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लखनऊ वाश और बद्रीनाथ आर्य
अवधेश मिश्र
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'लखनऊ वाश' की बात करें तो जहाँ
हरिहर लाल मेढ़ ने नैसर्गिक सौन्दर्य और मानवाकृतियों का
सामंजस्यात्मक संयोजन, आदर्श नारी सौंदर्य, और त्रिआयामी
प्रभाव को महत्व देते हुए कार्य किया और सुखवीर सिंहल ने
बारात, जलसा, दरबार व भारतीय दर्शन से ओत प्रोत विषयों को
महत्व देते हुए चित्र का आकार बड़ा रखा और बहुत सारी आकृतियों
को संयोजन में महत्व दिया साथ ही अति धैर्यपूर्वक कार्य करते
हुए डिटेल फिनिशिंग तथा समस्त आकृतियों के चेहरों के भाव इस
तरह रचे कि वे स्वयं ही एक-एक कहानी का बयान कर रहे हों, वहीं
कम आकृतियों के साथ मुख्य विषय को आलोकित करते हुए वाश चित्रण
विधि के व्याकरण के अन्तर्गत विषयों की दृष्टि से इसे
क्षेत्रीय शैली से राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय स्तर की समकालीन
कला की मुख्य धारा से जोड़ने का श्रेय बद्रीनाथ आर्य को जाता
है। बद्री के बाद के चित्रों में विषयगत अमूर्तता और प्रयोग
दिखता है। चित्रों में केवल आदर्श सौंदर्य ही नहीं बल्कि
अवचेतन मन में हिलोरे ले रही अनगिनत आकृतियों का मिला-जुला व
अमूर्त रूप भी देखा जा सकता है।
परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में, जबकि सदी के अंतिम दशकों में
पूरब से पश्चिम तक स्कूल की पहचान के बजाय व्यक्तिगत विचारों
को महत्व प्राप्त हुआ, प्रयोग धर्मिता बढ़ी और निजत्व को महत्व
दिया जाने लगा, ऐसे में कुछ कलाकार ही अपने को सँभाल पाए और
प्रवृत्तियों के परिवर्तन के साथ अपने सृजनात्मकता की दिशा को
समकालीनता के साथ जोड़ा। इस संदर्भ में लखनऊ के कलाकार बद्रीनाथ
आर्य का नाम महत्वपूर्ण है।
बद्री मूलतः जलरंग (वाश) माध्यम में कार्य करने वाले चित्रकार
हैं, जो माध्यम की संभावनाओं की हद तक जाकर कार्य करने का कौशल
दिखा चुके हैं। 'वाश' माध्यम के साथ समानान्तर चलते हुए
पारंपरिक भारतीय कला शैली से लेकर आधुनिक/समकालीन परिप्रेक्ष्य
में किए जा रहे कार्यों तक की दूरी तय कर कला जगत को
अविस्मरणीय योगदान दिया है। आज बद्रीनाथ की रचनाएँ
शास्त्रीय/पारंपरिक और अमूर्त/प्रयोगात्मक आदि सभी क्षेत्रों
में ग्राह्य है तथा अपना महत्वपूर्ण स्थान बना चुकी हैं।
जिस समय बद्री ने कला जगत में कदम रखा उस समय तक वाश चित्रकला
शैली स्थापित हो चुकी थी, क्योंकि इसका आरंभ तो असित कुमार
हल्दार के लखनऊ आने से बहुत पहले ही हो चुका था। लखनऊ स्कूल के
लिए यह शैली एक पारंपरिक शैली बन चुकी थी। बी.एन. जिज्जा,
पुरंजय बनर्जी, पी.आर. राय, ए.डी. थामस, शमी उज्जमा, विश्वनाथ
मुखर्जी, आर.सी. साथी, फ्रैंक वैज़्ली, एस.सेन. राय, एन.के.
