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कला और कलाकार

राजा रवि वर्मा

राजा रवि वर्मा का जन्म २९ अप्रैल १८४८ को केरल के एक छोटे से गाँव किलिमन्नूर के राजमहल में हुआ था। पाँच वर्ष की छोटी सी आयु में ही उन्होंने अपने घर की दीवारों को दैनिक जीवन की घटनाओं से चित्रित करना प्रारंभ कर दिया था। उनके मामा कलाकार राजा राजवर्मा ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और कला की प्रारंभिक शिक्षा दी। उन दिनों साफ किये गये फर्श पर चूने के आकृतियाँ बनवाकर प्रशिक्षण देने का प्रचलन था। बाद में कागज़ पर पेंसिल से चित्र खिंचवाने की परम्पारा आरंभ हुई। उस काल में बाज़ार में रंगों का मिलना संभव नहीं होता था। चित्रकार पौधों और फूलों से रंगों का निर्माण करते थे।

परंपरागत शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत प्रशिक्षण पाने वाले प्रतिभावान बालक रविवर्मा को चौदह वर्ष की आयु में राजा राजवर्मा थिरुवनंतपुरम ले गये जहाँ राजमहल में उनकी तैल चित्रण की शिक्षा हुई। तिरुवनन्तपुरम में रहने से यह लाभ हुआ कि राजमहल के चित्रों, जो इतालियन नवजागरण शैली के थे, को देखकर उन्हें काफी कुछ सीखने का अवसर मिला, साथ ही वे तमिलनाडु की चित्रकला भी सीख सके। बाद में चित्रकला के विभिन्न आयामों में दक्षता के लिये उन्होंने मैसूर, बड़ौदा और देश के अन्य भागों की यात्रा की।

१८६८ में तिरुवनन्तपुरम में थियडोर जेनसन नामक डच चित्रकार से मिलने के बाद राजा रविवर्मा ने पाश्चात्य शैली के तैलचित्रों के संसार में प्रवेश किया। इसके बाद उन्होंने महाराजा और राज परिवार के सदस्यों के चित्र नवीन शैली में बनाये। १८७३ ईं से चेन्नै में आयोजित चित्रप्रदर्शनी में 'चमेली के फूलों से केशालंकार करती नायर स्त्री' नामक चित्र को प्रथम स्थान मिला। इसी वर्ष वियना में आयोजित एक चित्र प्रदर्शनी में भी यही चित्र पुरस्कृत हुआ। अगले वर्ष उनका एक और चित्र 'तमिल महिला की संगीत साधना' १८७४ चेन्नै की प्रदर्शनी में पुरस्कार हुआ। यही चित्र 'दारिद्रय' शीर्षक से तिरुवनन्तपुरम की श्री चित्रा कला दीर्घा में प्रदर्शित है। १८७६ ई में 'शकुन्तला की प्रेम दृष्टि' चेन्नै प्रदर्शनी में पुरस्कृत हुई। पाँव में लगे काँटे को निकालने के बहाने दुष्यंत को मुडकर देखती 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' की शकुन्तला का चित्र उनके सर्वाधिक प्रसिद्ध चित्रों में एक है। ब्रिटिश प्राच्यविद् मेनियर विलियंस ने अपने शकुन्तलानुवाद के मुखपृष्ठ के लिये इसी चित्र का चुनाव किया था।

राजा रवि वर्मा को आधुनिक भारतीय चित्रकला का प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने चित्रकला को आधुनिक प्रौद्योगिकी से जोड़ा और भारतीय चित्रकला के इतिहास में एक नये अध्याय का प्रारंभ किया। १८९४ में उन्होंने विदेश से एक कलर ओलियोग्राफिक प्रेस खरीदकर मुम्बई में स्थापित की। इस प्रेस में उन्होंने चित्रों के सस्ते संस्करण मुद्रित किये। इस प्रकार उन्होंने अपने चित्रों को मुद्रित कर सस्ते दाम पर जनसामान्य को उपलब्ध कराने का महत्वपूर्ण काम किया।

१८८० में बड़ौदा से राजा माधवराव जब तिरुवनन्तपुरम पधारे तब राजा रविवर्मा का उनसे परिचय हुआ। १८८१ में वे बडौदा के महाराजा सयाजि राव गायकवाड़ के राज्याभिषेक के अवसर पर बडौ़दा गये और वहाँ चार माह तक चित्रकारी की। इस कालावधि में उन्होंने अनेक ऐसे चित्र बनाए जो पुराणों के संदर्भों पर आधारित हैं। आज भी राजा रविवर्मा के चित्रों का सबसे बड़ा संग्रहालय इसी राज परिवार के पास है। १८८५ में मैसूर के महाराजा चामराजेन्द्रन ओडयार ने उन्हें आमंत्रित किया और चित्र बनवाए। १८८८ में एक बार फिर से रविवर्मा दो वर्ष के लिया बडौदा में रहे। चित्र बनाए। उत्तर भारत की व्यापक यात्राएँ कीं। और १८९३ में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व प्रदर्शनी में दस चित्र प्रदर्शित किये। अपने जीवन में वे भारतीय तथा विदेशी शासकों के लोकप्रिय चित्रकार बने रहे और अनेक प्रशासकों को उन्होंने अपनी तूलिका से चित्रित किया। उनके बनाए गए हिन्दू देवी देवताओं के चित्र हर भारतीय के घर में देखे जा सकते हैं।

राजा रवि वर्मा की सफलता का श्रेय उनकी सुव्यवस्थित कला शिक्षा को जाता है। उन्होंने पहले पारंपरिक तंजावुर कला में महारत हासिल की और फिर यूरोपीय कला का अध्ययन किया। उनकी कलाकृतियों को तीन प्रमुख श्रेणियों में बाँटा जा सकता है- १–प्रतिकृति या पोर्टे्रट, २– मानवीय आकृतियों वाले चित्र तथा ३– इतिहास व पुराण की घटनाओं से संबंधित चित्र।

यद्यपि जनसाधारण में राजा रविवर्मा की लोकप्रियता इतिहास पुराण व देवी देवताओं के चित्रों के कारण हुई लेकिन तैल माध्यम में बनी अपनी प्रतिकृतियों के कारण वे विश्व में सर्वोत्कृष्ट चित्रकार के रूप में जाने गए। आज तक तैलरंगों में उनकी जैसी सजीव प्रतिकृतियाँ बनाने वाला कलाकार दूसरा नहीं हुआ। आधुनिक चित्रकारों के मध्य पारंपरिक और पारंपरिक कलाकारों के मध्य आधुनिक माने जाने जाने वाले राजा रवि वर्मा भारत की पारंपरिक और यूरोप की आधुनिक कला के मध्य एक उत्कृष्ट संतुलन सेतु थे। आपका देहांत २ अक्तूबर १९०६ को हुआ।

 
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