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मथुरा की मूर्तिकला
- जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी
भारतीय कला के इतिहास में मथुरा
नगरी का अपना विशिष्ट स्थान है। कुषाणकाल और गुप्तकाल में बनी
हुई मथुरा की बौद्ध मूर्तियाँ इतनी प्रसिद्ध हैं कि उनकी चर्चा
किए बिना इन कालों की कला का परिचय ज्ञात नहीं हो सकता।
संस्कृति और धर्म के एक बड़े केंद्र वाराणसी के पास सारनाथ में
बुद्ध की ऐसी मूर्तियाँ मिली हैं, जिनमें मथुरा के शिल्पाचार्य
कुणिक के अंतेवासी यानी शिष्यों द्वारा निर्मित मूर्तियों पर
उनके हस्ताक्षर हैं और उनके यजमान यश दिन्न का नाम है। इस
प्रकार उत्तर भारत का कोई प्रसिद्ध स्थान नहीं है, जहाँ पर
गुप्तकाल तक, मथुरा की बनी मूर्तियों का प्रचलन न रहा हो।
मथुरा संग्रहालय में एक बहुत बड़ी मूर्ति है, जिसे यक्ष-मूर्ति
कहा जाता है और यह मूर्ति परखम नामक स्थान से प्राप्त हुई है
और इसका काल ईसा से तीसरी शती पूर्व या मौर्यकाल माना जाता रहा
है। बाद में हमें जो मूर्तियाँ मिलती हैं, वे कुषाण और
गुप्तकाल की समझी जाती हैं। यह सही है कि मथुरा कला का बराबर
केंद्र बना रहा, परंतु साधारण खयाल यह था कि नौवीं शताब्दी के
बाद के मथुरा में कला के वे सुंदर स्वरूप प्रकट नहीं होते,
जिनके लिए मथुरा की कला हजार वर्ष तक प्रसिद्ध रही।
यद्यपि, मथुरा संग्रहालय में ब्रह्मा, विष्णु, शिव,
कृष्ण-बलराम, गणेश और स्वामी कार्तिकेय, इंद्र, अग्नि, सूर्य
और नव-ग्रह आदि की मूर्तियाँ हैं, परंतु ये भी प्रायः शुंगकाल,
कुषाण और गुप्तकाल की बतायी जाती हैं। प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता
और कला-मर्मज्ञ आनंद कुमारस्वामी का तो यह मत है कि वैष्णव मत
और विष्णु के अवतारों की मूर्तियों को जिस प्रकार मथुरा में
बनाया जाता था, उसी के प्रभाव स्वरूप मथुरा की कला में भगवान
बुद्ध को बोधि-सत्वों को पुरुष रूप में अंकित किया जाने लगा।
आदि-बुद्ध अमिताभ से लेकर शाक्य मुनि गौतम बुद्ध तक की
प्रतिमाएँ बनीं।
गजनवी भी हार गया-
यह समझना उचित नहीं होगा कि मथुरा की मूर्तिकला प्राचीन
हिंदू-काल तक ही सीमित रही। वह मध्यकल में भी जीवित थी। मथुरा
संग्रहालय में हनुमान की एक मूर्ति है, जो नौवीं शताब्दी में
निर्मित हुई थी। इसी प्रकार की एक अन्य मूर्ति कलकत्ता के
संग्रहालय में है। जिस समय महमूद गजनवी मथुरा आया था, उस समय
मथुरा का स्थापत्य शिल्प अपने सर्वोत्तम शिखर पर था, जिसका
प्रमाण स्वयं महमूद गजनवी ने और उनके समकालीन मुस्लिम
इतिहासकारों ने अपनी रचनाओं में दिया है। मथुरा के मंदिरों को
देखकर महमूद गजनवी ने काबुल के सूबेदार को लिखा था, ‘यहाँ के
असंख्य मंदिरों के अतिरिक्त सौ इमारतें तो इतनी मजबूत हैं,
जितना मुसलमानों का ईमान होता है और कई तो संगमरमर से बनी हुई
हैं। ऐसी इमारतें दो सौ वर्ष लगें, तब भी नहीं बन सकतीं।’
यद्यपि, महमूद गजनवी के आक्रमण के फलस्वरूप बहुत से मंदिर टूट
गये और सैकड़ों मूर्तियाँ नष्ट हो गयीं, पर उसके समकालीन इतिहास
लेखकों का कहना है कि एक मंदिर की सुंदरता देखकर वह इतना
प्रभावित हुआ कि उसने उसे न तोड़ने की आज्ञा दी।
अलतुवी ने अपनी तारीखे-यामिनी में महमूद गजनवी द्वारा मथुरा के
