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					 १२ 
					अगस्त १९४५! दूसरी बड़ी लड़ाई का समय! लेबनॉन के यहूदी लोग 
					छोटे-छोटे समूहों में छिप कर अपनी ज़मीन पर अपना देश बनाने का 
					सपना लिये शहरों से चुपचाप निकलने की ताक में थे। शहर उनके 
					खिलाफ हो रहा था, देश उन्हें ज़िंदा या मुर्दा बाहर खदेड़ने की 
					योजनायें बना रहा था। लोग एक दूसरे के चेहरों में विश्वास और 
					अविश्वास के साये नाप रहे थे। 
 ऐसे में मि.बेन-अब्राहम के घर के अहाते में वह लड़की घुसी। 
					चेहरे से बदहवास और बेहद थकी हुई लड़की, जिसकी पोशाक से गाँव की 
					घास और सड़कों की धूल की मिली जुली बू आ रही थी। रात का करीब ११ 
					बजा होगा जब दरवाज़े पर ज़ोर से खट-खट की आवाज़ हुई थी। 
					मि.बेन-अब्राहम आजकल एक आँख से सोते हैं। ज़माना ही ऐसा है कि 
					दोनों आँखों से सोने का मतलब है, मौत और एक अकेले अपने ही बात 
					हो तो चलो कभी आँख लग भी जाये पर उनके निकट-दूर के अनेक 
					रिश्तेदार भी अब अपने ज़रूरी सामान के साथ उनके घर आकर रह रहे 
					थे।
 
 उनका घर राजधानी से दूर सिडान शहर की दक्षिणी सीमा पर बना हुआ 
					है अत: शहर सामान लाने ले जाने के रास्ते पर है। इस दृष्टि से 
					लोगों की पैनी निगाहों से कुछ हट कर, लेकिन सुविधापूर्ण स्थान 
					पर है अत: आस पास के गाँवों में रहने वाले उनके रिश्तेदारों को 
					उनके घर आकर रहना ही सुरक्षित लगा था। अब बच्चे और बड़े, कुल 
					मिला कर उनके घर इक्कीस लोग थे जिनमें उनका खुद का १७ साल का 
					इकलौता बेटा शामिल नहीं था। वह ब्रिटिश फौज में शामिल होने के 
					लिये तीन साल पहले ज़बरदस्ती पकड़ बुलाया गया था। उनका अपने बेटे 
					को रोकने का कोई भी प्रयास कामगर साबित नहीं हुआ।
 
 मि. बेन-अब्राहम किसी ज़माने में सरकारी नौकर रह चुके थे। इस 
					शहर में आकर अपनी मछली बेचने की दुकान खोलने से पहले लगभग १३ 
					साल उन्होंने सरकारी न्यायालय में नोट लेने वाले की हैसियत से 
					काम किया था। उनके द्वारा कोर्ट के नोट और कार्यवाही सलीके से 
					लिखी होती थी और अच्छी बात यह थी कि सटीक और सत्य होती थी। 
					उनकी काबलियत को सराहते हुये, नौकरी छोड़ने पर उन्हें दफ्तर की 
					गोल्डन सील वाली एक चिट्ठी भी दी गई थी। मि.बेन-अब्राहम जानते 
					थे कि आज उस चिट्ठी पर भरोसा करके कोई निर्णय नहीं लिया जा 
					सकता पर घर के शेष सदस्य जानबूझ कर यह मानना चाहते थे कि आखिर 
					उस चिट्ठी का बुरी परिस्थितियों में कोई तो अच्छा उपयोग हो 
					सकेगा। एकाध बार मि.बेन-अब्राहम ने समझाना भी चाहा पर जब 
					उन्होंने देखा कि वो चिट्ठी तिनके का सहारा बन कर घर के लोगों 
					को हिम्मत बँधा रही है तो वे चुप हो गये। वे जानते थे जब सिमहा 
					को सरकार के लोग सेना में भरती होने का आदेश देने आये थे तो उस 
					चिट्ठी और उनके और मिसेज़ बेन-अब्राहम के आँसुओं ने कोई काम 
					नहीं किया था। सिमहा उनका इकलौता बेटा, दुकान में उनका और घर 
					में माँ का दायाँ हाथ था पर सरकारी निर्णयों के आँखॆं और कान 
					नहीं होते।
 
