
मध्यकालीन भारतीय चित्रांकन
में भगवान राम
ललित शर्मा
भारतीय चित्रांकन परंपरा में शैव, वैष्णव, शाक्त, जैन
एवं बौद्ध धर्मों के देव-देवताओं का चित्राकन तो खूब हुआ, और भारतीय वैष्णव-परंपरा
में भागवत धर्म के अंतर्गत कृष्णभक्त की लीला-कथाओं को भी अधिक स्थान मिला, इसके
विपरीत वैष्णव श्रीराम का चित्रांकन वास्तविक रूप में उतना न हो पाया, जितना उनकी
रामायण लीला में वृहद स्तर पर हुआ। रामलीला तथा राम दरबार की चित्रांकन परंपरा के
अतिरिक्त श्रीराम के अनेक ऐसे चित्र भी देश में मिले, जिनका अपना ऐतिहासिक महत्व
है।
इतिहास के आधार पर १४वी सदी में दक्षिण भारत में विजयनगर राज्य की स्थापना के साथ
वहाँ के वीरभद्र मंदिर, लेपाक्षी तथा विट्ठल मंदिर, हंपी में रामायण की प्रमुख
घटनाओं का मंडप की छतपर चित्रांकन किया गया था। मालवा के प्रसिद्ध मुद्रा विशेषज्ञ
डा. शशिकांत भट्ट के अनुसार १६वी सदी में सम्राट अकबर के नवरत्न टोडरमल ने ७५ हजार
श्लोकों वाले टोडरनंद काव्य ग्रंथ का २३ जिल्द में प्रथम बार संपादन करवाया था। इस
ग्रंथ में उन्होंने रामावतार का सचित्र वर्णन किया है। इस समय अकबर के एक और नवरत्न
अब्दुर्रहीम खानखाना ने सम्राट के आदेश पर वाल्मकि रामायण का संस्कृत से फारसी में
अनुवाद और श्रीराम के जीवन की प्रमुख घटनाओं को आकर्षक रूप से मुगल शैली में
चित्रांकित किया था।
इस चित्रांकन में भरत का वन में आगमन तथा श्रीराम से मिलन और अयोध्या चलकर राजपाट
सँभालने का अनुरोध किया गया है। मुगलकाल की यह चित्रांकन परंपरा कई मायनों में
विशिष्ट है। इसमें भरत के सैनिक एवं सेवक मुगलकालीन वस्त्र पहने प्रदर्शित किए गए
हैं, जो विविध रंगों के हैं। इसमें पगड़ियोंपर भी मुगल प्रभाव दर्शित है। कुछ
व्यक्ति हाथी के महावतों के रूप में हैं। हाथियों का शृंगार व शारीरिक सौष्ठव उत्तम
है। सनिकों के हाथों में ढाल, तलवार, खड्ग है, तथा वे सभी सफेद रंग का पट्टा कमर
में बाँधे हैं उनके अँगरखों का विन्यास काफी आकर्षक है। सारे सैनिक सघन वन से घिरे
क्षेत्र में दर्शाए गए हैं, जिसके एक छोरपर चट्टानों के ऊपर हिंदू शाही वेश में
मुकुटधारी भरत नीलवर्ण श्रीराम के समक्ष अयोध्या पधारने का निवेदन कर रहे हैं। भरत
के पीछे बैठे एक अन्य विशिष्ट जन की मुद्रा भी अनुग्रह भाव की है। श्रीराम शांत भाव
से पीत वस्त्र पहने बैठे हैं। उनके हाथ में धनुष व पीठ पर तरकश बँधा हुआ है वे शांत
भाव से भरत के अनुग्रह को स्वीकार न करने क विवशता को दरशा रहे हैं।
डा. भट्ट के निजी संग्रह में श्रीराम का एक और विशिष्ट चित्र मुगलकाल का है, जिसमें
श्रीराम और अंगद का मिलाप निहारते हुए भगवान ब्रह्मा, शिव, विष्णु और वायुदेव
चित्रित हैं। इस दुर्लभ चित्र में आकाश में चौबीस देवताओं सहित ये तीनों देवों एवं
वायु देव पद्मासन मुद्रा में एक-दूसरे से राम अंगद मिलन को निहारने एवं वार्ता करते
विराजे हुए हैं। इनमें ब्रह्मा तथा वायु को गौर वर्ण ओपरना तथा धोती, माला पहने
दर्शाया है, जबकि विष्णु को गहरे श्याम रंग व पीत वस्त्र में एवं शिव को आसमानी रंग
के वस्त्र धारण किए दरशाया गया है। उनके गले में गहरे नले रंग का सर्प भी है इनके
चित्र के नीचे धरती पर एक घने वन में श्याम वर्ण श्रीराम को राजसी मुकुट (जिसपर
मध्य युगीन तीनपँखुड़ियाँ जड़ी हैं) पहने, ग्रीवा में मोतियों की लटकनेवाली
श्वेतमाला तथा हरे रंग का ओपरना और पीत वस्त्र की धोती पहने दरशाया है वे अपने दाएँ
हाथ की उँगली से समक्ष खड़े वानरराज अंगद को आवश्यक नीति निर्देश देते हुए दर्शित
