अमृता
शेरगिल
रईस सिख परिवार की
खूबसूरत बेटी अमृता शेरगिल (१९१३-४१) अपनी हंगेरियन माँ के
साथ जब पेरिस की
कला के बारे में जानने फ्रांस पहुँची तब सिर्फ़ सोलह साल
की थी। पहले उसने ग्रैंड चाऊमीअर में पीअरे वेलण्ट के और
इकोल डेस बीउक्स-आर्टस में ल्यूसियन सायमन के मार्गदर्शन
में अभ्यास किया। सन १९३४ के अंत में वह भारत लौटी। बाईस
साल से भी कम उम्र में वह तकनीकी तौर पर चित्रकार बन चुकी
थी। असामान्य प्रतिभाशाली कलाकार के लिए आवश्यक सारे गुण
उनमें आ चुके थे। पूरी तरह भारतीय न होने के बावजूद वह
भारतीय संस्कृति को जानने के लिए बड़ी उत्सुक थी।
जब वे पेरिस में अध्ययन
कर रही थी तब उन्होंने एक पत्र लिखा था जिसमें उनकी भारत
लौट आने की जिज्ञासा थी। उन्होंने स्पष्ट किया था कि
चित्रकार होने के नाते वे अपना भाग्य अपने देश भारत में ही
आज़माना चाहती हैं। १९३३ साल में पाश्चिमात्य होने के नाते
बाईस साल की उम्र में उनकी यह सोच काफी मायने रखती थी। उन
दिनों भारतीय स्त्रियों में व्यावसायिक शिक्षा लेने की
प्रथा नहीं थीं, सिर्फ़ मज़दूरी करनेवाली स्त्रियाँ ही
होती थी जो दास या नौकर की हैसियत से काम करती थीं। बहुत
कम भारतीय स्त्रियों ने ऐसी व्यावसायिक शिक्षा अगर ली भी
थी तो शिक्षा को व्यवसाय के रूप में अपनाया नहीं था। लेकिन
अमृता अपनी अलग पहचान चित्रकार बनकर दिखाना चाहती थीं।
उनके बीउक्स आर्टस् के एक अध्यापक के अनुसार उनका पैलेट
पूर्वी रंगों के लिए ही बना था। यही वजह थी कि प्रतिभाशाली
अमृता इतनी दूर भारत में घर बसाने को प्रोत्साहित हुई ऐसा
उनके भतीजे विवन सुंदरम कहते हैं।
शेरगिल का भारत लौट
आने का मतलब उनके
मजबूत उद्देश्य और कुछ कर दिखाने की आग को अंजाम देना था।
भारत लौटने के बाद उन्होंने बिना एक क्षण गँवाए अपने
उद्देश्य को हासिल करने के लिए काम में गति दे दी। पेरिस
में रहते हुए वे शायद यूरोपीय चित्रकला और वर्तमान
संस्कृति से अभी तक तीस साल पीछे थी लेकिन भारत आने पर
१९३० के दशक में उन्हें महसूस हुआ कि वह तीस साल आगे चली
गई हैं। १९६० के बाद ही भारतीय चित्रकारों ने शेरगिल जैसी
प्रतिभा, आत्मविश्वास और निश्चय के परिचय देना प्रारंभ
किया।
हिमालय में बसी हुई
गर्मियों की आधुनिक राजधानी शिमला में वह जा बसीं। यहाँ
आने के बाद उनकी जीवनशैली में काफी बदलाव आया। यहाँ
उन्होंने गरीब लोगों की जीवनी पर चित्रकारी शुरू की।
चित्रों में उनकी उदास दुखी बड़ी आँखें और खाली सीढ़ियाँ
ज़िंदगी के नैराश्य या खालीपन को दर्शाती हैं। उनकी दुबली
पतली उँगलियों से शायद विषादपूर्ण मन: स्थिति और मन की खिन्नता
भी दिखाई देती थी। १९३५ में उन्हें शिमला फाइन आर्ट
सोसायटी की तरफ़ से सम्मान दिया गया जो उन्होंने लेने से
इन्कार कर दिया था। १९४० में बॉम्बे आर्ट सोसायटी की तरफ़
से पारितोषिक दिया गया। १९३५ के बाद भारत के सभी बड़े
शहरों में उनकी चित्रकारी की प्रदर्शनियाँ लगाई गईं। उनके
चित्र अब राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर
वैयक्तिक और सार्वजनिक संग्रहालयों में सम्मिलित हैं। उनके
काम को राष्ट्रीय कला कोष घोषित किया गया है।
ताज़गी भरा और अपनी तरह
का मौलिक अजंता एलोरा, कोचीन का मत्तंचेरी महल और मथुरा
की मूर्तियाँ देखने के बाद उन्हें चित्रकारी के गुण-दोष
दिखने लगे। भारत के सूक्ष्म आकार के चित्रों से उनकी जान
पहचान हुई और वह बसोली पाठशाला की दीवानी हो गई। इसके
बाद उनकी चित्रकारी में राजपूत चित्रकारी
की झलक भी मिलती है
लेकिन अबनींद्रनाथ की भावनाओं को परे रखा गया है।
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