| मनजीत 
                        बावा 
                         मनजीत 
                        बावा का जन्म २८ जुलाई १९४० को,  पंजाब के एक गाँव 
                        ढुरी में हुआ। दिल्ली के कालेज आफ आर्ट्स और लंदन स्कूल आफ 
                        प्रिंटिंग से शिक्षा प्राप्त बावा पहले ऐसे कलाकार थे, 
                        जिन्होंने पाश्चात्य कला में बहुलता रखने वाले धूसर और 
                        भूरे रंग के वर्चस्व को तोड़कर चटक भारतीय रंगों ( बैंगनी 
                        और लाल) को प्रमुखता दी। बांसुरी और गायों के 
                        प्रति बावा का आकर्षण बचपन से ही था, जो आजीवन साथ रहा। 
                        देशज रंगों और रूपाकारों के कुशल चितेरे बावा की कृतियों 
                        में ये आकर्षण विद्यमान है। लाल रंग उन्हें बेहद 
                         प्रिय था। 
                        वे नीले आकाश को भी लाल रंग से उकेरना चाहते थे। विलक्षण 
                        रंग प्रयोग की विशेषता के बावजूद सीमित रंगों का प्रयोग और 
                        व्यापक रंगानुभव, सूफीयना तबीयत के कलाकार बावा के कला 
                        संसार की पहचान है। कला समीक्षक उमा नायर के अनुसार बावा, 
                        कला में नव आंदोलन का हिस्सा थे। रंगों की उनकी समझ अद्भुत 
                        थी। उन्होंने भारतीय समकालीन कला को अंतरराष्ट्रीय मंच पर 
                        ख्याति दिलाने का जो काम किया है, उसे कला जगत में हमेशा 
                        याद किया जाएगा। 
 जब वे दिल्ली में रहते हुए कला की शिक्षा ले रहे थे तब 
                        उनके गुरु थे सोमनाथ होर और बीसी सान्याल, लेकिन उन्होंने 
                        अपनी
  पहचान बनाई 
                        अवनि सेन की छत्रछाया में। श्री सेन ने 
                        उनसे कहा था कि रोज पचास स्कैच बनाओ। मनजीत बावा रोज पचास 
                        स्कैच बनाते और उनके गुरु इनमें से अधिकांश को रद्द कर 
                        देते थे। |  | 
                          यहीं से 
                        मनजीत बावा के रेखांकन का अभ्यास शुरू हुआ। उन्होंने अपने 
                        उन दिनों को याद करते हुए कहीं कहा भी था कि तब से मेरी 
                        लगातार काम करने की आदत पड़ गई। जब सब अमूर्त की ओर जा रहे 
                        थे मेरे गुरुओं ने मुझे आकृतिमूलकता का मर्म समझाया और उस 
                        ओर 
                           जाने के लिए प्रेरित किया। वे आकृतिमूलकता की ओर आए तो 
                        सही लेकिन अपनी नितांत कल्पनाशील मौलिकता से उन्होंने नए 
                        आकार खोजे, अपनी खास तरह की रंग योजना का आविष्कार किया और 
                        मिथकीय संसार में अपने विषय ढूँढ़े। यही कारण है कि उनके 
                        चित्र संसार में ठेठ भारतीयता के रंग व आकार देखे जा सकते 
                        हैं। वहाँ हीर-राँझा, कृष्ण, गोवर्धन, देवी तथा कई मिथकीय 
                        और पौराणिक 
                        प्रसंग-संदर्भ और हैं। इसके साथ ही उनके चित्रों में जितने 
                        जीव-जंतु हैं उतने शायद किसी अन्य भारतीय कलाकार में नहीं। |