मिश्र, सुखबीर सिंघल, हरिहर लाल मेढ़, ईश्वरदास, श्रीराम वैश्य,
नित्यानंद महापात्र आदि कलाकार इस शैली में खूब प्रयोग कर रहे
थे, पर इन सभी कलाकारों द्वारा आकृति मूलक (मानवाकृति)
संयोजनों/दैनिक जीवन या धार्मिक विषयों से संबंधित संयोजनों को
महत्व दिया गया। हालाँकि बद्रीनाथ आर्य का आधार तो यही कला
संस्कार था, पर बद्रीनाथ ने एक परंपरा पर चलते रहना ही स्वीकार
नहीं किया, बल्कि इसके आगे एक ऐसा रास्ता खोजना चाहा, जो उनके
निजत्व को प्रकाश में लाए और बंगाल से लखनऊ आई वाश चित्रकला
परंपरा को एक उल्लेखनीय दिशा दे सके। बद्री ने प्रयोग किया,
संयोजन के मूलतत्वों के साथ आकारों को सूक्ष्म व प्रतीकात्मक
रूप में प्रस्तुत किया।
आर्य
ने अपने प्रयोग में नए-नए प्रभावों व टेक्स्चर को अपनाया,
उन्हें विकसित किया। विषय भी परिवर्तित हुए। जहाँ सामाजिक,
राजनैतिक, दैनिक जीवन के विषय अति विस्तारपूर्वक व यथार्थता के
साथ बनाए जाते थे, वर्ण योजना व विषयों के प्रस्तुतीकरण में
'शृंगार' होता था, उच्छृंखलता का भाव प्रमुखता से परिलक्षित
होता था, रेखाएँ लयात्मक और आकृतियाँ प्रमाण युक्त हुआ करती
थीं, वहीं कंकाल जैसी आकृतियाँ स्थान पाने लगीं। हालाँकि
तूलिका संचालन/चित्रण व्यवहार में वही सादगी, शैलीगत माधुर्य
सुगंध, धूमिल (मध्यमतान) वर्णों आदि का प्रयोग यथावत रहा, पर
कला यात्रा के दूसरे पड़ाव में उभर कर आयी यह अभिव्यक्ति/
सर्जना भविष्य के प्रति कलाकार के मानसिक द्वन्द्व का परिणाम
था, जो प्रेम, क्षमा, दया, जन कल्याण विषयक चित्रों के उपरान्त
भयानकता पूर्ण काल्पनिक दृष्यों के रूप में सामने आने लगा।
सेतु के रूप में कुछ समय पहले की कृतियों में किया गया प्रयोग
उल्लेखनीय है, जिसमें कुछ उड़ती चिड़ियाँ छोटे-छोटे कोटर/ताखों
के आकारों को संयोजित किया गया। शायद कलाकार यहीं से जीवन के
यथार्थ को समझने का प्रयास कर रहा था और उसके दार्शनिक पक्ष को
चित्रांकित करने लगा। इस समय की
शृंखलाएँ 'लय' और 'जीवन' शीर्षक से रची गईं। इन शृंखलाओं में
यलो-ऑकर (मटमैला पीला), भूरा, नीला, आदि वर्ण-योजनाएँ थीं, पर
विरोधी या चटख रंगों का प्रयोग कम हुआ। तकनीकी पक्ष को देखा
जाय तो बड़े आकार में होने के कारण इन चित्रों को संतुलित कर
पाना कलाकार की दक्षता को पुष्ट करता है। इन शृंखलाओं के कुछ
चित्र राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय में संग्रहीत हैं।
ऐसा कलाकार जो मात्र अपनी अभिव्यक्ति को ही नहीं बल्कि कला जगत
को एक विशिष्ट दिशा दी, भारतीय कला को भूमण्डलीय स्तर पर शिखर
तक पहुँचाने का प्रयास कर अविस्मरणीय योगदान दिया, उसकी कला
यात्रा के आदि से अन्त तक के प्रत्येक स्तर को समझने के लिए
उसके शैशव पर दृष्टिपात करना होगा, जहाँ से कलात्मक अभिव्यक्ति
की प्रेरणा और प्रोत्साहन प्राप्त हुआ।
बद्री का जन्म पेशावर (अब पाकिस्तान) के ऐसे व्यवसायी