हैं।
उनके पीछे उन्हीं की भाँति मुकुट पहने सेवक भाव से लक्ष्मण खड़े हैं। श्रीराम के
समक्ष यूथपति मुकुटधारी जामवंत नीलवर्ण में खड़े हुए हैं, वे अपने दोनों हाथों की
मुद्रा से श्रीराम को सलाह देते हुए दिखाए गए हैं। उनकी धोती, औपरना भी दर्शनीय
हैं। उनके पास कई श्वेत पगड़ी व श्वेत औपरना पहने हैं। साथ ही एक धोती धारित सेवक
हाथों में दो तलवारें तथा लंबा भाला लिये खड़ा है। संभावतः यह दृश्य श्रीराम व
जामवंत के मध्य वार्ता तथा दिशा एंव अस्त्र-शस्त्र के उपयोग को लेकर दर्शाया गया
है। श्रीराम, अंगद, लक्ष्मण तथा अन्य सेवक वानरों के शीश के मुकुट मध्य युगीन हिंदू
देवों के शीश पर उत्कीर्ण किए जानेवाले मुकटों की भाँति हैं। सभी की वेशभूषा भी
पारंपरिक शुद्ध भारतीय है। उनके पीछे वीर वेश में ढाल-तलवार थामे एक अन्य वानर सेवक
भी खड़ा है। अंगद के समक्ष ही युद्ध के अस्त्र-शस्त्र, सिरटोप, भाला, वक्ष-कवच,
तलवार तथा कमर कटार भी रखे हैं जिन पर मध्ययुगीन अस्त्रों की शैली है। प्रतीत होता
है कि सारे वानर-पति श्रीराम के समक्ष अस्त्र-शस्त्रों के संग्रहण की सूचना देने
तथा इस दूत नीति पर मार्गदर्शन लेने आए हैं, जो अंगद के साथ हैं।
श्रीराम का एक अन्य विशिष्ट चित्र भी इस काल का है, जिसमें वे वन में स्वर्ण मृग का
पीछा करते हुए उकेरे गए हैं। चित्र में वृक्ष वनस्पति तथा पाषाण खडों को सुदरता से
अंकित किया गया है। श्रीराम यहाँ मुकुट पहने उकेरे गए हैं। वे अपने हाथों से धनुष
पर बाण चढ़ाए स्वर्णमृग पर संधान करने को तत्पर हैं। उनकी इस मृगया मुद्रा से भयभीत
स्वर्णमृग वन में कुलाँचे भरता हुआ भाग रहा है। उसके संग तथा शरीर पर स्वर्ण रंग व
उनपर गोलाकार हरी-लाल, सफेद बिंदियाँ व नीचे का श्वेत भाग एवं मुख अत्यंत प्राणवान
है।
यदि इन तीनों विशिष्ट चित्रों का साम्य संत तुलसीदास कृत रामचरित मानस में वर्णित
घटनाओं से बैठाया जाए तो इसमें प्रथम चित्र श्रीराम के वन से अयोध्या लौटने का विनय
करते भरत का है। रामचरित मानस में संत तुलसीदास अपने निम्न दोहे में यह घटना इस
प्रकार रेखांकित करते हैं—
भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू॥
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं। सादर भरत सीस धरि लीन्हीं॥
अर्थात इधर तो भरतजी का प्रेम और उधर गुरुजनों, मंत्रियों तथा समाज की उपस्थिति यह
देखकर श्रीराम (रघुराज) संकोच एवं प्रेम के वशीभूत (विवश) हो गए। अंत में उनके
प्रेमवश प्रभु श्रीराम ने कृपा करके उन्हें अपने खड़ाऊँ प्रदान किए और भरत जी ने
उन्हें सम्मानपूर्वक अपने सिरपर धारण किया। इस प्रकार द्वितीय विशिष्ट चित्र में
श्रीराम जामवंत की वार्ता को तथा अंगद से श्रीराम की वार्ता निहारती भगवान ब्रह्मा,
शिव, विष्णु और वायुदेव आकृति है।
संत तुलसीदास का इस बारे में रामचरित मानस का यह दोहा सटीक बैठता है-
सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥
मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालि कुमारा॥
नीक मंत्र सब के मन माना। अंगद सन कह कृपानिधाना॥
बालितनय बुधि बल गुन धामा। लंका जाहु तात मम कामा॥
अर्थात- हे सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाले)! हे सबके हृदय
में बसने वाले (अंतर्यामी)! हे बुद्धि, बल, तेज, धर्म और गुणों की राशि! सुनिए! मैं
अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह देता हूँ कि बालिकुमार अंगद को दूत बनाकर भेजा जाए!
