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						 डॉ. 
						लाल रत्नाकर 
						 डॉ.लाल रत्नाकर का जन्म 
						जौनपुर में १२ अगस्त १९५७ को हुआ, इन्होंने कला विषय में 
						गोरखपुर विश्वविद्यालय स्नातक, कानपुर विश्वविद्यालय से 
						परास्नातक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से प्रोफेसर 
						आनंद कृष्ण के निर्देशकत्व में 'पूर्वी उत्तर प्रदेश की 
						लोक कला' पर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। १ अक्टूबर 
						१९९२ को गाजियाबाद में एम्.एम्.एच. कालेज के चित्रकला 
						विभाग में कार्य प्रारंभ किया जहाँ वे सहायकर प्रोफेसर के 
						पद पर कार्यरत हैं। 
 उनकी पहली एकल प्रदर्शनी '१९९६' में ललित कला अकादमी की 
						रवीन्द्र भवन कला दीर्घा ७-८ में हुई जिसमें जलरंग, 
						तैलरंग, एक्रेलिक तथा रेखांकन प्रदर्शित किये गए थे। इसके 
						बाद दिल्ली में १९९८ में आईफेक्स में, ललित कला अकादमी 
						में, मुंबई की जहाँगीर आर्ट गैलेरी में, कोलकाता की बिरला 
						अकादमी आफ आर्ट एंड कल्चर में, हैदराबाद की स्टेट आर्ट 
						गैलरी और सी सी एम बी हैदराबाद में, फिर बेंगलौर में 
						कार्यशाला और प्रदर्शनियों का क्रम जारी है। उन्होंने 
						गाजियाबाद में कला उत्सव का राष्ट्रीय सिलसिला २००४ से 
						आरम्भ किया है। और २००७ में 'कला धाम' का निर्माण किया।
 
 दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी डा. लाल 
						रत्नाकर के कला संसार की पूरी दुनिया है। यही वह आवादी है 
						जो सदियों से सांस्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को 
						सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने 
						शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और 
						कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. लाल रत्नाकर के 
						चित्रों में महिलाओं की ये विशेषताएँ मुखरता से उभर कर आती 
						हैं। उनके पात्र प्रमुख रूप से ग्रामीण आंचल से लिये गए 
						हैं।
 दुनिया जिसे आधी आबादी 
						कहती है वही आधी आवादी डा. लाल रत्नाकर के कला संसार की 
						पूरी दुनिया है। यही वह आबादी है जो सदियों से सांस्कृतिक 
						सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को सौंपती रही है और 
						संस्कारों का पोषण करती रही है। कितने शीतल भाव से वह अपने 
						दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना 
						दर्द छिपाये रखती है, यह सब लाल रत्नाकर की कलाकृतियों में 
						मुखरता से उभर कर आता है। उनके पात्र प्रमुख रूप से 
						ग्रामीण आंचल से लिये गए हैं। हालाँकि पुरुषों का 
						चित्रांकन उन्होंने बहुत कम किया है पर जहाँ कहीं वे उनकी 
						तूलिका से आकार लेते हैं संपूर्ण भारतीय ग्रामीण वैभव के 
						साथ प्रदर्शित होते हैं।  उनके पात्र मेहनतकश 
						वर्ग के हैं। उनके पहनावे उनके आभूषण और उनके उपयोग की 
						वस्तुएँ सभी को डॉ रत्नाकर कलात्मक संवेदना के साथ 
						प्रस्तुत करते हैं। तोते और बैलों और घोड़ों का वे विभिन्न 
						रंगों में सजीव चित्रण करते हैं। चक्की लाठी घड़े, पहिये, 
						हल आदि उनके चित्रों में आकर्षक रूप में स्थान पाते हैं। 
						उनके रंग चटकीले हैं, जो उत्सवी रौनक छोड़ते हैं  और 
						दर्शकों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इस विषय में वे 
						कहते हैं- "जिस स्त्री का मेरी 
						कला से सरोकार है मूलतः वह रंगों के प्रति सजग होती है उसे 
						प्रारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है जिन्हे वह सदा वरण करती 
						हैं, मूलतः ये मूल रंग इनके मूल में बसे होते हैं यथा लाल 
						पीला नीला बहुत आगे बढ़ी तो हरा बैगनी और नारंगी इसके सिवा 
						उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं वह सीधे सीधे कुछ अलग 
						ही संदेश सम्प्रेषित करते हैं इन रंगो मे प्रमुख हैं काला 
						और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं।" |