परिवार में सन् १९३६ में हुआ, जहाँ न तो कला का कोई वातावरण था, न ही प्रोत्साहन।
परिवार के सदस्य भी यही चाहते थे कि बद्रीनाथ कला के अतिरिक्त किसी और क्षेत्र का
विशेषज्ञ या व्यवसायी बने, जो प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ से जुड़ा हो, पर न कि सिर्फ निज
व्यवसाय से अरुचि रही, बल्कि पढ़ाई-लिखाई के प्रति भी बद्री गंभीर नहीं रहे। कलात्मक
अभिरुचि, देखी जाय तो पढ़ाई-लिखाई की अपेक्षा अधिक रहीं क्योंकि काल्पनिक आकृतियों
को दीवारों व भूमि पर उकेरना, प्रकृति के रूपाकारों को गंभीरता से देखना, आत्मसात
करना व अनुभव के आधार पर सृजनात्मक अभिव्यक्ति प्रवृत्ति बनने लगी थी। बीसवीं सदी
के अंतिम दशकों में संयोजन में उपस्थित रूपाकार शैशव में दीवारों पर अंकित किए जाने
वाले अरूप राक्षस, प्रकृति के विविध तत्व, मंडराते/तैरते बादल व काल्पनिक व्यक्ति
चित्र प्रारंभिक रेखांकनों में देखे जा सकते थे। शायद ये आकृतियाँ जो शैशव में हुए
दंगों आदि के दौरान मानस पटल पर छा गई थीं वे अभिव्यक्त होने के लिए एक वेदना देती
थीं, और कलाकार सर्जना का रास्ता खोजने लगा।
सन् १९४७ में भारतवर्ष के विभाजन के पश्चात् बद्री जी को सपरिवार लखनऊ आना पड़ा,
क्योंकि अशान्ति के समय, बद्री के पिता के दोस्त ने, जो लखनऊ में रहते थे, यहाँ आने
की सलाह दी। रास्ते में भी एक दुर्घटना हुई कि भीड़ में बद्रीनाथ कहीं खो गए।
गुरुदासपुर में ही रुकना पड़ा। वहाँ अचानक ही बद्रीनाथ को गाड़ी में बिछड़े हुए पिताजी
दिख गए और दंगा थमते ही लखनऊ की ओर रवाना हुए। इस घटना का जिक्र इसलिए भी आवश्यक है
कि बद्री को बाल्यकाल से ही किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, समाज और
व्यक्ति की कैसी-कैसी छवि मानस पटल पर बनी, जो आज काल्पनिक रूप में अभिव्यंजित हो
रही है, उसका अनुमान लगाया जा सके। लखनऊ आकर बद्री हीवेट रोड पर अपने पिताजी के साथ
रहने लगे, जहाँ प्रसिद्ध लेखक यशपाल रहते थे। यह संयोग था कि उनके समकालीन कलाकार
रणवीर सिंह बिष्ट भी बद्री के ठीक सामने रहते थे। लखनऊ में निवास बना लेने के
उपरान्त बद्री को पुनः अपनी कल्पनाओं को एक रूप देने का वातावरण/अवसर खोजना पड़ा और
इस क्षेत्र में आने का एक रास्ता बना फोटोग्राफी। रुचि होने के कारण हजरतगंज के सेठ
फोटोग्राफर के स्टूडियो में प्रायः फोटो देखने जाने लगे। यह रुचि और समर्पण देखकर,
कला गुरू ललित मोहन सेन (तत्कालीन प्रधानाचार्य, कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ),
जो इस स्टूडियो पर आया-जाया करते थे, बहुत प्रभावित हुए और उन्हें 'आर्ट्स कालेज'
बुलवाया। बद्री की कला अभिरुचि की छोटी सी परीक्षा ली और प्रवेश की अनुमति दे दी।
सन्
१९५१ में बद्री ने कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ में कला-शिक्षा के लिए प्रवेश
लिया और चित्रकला तथा मूर्तिकला दोनों के मर्मज्ञ बने, क्योंकि जिन कला गुरुओं
