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                     सुपारियों में खिला हस्तशिल्प अशोक श्रीवास्तव अंजान
 
 सुपारी सदियों से पूजा 
                    सामग्री और खाने के काम आती रही है। लेकिन सुपारी के खिलौने की 
                    बात सुनकर आश्चर्य-सा होता है। मध्य 
                    प्रदेश के रीवाँ शहर में कुंदेर परिवार के कुछ लोग सुपारियों 
                    के तरह तरह के खिलौने की कला में दक्षता हासिल किए हुए हैं।  
                    सुपारियों से बने सुंदर और मनमोहक खिलौने देखकर देशी विदेशी 
                    पर्यटक सभी आश्चर्य चकित हो जाते हैं। छोटी सी सुपारी को छील 
                    छील कर अगर एक टेबललैंप या ताजमहल बनाकर खड़ाकर दिया जाए तो 
                    वाकई दाँतों तले उँगली दबाने की बात ही होगी। सुपारी की यह 
                    हस्तकला कुंदेर परिवार में पुश्त दर पुश्त विकसित की गई है जो 
                    इनके कठिन श्रम और निरंतर अनुसंधान का फल है। पहले इन परिवारों 
                    में लकड़ी के खिलौने बनाने का काम होता था। बाद में सुपारी पर 
                    प्रयोग करते करते ये लोग सुपारी के खिलौने तैयार करने लगे। 
 सुपारी से खिलौने बनाने का प्रारंभ इन्होंने सिंदूर की डिब्बी 
                    बनाने से किया। सुंदर और कलात्मकता में विभिन्नता लिए 
                    सिंदूरदानी तैयार करते करते इन्होंने अन्य चीज़ें भी बनानी 
                    शुरू कर दीं। अन्य कलाकृतियों में मुख्य है टेबिल लैंप, बेड 
                    लैंप, घड़ी, ताजमहल, कुतुबमीनार, टी सेट, मंदिर, पंचमुखी 
                    मंदिर, पानदान, तोप, हिरन, हाथी, मोर, खरगोश, सभी देवताओं की 
                    मूर्तियाँ, शिवलिंग, पेन, कंगारू, सारस, पैडेंट, गेटवे ऑफ 
                    इंडिया आदि। ये हस्त शिल्पी ज्यादातर सामान आर्डर मिलने पर 
                    बनाते हैं और थोक माँग पर ये लोग रातदिन एक कर के कलाकृति 
                    तैयार करते हैं। इन खिलौनों की कीमत १० रुपये से लेकर ५००० 
                    रुपये तक होती है। जिस कलाकृति में जितनी आधिक सुपारियाँ लगती 
                    हैं उसकी उतनी ही अधिक कीमत होती है।
 
 सुपारी खिलौनों के रखरखाव हेतु यह ज़रूरी होता है कि इन्हें 
                    शीत और पानी से बचाया जाए। पानी इनका सबसे बड़ा दुश्मन होता 
                    है। बरसात के मौसम में इसमें घुन लगने का खतरा भी रहता है। 
                    इससे बचाव के लिए एक विशेष तरह की पालिश  
                    की जाती है। इन कारीगरों के दादा बाबा के ज़माने में बिजली 
                    नहीं थी। तो वे खराद मशीन को चलाने के लिए नेत्रहीन लोगों को 
                    काम पर रख लेते थे। जो हाथ से रस्सी खींचकर केवल खराद मशीन ही 
                    चलाते थे। लेकिन पर्याप्त बिजली उपलब्ध होने से ये स्वयं ही 
                    मशीन चलाकर सुपारी को खरादते हैं। इस हस्त कला के ज्यादा 
                    कारीगर नहीं होने के बावजूद यह कला भली भांति फल फूल रही है।
 