 जब रात ग्यारह बजे कुंडा खटका तो वे पास मेज़ पर रखी पिस्तौल ले 
					कर कमरे से बाहर निकले। बाहर ठंडी हवा में काँपती, थकी हुई सी 
					एक लड़की खड़ी थी जो देखने से १४-१५ साल की लगती थी। 
					मि.बेन-अब्राहम ने पहले हैरानी से उसे देखा, फिर चारों ओर 
					सतर्क निगाह डाली पर कहीं कोई दिखाई नहीं दिया। नज़रें लड़की पर 
					वापस लाते हुये भी वे कनखियों से बाहर की तरफ देख रहे थे । 
					आजकल लड़कियों और बच्चों का इस्तेमाल कर के दूसरे के घरों में 
					घुसने वालों के किस्से उन्होंने सुन रखे थे।
 “कौन हो तुम और क्या चाहिये?”
 लड़की ने हकला कर धीमी आवाज़ में कहा, “अलुश्का"
 मि.बेन-अब्राहम ने आवाज़ में छिपे डर को सुना पर आधी रात किसी 
					का आना अब भी उन्हें अचंभित किये था और जो आधी रात को एक अजनबी 
					का दरवाज़ा खटखटा सकती है वह इतनी भी डरपोक नहीं होगी कि जैसी 
					उसकी आवाज़ थी। इस बार उन्होंने ज़ोर से कहा,
 “तुम्हारे साथ कौन आया है? और क्या चाहिये तुम्हें?”
 लड़की उनकी ऊँची आवाज़ से कुछ और सिकुड़ गई, इस बार धीमी पर साफ 
					आवाज़ में बोली,
 “मैं अकेली हूँ और शहर से भाग कर बचते-बचाते इस समय आ पाई हूँ। 
					आपके बेटे सिमहा की दोस्त हूँ।"
 सिमहा का नाम मि.बेन-अब्राहम के लिये करेंट जैसा काम किया। 
					संभाल कर नज़र इधर-उधर डाली। इस बार की नज़र उस नाम को किसी के 
					कानों में न पड़ जाने से बचाने को थी जब कि पहले वाली नज़रें 
					किसी छिपे खतरे को ढूँढने वाली थीं।
 अबकी तहकीकात करते समय उनकी आवाज़ हल्की थी,
 “सच कहती हो, सिमहा की दोस्त हो? कोई सबूत है?”
 अलुश्का ने मोटे शाल के भीतर कुछ खड़खडाहट की, वह इस तरह के 
					प्रश्न के लिये तैयार थी। फिर एक कागज़ की पीली सी तुड़ी मुड़ी 
					पर्ची निकाल कर मि.बेन-अब्राहम के आगे बढ़ा दी।
 
 उन्होंने रिवाल्वर जेब में रख कर हाथ की टार्च को कागज़ खोल, उस 
					पर गड़ा दिया। उस पर्ची पर सिमहा की लिखाई में उसका पूरा नाम और 
					घर का पता लिखा था। मि.बेन-अब्राहम एक मिनट को अचकचा कर रह 
					गये। पति को ढीला पड़ता देख मिसेज़ बेन-अब्राहम जो अब तक दरवाज़े 
					की आड में खड़ी थीं, कुछ आगे आ गईं।
 
