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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस माह प्रस्तुत है
ऑस्ट्रेलिया से रेखा राजवंशी की कहानी- गरमा-गर्म पकौड़े


सिंग मी टु स्लीप, द बुलेट्स फॉल
लेट मी फारगेट द वार एंड आल
डैम्प इज माई डगआउट कोल्ड इज माई फीट
नथिंग बट बिस्कुट एंड बुली टु ईट

गोलियाँ चल रही हैं, मुझे सुला दो
मुझे युद्ध और सब कुछ भूल जाने दो
मेरी खाई में नमी है, और मेरे पैर ठंडे हैं
खाने के लिए कुछ नहीं, बिस्कुट और बुली (बीफ) के सिवा।

लगभग १९१८ में, आर्ची ए. बारविक ने पहले विश्व युद्ध के दौरान अपनी डायरी में जब यह लोकप्रिय सैनिक का गीत लिखा था,गलीपोली की विषम परिस्थितियों में इतने महीनों से लड़ते-लड़ते हज़ारा सिंह और उनके साथी थक चुके थे। आज भारतीय भोजन की बहुत याद आ रही थी। हज़ारा सिंह को फ्रंट पर अक्सर याद आती हैं बीजी और उनसे ज़्यादा याद आते हैं उनके हाथ के बनाए हुए गर्मागर्म पकौड़े, लस्सी के बड़े से गिलास के साथ प्लेट भर प्याज और आलू के पकौड़े। जब भी इस बारे में सोचते तो घंटों उनकी जबान पर स्वाद बना रहता।

उन्हें याद आया कि सालों से बीजी को नहीं देखा। ऑस्ट्रेलिया पहुंचने से पहले भी उन्होंने ५ साल तक बर्मा में और ३२वीं सिख रेजिमेंट के साथ अफगानिस्तान में लड़ाई लड़ी थी। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वे ऑस्ट्रेलिया की सेना में भर्ती हो गए थे। हज़ारा सिंह को ब्रिटिश सेना के सैनिक के रूप में ३१ मार्च १९१६ को सिडनी, न्यू साउथ वेल्स से "स्टार ऑफ विक्टोरिया" जहाज़ से अलेक्जेंड्रिया भेजा गया। जहां से वे ब्रिटिश सैन्य बल के साथ गलीपोली भेज दिए गए।

हज़ारा सिंह ब्रिटिश सेना का हिस्सा बन कर आ तो गए थे पर उन्हें गलीपोली की जटिलताओं का भूल कर भी अहसास नहीं था। ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड की सेना के रूप में तब बहुत अधिक भारतीय नहीं थे, पर जो थे, समय मिलने पर रोटी, चिकन करी और सब्ज़ी बना लिया करते थे।
राशन इतना कम मिलता था कि पेट भर खाना तो सपना था, ज़िंदा रहने भर का खाना ज़रूर बन जाता था।
एक दिन थक कर अपने बंकर में लेटे ही थे कि तभी आवाज़ आई –
"सिंह, चपाटी मिलेगी क्या?"
हज़ारा सिंह की तन्द्रा टूटी और उनके थके शरीर में जैसे फुर्ती आ गई। उन्हें पता था कि खच्चर चलाने वाला सिंपसन ही था जो अक्सर कुत्ते की तरह उनके बंकर को सूंघता रहता। और करी की महक आते ही लार टपकाते उनके पास आ जाता। पर सिंपसन सबका चहेता था। हज़ारा सिंह को याद है कि करीब एक हफ्ते पहले ही वह सिंपसन से मिले थे, जब वह एक घायल भारतीय सैनिक को अपने खच्चर पर लेकर आया था। घुंघराले बालों वाला सिंपसन सदा मुस्कुराता रहता। उसे देखकर जैसे सबमें उत्साह भर जाता।
'हाँ - हाँ क्यों नहीं। थोड़ा इंतज़ार करना होगा, बस!" हज़ारा सिंह ने कहा।

"ओके, मैं थोड़ी देर में आएगा।" सिंपसन ने खुश होते हुए कहा और हज़ारा सिंह बचे खुचे आटे को गूँथने बैठ गए।
हज़ारा सिंह जानते हैं कि मात्र पंद्रह रूपए महीने वेतन पर जाने कितने भारतीय सैनिक ब्रिटिश सेना के लिए लड़ रहे हैं। भले ही गरीब हों पर जब मौका मिले, खाना वे खुद ही पकाना पसंद करते हैं।
"पाजी, बड़ी ज़ोर की भूख लगी है। कल की थोड़ी सी करी भी है। चपाती खा सकते हैं।" नैन सिंह की आवाज़ से उन्हें थोड़ी राहत मिली।
"चल ठीक है। नहीं तो रूखी चपातियां खानी पड़तीं“ उन्होंने धीरे से कहा और पत्तों में आग जलाकर चपातियां सेंकने लगे।

