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						१पत्थर की चाक और मिट्टी के घोड़े
 निशांत
 
 मिथिला 
						की चित्रकला का स्थान भारतीय लोक कला में अग्रणी रहा है। 
						यह चित्रकला जिसे हम कैनवास, कागज़ और परिधान में देखते हैं 
						उसका वास्तविक स्थान मिट्टी की दीवारों पर हुआ करता था। 
						इसकी चित्रात्मक विशेषता और चटकीले रंग संयोजन और स्केचिंग 
						की एक अलग तकनीक, जिसे ‘कचनी-भरनी’ (हैचिंग और क्रास 
						हैचिंग) कहते हैं, ने इसे एक विशिष्ट शैली का स्थान 
						दिलाया। 
						 मैं 
						मिथिला का रहने वाला हूँ तथा यहाँ के रीति-रिवाज़ों को बचपन 
						से देखता रहा हूँ। घर में होने वाली पूजा, त्योहार और 
						विशेष अवसर पर आँगन तथा पूजा-घर में ऐसी चित्रकारी देखता 
						रहा हूँ। मेरी माँ और दादी कोई ऐसे कलाकार नहीं रहे हैं 
						जिन्होंने कोई ट्रेनिंग ली हो, बस अपने बड़े-बूढ़ों को देखते 
						सीखा। शहर में इस शैली के कई शिक्षा केंद्र भी खुलने लगे 
						थे, जहाँ इसकी विधिवत शिक्षा दी जाती। चित्रकला के कई ऐसे 
						स्कूल थे, जो मूलतः मिथिला चित्रकला में विशेषता रखते थे। 
						मेरी दो बहनों ने भी दाखिला लिया और पूरी शिक्षा प्राप्त 
						की, कुछ एक चित्र भी बनाए जो हमारे रिशतेदारों के घरों में 
						और कुछ एक मेरे घर की दीवारों पर आज भी टंगे हैं। मैं उस 
						वक्त स्कूल में था और घर में इस तरह की गतिविधियों के चलते 
						अपने आप को कला से जोड़ने का प्रयत्न करता। पुराने मंदिरों 
						और प्राचीरों के भग्नावशेषों को देखता तो उनके वास्तु और 
						सज्जा को समझने की कोशिश करता और अपने तरीके से इतिहास में 
						समायोजित करने की कोशिश करता। 
						 मैं उस 
						समय दरभंगा के लहेरियासराय इलाक़े में रहता था और दरभंगा 
						शहर जो वहाँ से पाँच किमी की दूरी पर था, मैं आए दिन 
						आया-जाया करता। दरभंगा जाने का कारण मेरी घुम्मकड़ी था। 
						लहेरियासराय मे जरूरत की सारी चीजें मिलतीं और मेरे जैसे 
						स्कूली छात्र को भला दरभंगा से क्या सरोकार। मैं दरभंगा 
						राज के महलों, मंदिरों और किले में भटकता और न जाने 
						क्या-क्या ढूँढता। लहेरियासराय से दरभंगा जाने के रास्ते 
						में मौलगंज मुहल्ले मेंकुम्हारों की बस्ती पड़ती थी। तकरीबन 
						१०-१५ घर रहे होंगे। पहली बार जब कुम्हारों के बनाए 
						बर्तनों और मूर्तियों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया वो 
						गर्मियों का मौसम था, मैं वहाँ घर के लिए नल वाली सुराही 
						लेने आया था। बलुआ मिट्टी से बनी वो सुराही ठंडा जल तो 
						देती ही थी साथ ही उसकी बाहरी दीवार पर सुंदर उकेरन और 
						पानी सुविधा से निकालने के लिए तलहटी के ठीक ऊपर छोटा सा 
						नल भी लगा था। बस उस दिन से कुम्हार और उसकी कला से मेरा 
						एक संबंध बन गया। मैं तकरीबन आधा घंटे उसकी दुकान को देखता 
						रहा। उसके घर का बरामदा जो कि सड़क की तरफ खुलता, वो उसकी 
						दुकान और वर्कशाप था। मिट्टी के फर्श पर एक बड़ा सा पत्थर 