 “क्या है यह?” वो फुसफुसाईं। आजकल औरतें ऐसा ही करती हैं, जब 
					तक पति सचेत रहता है तो उसके कुछ पीछे खड़ी उसके निर्देश पर 
					नज़र गड़ाये खड़ी रहती हैं पर जैसे ही पति कुछ ढीला होता दिखाई 
					दिया तो कमान सँभालने उसके बराबर आ खड़ी होती हैं। उनसे यही 
					अपेक्षा होती है कि वे ऐसा करें।
 मि.बेन-अब्राहम ने कुछ पीछे मुड़ कर हाथ की पर्ची उनके हाथ में 
					दे दी। मिसेज़ बेन-अब्राहम ने उसे देखते ही सिमहा की लिखाई 
					पहचान ली। पीछे से ही कुछ कड़ी आवाज़ में बोलीं, “किसने दी 
					तुम्हें?”
 लड़की जानती थी कि प्रश्न उसी के लिये है, बोली:
 “सिमहा ने ही दी, लगभग ढाई- तीन साल पहले जब वह मिलिट्री 
					ट्रेनिंग के लिये हमारे शहर "विलायत बेरूत" से ले जाया जा रहा 
					था। उसने कहा था कि कोई मुसीबत हो तो मेरे घर चली जाना"! आखिरी 
					वाक्य उसने धीमी आवाज़ में रुक-रुक के कहा।
 मिसेज़ बेन-अब्राहम को लड़की की आवाज़ सच लगी। अब उन्होंने तुरंत 
					असमंजस में खड़े अपने पति को पीछे से टोहका लगाया,
 “अंदर लेकर आओ इसे, बाहर खड़े रहने से ज़्यादा खतरा है"
 "खतरा" शब्द में छिपे सारे डरों को समझ, बिना देर करे वे उसे 
					अंदर ले आये और कुछ सैकन्डों में ही उस घर का दरवाज़ा बंद हो 
					गया।
 
 अगस्त की गर्मी भरी रात थी पर लड़की काँप रही थी। मिसेज़ 
					बेन-अब्राहम ने जब यह देखा तो उसे कुर्सी पर बिठा कम्बल लाने 
					चलीं गईं। उनके पति ने यह कह कर अपने बिस्तर की राह ली कि सुबह 
					बात करेंगे और उनकी बीबी उसे लेटने की जगह दिखा देंगी। जूली 
					यानि मिसेज़ बेन-अब्राहम, रसोई में जलने वाले अलाव में और छोटी 
					लकडियाँ डाल उसे तेज़ कर रहीं थीं ताकि उस लड़की को कुछ और नहीं 
					तो गरम दूध और काक (ब्रेड) ही दे दें। रसोई में यह अलाव रात 
					में सुलगता छोड़ दिया जाता है ताकि रात किसी को गरम पानी-दूध की 
					ज़रूरत हो तो चार-छह छोटी लकडियाँ डाल कर सुलगा ले। सर्दियों 
					में यह अलाव घर के लोगों से वैसे भी देर रात तक घिरा रहता।
 
 जूली जब तक दूध लेकर आईं, लडकी कुर्सी पर ही ऊँघ गई थी उसे 
					उनके आने का पता न चला। उन के लिये यह यह अच्छा मौका था उसे 
					देखने का! लड़की पतली -दुबली थी और सोते समय भी उसके पीले चेहरे 
					पर भूख, प्यास, डर और आशंकायें फैली थीं। उन्हें उस लड़की में 
					खुफिया होने या खतरे वाले कोई लक्षण नहीं दिखे बल्कि वह ही अब 
					उन सबके बीच खतरों से खेल कर आ गई है। सबका ध्यान आते ही उन के 
					तेज़ दिमाग ने योजना बनानी शुरू कर दी। वो घर में बैठे इतने 
					लोगों की चिन्ताओं का केन्द्र इसे नहीं बना सकतीं। हर कोई 
					असुरक्षित है और हर असुरक्षित व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से डरता 
					है और यह डर हमें सच नहीं देखने देता, आशंकाओं भरी कल्पनाओं 
					में उलझाता है। वे यह सब जानती हैं कि ऐसे ही समय में लोग 
					अँधेरों में भूत देखने लगते हैं। उन्होंने सोचा कि वे बेकार के 
					डरों में न उलझ कर इसे सिमहा की दोस्त के रूप में ही सुबह सब 
					के सामने पेश करेंगी ताकि लोग बेकार के सवाल कर के इसे खुफिया 
					साबित करने पर न तुल जायें पर साथ ही खुद इससे सवाल करेंगी और 
					नज़र रखॆंगी ताकि उनका परिवार सुरक्षित रह सके।
 