सच बात तो यह है कि महीनों से किसी को घर का खाना मिला भी कहाँ था? तोपों और गोलियों के बीच खाना आता भी कहाँ से? मांस, चावल, ब्रेड, जैम, कोको, चाय और एन्ज़ेक बिस्कुटों से सब ऊब चुके थे। युद्ध की विभीषिका में मिठाइयों के अतिरिक्त गरम पकौड़ों की भी बहुत याद आती थी।

पहला विश्वयुद्ध चल रहा है। विश्व के अधिकतर शक्तिशाली राष्ट्र इसमें जुड़ चुके है। गाँधी जी के सुझाव पर भारतीय भी ब्रिटिश सैन्य शक्ति के रूप में युद्ध में शामिल हो चुके हैं। भारतीय सेना के युद्ध के दौरान ८००,००० से अधिक पुरुषों ने सेना के लिए स्वेच्छा से भाग लिया है और ४००,००० से अधिक ने गैर-लड़ाकू भूमिकाओं - धोबी, ख़ानसामे, नाई और मज़दूर के लिए स्वेच्छा से भाग लिया है। १९ १५ में भारतीय सेना के लगभग १६,००० सैनिक - जिनमें गोरखा, सिख, मुस्लिम और हिंदू शामिल हैं, तुर्की में आठ महीने से गलीपोली अभियान में ब्रिटिश सेना के हिस्से के रूप में कार्य कर रहे हैं। हज़ारा सिंह जैसा दिलदार और बहादुर सैनिक पूरी सेना में शायद ही कोई हो। भारतीय सैनिक अपने हिसाब से लंबे चौड़े भले हों पर अंग्रेजों की तुलना में छोटे ही लगते हैं। कभी - कभी हज़ारा सिंह को लगता है कि वे सभी इस गलीपोली प्रायद्वीप में लड़ते लड़ते ही शहीद हो जाएंगे। इतिहास साक्षी है कि इन देशों ने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए कितने गरीब सैनिकों की बलि चढ़ाई है। और अब जर्मनी का नया सम्राट विल्हेम द्वितीय जर्मनी को विश्व शक्ति के रूप में परिवर्तित करने का भूत सवार है। जिसके कारण विश्व के अन्य देशों के लिए जर्मनी एक खतरा बन गया है।

और शुरू हो गया है विश्व युद्ध। अब इस युद्ध में अनेक देशों की सेनाएं शामिल हो गईं हैं। प्रमुख देशों में एक तरफ इटली, जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी और टर्की हैं, तो दूसरी तरफ मित्र देशों के रूप में ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और जापान और वर्ष १९ १७ के बाद से संयुक्त राज्य अमेरिका भी शामिल हो गया है। गलीपोली अभियान लंदन में विंस्टन चर्चिल के नेतृत्व में ब्लैक सागर (Black Sea) और एजियन सागर (Aegean Sea) के बीच जलमार्ग पर नियंत्रण करके युद्ध से तुर्क साम्राज्य को ख़त्म करने की योजना बनाई गई है। इसके बाद ‘मित्र राष्ट्रों’ की सेना ने प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका को रोकने के लिए अपने मुख्य शत्रुओं, जर्मनी और ऑस्ट्रिया-हंगरी को परास्त करने का निर्णय लिया है और तुर्की के गलीपोली पैननसुला में प्रवेश किया है।

