतन्त्रता सेनानियों के
सबीह और रेखा चित्र बनाए।
उनके चित्र सजीव प्रतीत होते और रेखाओं में एक अजीब सी
ऊर्जा होती जो की बिना तालिम लिए किसी के हाथों में दिखना
दुर्लभ थी। उनके इसी जन्मजात गुण को देखते हुए प्रख्यात
बंगला पत्रकार रमानन्द चटर्जी ने उन्हे शांतिनिकेतन में
दाखिले के लिए प्रेरित किया। शांतिनिकेतन का स्वतंत्र
वातावरण उनके जैसे व्यक्तित्व के लिए अनुकूल साबित हुआ।
रबीन्द्रनाथ टेगोर ने शांतिनिकेतन की स्थापना कला और
शिक्षा में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आधुनिकता को सार्थक
आयमा देने के लिए ही की थी। नंदलाल बोसे जैसे महान कला
मनीषी और शिक्षक के सानिध्य में बैज ने कला में डिप्लोमा
की डिग्री अर्जित की। उनके कला ज्ञान और प्रायोगात्मक
अनुभव को देख कर शांतिनिकेतन के मूर्तिकला विभाग में
प्रमुख के पद पर कार्य करने का निमंत्रण मिला। नंदलाल बोस
तथा बिनोद बिहारी मुखर्जी के साथ मिलकर इन्होने
शांतिनिकेतन को कला के छेत्र का अग्रणी संस्थान बनाया,
जहां पारंपरिक शिक्षा के अलावा व्यक्तिगत विकास पर ज्यादा
ध्यान दिया जाता था।
बैज कला में नवीनता के हमेशा प्रशंसक रहे और नित नए प्रयोग
भी करते रहे। वो पहले भारतीय कलाकार थे जिनहोने ने सीमेंट
में काम किया। उनसे पहले पत्थर, मिट्टी, लकड़ी और धातु ही
मूर्ति कला के प्रचलित माध्यम थे। मूर्ति कला के अलावा
इन्होने चित्र कला में भी नए प्रयोग किए। वॉटर कलर के साथ
ही तैल चित्र में भी उनका हाथ सधा हुआ था। उस समय भारत में
तैल चित्र के रंग नहीं बनते थे, जो उपलब्ध थे वो कीमती और
बाहर से आते थे। बाहर के कीमती रंगों के विकल्प के रूप में
उन्होने लीनसीड आयल के साथ बाज़ार में उपलब्ध रंगों को मिला
कर अपने तरीके का तैल रंग बनाया। मुख्यतः लैंडस्केप और
कम्पोजीशन विधा में काम करने वाले बैज के चित्रों में उनकी
मूर्ति कला की झलक दिखती है। उनके चित्र उभरे हुए और
लहरिया रेखाओं से उकेरित गतिमान प्रतित होते हैं। इसका
जीवंत उदाहरण उनके ‘मिल कॉल’ और संथाल परिवार और परिवेश पर
बने चित्रों में दिखता है।
बैज की कला का मुख्य विषय सामान्य जन, रोज़-मर्रा की जिंदगी
और परिवेश से प्रेरित रहा। उनकी कला में वास्तविकता अपने
स्वाभाविक भाव में दिखती है। उन्होने रियलिज़्म में अपने
बदलाव के साथ स्कल्पचर के उपरी सतह को चिकना नहीं बनया,
बल्कि मिट्टी या सीमेंट के स्वाभाविक टेक्सचर में छोड़ा।
उनके मूर्तियों का ये खुरदुरापन ही उनके कला की विशेषता बन
गया। कला के व्यवसायिक पहलुओं पर उनका ध्यान कभी नहीं गया।
कला को साधना समझने वाले बैज ने शांतिनिकेतन में कई पब्लिक
स्कल्पचर प्रोजेक्ट पर काम किया। १९३८ में बनी ‘संथाल
फॅमिली’ इन्ही में से एक अपने विशाल आकार में आज भी
विश्वविद्यालय के प्रांगण में खड़ी है।
अमूर्तन और एक्सप्रेसेनिस्ट शैली में काम करने वाले वो
भारत के प्रथम मूर्तिकार थे। १९३८ में बने ‘द पोएट’ को
भारत का पहला एब्स्ट्रेकट या अमूर्तन शैली का उदाहरण माना
जाता है। यह पोट्रेट कवि गुरु रबीन्द्रनाथ टेगोर का है
जिसमे भाव और प्रतिकों के माध्यम से कवि के प्रभावशाली
चेहरे को अमूर्तन और यथार्थ के संयोजन में बड़ी कुशलता के
साथ दिखया गया है। मूर्ति कला के विकास में यह उदाहरण मील
का पत्थर साबित हुआ और आगे चल कर अमूर्तन कला का पथ
प्रदर्शक बना।
जीवन में अर्थ को प्रश्रय न देने वाले बैज ने गिने चुने
कमिशन प्रोजेक्ट्स पर काम किया। १९७० में बन कर तैयार यक्ष
और यक्षी की मूर्तियाँ जो उन्होने ने रिजर्ब बैंक के लिए
बनाई थी, वो बैंक के दिल्ली स्थित मुख्यालय के बाहर लगी
है। पत्थर से बनी ये विशाल प्रतिमाएँ प्राचीन भारतीय कला
से प्रेरित कुषाण काल से प्राप्त मूर्तियों से प्रभावित
दिखती हैं। इससे यह पता चलता है कि आधुनिक सोंच होने के
बावजूद बैज की कला की आत्मा भारतीय रही और अपने समृद्ध कला
इतिहास और धरोहर से प्रभावित भी।
बैज
को जानवरों से बड़ा लगाव था। कुत्ते और बिल्लियाँ उनकी
कार्यशाला और घर में इधर-उधर स्वच्छंद घूमते। कुछ छाया
चित्रों में भी उनके पशुओं के प्रति प्रेम को बड़े सुंदर
तरीके से प्रदर्शित किया गया है। बैज ने कुत्ते और
बिल्लियों के अनेकों रेखा चित्र और मिट्टी में स्टडीज
बनाये। सुरीले आवाज़ के धनी बैज को गाने और सुनने में भी
रुचि थी।
उनके कलाक्षेत्र में योगदान के लिए भारत के राष्ट्रपति ने
उन्हें १९७० में पद्मभूषण से सम्मानित किया और १९७६ में
ललित कला से मानद उपाधि और शांतिनिकेतन से देशिकोत्तम
सम्मान मिला। १९८० में कुछ समय बीमार रहने के बाद बैज ने
अंतिम साँस ली और छोर गए एक विशाल धरोहर अपनी कला के रूप
मे, और विद्या जो उनके शिष्यों के माध्यम से कला के
प्रशंसकों और छात्रों के बीच आज भी जीवित है।
१५ जून २०१५
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