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						1पिथौरा
 
						भारत की 
						समृद्ध कला परंपरा में लोक कलाओं का गहरा रंग है। काश्मीर 
						से कन्या कुमारी तक इस कला की अमरबेल फैली हुई है। कला 
						दीर्घा के इस स्तंभ में हम आपको लोक कला के विभिन्न रूपों 
						की जानकारी देते हैं। इस अंक में प्रस्तुत है 
						पिथौरा के 
						विषय में -  
 गुजरात और मध्य प्रदेश के भीलों की रथवा जनजाति का विश्वास 
						है कि संसार की रचना पहली बरिश और पृथ्वी के 
						संयोग से हुयी। विश्व की अनेक प्रचीन सभ्यताओं की तरह उनके 
						गीतों में चार महाद्वीप वाली रानी पृथ्वी और 
						इंदीराजा का वर्णन है जो स्वर्ग में रहता है। इस प्रकार 
						पृथ्वी को माता और आकाश को पिता मानकर उनके साहित्य 
						और कला की रचना हुई है। मिर्जापुर, होशंगाबाद पाषाण गुफाओं 
						और नवादातोली के पात्रों पर बने हुए चित्र इन 
						पौराणिक अवधारणाओं के बहुमूल्य ऐतिहासिक प्रमाण हैं। इन 
						लोकचित्रों में बैल और गाय भी प्रमुखता के साथ 
						चित्रित किये गए हैं। 
 जंगल, सागर, बादल, अंधे और लंगड़े प्राणियों को भी कला का 
						विषय बनाया गया है। घोड़ों कर हर स्थान पर बहुत 
						महत्व के साथ चित्रण हुआ है। उन्हें दौड़ते हुए और आकाश 
						में उड़ते हुए दिखाया गया है। वे आदमियों भैंसों हलों 
						गायों 
						पेडों नगाड़े बजाने वालों और चीतों के साथ भीड़ मे जलूस की 
						तरह दिखाए गये हैं।
 
 आज भी इस जनजाति में विवाह जैसे शुभ अवसरों पर घर के भीतर 
						के कमरे में देवता की स्थापना की जाती है तथा 
						दीवारों पर पारंपरिक नियमानुसार पिथोरो देव के चित्र अंकित 
						किये जाते हैं। ये सभी चित्र जो पिथोरो के सम्मान में 
						अंकित किये जाते है पिथोरा कहलाते हैं।
 
 चित्र में केन्द्र का भाग विशेष महत्व का है जहाँ पिथोरो 
						के घोड़े को छोटी छोटी बिन्दियों अथवा रेखाओं द्वारा विशेष
 रूप से अलग कर के दिखाया गया है। दूसरी प्ंाक्ति में अन्य 
						चरित्र जैसे सितुरानो, रानी काजल, पिथोरो, वलन या 
						इंदीराजा को उनके विशेष रूप रंग अथवा हाव भाव जैसे हुक्का 
						पीते हुए या चिड़िया पकड़े हुए अलग से पहचाना जा 
						सकता है । इसके बाहरी और तीसरे हिस्से में रावण, ढोलची, 
						बैलगाड़ियाँ और हाथी आदि चित्र को सम्पूर्णता प्रदान करते
						हैं।
 
 ये चित्र पहले स्टेंसिल पर बनाए गए और बाद में पूरे गए इन 
						चित्रों में रंग भरते समय विविधता और पारंपरिक महत्व 
						का पूर्णरूप से ध्यान रखा जाता है। गुजरात की अन्य लोक 
						कलाओं की भंाति इन चित्रों में भी चटकीले रंगों और 
						रंगों
  की विविधता के दर्शन होते हैं। पशुपक्षियों के 
						चित्रण में विस्तार देखने को मिलता है और रेखओं में लय का
						सुंदर प्रयोग किया जाता है। घोड़े और हाथियों के वस्त्र 
						तथा मछली और मुर्गियों का सौंदर्य देखते ही बनता है। 
 पिथोरा की ये विविधताएँ आज गुजरात में दीवारों, कपडों , 
						चादरों और बगीचे की छतरियों में बहुलता से मिलती है।
						इन्हें गुर्जरी अथवा गुजरात इम्पोरियम जैसी सरकारी या गैर 
						सरकारी हस्तकला संस्थाओं से हर दाम में प्राप्त किया 
						जा सकता है। मूल चित्र काफी मंहगे हो सकते हैं किन्तु 
						प्रतिकृतियाँ बहुतायत में उपलब्ध हैं और इनके दाम भी कुछ
						अधिक नहीं।
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