(ललित मोहन सेन, हरिहर लाल मेढ़ सुधीर खास्तगीर और श्रीराम वैश्य) का
सानिध्य/शिष्यत्व बद्रीनाथ को प्राप्त हुआ, वे दृश्य कला की लगभग समस्त विधाओं पर
अपनी समानान्तर पकड़ रखते थे। बद्री ने भी समस्त विधाओं/शैलियों/माध्यमों के मर्म
जानकर एक दिशा निर्धारित की, जो तत्कालीन वातावरण में प्रभावी थी। उस समय कलागुरू
असित कुमार हल्दार द्वारा लखनऊ में परिचित कराई गई शैली 'वाश' का वर्चस्व बन चुका
था और उस शास्त्रीय शैली से परे जाकर कलाकार अपना निजत्व नहीं बना सकता था, अतः
अपनी दक्षता और सृजनात्मकता प्रमाणित करने के लिए यह आवश्यक था कि वाश शैली में ही
कार्य किया जाय। हालाँकि पारंपरिक विषय वस्तु व चित्रण व्यवहार के कारण वाश की
स्थिति क्षेत्रीय/स्कूल से अधिक नहीं थी और समकालीन कला से काफी अन्तराल लिए हुए
थी, पर बद्री सामाजिक व राजनैतिक विषयों के अतिरिक्त निसर्ग पर अधिक केन्द्रित हुए।
प्रकृति के रहस्यों को उजागर करने के लिए जाड़ा, गर्मी, बरसात, विविध ऋतुओं व
परिवर्तित होते पल-पल का अनुभव प्राप्त किया और जहाँ सुखवीर सिंह सिंहल ने वाश को
बड़े आकार में प्रस्तुत किया था, भले ही उनके विषय दरबारी दृश्य, पौराणिक/धार्मिक ही
रहे, बद्री ने उसी बड़े आकार को अपनाया और विषयों को परिवर्तित कर दार्शनिकता से
परिपूर्ण बनाते हुए अमूर्तनोन्मुख हुए।
चित्र रचना के पूर्व किए गए रेखांकनों को देखें, विशेषकर प्रारंभिक समय के, तो
पाएँगे कि घुमावदार आकृतियाँ एक-दूजे से गुंथी हुई रेखाएँ कुछ अंतर्द्वन्द्व जैसी
स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। एक रेखांकन जिसमें तीन चार साँप आपस में गुंथे
हुए से दर्शाए गए हैं, ऐसे रेखांकनों का अच्छा उदाहरण है। अन्य रेखांकन में
ग्रामीण, दैनिक जीवन के विषय, नारी आकृतियाँ व पशु-पक्षियों का अंकन दृष्टव्य है।
इन रेखांकनों में मानव शरीर संरचना, लयात्मक रेखाएँ और सशक्त भावभिव्यक्ति देखा जा
सकता है। बद्री ने पशु-पक्षी आदि का अध्ययन विशेष रूप से किया है, जो उनके संयोजन व
रेखांकन के विषयों में प्रमुख हैं। एक रेखांकन जिसमें भैंस पानी में जा रही है और
उसके सिर पर कौवा बैठा है, अति प्रभावी व मार्मिक रेखांकन है। यह कलाकार की उस
दृष्टि और प्रतीत को पुष्ट करता है, जो अति संवेदनशीलता के साथ इन क्षणों को जिया
हो। कौवों पर आधारित अनेक संयोजन जलरंग में बनाए, जिसमें १९७० में बना 'ग्रीष्म',
जलरंग (वाश, ४८x११ सेमी) चित्र प्रमुख है। इस चित्र में विविध मुद्राओं में पुष्प
की छाँव व सुवास का आनन्द लेते डाल पर बैठे कौवों का सुन्दर चित्रांकन है। ग्रीष्म
काल के अन्य दृश्य 'पेड़ की छाँव में' (१९६५, १०४x७४सेमी) बरगद के नीचे ऐसे पड़ाव का
दृश्य है, जहाँ आराम की मुद्रा में, हुक्का पीते तथा विविध मुद्राओं में
मानवाकृतियाँ, एक ओर पक रहा भोजन तो दूसरी ओर एक टक निहार रहे कुत्ते, बड़ी तीक्ष्ण
दृष्टि और कुशल कलाकार की अभिव्यक्ति का प्रमाण है। पशु-पक्षी और प्रकृति प्रेम को,