परन्तु ‘गलीपोली’ की विषम परिस्थितियों का पहले किसी को आभास न था। अब यहाँ की गर्म जलवायु, पीने के पानी की कमी, प्रदूषित भोजन, सैनिकों के सड़े हुए मृत शरीर और गंदगी की वजह से मक्खियों के विशाल झुंड ने सैनिकों का जीना मुश्किल कर दिया है। शुद्ध हवा के अभाव में जाने कितने लोग मर रहे हैं। युद्ध क्षेत्र होने की वजह से इस इलाके में सैकड़ों किलो मीटर तक बस सिर्फ़ बदबू ही बदबू आती है।
हज़ारा सिंह तो अब ऑस्ट्रेलिया वापस जाने का सपना देखना भी भूल गए हैं। कुछ सच है तो सिर्फ गलीपोली का यह युद्ध क्षेत्र। चाहे कुछ भी हो वे इतना जानते हैं कि जिस देश का नमक खाया है उसके लिए जान भी देनी पड़े तो ख़ुशी - ख़ुशी दे देंगे।
"वाह क्या स्मेल है, चपाटी के साथ करी भी। आज तो पार्टी हो जाएगी मेरी।"
"खाना बना नहीं कि सिंपसन साहब हाज़िर हैं। लो खाओ ये रही आपकी प्लेट।"
हज़ारा सिंह ने भी मुस्कुराते हुए प्लेट उनको थमा दी। उनको सिंपसन बहुत अच्छा लगता है। उसके पास एक बिस्कुट भी हो न तो मिल बाँट के ही खाना चाहता है। यह उन गोरों की तरह नहीं है, जो उन्हें अपने से कमतर समझते हैं। वैसे भी भारतीय मूल के सैनिकों को अंगेज सैनिकों की तुलना में कम तनख़्वाह मिलती है, दूसरे राशन भी आधा दिया जाता है और तीसरे वे चाहें भी तो किसी भी कैंटीन में कुछ खरीद पाने का अधिकार उनको नहीं है।

हज़ारा सिंह जब परेशान होते हैं तो आँखे बंद करके लेट जाते हैं। और जाने कब उनका अतीत उनकी आँखों के सामने आ जाता है। याद आते हैं पिता, जो अपने परिवार के साथ नवाशहर, पंजाब में रहते थे। घर में पैसा कम था, पर सब खुश थे। भारत की आज़ादी की लड़ाई शुरू हो चुकी थी। उनके दोनों भाई दलीप सिंह और जशील, नवाशहर में ही थे। शायद उनकी अब तक शादी भी हो गई हो। या वे भी स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए हों। अच्छे जीवन की तलाश में हज़ारा सिंह १३ अप्रैल १८९७ को कलकत्ता से सिडनी, ऑस्ट्रेलिया आ गए। ऑस्ट्रेलिया में न्यू साउथ वेल्स के गुंडागई इलाके और उसके आसपास वे एक फेरीवाले के रूप में काम करने लगे थेऔर जल्दी ही पास के शहर ब्रंगल में बस गए थे, जहाँ उन्होंने १९०८ में एक स्टोर भी खोल लिया था।

ऑस्ट्रेलिया पहुंचने से पहले हज़ारा ने पांच साल तक बर्मा में लड़ाई लड़ी थी और ३२वीं सिख रेजिमेंट के साथ अफगानिस्तान में। एक बहादुर सिख परिवार से थे आखिर। जिसमें जाने कितने पुरखों ने देश के लिए कुर्बानियां दीं थीं। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उनके खून ने फिर उबाल मारा और वे दिसंबर १९ १५ को न्यू साउथ वेल्स में ‘ऑस्ट्रेलियाई इंपीरियल फोर्स’ में भर्ती हो गए। १९ १६ में हज़ारा सिडनी से "स्टार ऑफ विक्टोरिया" जहाज़ पर सवार होकर अलेक्जेंड्रिया पहुंचे, और ब्रिटिश सैन्य बल में शामिल हो गलीपोली पहुँच गए।

उनके गलीपोली पहुँचने के बाद स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही थी। तुर्की के सैनिक गलीपोली के चप्पे - चप्पे से वाकिफ़ थे, और इसी बात का फायदा उठा कर वे हमला कर रहे थे, जिससे मित्र फ़ौज के बहुत से सैनिक हर रोज़ मर रहे थे। मौसम भी अनुकूल नहीं था। गर्मियों में वहाँ बहुत गर्मी होती और सर्दियों में इतनी ठंड होती कि इतनी मोटी यूनिफॉर्म में भी सैनिक थर-थर कांपते। रोज़ नई बीमारियाँ फ़ैल रहीं थीं। लोग मर रहे थे और उनको दफनाने तक की सुविधा नहीं थी। प्रदूषण इतना बढ़ गया था कि सांस लेने के लिए साफ़ हवा नहीं बची थी। तरह - तरह की बीमारियाँ फैल रहीं थीं।