						का चाक और दीवारों पर बने छोटे-छोटे आलों में मिट्टी की 
						चटकीले रंगों मे रंगी मूर्तियाँ। बड़े-बड़े घड़े कोने मे एक 
						के ऊपर एक ढेर लगे थे, एक छोटे से स्तूप की तरह और 
						सुराहियाँ लकड़ी के तख्तों पर कतार में रखी थीं। ये दुकान 
						राजेंद्र पंडित की थी। राजेंद्र पंडित कई पीढ़ियों से 
						मिट्टी के काम मे लगे हैं। उनके पिता राष्ट्रपति पदक 
						प्राप्त कलाकार थे और उनके बड़े तथा छोटे भाई भी कुम्हारी 
						के काम में लगे हैं। मैं उनकी दुकान पर हमेशा बहाने से 
						जाया करता था, कभी गमले खरीदता तो कभी सजावटी मूर्तियाँ तो 
						कभी दीपावली के लिए लक्ष्मी और गणेश का विग्रह। 
						बारहवीं के बाद मैं काशी 
						हिन्दू विश्वाविद्यालय आ गया और साहित्य के साथ आर्ट 
						हिस्ट्री को मुख्य विषय के रूप में चुना। यहीं कक्षा में 
						टेराकोटा आर्ट के विषय में जानकारी मिली और राजेंद्र पंडित 
						की मूर्तियों को कला के नमूने के तौर पर समझने लगा। मिट्टी 
						की मूर्तियों से जो मेरे स्कूली जीवन का लगाव था उसे मैं 
						अब ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और इसकी निरंतरता के 
						संदर्भ में देख रहा था। अब मैं समझ पा रहा था कि मिथिला के 
						कुम्हारों का इतिहास से कैसा अटूट रिश्ता है। या यों कहूँ 
						कि भारत के किसी भी क्षेत्र के कुम्हारों की एक अपनी 
						एतिहासिक पृष्ठभूमि रही है। वो इस काल खंड में इतिहास का 
						बोध कराते हैं, बिना कोई फेर-बदल किये उनका चाक हजारों 
						वर्ष पहले भी ऐसा ही था और तकनीक भी यही थी। चौथी या 
						पाँचवीं की किताब में पहली बार सिंधुघाटी संस्कृति के विषय 
						में पढ़ा और मिट्टी से बनी मातृ देवी की मूर्तियों के चित्र 
						देखे थे। मिट्टी की आग में पकी मूर्तियाँ और बर्तन जिसे 
						अंग्रेज़ी में टेराकोटा भी कहते हैं की निरंतरता पाँच हज़ार 
						वर्ष से भी अधिक की रही है। पुरातत्वविद इतिहास के सभी 
						महत्वपूर्ण कालों में इसके अवशेष खुदाई में पाते रहे हैं।
						
						 मनुष्य 
						घुमंतू जीवन छोड़ जब एक जगह स्थिर हो कर खेती बाड़ी करने लगा 
						तब से मिट्टी या इस धरती का उसके जीवन में विशेष महत्व रहा 
						है। ये मिट्टी जिसमें वो अनाज उगाता और पकाने के लिए उसी 
						मिट्टी के बर्तन का इस्तेमाल करता जो उसके जीवन का मुख्य 
						साधन हुआ करती थी। इसी कारण धरती को माँ की संज्ञा दी गई 
						है। ये बर्तन शायद कला के सबसे पुराने नमूने हैं। धीरे 
						धीरे सभ्यता के विकास के साथ धार्मिक पूजा परंपरा की 
						शुरूआत हुई और मातृ देवी की मूर्तियाँ मिट्टी से बनाई जाने 
						लगीं। हाथ से गढ़ कर बनी ये मूर्तियाँ जो हजारों वर्ष पहले 
						मोहन जोदड़ो की खुदाई में मिली थी बिलकुल वैसी ही आज भी 
						बंगाल में षष्ठी पूजा के उपलक्ष में बनाई जाती हैं। 
 
  मैंने 
						दिल्ली आकार मिट्टी की कला पर अपनी खोज जारी रखी और अपने 