बारिश के दिन में भीगते बन्दर के चित्र में देखा जा सकता है। इस चित्र (१९६०) में
भीगते ठिठुरते बन्दर का चित्रण जो मेघ को निहार रहा है, अंकन है। बद्री ने निसर्ग
और वातावरण के साथ जीवों की जीवन शैली को अनुभव किया तथा अपनी शिल्प दक्षता व
सृजनात्मकता के आधार पर सामंजस्यात्मक स्वरूप प्रस्तुत किया।
इस
समय के चित्रों में परिप्रेक्ष्य अंकन भी बड़ी ही दक्षता से किया गया है पर उम्र
बढ़ने के साथ ही चित्रांकन में परिवर्तन आया और स्मृतियों में वे आकृतियाँ और बिम्ब
उभरने लगे जो स्वाधीनता संग्राम में बाल्यकाल में देखे थे। इसी के परिणाम स्वरूप
'उत्पीड़न', 'अत्याचार', 'भूल-भुलैया' आदि चित्र सृजित हुए। कलाकार उस रहस्य को
खोजने लगा जो सत्य का दर्शन करा सके। साधारण लयात्मक रेखाओं के पीछे भटकाने वाली
गलियाँ, गहराई और अंधकार आदि बिम्ब का प्रस्तुतीकरण समक्ष आने लगा। आर्य ने ऐसे
विषयों को चुना जो प्रायः कलाकारों से छूट जाते हैं, जैसे कौवों का अंकन, कंकाल और
खोपड़ियों पर शृंखलाएँ तैयार करना, जबकि दूसरा पक्ष रूमानी चित्रों में देखा जा सकता
है। शृंगार रस का वियोग पक्ष 'प्रतीक्षा'और 'पी कहाँ', जिसमें सामाजिक और दैनिक
जीवन के विषयों में 'खेत की ओर' (वाश, १९६१, ५०x५१सेमी), 'वर्षा में' (वाश, १९६३,
१०४x६सेमी) जिसमें बैलगाड़ी पर बोझ लदा है और बारिश में श्रमिक उसे खींचते ले जा रहे
हैं। मानवाकृतियों में श्रम से माँसपेशियों का खिंचाव, बारिश को देखते हुए शीघ्रता
का भास अर्थात गति, हवा के झोंको और बारिश में झूमती डालियों आदि का सजीव रूप देखा
तथा अनुभव किया जा सकता है। 'रात में नौकाएँ' (वाश, १९६४, ११८x७५ सेमी),
'प्रतीक्षा'(वाश, १९७०, ४५x४२ सेमी) आदि। नौकाओं में रात का अँधेरा, नौकओं पर बनी
झोपड़ी में चिराग का उजाला, धुँधली आकृतियाँ, 'प्रतीक्षा' में खुले किवाड़ से सटी
बैठी नायिका, जलती लालटेन से अँधेरे और प्रकाश का सुन्दर, सामंजस्य दर्शनीय हैं।
इस तरह धार्मिक विषयों में 'गंगा अवतरण (वाश, १९६३, १३७x८१ सेमी), तांडव (वाश,
१९६२, १३५x७८ सेमी), तथा अन्य विषय-उत्पीड़न (वाश, १९७३, १३९x७८सेमी), एक शहर एक
चेहरा (वाश, १९७५ , १३७x५९ सेमी), भूल-भुलैया (वाश, १९८०, १०७x७५ सेमी), पी कहाँ
(वाश, १९६६ , ७७x५७ सेमी), मृग मारीचिका (वाश, १९८० , १४१x७९ सेमी), वृक्ष में जीवन
(वाश, १९८२, ९५x६८ सेमी), घुटन (वाश, १९६५, १०१x६६ सेमी), घरौंदे (वाश, १९७६,
१०५x७२ सेमी), प्रलय (वाश, १९८१, १४०x७९ सेमी), साँवरी (वाश, १९६२, १२४x७०सेमी),
पीड़ा (जलरंग, १९९२ , ७६x५९ सेमी), उदास शहर (वाश, १९८०, १२५x७५ सेमी), लय (वाश,
१९८२, ७२x५९ सेमी), आयाम (वाश, १९८७, १३५x७५ सेमी), कल्पना, मधुवन, एकक्षण, पक्षी,
संगति, ग्रामबाला तथा सिम्फनी इत्यादि हैं।
बद्री के आरंभिक चित्र आकृति मूलक, स्वाभाविक व यथार्थता लिए हुए थे, पर भारतीय कला