सब लोग दुखी थे। पर ज़िंदा रहने के लिए कभी कभी दुःख में भी सुख ढूंढना ज़रूरी हो जाता है। उस दिन सेना को राशन मिला ही था, उनकी बंकर के सैनिकों ने आज खाना बनाने की सोची। वैसे भी कल रहें, न रहें क्या पता ? कम से कम आज तो पेट भर के खा लें। फ्रंट पर आज कुछ शांति भी थी, सो सबने मिलकर चपातियाँ और करी बनाईं। चपातियाँ और करी बने और सिंपसन ऐसे मौके पर न पहुंचे ये तो संभव ही नहीं था। जैसे उसकी नाक में करी की खुशबू सूंघने के स्पेशल यंत्र फिट हों, वो भी तुरंत ही आ धमका। कई दिन बाद सबने स्वाद लेकर ताज़ा खाना खाया। कुछ सैनिक परिवार को याद करके रोये और कुछ बहादुरी के जज़्बे में रहे 'अब जो भी होगा, देखा जाएगा।' उन सबसे कम उम्र के नैन सिंह ने पंजाबी गाना भी गया। शायद वही दिन हज़ारा सिंह की ज़िन्दगी में यादगार दिन बन कर रह गया था। क्योंकि उसके पंद्रह दिन बाद सिंपसन के मारे जिसने की खबर मिली, उसके इस तरह चले जाने से हज़ारा ही नहीं सबका मन टूट गया।

जॉन सिंपसन किर्कपैट्रिक, हाँ यही उसका पूरा नाम था, वह तब मात्र बाइस साल का युवा था, उसका जन्म इंग्लैंड में हुआ था। १९ १० में मर्चेंट नेवी से अलग होने के बाद, उसने पूरे ऑस्ट्रेलिया में भ्रमण किया और विभिन्न प्रकार की नौकरियों में काम किया। फिर वह यह उम्मीद करते हुए ए आई एफ में भर्ती हुआ कि इस तरह उसे इंग्लैंड वापस जाने का मौका मिलेगा। पर सिंपसन को अन्य लोगों के साथ अप्रैल १९ १५ में ANZAC कोव में भेज दिया गया था। उसे अपने खच्चर पर घायल सैनिकों को युद्ध स्थल से उठा कर लाने का काम दिया गया, जिसे वह ख़ुशी - ख़ुशी करता। अपनी खुश मिजाज़ी के कारण वह सैनिकों के बीच लोकप्रिय हो गया था। इतने कम समय में ही वह भारतीय सैनिकों से भी वह घुल मिल गया था। अन्य लोगों की तरह हज़ारा सिंह उसे बहुत पसंद करते थे । किसे पता था कि इंग्लैंड जाने का सपना सजाए सिंपसन मात्र चार सप्ताह से भी कम समय में उन्हें छोड़ कर दूसरी दुनिया में चला जाएगा। जब खबर मिली तो हज़ारा सिंह के दिल में एक टीस उठी और आंसू का एक कतरा उनकी आँखों से गिरने से पहले ही सूख गया। कभी - कभी अनजान लोग परिवार से बढ़ कर आपके अपने बन जाते हैं और सिंपसन जाने कब उनके दिल का एक टुकड़ा बन गया था।