मंदिरों और मूर्तियों के बारे में लिखा है, कि, ‘तब सुलतान उस
नगर के समीप होकर निकला, जिसमें हिंदुओं का मंदिर था। इस नगर
का नाम मेहरुतुलहिंद था, वहाँ उसने एक विशाल आकृति के भवन को
देखा, जिसके विषय में नगर-निवासियों का कहना था कि वह मनुष्यों
द्वारा नहीं प्रत्युत देवताओं द्वारा निर्मित किया गया था। नगर
की दीवार ठोस पत्थर की बनी थी। और दो दरवाजे उस नदी की ओर खुले
हुए थे, जो नगर के बिलकुल नीचे बहती थी। ये फाटक बड़े सुदृढ़ और
ऊँची नींव पर निर्मित थे, ताकि उनकी बाढ़ व वर्षा से रक्षा होती
रहे। नदी के दोनों ओर हजारों घर बने हुए थे, जिनमें मूर्ति
युक्त मंदिर सम्मिलित थे। और सभी नख-शिख से लोहे की छड़ी से
सुदृढ़ बने थे, तथा सब प्रासादों के तुल्य थे और उनकी दूसरी ओर
चौड़े काष्ठ के स्तंभों पर स्थित दूसरे भवन थे। नगर के मध्य में
एक मंदिर दूसरों की अपेक्षा अधिक विशाल तथा दृढ़तर था। जिसका न
वर्णन हो सकता है, न चित्र चित्रण।
छिपाकर रखी मूर्तियाँ-
महमूद गजनवी द्वारा नगर के नष्ट होने के बाद भी मथुरा की कला
नष्ट नहीं हुई। राजा विजयचंद या विजयपाल ने ११५० ईस्वी में
कृष्ण-जन्म के स्थान पर एक विशाल मंदिर बनवाया, जिसके बारे में
उसी स्थान से संवत १२०७ का एक लेख प्राप्त हुआ है। स्पष्ट है
कि उस समय भी मथुरा की शिल्प और स्थापत्य कला इतनी सक्षम थी कि
कन्नौज नरेश ने वहाँ पर एक विशाल मंदिर बनाने का अनुष्ठान
किया।
उस समय की कला किस प्रकार की थी, इसके प्रमाण बहुत दिनों तक
उपलब्ध नहीं थे। लेकिन हाल ही में मथुरा में तथा मेरठ जिले में
कुछ मूर्तियाँ प्राप्त हुईं, जो अब मथुरा संग्रहालय में
सम्मिलित कर ली गईं। इनका प्रदर्शन सर्वप्रथम १९ मार्च, १९८८
को संग्रहालय में आयोजित एक प्रदर्शनी में किया गया था। ये
मूर्तियाँ मथुरा के मादौर ग्राम में तथा मेरठ की बागपत तहसील
के रटौल ग्राम में प्राप्त हुईं। जो २८ मूर्तियाँ प्रदर्शित की
गयीं, उनमें नौ रटौल से प्राप्त हुई थीं और शेष स्थानीय थीं।
ये नौ मूर्तियाँ-विष्णु, उमा-महेश्वर, गणेश, महामाया, स्कंद
माता आदि देवी-देवताओं की हैं। ये सारी मूर्तियाँ एक स्थान पर
एक गड्ढे में रखी थीं। ऐसा लगता है कि इन्हें किसी मंदिर में
स्थापित करने के लिए मँगाया गया होगा, परंतु किसी कारण मंदिर
की स्थापना न हो सकी, तो इन्हें छिपाकर एक गड्ढे में दबा दिया।
जो मूर्तियाँ मिली हैं, वे टूटी-फूटी नहीं हैं, न उन पर रोपे
जाने या उखाड़े जाने के कोई चिन्ह हैं। मूर्तियाँ बहुत सुंदर
हैं, हलके लाल पत्थर की बनी हैं, उसी प्रकार के पत्थर पर जिस
पर मथुरा कला की अन्य मूर्तियाँ भी पाई जाती है।
देवी देवताओं की मूर्तियाँ-
स्कंद पुराण में लक्ष्मी और नारायण को जिस प्रकार अगल-बगल बैठा
बताया गया है और नारायण के हाथ में चक्र व शंख दिखाया गया है,
उसी तरह की एक मूर्ति यहाँ पर पायी गयी है, जिसमें गरुड़ के ऊपर
विष्णु और लक्ष्मी उसी मुद्रा में बैठे हैं, जिस मुद्रा में
उमा-महेश्वर की अनेक मूर्तियाँ पायी जाती हैं। मूर्ति सुंदर है
और मूर्तियों की आकृति में ब्रज का परंपरागत प्रेम-रस झलक रहा
है।
सूर्य की मूर्तियों के लिए अभी तक हमें उड़ीसा में कोणार्क के
मंदिर की परिक्रमा करनी पड़ती थी, मथुरा में ही अब सूर्य की
