जामिनी राय
अप्रैल
१८८७ में बांकुरा जिले के छोटे से गांव में जन्मे जामिनी १९०३
में कलकत्ता आये और गवर्नमेंट स्कूल औफ आर्ट में दाखिला लिया।
इस प्रकार उनकी औपचारिक शिक्षा का प्रारंभ पश्चिम में प्रचलित
कला शैली के पोट्र्रेट और दृश्य चित्रण से हुआ। वे पश्चिमी
पद्धति की तकनीक में औपचारिक रूप से प्रशिक्षित पहले भारतीय
चित्रकार थे और अवनींन्द्रनाथ ठाकुर के प्रिय शिष्यों में से
एक भी। लेकिन शीघ्र ही वे बंगाल की लोककला की ओर आकर्षित हुए
और कालीघाट चित्रपद्धति की झलक उनके काम में दिखने लगी।
यह भारत में आधुनिक चित्रकला के विकास का एक ज़बरदस्त अध्याय
था। पाश्चात्य शैली को नकारते हुए उन्होंन दो आयामी चित्रों की
रचना की। सपाट रंग, लाइनों को प्रमुखता और मुख्य चित्र के
पार्श्व में फूलदार अलंकरण और चारों ओर सुंदर किनारों से सजे
उनके चित्रों की धूम मच गई। वह युग यूरोपीय चित्रकारों का था
जिसके अत्याधिक प्रतियोगी वातावरण में भारतीय होने के बावजूद
उन्होंने अपने आप को सिद्ध कर दिखाया।
बंगाल के स्थानीय वातावरण में विकसित उनकी यह कला द्वितीय
महायुद्ध के समय कलकत्ता में रहनेवाले अमेरिकी और ब्रिटिश
लोगों में भी मशहूर हो गयी। १९४६ में उनके चित्रों को लंदन में
प्रदर्शित किया गया और १९५३ में न्यू यार्क में। १९५५ में
उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।
सैकड़ों एकल प्रदर्शनियों और असंख्य सामूहिक प्रदर्शनियों में
उनके चित्रों को पूरे विश्व में प्रदर्शित किया। अनेक
व्यक्तिगत व सार्वजनिक कला सग्रहालयों और संस्थानों के साथ–साथ
'ललितकला अकादमी दिल्ली', जर्मनी व संयुक्त राष्ट्र अमेरिका
में उनके चित्रों के बड़े संग्रह हैं।
उनके चित्रों की विषय वस्तु में मां बेटा, पशुपक्षी व रामायण
के दृश्यों और राधा–कृष्ण की प्रमुखता है। वे सस्ते यूरोपीय
रंगों के स्थान पर खुद बनाए गए मंहगे रंगों का प्रयोग करना
पसंद करते थे। कैनवस पर अंकित तैलचित्रों की अपेक्षा कागज या
ताड़ पत्र पर बनाये गये उनके ये चित्र काफी आकर्षक लगते थे।
प्रसिद्ध और लोकप्रिय होने के बाद भी वे अपने चित्रों को
आश्चर्यजनक रूप से सस्ते दामों पर गांव के बाज़ार में बेचते थे।
कलाकार की शानोशौकत से दूर वे अपने को जीवन पर्यन्त एक कला
शिल्पी ही मानते रहे। चित्रकारी के लिये उन्होंने कभी ईज़ल का
प्रयोग नहीं किया, ना ही पश्चिमी शैली के फर्नीचर की ओर उनका
रूझान हुआ।
उनके घर में देश विदेश से आने वालों का तांता लगा रहता था
लेकिन उनकी जीवन शैली पूर्णतया भारतीय बनी रही। हर
तरह
के अतिथि को बैठने के लिये चमकीले रंगों से चित्रित चौकियाँ ही
प्रस्तुत की जाती थीं। वे सफेद धोती कुर्ता और कंधे पर चादर
रखकर बाहर निकलते थे। १९७२ में कलकत्ता में उनका देहावसान हुआ
जहां उनहोंने अपनी जीवन का अधिकांश भाग व्यतीत भी किया।
यहां दिये गए जामिनी राय के चित्रों में से ऊपर वाला संथाल मां
और बेटे का चित्र तैल रंगों में पश्चात्य शैली में बनाया गया
है। बायीं ओर राम सीता और लक्ष्मण का चित्र कालीघाट शैली में
बना हुआ है।
— विकास जोशी |