 पर इस समय इसे कहाँ सुलाया जाये? घर के चारों सोने के कमरे 
					लोगों से भरे हैं और ज़्यादा खटपट करने से लोगों के उठ जाने का 
					खतरा है। उन्होंने हाथ के दूध के गिलास को पास की मेज़ पर रखा 
					और कुछ सोचते हुये भीतर से तीन कम्बल उठा लाईं। दो कम्बलों को 
					उन्होंने दोहरा करके बिस्तर बनाया और एक कम्बल किनारे रख लड़की 
					को धीरे से झिंझोडा। लड़की चौंक के उठ बैठी। बिस्तर की ओर इशारा 
					करते हुये उन्होंने उसे दूध पीने को दिया जिसे वो लड़की एक घूँट 
					में खत्म कर गई। अपने शाल को उतार कर सिरहाने रख वो कम्बल को 
					ऒढ कर लेट गई। जूली की आँखों में नींद नहीं थी, इस एक किस्से 
					में छिपे कई अनजान किस्सों की संभावनाएँ उनके दिमाग में 
					चहलकदमी कर रहीं थीं। लड़की लेटते ही फिर ऊँघ गई थी, शायद सो ही 
					गई हो। सुबह के लिये अपनी कहानी तैयार करती जूली को बहुत सी 
					उलझनें हो रहीं थीं।
 
 वो कुछ भी तो नहीं जानतीं, बस इतना कि इसका नाम अलुश्का है जो 
					कि नये प्रचलन वाले यहूदी लड़कियों के नामों जैसा है। उसके पास 
					सिमहा के हाथ की लिखी पर्ची है। सिमहा सब को तो अपने घर का पता 
					लिख कर नहीं देगा सो मतलब यह कि सिमहा और इसके बीच कुछ तो 
					संबंध रहा है। सिमहा दो साल, दस महीने और १६ दिन पहले उनसे दूर 
					ले जाया गया। ट्रेनिंग कैंप और उसके पहले पड़ाव से तो उसके पत्र 
					आते रहे पर पिछले कई महीनों से जब से लड़ाई तेज़ हुई है उसके 
					पत्र नहीं आ रहे। यह स्वाभाविक ही है, लड़ाई के दिनों में पत्र 
					कहाँ आ पाते हैं। वे लोग अखबार से सब हाल लेते और अंदाज़े लगाते 
					कि सिमहा कहाँ होगा। आज उसकी लिखाई की पर्ची ने जूली की आँखॆं 
					नम कर दीं। लड़का गर्मी-ठंड में, फटते बमों के बीच जाने कहाँ 
					भागता फिरता होगा और वो यहाँ घर की दीवारों के बीच, आरामदेह 
					बिस्तर पर हैं! वो अकुला के उठ बैठीं।
 