उसके जाने का दुःख तो था ही, पर उन दिनों गलीपोली में लोग कई तरह की बीमारियों के चपेट में भी आ रहे थे। इनमें विशेष रूप से पेट ख़राब होना (पेचिश) सबसे प्रमुख था, और शौच की कोई व्यवस्था न होने से प्रदूषण बढ़ने लगा। इसके अलावा भी सैनिक पीलिया, अल्सर, सर्दी-खांसी जैसी बीमारियों से ग्रस्त होने लगे ।
ऐसे में हज़ारा सिंह भी बीमार हो गए। उन्हें साँस लेने में परेशानी होने लगी। अस्थमा से पीड़ित होने पर हज़ारा को पहले फ़्रांस के अस्पताल में भर्ती कराया गया था। फिर उन्हें इंग्लैंड में जनरल अस्पताल में शिफ्ट कर दिया गया। उन्हें याद है जब वे अस्पताल में थे तो उनके गाँव के पास का एक सिख भारतीय परिवार उनसे मिलने आया।
"पाजी, मैं खुशवंत और ये पम्मी। आपके बारे में पिंड से पता चला था। आप अस्पताल से निकलने के बाद कुछ दिन हमारे साथ रहें। आपको आराम की ज़रुरत है।"
"जी, अब हम आते रहेंगे। कुछ खाने का मन हो तो बता दें" पम्मी कह रही थी।
सुन कर हज़ारा सिंह की आँखें नम हो आईं। वे अपने साथ हज़ारा सिंह के लिए खाने का डिब्बा लाए थे। जाने क्यों सलवार सूट पहने उस महिला को देखकर हज़ारा सिंह को अपनी बीजी की याद आ गई।
उस दिन महीनों बाद उन्होंने घर का खाना नसीब हुआ था। कुलवंत और पम्मी लगातार उनसे मिलने आते रहे और लगभग महीने भर बाद अस्पताल से डिस्चार्ज हुए तो कुलवंत उन्हें अपने घर ले आए।
घर पहुँचे तो देखा कि पम्मी उनके लिए प्याज और आलू के गर्मागर्म पकौड़े और लस्सी बना रही है। जैसे उनके मन की मुराद पूरी हो गई। इस वक्त शायद हज़ारा सिंह कुछ और भी मांगते तो उन्हें वो भी उस दिन मिल जाता। बरसों बाद चटनी के साथ जब पकौड़े खाए तो पम्मी को मन ही मन उन्होंने जाने कितनी दुआएं दे डालीं। घर के खाने और देखभाल से हज़ारा सिंह तन और मन से स्वस्थ होने लगे।

उन्हीं दिनों उनकी मुलाक़ात पड़ोस में रहने वाली ब्रिटिश लड़की एडा से हुई। जाने कैसे दोनों एक दूसरे को दिल बैठे। हज़ारा सिंह पजाब के गबरू जवान, खुशमिजाज़ और जीवन से भरपूर। उन दिनों सैनिकों के प्रति सबके मन में आदर था। वे अक्सर खुश रहते, रात को खाना खाते समय लोग उनसे युद्ध के किस्से सुनाने को कहते, जाने कब पम्मी की पड़ोसी एडा भी आकर बैठ जाती, और मंत्रमुग्ध सी उनके किस्से सुनती रहती। इतने सालों तक आर्मी में काम करने के कारण हज़ारा सिंह अंग्रेजी भी ठीक-ठाक थी, तो एडा को उनकी बात समझ भी आ जाती।
अब ब्रिटिश अफसर बीमारी के चलते उन्हें युद्ध में नहीं भेज सकते थे। अतः उन्हें मार्च १९१७ में "बेल्टाना" जहाज़ से इंग्लैंड से ऑस्ट्रेलिया भेज दिया गया।

हज़ारा सिंह ऑस्ट्रेलिया तो लौट आए, पर अपना दिल इंग्लैंड में ही छोड़ आए। उनके स्वास्थ्य को देखते हुए जून १९१७ को उन्हें ए.आई.एफ. से छुट्टी दे दी गई। हालाँकि सेवा निवृत्ति के बाद उन्हें ब्रिटिश युद्ध पदक और विजय पदक से सम्मानित किया गया।

हज़ारा सिंह वापस इंग्लैंड गए और सितंबर १९ १७ को 'एडा' के साथ शादी की और पत्नी को साथ लेकर गुंडागई में अपने घर लौट आए। जब वे ऑस्ट्रेलिया पहुंचे तो बसंत का मौसम था। बसंत के रंग बिरंगे खुशबूदार फूलों ने उनका स्वागत किया, पंछियों ने चहचहा कर टप्पे गए और बारिश की हलकी फुहारों ने उन्हें पिंड याद दिला दिया।
वे दौड़कर घर के बगल में बने अपने स्टोर तक गए, तेल और बेसन ले आए।

हज़ारा सिंह ने गरमागर्म पकौड़ों और चाय के साथ जब एडा का स्वागत किया, तो उसके गोरे चेहरे पर मुस्कराहट की लाली छा गई। और उन्होंने पहली बार महसूस किया कि बरसों से उनका खाली मकान अब घर बन गया है।
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(अस्वीकरण - प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों की सराहनीय भूमिका रही है। ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड से भी भारतीय मूल के सैनिकों (ANZACS) ने बड़ी वीरता से इस युद्ध में हिस्सा लिया था। यह कहानी इस सच पर आधारित ज़रूर है पर इसमें कई बातें काल्पनिक हैं। कृपया पाठक इस बात का ध्यान रखें और हर बात की प्रमाणिकता की जाँच न करें)

 

१ जुलाई २०२४

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