जामवंत की यह यह अच्छी सलाह सबके मन में जँच गई। कृपा के निधान राम ने अंगद
से कहा - हे बल, बुद्धि और गुणों के धाम बालिपुत्र! हे तात! तुम मेरे काम के लिए
लंका जाओ।
तृतीय
विशिष्ट चित्र स्वर्णमृग का वन में पीछा करते धनुर्धारी श्रीराम का है। संत
तुलसीदास इस बारे में रामचरितमानस में यह दोहा रचते हैं, जो इस चित्र के अंकनपर
सटीक बठता है—
मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा॥
प्रभु लछिमनहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई॥4॥
भावार्थ- हिरन को देखकर राम ने कमर में फेंटा बाँधा और हाथ में धनुष लेकर उस पर
सुंदर (दिव्य) बाण चढ़ाया। फिर प्रभु ने लक्ष्मण को समझाकर कहा - हे भाई! वन में
बहुत-से राक्षस फिरते हैं। इतना कहकर श्रीराम धनुष चढ़ाकर मृग के पीछे भागे। यह
देखते ही आखेट के भय से श्रीराम को देखकर मृग कुलाँचें मारते हुए भागा।
एक अन्य विशिष्ट चित्र रामायण की घटनाओं में से है। इसमें श्रीराम और परशुराम की
भेंट है। राजस्थान शैली का यह चित्र उदयपुर से प्राप्त हुआ है और वर्तमान में मुबई
के छत्रपति शिवाजी वास्तु संग्रहालय की चित्रकला वीथिका में क्रमांक ५४.१/१९ पर
प्रदशित है। चित्रकार मनोहर द्वारा उकेरा यह चित्र ईस्वी संवत १६४९ का है। यह पूरा
चित्र ३८x२२.५ सेमी. लंबे एवं ३१.१८ सेम. चौड़े पत्र पर है। इसे मेवाड़ के महाराणा
जगतसिंह के राज्याश्रय में बनाया गया था। इस कथाचित्र में परशुराम श्रीराम के विवाह
की बारात को रोक रहे हैं, और श्रीराम से उनकी योग्यता प्रामाणित करने हेतु विशाल
शिव धनुष को झुकाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने की चुनौती दे रहे हैं। श्रीराम आसानी से
धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा लेते हैं और एक बाण निकालते हैं। परशुराम इससे अवाक् रह
जाते हैं और तत्काल उन्हें यह आभास हो जाता है कि श्रीराम असाधारण मनुष्य हैं।
चित्रकार ने इस घटना को पूरी सूक्ष्मता और मनोयोग से उकेरा है और इस हेतु उसने
संकेतों, कथा कहने की तकनीक के साथ-साथ बड़े चटक रंगों का भी सुंदर इस्तेमाल किया
है। प्रस्तुत चित्रांकन में जो तीन अलग-अलग जगहें दिखाई हैं, वे अलग-अलग रंग की
पृष्ठभूमि में हैं। आगे के हिस्से में पंच ऋषि यज्ञ कर रहे हैं। बारात में राम और
उनके अनुज रथों पर सवार हैं तथा उनके पीछे सीता तथा दूसरी महिलाएँ दो हाथियों पर
रखे हौदों में बैठे पीछे आ रही हैं।
परशुराम देवलोक से उतरकर आए हैं, जिसे हल्के बैंगनी रंग में दर्शाया गया है। गुस्से
में भरे हुए परशुराम को बड़े आकार में दर्शाया गया हैं, जिससे उनका व्यक्तित्व
इसमें बड़े प्रभावी रूप में उभरकर आया है। प्रस्तुत चित्र में भगवान विष्णु के दो
अवतारों के मिलने के इस पल को निहारने के लिये आकाश में देवता दिखाए गए हैं।
श्रीराम के अतुलनीय पराक्रम तथा चमत्कार से शांत और विनम्र हुए परशुराम सामान्य
मनुष्य के आकार में आ गए हैं और फिर उनके हाथ में धनुष के स्थान पर पुष्प हैं, जो
अब संधि तथा श्रीराम के प्रति भक्ति भाव का प्रतीक है। साँवले-सलोने श्रीराम के हाथ
में भी एकपुष्प है, जो परशुराम के प्रति आदर एवं समभाव का सूचक है। इस चित्र के
अंतिम कोने में इस घटना का अंतिम रूप चित्रित है, जिसमें परशुराम फिर महेंद्र पर्वत
की ओर तपस्या करने जाते दिखाई देते हैं। इस प्रकार मध्यकालीन संस्कृति में भारतीय
चित्रांकन परंपरा में श्रीराम का अंकन विशिष्ट गरिमा के साथ दिखाई देता है।
(चित्र नीचे)

१ अक्टूबर २०२५ |