 अक्सर जब ऐसे ख्याल उन्हें आते तो वो बेचैन हो कर उठ बैठतीं। 
					मि.बेन-अब्राहम उनकी हालत जानते थे और यह भी कि चिंता से वो 
					बीमार हो जायेंगी सो प्यार से थपकते हुये उन्हें लिटा देते पर 
					आज तो उन के पति हैं नहीं पास में, उनके पास तो यह लड़की लेटी 
					है जो अपने को सिमहा की दोस्त कहती है, कहती है कि बेरूत से आई 
					है, पर वो तो बहुत दूर है तो यह आई कैसे यहाँ? कब की चली हुई 
					होगी? कहाँ रही होगी बीच के दिनों में? और यहीं क्यों आई? यह 
					तो जानती है कि सिमहा यहाँ नहीं है? किस परिवार से है? अरब है 
					कि यहूदी? नाम तो यहूदी है पर कोई माथे पर तो लिखा नहीं है कि 
					कौन अरब है और कौन यहूदी? आदमी तो फिर दाढ़ी से पहचाने जाते 
					हैं पर औरतों के पास तो ऐसा कोई निशान होता नहीं है। वैसे भी 
					औरतों की एक ही जात होती है, औरत!! आदमी का नाम, जाति, काम और 
					धर्म होते हैं, औरत का एक ही धर्म है, औरत होना और सारी 
					सांस्कृतिक अपेक्षाओं को पूरा करना! आदमी लड़ता है और जीती जाती 
					है औरत! आदमी योजनाएँ बनाता है और उन योजनाओं के पहियों का तेल 
					बनती है औरत, आदमी मरता है और उजड़ती है औरत! औरत जब प्रश्न 
					करती है तो झिड़कियाँ खाती है, सलाह देती है तो बेवकूफ कहलाती 
					है!
 
 जूली यह सब अनुभव से जानती हैं। वो इस लड़की के बारे में सोचने 
					लगीं, कहाँ से, कैसे आई यह? अचानक ही पूछ बैठीं, “कब चलीं थीं 
					अपने घर से?” अनजान जगह पर सोती हुई लड़की, सोते हुए भी अपनी 
					छठी इंद्रिय खोल कर सो रही थी, कुनमुनाई और फिर बुद्बुदा कर 
					बोली, “जुम्मे को!!”
 उसके यह कहते ही जूली को जैसे बिजली छू गई, लड़की भी सोता नींदी 
					में निकले शब्द की प्रतिक्रिया को पहले से ही समझ काठ की हो 
					गई!
 कुछ देर केवल रसोई से काठ के कड़कड़ाने की आवाज़ और बाहर तेज़ हवा 
					की आवाज़ उन दोनों के बीच बहती रही। लड़की कपड़ों की इतनी तहों के 
					नीचे भी जूली की नुकीली निगाहों से छिल रही थी। कुछ मिनट वह यह 
					बर्दाश्त करती रही पर जब उसे लगा कि वे उसके सच का इंतज़ार कर 
					रही हैं तो वह उठ कर बैठ गई। वाकई में जूली का कोमल चेहरा कड़ा 
					हो गया था और नीली-हरी आँखॆं गुस्से से और गहरी हो गईं थीं।
 
 लड़की ने उनकी आँखों की तरफ क्षण भर देखा फिर नज़र नीची कर ली। 
					उसे सिमहा की कंचों जैसी नीली और हरी आँखें याद आईं जो बिल्कुल 
					अपनी माँ जैसी थीं। उसे लगा कि इससे पहले कि मिसेज बेन-अब्राहम 
					का इंतज़ार और धैर्य दोनों चुक जायें और वे उसे इस भरी रात में 
					घर से बाहर फिंकवा दे, उसे सच कहना ही होगा। वो घुटने सिकोड़ कर 
					बैठ गई और गरदन नीचे कर के बोलने लगी,
 “लगभग तीन साल पहले मुझे वो मिला था, आपका बेटा... बेरुत में, 
					बहुत से ट्रक भर कर जा रहे थे लड़ाई की ट्रेनिंग के लिये। तीन 
					दिन रुके वे ट्रक बेरुत में। उन्हें और सिपाही भर्ती करने थे। 
					मेरा बड़ा भाई और तीन चचेरे भाई भी भर्ती किये गये। वे लोग 
					घर-घर जाकर १५-१६ साल के लड़कों को भर्ती कर रहे थे। मेरा भाई 
					१५ का हुआ ही था जब वे उसे भर्ती करने आ गये। वो हम तीनों 
					बहनों के बीच का है। मैं तब १३ साल की थी। मैं घर में उसकी 
					सबसे ज़्यादा चहेती बहन थी, हर समय उसके पीछे लगी रहती थी। जब 
					वे उसे भर्ती कर के ले कर चले तो मैं बहुत रोयी और ज़िद्द कर के 
					पिता जी के साथ छावनी तक गई। वहाँ उसी की उम्र के बहुत से लड़के 
					थे। वो तो सब से मिल कर बहुत खुश हो रहा था पर मैं बहुत दुखी 
					थी। पिता जी छावनी के बड़े साहब से बात कर के कागज़ भरने लगे और 
					मैं अकेली कुछ दू्र, एक पत्थर पर उदास हो कर बैठी थी। कुछ देर 
					बाद एक लड़का वहाँ आकर बैठ गया। वो मेरे भाई जितनी उम्र का था, 
					वो आपका बेटा सिमहा था!”
 