						शोध में मिथिला के कुम्हारों की कला का सर्वेक्षण किया। 
						तुलनात्मक अध्ययन के लिए देश के कई भागों में गया और उत्तर 
						से दक्षिण तक कुछ सजावटी अंतर को छोड़ मैंने कुम्हारों की 
						कला में एक तकनीकी समानता पाई। यहाँ तक कि सांस्कृतिक 
						समानता भी देखने को मिली। उदाहरण के तौर पर तमिलनाडु के 
						आरकोट, गुजरात के कच्छ, बंगाल के बाँकुरा से लेकर बिहार के 
						मिथिलांचल में ग्राम देवता को मिट्टी के घोड़े चढ़ाने की 
						प्रथा है। गाँव के लोग अपने ग्राम देवता को प्रसन्न करने 
						के लिए मिट्टी के घोड़े और घुड़सवार भेंट स्वरूप चढ़ाते हैं। 
						मिथिला में ये परंपरा बड़ी अनोखी है। सामान्यतया ग्राम 
						देवता का कोई नाम नहीं होता, उन्हें डीह बाबा, काली माई, 
						बरहम बाबा के नाम से जानते हैं। इनका न कोई स्वरूप होता है 
						और न ही इन्हें छत के नीचे रखा जाता है। गाँव के बाहर बड़ 
						या पीपल के पेड़ के नीचे इनका निवास होता है। मिट्टी के 
						लिपे पिण्ड या एक बड़े पत्थर को प्रतीक मानते हुए इनकी पूजा 
						होती है। व्रत- त्योहार तथा संस्कारों में विशेष रूप से 
						घोड़े चढ़ाकर सुख-समृद्धि की कामना की जाती है। ये देवता सभी 
						जाति विशेष द्वारा पूजे जाते हैं तथा कुछ पूरे गाँव के 
						होते हैं या कुछ एक का कोई परिवार से संबंध होता है और वो 
						उसी परिवार या कुनबे के आराध्य होते हैं। मिथिला में एक 
						सलहेश नाम के ग्राम देवता के पूजन की प्रथा है, जिन्हें 
						दुसाध जाति के लोग पूजते हैं। उनके मंदिर को गहबर कहते हैं 
						जो एक सामान्य सा कमरा होता है। शहरी इलाकों में पक्की छत 
						वाले गहबर आज दिखने लगे हैं। लेकिन ग्रामीण इलाकों में अभी 
						भी कच्चे फूस की छत के नीचे इनका स्थान देखने को मिलता है 
						और कुछ पिछड़े इलाकों में तो पेड़ के नीचे ही इन्हें स्थापित 
						किया जाता है। गहबरों का बदलता स्वरूप इस जाति की समृधि को 
						दर्शाता है। दुसाध जाति के लोग सलहेश को अपना पूर्वज मानते 
						हैं जिन्हें राजा से संबोधित किया जाता है। सलहेश के 
						जीवन के विषय में एक लोक कथा प्रसिद्ध है जिसे गीत के रूप 
						में गाया जाता है। यह कथा सलहेश के बुराई पर जीत और दुसाध 
						जाति की रक्षा के प्रसंग को उद्धृत करता है। सलहेश के साथ 
						इस कथा में कुछ विशेष पात्रों की मूर्तियाँ गहबर में रखी 
						जाती हैं। राजा सलहेश को हाथी पर अपने भाई के साथ राजसी 
						ठाट में दिखाया जाता है, चुहरमल जो कि इस कथा का खल पात्र 
						है को मंदिर के कोने में हाथ जोड़े बैठा दिखाया जाता है। ये 
						सभी मूर्तियाँ मिट्टी से बनाई जाती हैं जिसे राजेंद्र 
						पंडित जैसे मिथिला के कुम्हार बनाते हैं। मिथिला के 
						विभिन्न क्षेत्रों में मूर्तियों में विविधता दिखती है। 
						पूरे मिथिलांचल में दरभंगा के मौलागंज की मूर्तियाँ कला की 
						दृष्टि से सुंदर तथा आकर्षक होती हैं। राजेंद्र पंडित का 
						परिवार सबसे अच्छी मूर्तियाँ बनाता है। राजेंद्र का परिवार 