की विशिष्टताओं में प्रमुख 'लयात्मक रेखाओं' की प्रधानता होने के बावजूद छाया,
प्रकाश अलंकरण व घनत्व का ध्यान दिया गया है। जिससे यह प्रमाणित है कि भारतीय कला
का आधार होने के साथ ही निजत्व व सृजनात्मकता को समानान्तर ही महत्व देते रहे।
नारी सौंदर्य, संवेदनशीलता और स्वामिभक्ति तथा भारतीय संस्कृति को पुष्ट धरातल देने
वाले अनुभव दर्शनीय हैं। इन चित्रों में जहाँ शैली दर्शनीय शास्त्रीय है, वहीं
विषयों के प्रस्तुतिकरण व प्रयोगों में नवीनता है। वह नवीनता जो युगों तक आधुनिकता
व प्रयोगात्मकता का मानक बन सके।
बद्रीनाथ
आर्य को उनके द्वारा कलाजगत में किए गए अवदान के आधार पर एक सम्पूर्ण कलाकार की
संज्ञा दी जा सकती है, क्योंकि जहाँ अध्यापक के रूप में दृश्य कला की समस्त
शैलियों, माध्यमों में पारंगत होकर विद्यार्थियों में कला का बीजारोपण किया,
अंकुरित कल्लों को पल्लवित, पुष्पित होने में जल व उर्वरा रूपी अपना स्नेह व ज्ञान
दिया, वहीं कलाकार के रूप में अपने नित नए प्रयोगों के आधार पर उस घेरे से अपने को
अलग किया और समकालीन कला जगत में पहचान दिलाई जो केवल लखनऊ स्कूल तक सीमित रह गया
था। आज 'बद्रीनाथ आर्य' वाश शैली के पर्याय बन चुके हैं, क्योंकि वे गुप्तकालीन
चित्रों की लयात्मक रेखाओं, आदर्श सौंदर्य के अनुसार रची जाने वाली मानवाकृतियों व
उस पद्धति तक ही सीमित नहीं है, जो बंगाल स्कूल से लखनऊ तक आई थी, बल्कि
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर वाश चित्रों की पहचान बनी और वह भी समकालीन कला के
सौंदर्यशास्त्रीय मूल्यों की नवीन परिभाषाओं के अनुरूप, तो इसका श्रेय केवल
बद्रीनाथ आर्य और उनकी अदम्य इच्छा शक्ति को है, जो अपनी प्रयोगधर्मिता को थमने
नहीं दिया, बल्कि आज इकहत्तर वर्ष की अवस्था में रचनारत हैं और अपनी कला यात्रा के
विविध पड़ाव पर खोजी गई नई राहों की तरह ही पुनः एक नई राह की तलाश में हैं, जो उन
कल्पनाओं को एक आकार दे सके, जो कभी साकार न हो सकीं, चाहे माध्यम बाधा बना हो या
परिस्थितियाँ। बद्री उस अभिव्यक्ति की पूर्णता को छूना चाहते हैं, जो उन्हें
परमानन्द की प्रतीति दे सके। आशा है, यह सृजन न कि सिर्फ कलाकार का, बल्कि कला जगत
का आदर्श सृजन बन सकेगा और बद्रीनाथ आर्य अतुलनीय रचनाकार।
बद्री के प्रारंभिक चित्रों में परम्परागत विषयों, धार्मिक, पौराणिक आख्यानों व
सामाजिक विषयों पर वाश चित्र अधिक मिलते हैं। 'साँवरी' 'पी कहाँ' अत्यधिक लोकप्रिय
चित्रों में है। इलाहाबाद म्यूज़ियम और ए.बी.सी. आर्ट गैलरी, वाराणसी में संग्रहीत
'साँवरी' में एक ग्रामीण महिला के शृंगार करते हुए रूप को चित्रित किया गया है। इस
चित्र में भारतीय आत्मा झलकती है। इसी तरह 'पी कहाँ' में शृंगार रस का मार्मिक
चित्रण है। चित्र में डाल पर बैठा मोर और उसे एक टक निहारती प्रेयसी हैं। इसमें
विषय, संयोजन, वाश की मौलिकता आदि को पूर्ण रूपेण ध्यान देते हुए चित्रांकन किया
गया है।
