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						1पटचित्र
 
						भारत की 
						समृद्ध कला परंपरा में लोक कलाओं का गहरा रंग है। काश्मीर 
						से कन्या कुमारी तक इस कला की अमरबेल फैली हुई है। कला 
						दीर्घा के इस स्तंभ में हम आपको लोक कला के विभिन्न रूपों 
						की जानकारी देते हैं। इस अंक में प्रस्तुत है 
						पातचित्रों के 
						विषय में -  
 भारत के हर प्रांत की तरह उड़ीसा की भी संपन्न सांस्कृतिक 
						परंपरा है। इसमें लोक कला का महत्वपूर्ण स्थान है। पाता
						या पातचित्र उड़िया लोककला की पहचान है। प्राचीन काल में 
						इस कला को राजाओं महाराजाओं का संरक्षण प्राप्त 
						था। विदेशी शासन के समय भारत की अन्य लोककलाओं की भाँति 
						इसको भी बहुत क्षति पहुँची लेकिन आज यह
						पुन: अपनी जड़ें मज़बूत कर रही है।
 पंद्रहवी और सोलहवी शताब्दी में जगन्नाथ जी का प्रचार करने 
						के उद्देश्य से यह कला प्रचलित हुई थी। ये कलाकृतियाँ
						मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती हैं;
 
							
							भित्तिचित्र या दीवारों पर बनाई जाने वाली कलाकृतियाँ, 
							
							पटचित्र या कपड़े पर बनाई जाने वाली कलाकृतियाँ और 
							
							तालपटचित्र या ताड़ के पत्तों बनाई जाने वाली कलाकृतियाँ।
							 इनके प्राचीन स्वरूप में शुरूसे आज तक अधिक परिवर्तन नहीं 
						आया है। हालाँकि नये नये प्रयोग होते रहे हैं।
						पुरी शहर के पास रघुराजपुर नामक एक छोटे से शहर में करीब 
						२०० परिवार पटचित्र की कला को जीवित रखने में
						जुटे हुए हैं। वे इस काम के लिये प्राचीन पारंपरिक और 
						विरासत में मिली पुस्तकों का सहयोग भी लेते हैं।
 ताड़ के पत्तों को चित्रफलक की तरह प्रयोग करने की परंपरा 
						लगभग पूरे भारत में है पर उड़ीसा के लोक कलाकारों ने 
						इसको नये आयाम दिये हैं। इस कला म़ें ताड़ के पत्तों को 
						जोड़ कर चौकोर बनाया जाता है और बाद में इस पर 
						चित्रकारी की जाती है।
 
 प्राचीन काल में इनके विषय में बड़े बड़े राजा महाराजाओं 
						के चित्र, कुछ कथा कहानियाँ या प्रादेशिक नृत्य पर 
						आधारित होते थे। रामायण और भागवत चित्रकारों के प्रिय विषय 
						थे। पारिवारिक देव-देवताओं को भी इस लोक कला 
						में स्थान
  मिला है। परंपरागत चित्रकला में राधा, कृष्ण, 
						सरस्वती, दुर्गा और गणेश की तसवीरे ज्यादा बनाई जाती हैं । 
 पर्यटकों और दर्शन के लिये पुरी आने वाले लोगों को ये 
						पटचित्र सरलता से अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। सच 
						मानिये तो इनको खरीदे बिना उड़ीसा की यात्रा पूरी नहीं 
						होती। इनकी लोकप्रियता के कारण ज्यादा खपत को देखते हुये
						तरह तरह के चित्रों का प्रचलन शुरू हो गया है। नये नये 
						विषयों का समावेश हुआ है और सौ से लेकर हजारों रूपयों तक
						की जगन्नाथ, बालभद्र और सुभद्रा के पटचित्र मिलने लगे है।
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