 सुपारी के इस काम में जिन औज़ारों की इन्हें जरूरत पड़ती है 
                    उनमें प्रमुख हैं खराद मशीन और खराद मशीन में लगने वाला एक 
                    विशेष प्रकार का औजार कूंद। इसके अतिरिक्त रुखान, निहाना, फरेटी, 
                    बसूला, आरी, बर्मा, निहानिया, नागफनी, हथौड़ा, प्रकाल आदि। 
                    यहाँ यह बतलाना आवश्यक है कि कूंद नाम से ही इनके परिवार का 
                    नाम जुड़ा हुआ है। पुराने समय से ही इन लोगों के यहाँ प्रत्येक शुभ 
                    कार्य में कूँद द्वारा आग जलाकर शुभारंभ किया जाता है। अब तो 
                    लकड़ी की बजाय लोहे का कूँद बन चुका है। इस कूँद के कारण ही 
                    इनके नाम के आगे कुँदेर जोड़ा जाता है।
 इन औजारों के अतिरिक्त भी 
                    कई चीज़ें विशेष रूप से प्रयोग में लाई जाती हैं। जैसे सुपारी 
                    का रंग साफ़ करने के लिए केवड़े का पत्ता जो जंगल से लाकर पूरे 
                    साल भर के लिए एक साथ सुखाकर रक्खा जाता है। अप्रैल-मई के माह 
                    में जो केवड़ा जंगल में होता है उसी के पत्ते काम में आते हैं। 
                    अगर पत्ता किसी और मौसम का होगा तो उसे कीड़े खा जाते हैं। 
                    अप्रैल मई के पत्ते को कीड़े नहीं खाते यह केवड़े के पत्ते में 
                    एक बहुत बड़ी विशेषता होती है। इस 
                    काम में फेवीकोल और चपड़ा भी काम में आता है। चपड़ा वही काम 
                    में आता है जो शुद्ध लाख से बना हो। चपड़े में ये हस्त शिल्पी 
                    जैसे रंग चाहते हैं वैसा ही कर लेते हैं। चपड़े में मनाचाहा 
                    रंग लाने की भी एक विशेष विधि होती है। 
 
  इन 
                    खिलौनों के बनाने में सुपारी की जिन किसमों को काम में लाया 
                    जाता है वे हैं मोरा, मानिकचंदी, बंबइया, मगरौली बाबा, पूजावाली 
                    राम सुपारी आदि। एक बाईस इंच लंबे लैंप को बनाने में लगभग २५० 
                    सुपारियाँ तक खर्च होती हैं। इसी तरह एक ताजमहल को बनाने में 
                    ५००, एक १५x१५ इंच के घर को बनाने में लगभग २०००, सवा तीन फुट 
                    वाली छड़ी में ७५ और टी सेट में ४० सुपारियां खर्च होती हैं। 
                    मूर्ति बनाने में हालाँकि सुपारियाँ तो कम लगती हैं लेकिन श्रम 
                    और समय काफ़ी लगता है इसलिए इनकी कीमत ज्यादा होती है। जिस समय 
                    ये शिल्पी सुपारी को किसी खिलौने का आकार देते हैं उस समय उस 
                    पर बार बार मैन का प्रयोग कर उसे रगड़ते हैं। इनकी भाषा में 
                    मैन उसे कहते हैं जो मधुमक्खी का छत्ता होता है। उसमें से शहद 
                    हटाकर जो खाली खत्ता बचता है उसे आग में पकाकर साबुन की तरह 
                    बना लेते हैं। उसे ही ये लोग मैन कहते हैं। इसे सुपारी पर 
                    खरादते समय इसलिए बार बार लगाते हैं ताकि सुपारी में खुली जगह 
                    न रह जाए। ये लोग माल तैयार कर के अपने निकटवर्ती पर्यटन 
                    केंद्रों जैसे चित्रकूट खजुराहो और जबलपुर में भेजते हैं। जहाँ 
                    इनका माल तुरंत बिक जाता है। 
 इन हस्तशिल्पियों का एक इतिहास और है-  इन्होंने पूर्व 
                    राष्ट्रपति श्री राजेन्द प्रसाद, श्री ज्ञानी जैलसिंह, श्री 
                    शंकर दयाल शर्मा तक को सुपारियों से बनी कलाकृतियाँ भेंट की 
                    थीं। प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू और पूर्व 
                    प्रधानमंत्री श्री इंदिरा गाँधी को भी इन्होंने सुपारियों के 
                    कलात्मक नमूने भेंट किए थे।
 
 ये रीवाँ शहर वही शहर है जहाँ के राजा ने कभी वहाँ के आसपास के 
                    जंगलों में शिकार करने के दौरान सफेद शेर को जीवित पकड़ा था। 
                    आज पूरे विश्व में जितने भी सफेद शेर चिड़िया घरों में हैं वे 
                    सभी उसी सफेद शेर की संताने हैं। उसी रीवाँ शहर की ये अनूठी 
                    सुपारी कला पर्यटकों के समक्ष अपनी अमिट छाप छोड़ने में सक्षम 
                    है।
 
      १७ मई २०१० |