 जूली, जो कुछ मुँह मोड़े लड़की के झूठ बोलने की नाराज़गी मन में 
					लिये बैठी थीं, सिमहा के नाम से उत्सुक हो आईं। गरदन लड़की की 
					ओर मोड़ उसको देखती हुई कहानी सुनने लगीं, जब उन्होंने कुछ नहीं 
					कहा तो लड़की ने अपनी कहानी फिर शुरू की,
 “उसने ही मुझे अपना नाम बताया। उसने मुझ से पूछा कि क्या मैं 
					भी फौज में भर्ती होने के लिए आई हूँ?”
 उसने यह बात इतने भोलेपन से पूछी थी कि मैं खिलखिला कर हँस 
					पड़ी। वो मुझसे बड़ा था पर कितना भोला था। मेरे हँसने से वो 
					शर्मा गया पर अपनी गलती भी समझ गया। मुझे अपने भाई की चिन्ता 
					थी सो सारी बात बता कर मैंने उससे कहा कि वो मेरे भाई का दोस्त 
					बन जाये ताकि मेरे भाई को घर की याद कम आये। मेरे चाचा के लड़के 
					बडे थे और उस पर धौंस जमाते थे सो जब सिमहा ने कहा कि वो मेरे 
					भाई का दोस्त बनेगा तो मुझे बहुत अच्छा लगा कि कोई तो मेरे भाई 
					के साथ होगा। फिर उसने मुझ से मेरे बारे में पूछा। इसके बाद 
					पिता जी आ गये। मैं अपने भाई को अभी अलविदा नहीं कहना चाहती थी 
					और अगले दिन मुझे सिमहा से बात कर के यह पक्का करने का मन भी 
					था कि वो मेरे भाई का दोस्त हुआ कि नहीं।
 
 खैर, मेरे बहुत ज़िद्द करने पर पिताजी और मैं उस रात उनके एक 
					दोस्त के घर में रहे जो कि छावनी के एकदम पास में था। अगले दिन 
					हम भाई से फिर मिले। सिमहा से भी मैं मिली। मेरे भाई से उसकी 
					दोस्ती हो गयी थी। सुन कर मुझे राहत मिली। उस दिन सिमहा ने 
					मुझे आप सब के बारे में बताया। उसे आप सब की बहुत याद आ रही थी 
					खास कर आप की। उसने आप के हाथ की बनी रोटी का टुकड़ा भी मुझे 
					खिलाया जो बहुत मीठा और अच्छा था। उसे यह घर, अपना कमरा, आगे 
					के खेत सब बहुत याद आ रहे थे। छावनी में सभी लड़के अपने-अपने घर 
					की याद कर रहे थे सो उनके सामने वह यह सब कुछ नहीं बोलना चाहता 
					था। फिर फौज में जानेवाले लड़कों को कड़ा बनने की ट्रेनिंग दी जा 
					रही थी, कोई ऐसे रो भी तो नहीं सकता था। आखिर वह लड़का था, लड़की 
					नहीं।"
 वह साँस लेने रुकी कि देखा कि मिसेज़ बेन-अब्राहम के आँखों से 
					आँसू बह रहे हैं। अपने बिछुडे बेटे का चेहरा उनके सीने में गड़ा 
					है, आज उस चेहरे का बयान कोई और कर रहा था, उन्हें लगा कि मन 
					हुमक कर गले में फँस जायेगा। वही तो सिखाती रही उसे हमेशा कि 
					"लड़के हो कर रोते नहीं”! वो पूछता था, ”क्यों?” फिर आगे बहसता, 
					“तो फिर लड़कों के आँसू क्यों बनते हैं? टीयर ट्यूब तो उनके भी 
					होती है न माँ? वो भी रो सकते हैं”! घर पढाने के लिये जो 
					मास्टर आते थे, वो हमेशा सिमहा के बुद्धिमान होने की तारीफ 
					करते थे पर जब वह ऐसे बहसता तो वो झल्ला जातीं, कहतीं, "बस जो 
					कहा है उसे मानो", उनके पति के सामने जब कभी यह झगड़ा होता तो 
					वो उन्हें टोकते, “तुम चाहती हो कि वह बुद्धिमान भी हो पर 
					बुद्धुओं की तरह बिना सोचे तुम्हारी बात मान भी ले, ये कैसे 
					संभव है?”
 पर उसने उनकी बात मान ली, भर्ती करने वाले ट्रक में बैठते हुये 
					रोया नहीं। चेहरा उदास ज़रूर हो गया था उसका। वो ख्यालों में से 
					बाहर आईं।
 
