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						1वरली
 
						भारत की 
						समृद्ध कला परंपरा में लोक कलाओं का गहरा रंग है। काश्मीर 
						से कन्या कुमारी तक इस कला की अमरबेल फैली हुई है। कला 
						दीर्घा के इस स्तंभ में हम आपको लोक कला के विभिन्न रूपों 
						की जानकारी देते हैं। इस अंक में प्रस्तुत है 
						वरली के 
						विषय में -  
 महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले में वरली जाति के आदिवासियों का 
						निवास है। इस आदिवासी जाति की कला ही वरली लोक 
						कला के नाम से जानी जाती है। यह जन जाति महाराष्ट्र के 
						दक्षिण से गुजरात की सीमा तक फैली हुई है। 
						वरली लोक कला कितनी पुरानी है यह कहना कठिन है । कला में 
						कहानियों को चित्रित किया गया है इससे अनुमान 
						होता है कि इसका प्रारंभ लिखने पढ़ने की कला से भी पहले हो 
						चुका होगा लेकिन पुरातत्व वेत्ताओं का विश्वास है 
						कि यह कला दसवी शताब्दी में लोकप्रिय हुयी। इस क्षेत्र पर 
						हिन्दू, मुस्लिम,पुर्तगाली और अंग्रज़ी शासकों ने राज्य 
						किया 
						और सभी ने इसे प्रोत्साहित किया। सत्रहवें दशक से इसकी 
						लोकप्रियता का एक नया युग प्रारंभ हुआ जब इनको बाज़ार 
						में लाया गया।
 वरली कलाकृतियाँ विवाह के समय विशेष रूप से बनायी जाती 
						थीं। इन्हें शुभ माना जाता था और इसके बिना विवाह 
						को अधूरा समझा जाता था। प्रकृति की प्रेमी यह जनजाति अपना 
						प्रकृतिप्रेम वरली कला में बड़ी गहराई से चित्रित 
						करती हैं। त्रिकोण आकृतियों में ढले आदमी और जानवर, रेखाओं 
						में चित्रित हाथ पाँव तथा ज्यामिति की तरह बिन्दु
						और रेखाओं से बने इन चित्रों को महिलाएँ घर में मिट्टी की 
						दीवारों पर बनती थीं।
 
 एक विशेषता इस कला में यह होती है कि इसमे सीधी रेखा कहीं 
						नजर नहीं आएगी। बिन्दु से बिन्दु ही जोड़ कर रेखा
						खींची जाती है। इन्हीं के सहारे आदमी, प्राणी और 
						पेड़-पौधों की सारी गतिविधियाँ प्रदर्शित की जाति है। 
						विवाह, पुरूष, 
						स्त्रीं, बच्चे, पेड़-पौधे, पशुपक्षी और खेत - यहीं विशेष 
						रूप से इन कलाकृतियों के विषय होते है। सामाजिक गतिविधियों
						को गोबर-मिट्टी से लेपी हुई सतह पर चावल के आटे के पानी 
						में पानी मिला कर बनाए गए घोल से रंगा जाता है। 
						सामाजिक अवसरों के अतिरिक्त दिवाली, होली के उत्सवों पर भी 
						घर की बाहरी दीवारों पर चौक बनाए जाते हैं। यह 
						सारे त्योहार खेतों में कटाई के समय ही आते हैं इसलिए इस 
						समय कला में भी ताजे चावल का आटा इस्तेमाल किया
						जाता है। रँगने का काम अभी भी पौधों की छोटी-छोटी तीलियों 
						से ही किया जाता है। दो चित्रों में अच्छा खासा अंतर
						होता है। एक एक चित्र अलग अलग घटनाएँ दर्शाता है।
 
 वरली जाति में माश नामक व्यक्ति ने इस कला को व्यावहारिक 
						रूप दिया। उसने वरली लोककला को महाराष्ट्र से बाहर 
						ले जाने की हिम्मत दिखाई और इस कला में अनेक प्रयोग किये। 
						उन्होंने लोक कथाओं के साथ साथ पौराणिक 
						कथाओं को भी वरली शैली में चित्रित किया।
  वाघदेव, धरती माँ 
						और पांडुराजा के जीवन काल को भी वरली शैली में
						चित्रित किया। उन्होंने वरली में आधुनिकता का समावेश किया। 
						मिट्टी और गोंद के मिश्रण के साथ साथ अपना काम 
						ज्यादा टिकाऊ बनाने के लिये उन्होंने ब्रुश और औद्योगिक 
						गोंद का प्रयोग किया। इस प्रयोग से वरली कलाकृतियों को 
						नये आयाम मिले और उनकी अंतार्राष्ट्रीय लोकप्रियता बढ़ने 
						के साथ ही वरली जन जाति का आर्थिक स्तर भी सुधरने 
						लगा। 
 आज कल माश के अतिरिक्त शिवराम गोजरे और शरत 
						वलघानी जैसे कलाकार भी इस दिशा में कार्य कर रहे हैं ये
						लोग कागज़ और कैनवस पर पोस्टर रंग इस्तेमाल कर रहे हैं। 
						वरली कलाकृतियों की यात्रा घर की गोबर मिट्टी की
						सतह वाली दीवार से शुरू हो कर आज की तिथि में कैनवस तक आ 
						पहुँची है।
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