बद्री के चित्रण की समकालीन कला में प्रासंगिकता यहाँ पर उल्लेखनीय हो गयी, जब वे
पारंपरिक विषयों से हटकर बाल्यकाल में देखे हुए विभाजन के अनुभवों की विस्मृत होती
तस्वीरों को कुरेदने लगे। कभी कपाल, कभी विकृत चेहरा, कहीं बदसूरत बुढ़ापा, कहीं
काल्पनिक राक्षसी आकृतियाँ कहीं खण्डहरों के ताखों के बीच ताखे इस तरह के अजीबोगरीब
विषयों पर कार्य करने लगे। इस विषय पर कार्य करने के पहले कुछ दिन तो घुमावदार
रेखाओं द्वारा आकृतियाँ बनाते रहे, फिर 'लय' और 'जीवन' नाम से शृंखला भी बनायी
(जिसके चित्र राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय नई दिल्ली में संग्रहीत हैं)। इन
चित्रों में कहीं सूर्य या आदिशक्ति का भास होता है तो कहीं अँधेरे से उजाले की ओर
उड़ती आकृतियाँ दर्शनीय हैं। रंग अति सुकोमल व विषयानुकूल है। प्रायः पीले और भूरे
रंगों का प्रयोग है। पर यह शृंखला भी अधिक दिनों तक नहीं चली और अवचेतन मन में
आकृतियाँ सर्जना के लिये उत्प्रेरित करने लगीं। हालाँकि चित्र बड़े आकार के बने पर
मानवाकृतियों की संख्या सुखवीर सिंह सिंहल जितनी नहीं रही। वर्णविधान में भी अन्तर
रहा। जहाँ सिंहल के चित्रों में मध्यम तानों में प्रयुक्त भूरे और धूमिल रंग थे।
वहीं बद्री ने हरिहर लाल मेढ़ जैसे चटक और खुले रंगों का प्रयोग किया। 'खेत की ओर',
'वर्षा में', 'रात में नौकाएँ, 'प्रतीक्षा, बारिश, 'पेड़ की छाँव में', 'गंगा
अवतरण', 'लंकादहन', 'गाँधी' आदि उल्लेखनीय चित्र हैं, जिसमें दार्शनिक, सामाजिक व
तकनीकी पक्ष को संतुलित रखते हुए कलाकार ने रचना की है।
बद्री
द्वारा बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में रचे गये चित्र प्रायोगिक दृष्टिकोण से अति
सराहनीय हैं, जो समकालीन कला में अपना स्थान बना पाये और वाश को क्षेत्रीय स्तर से
निकालकर समकालीन कला की मुख्य धारा से जोड़ते हुए वैश्विक पटल पर लाये। कला एवं
शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ के चित्रकला विभागाध्यक्ष और प्रधानाचार्य पद को सुशोभित
कर चुके बद्री नाथ आज भी नियमित रूप से कला साधना में स्वयं को व्यस्त रखते हैं।
माध्यम की दृष्टि से उनकी कला में कुछ परिवर्तन देखने को मिलता है। इस समय तैल रंग
में भी कुछ प्रयोग देखे जा सकते हैं पर इस माध्यम में भी अपनी रचना और शिल्प दक्षता
से बद्री दर्शक के समक्ष एक भ्रम पैदा करते हैं। तैल रंग की कई पतली परतों को इस
तरह प्रयोग करते हैं कि वह जल रंग का प्रभाव देने लगे। कैनवस को भी सैंड पेपर से
घिस कर वाश का ही प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
इस तरह से सदैव रचनाशील रहे बद्री ने अपने कई शिष्यों को 'लखनऊ वाश' का गुर देकर
देश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित किया है, जहाँ वे इस परम्परा को नई कला
प्रवृत्तियों के साथ जोड़ते हुए इस विशेष कला शैली को गौरव प्रदान कर रहे हैं।
११ नवंबर
२०१३ |