						पूजा तथा वार्षिक उत्सव के साथ ही देश-विदेश में आयोजित 
						होनेवाली कला प्रदर्शनियों में भी हिस्सा लेता है। 
						 बरहम और 
						सलहेश दोनों देवताओं के लिए राजेंद्र का परिवार मिट्टी के 
						घोड़े बनाता है। इन घोड़ों को मन्नत पूरा होने पर चढ़ाया जाता 
						है। जाति के भेद के बावजूद ये मिट्टी के घोड़े दोनों 
						समुदायों को एक सूत्र में जोड़ते हैं। इन घोड़ों को 
						टुकड़े-टुकड़े चाक पर गढ़ कर फिर अलग-अलग जोड़ कर स्वरूप दिया 
						जाता है। माथे के लिए साँचे का प्रयोग होता है और अलंकरण, 
						घोड़े के कान तथा अन्य सज्जा एपलिक विधि से की जाती है। धूप 
						में सुखाई इन मूर्तियों को आग में पकाकर, फिर विभिन्न 
						रंगों से रँगा जाता है। रंगाई के नमूने मिथिला चित्रकला से 
						काफी मेल खाते हैं और रंग भी वही गाढ़ा लाल, नीला, पीला, 
						काला, हरा तथा नारंगी व्यवहार में लाया जाता है। 
						 कुछ वर्ष 
						पहले तक मिथिला के कुम्हार प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल 
						करते थे। वे वनस्पति और खनिजों से रंग बनाते। राजेंद्र 
						पंडित बताते हैं कि सत्तर के दशक तक घर में बनने वाले 
						रंगों को ही व्यवहार में लाते थे। नारंगी रंग गेंदे और 
						हरसिंगार के फूल से, नील से नीला, हल्दी से पीला रंग बनाते 
						थे। इसके साथ ही चूने से सफ़ेद और कालिख से काला रंग 
						निकालते थे। ऐसे रंगों को बनाने में काफी समय लगता था और 
						ख़र्च भी अधिक था। इधर बाजार में बने-बनाए सस्ते रंग मिलने 
						लगे, तो कुम्हारों ने इसका उपयोग शुरू कर दिया। आज के समय 
						कई प्रकार के स्प्रे पेंट भी आ गए जो दिखने में तो आकर्षक 
						हैं, लेकिन उनका पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। 
						ग्रामदेवता की वार्षिक पूजा 
						के साथ ही मिथिला में कई ऐसे व्रत-त्योहार मनाए जाते हैं 
						जिनमें कच्चे और पक्के मिट्टी के बर्तनों और मूर्तियों का 
						इस्तेमाल होता है, जिनमें छठ पूजा, सामा-चकेबा, उपनयन 
						संस्कार, शादी-विवाह आदि प्रमुख हैं। मिथिला में दो तरह के 
						कुम्हार हैं, एक राजेंद्र पंडित के जैसे जो शहर में रहते 
						हैं और दूसरे वो जो गाँव के हैं। गाँव के कुम्हार जायदातार 
						मिट्टी के बर्तन और खप्पर बनाते हैं। उनके बनाए हाथी और 
						घोड़े कला की दृष्टि से उतने अच्छे नहीं होते हैं जैसे कि 
						राजेंद्र पंडित बनाते हैं। कारण ये है कि आज भी गाँव के 
						कुम्हार अपने सामानों के लिए गाँव वालों से सालाना अनाज 
						लेते हैं। परन्तु, आज के समय ये थोड़े से अनाज अन्य जरूरतों 
						को पूरा करने में असफल हैं। लिहाज़ा, गाँव के कुम्हारों की 
						नई पीढ़ी दूसरे रोजगारों को अपना रही है। वहीं शहरी 
						कुम्हारों ने अपनी कला को अपने घरों से लेकर प्रदर्शनियों 
						तक पहुँचाया है, जिससे न सिर्फ उनकी कला को ख्याति मिली 
						बल्कि नए ग्राहक भी बने। पूजा आदि के लिए तो राजेंद्र 
