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						 कृष्णजी 
						हौवालजी आरा 
							 कृष्ण जी 
						हौवाल जी आरा का जन्म १६ अप्रैल १९१३ में बोलारम 
						(हैदराबाद), आंध्रप्रदेश में हुआ। तीन वर्ष की आयु में 
						उनकी माता का देहान्त हो गया, सात वर्ष की आयु में वे 
						बम्बई आ गये और उन्होंने अपने जीवन की शुरूआत कार–क्लीनर 
						के व्यवसाय से की। वे एक जापानी कंपनी में कार क्लीनर का 
						काम करते थे। 'पर्ल हार्बर' पर आक्रमण की ऐतिहासिक घटना के 
						बाद उनका जापानी मालिक घर को सेवक के भरोसे छोड़ कर लापता 
						हो गया। संयोग से मिले हुए उस घर का वह सर्वेन्ट क्वार्टर 
						जीवन पर्यन्त उनका कला–कक्ष (स्टूडियो) बना रहा। 
 आरा स्व शिक्षित कलाकार थे और उनकी कला का विषय नग्नचित्र 
						अचल चित्र और मानव आकृतियाँ रहे। टाइम्स आफ इंडिया के कला 
						आलोचक रूडी वान लेडेन ने उनकी कला को समझा, सराहा और 
						प्रोत्साहित किया। आरा की पहली एकल प्रदर्शनी १९४२ में 
						चेतना रेस्टोरेन्ट में हुयी। १९४४ में उन्हें राज्यपाल का 
						कला पुरस्कार मिला।
 
 वे प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप के संस्थापक सदस्यों में से एक 
						थे और इस दल के सदस्यों के साथ उन्होंने कई कला 
						प्रदर्शनियों में हिस्सा लिया। १९५२ में उन्हें अपनी 
						कलाकृति 'दो न्यायमूर्ति' के लिये बाम्बे आर्ट सोसायटी का 
						स्वर्ण पदक मिला। वे बाम्बे आर्ट सोसायटी की कार्यकारिणी 
						के सदस्य के पद पर रहे और ललितकला अकादमी के चुनावों व 
						निर्णायक समिति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे।
 आरा की 
						कला यात्रा प्रकृति के अध्ययन से प्रारंभ हुयी थी। उनके 
						प्रारंभिक चित्रों में बम्बई के उपनगरीय वातावरण की छाप 
						देखी जा सकती है।  धीरे 
							धीरे इसमें बंगाल शैली की छवि उभरी और '४० व '५० के 
							दशक के अचल चित्रण में शाने और माटीस का प्रभाव भी 
							परिलक्षित होता है। वे अपनी शैली में आधुनिक भी थे और 
							अपनी तरह के परंपरावादी भी। 
 उनका युग तैल चित्रों का युग था लेकिन उन्होंने जल 
							रंगों और गोचा माध्यम को ही अधिकतर अपनाया बाद में वे 
							तैलचित्रण की और उन्मुख हुए।
 
							 नमक 
							सत्याग्रही के रूप में उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन 
							में भाग लिया और पाँच महीने की जेल भुगती थी। देशप्रेम 
							की यह भावना बाद में एक विशेष कलाकृति की प्रेरणा बनी 
							जिसमे उन्होंने एक विशालकाय कैनवस पर स्वतंत्रता दिवस 
							मनाती हुयी उल्लासपूर्ण भारतीय जनता का आकर्षक चित्रण 
							किया। 
 अपने बाद के दिनों में उनका अधिकतर समय आर्टिस्ट सेंटर 
							में व्यतीत हुआ। ३० जून १९८५ को मुम्बई में उनका 
							देहांत हुआ।
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