मध्यकालीन एक सुंदर मूर्ति प्राप्त हुई है। मथुरा सूर्य तनया
यमुनाजी का सबसे बड़ा तीर्थ है और स्वाभाविक है कि यहाँ सूर्य
की मूर्ति होगी। यहाँ पर सूर्य की दो मूर्तियाँ प्रदर्शित हुई
थीं। एक विशाल मूर्ति में सात घोड़ों के रथ पर सूर्य भगवान
दोनों हाथों में कमल धारण किये हुए किरीट और मुकुट लगाये
वक्षस्थल पर कवच पहने, आभूषणों से मंडित उषा और प्रत्युषा को
दायें-बायें सँभाले हुए हैं। उनके द्वारपाल दंड तथा पिंगल,
जिन्हें लोग यम और अग्नि भी कहते हैं, हाथों में तलवार लिये
हुए हैं। सूर्य की दूसरी प्रतिमा में दशावतार भी दिखाये हुए
हैं और वे भी क्रम से हैं-मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन
(त्रिविक्रम), परशुराम, राम, बलराम, बुद्ध व कल्कि। ये अवतार
मूर्ति के दोनों ओर अंकित हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ देवियों की
सुंदर मूर्तियाँ भी हैं-स्कंद माता और मातृका इन देवी की गोद
में बालक दिखाये गये हैं। रटौल की जो वरदहस्ता माता दिखायी गयी
है, वो दस भुजावाली है, हाथों में आयुध हैं, नीचे के दो हाथ
खाली हैं और शरीर पर आभूषण तथा सिर पर मुकुट है। चार दासियाँ
उनकी सेवा में हैं।
ठीक इसी प्रकार की मूर्ति विष्णु की भी है,
जो चतुर्भुजी मुद्रा में है। इनके सेवक के रूप में तीर-कमान
लिये हुए द्वारपाल और अन्य सेवक हैं तथा बगल में शाल-भंजिकाएँ
हैं। इन मूर्तियों को देखकर यह स्वीकार करना पड़ता है कि उस समय
की कला में सुरुचि थी, समाज में संपन्नता थी और मूर्तिकार इन
मूर्तियों के बारे में ग्रंथों में वर्णित परंपराओं का पालन कर
रहे थे। मथुरा के पास मादौर से प्राप्त सूर्य की मूर्ति बड़ी
विशाल है। लेकिन, बारहवीं शताब्दी के उसके शिल्प में और रटौल
के शिल्प में कोई विशेष अंतर नहीं दिखायी देता, जिससे यह मानना
पड़ता है कि ये सारी मूर्तियाँ एक ही स्थान पर निर्मित हुईं और
वहीं से विभिन्न स्थानों पर मंदिरों में स्थापित होने के लिये
भेजी गयीं।
अभी तक मथुरा संग्रहालय नौवीं शताब्दी की हनुमान की मूर्ति पर
समाप्त हो जाता था। यद्यपि सौंख की खुदाई से प्राप्त बारह हजार
मृण्मूर्तियाँ यानी मिट्टी के खिलौने और अन्य कला उपकरण, मथुरा
की सभ्यता को और कला-प्रेम को मौर्यकाल से बहुत पहले पहुँचाते
हैं। परंतु इन मूर्तियों की प्राप्ति के बाद यह स्पष्ट हो गया
कि बारहवीं शताब्दी तक ब्रज क्षेत्र की कला जीवंत थी, कलाकारों
में कुशलता थी और यह ज्ञान भी था कि किस देवी या देवता को किस
प्रकार, किन लक्षणों से युक्त और किन आयुधों से संपुष्ट करना
चाहिए।
जब हम ब्रज के प्राचीन मंदिरों को देखते हैं, चाहे वृंदावन का
गोविंद देव का मंदिर हो या बिहारी जी और राधा-बल्लभ जी की
सुंदर और आकर्षक मूर्तियाँ हों या स्वयं मथुरा में विराजमान
श्री द्वारिकाधीश का विशाल और आकर्षक विग्रह हो, तो हमें कुछ
आश्चर्य होता है कि चार-पाँच सौ वर्ष के अंतराल के बाद मथुरा
की कला का पुनर्जन्म कैसे हुआ ? इन मूर्तियों की उपलब्धि के
बाद यह सिद्ध होता है कि मथुरा की वह कला और सौंदर्य-प्रेम,
जिसका वर्णन महाकवि वाल्मीकि ने राम के नाम से शत्रुघ्न से
कराया है, वह कला कभी मरी ही नहीं थी, भले ही दब गयी हो।
१८ अगस्त २०१४ |