						पंडित घोड़े और कलात्मक बर्तन और मूर्तियाँ बनाते ही हैं 
						साथ ही इनकी कलाकृति दिल्ली आदि महानगरों की कला दीर्घाओं 
						में भी उप्लब्ध है। इस तरह नए काम मिलने से इनके जीवन स्तर 
						में भी सुधार हुआ है। बच्चे स्कूल जाने
						 के 
						साथ ही इस काम में पिता का हाथ भी बँटाते हैं। राजेंद्र 
						पंडित राष्ट्रीय लोक-कला संग्रहालाय और संस्कृति केंद्र 
						जैसे कला-संस्कृति क्षेत्र की अग्रणी संस्थाओं में अपनी 
						कला का प्रदर्शन कर चुके हैं। उन्हें देखते हुए ऐसा लगता 
						है आज के इस भौतिक युग में मिथिला की मिट्टी की कला को एक 
						नया जीवन मिला है। प्लास्टिक ने आज हमारे जीवन में ऐसा 
						स्थान बना लिया है कि रोज़ काम आने वाली चीज़ों के अलावा 
						भगवान की मूर्तियाँ और बर्तन भी प्लास्टिक के बनने लगे 
						हैं। पंडित परिवार ने ऐसा कर दिखाया है कि हमारी परंपरा के 
						प्रतीक जिसे हम पूजा करते थे आज उसे घर की सज्जा के लिये 
						इस्तेमाल करने लगे हैं। इस प्रकार हम अपनी कला परंपरा को 
						जीवित भी रख पा रहे हैं और इससे नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति 
						और रीति-रिवाज़ की जानकारी भी मिल रही है। 
 कुछ वर्ष पहले जब मैं यूनेस्को के ईंटेंजिबल कल्चरल 
						हेरिटेज प्रोग्राम के लिए वृत्तचित्र बना रहा था तो मेरी 
						नज़र पाँच छोटी-छोटी पीले रंग की मूर्तियों पर पड़ी। ये 
						मूर्तियाँ मिथिला के व्रतों में काम आने वाली मूर्तियों से 
						बिलकुल भिन्न थीं। राजेंद्र पंडित ने बताया कि ये गणगौर 
						पूजा के लिए बनी हैं, जिसे मारवाड़ी समाज के लोग धार्मिक 
						व्यवहार में लाते हैं। राजेंद्र के पिता को दरभंगा के किसी 
						मारवाड़ी परिवार ने इन मूर्तियों के नमूने दिये थे। नमूनों 
						के आधार पर उन्होंने साँचे बना लिए जो आज राजेंद्र पंडित 
						के काम आते हैं। राजेंद्र पंडित साल में तकरीबन एक सौ से 
						लेकर डेढ़ सौ मूर्तियों के सेट बनाते हैं।
 
 पहिये के आविष्कार ने हमें यात्रा करने का बड़ा अच्छा साधन 
						दिया और इसकी मदद से लोग बड़ी-बड़ी यात्राएँ करने लगे, कभी 
						आपदा से बचने के लिए, तो कभी व्यापार तो कभी युद्ध से भाग 
						कर। मनुष्य हजारों वर्षों से मिलों की यात्राएँ करता रहा 
						है। इन यात्राओं का कला और संस्कृति पर गहरा प्रभाव भी 
						देखने को मिलता है। इस कारण शायद मिथिला के कुम्हारों के 
						घोड़े तमिलनाडु के घोड़ों से मेल खाते हैं। चार सौ ईसा पूर्व 
						मौर्य काल के पटना के बुलंदी बाग से मिले घोड़ों को भी देख 
						कर ऐसा लगता है जैसे उसे दरभंगा के किसी कुम्हार ने बनाया 
						है। इसी प्रकार गणगौर की मूर्ति आज जैसे राजस्थान से 
						दरभंगा आकार वहाँ के कुम्हारों की कला का हिस्सा बन गई, ये 
						निश्चित है कि विभिन्न भागों की मिट्टी की कला में ये 
						समानता वास्तव में यात्राओं तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान के 
						कारण ही संभव हुई होगी।
 
						२७ जुलाई 
						२०१५ |