 वो लड़की बोल रही थी, “उस दिन हम लगभग पूरा दिन वहाँ थे। पिताजी 
					भाई को लेकर दर्जी के पास, जूते वाले के पास, बिस्तरबंद वाले 
					के पास छावनी में ही घूमते रहे और मैं उसी पत्थर पर बैठी रही। 
					सिमहा से बहुत सी बातें हुईं..”, कहते हुए वो शर्मा गई और नीची 
					नज़र से ज़मीन को देखने लगी। कुछ क्षण रुक कर बोली, “उसी दिन 
					उसने वो पर्ची दी थी अपना नाम और पता लिख कर, साथ ही यह कह कर 
					कि अगर मुझे कोई परेशानी हो तो मैं यहाँ आ जाऊँ क्योंकि उसके 
					पिता सरकार में काम कर चुके हैं इसलिये वो सुरक्षित हैं और साथ 
					ही यह भी कि वह एक दिन मुझे यहाँ ले आयेगा। मुझे लिखना/पढ़ना 
					नहीं आता था सो मैंने उसे अपना नाम और अपने मोहल्ले का नाम बता 
					दिया। उसने कहा कि वह मुझे याद करेगा।"
 जूली इस सारी प्रेमकहानी के बीच एक बार भी न हूँ-हाँ बोली और न 
					ही हिलीं। लगता था कि वे कहानी सुनते हुये सो गयीं हो, कहानी 
					खत्म होने पर बोलीं,
 “तुम्हारा नाम क्या है?”
 लड़की ने कहा "अलुश्का"
 जूली की नज़रें कडी हो गईं, जैसे अभी उसके झूठ को पीट कर सच कर 
					देंगी। लड़की के बदन में झुरझुरी दौड़ गई- “अलुष्का, कहाँ से आई 
					हो?"
 “बेरुत"
 “तुम यहाँ क्यों आईं?”
 “मेरे पास कहीं और जाने के लिये जगह नहीं थी और सिमहा ने मुझे 
					अपने परिवार के दयालु होने के बारे में बताया था इसलिये।”
 "पर तुमने अपना घर क्यों छोड़ा? जब कि इतना सब कुछ हो रहा है..”
 “इसीलिये घर छोड़ना ज़रूरी हो गया था"
 “साफ बोलो!” वो पहेलियों में बात करने को तैयार नहीं थी।
 
 वह लड़की आवाज़ सुनकर कुछ सिकुड़ तो गई पर घबराई नहीं। थकावट और 
					नींद के बीच वो भविष्य की आशंकाओं के बारें में बहुत कुछ सोच 
					नहीं सकी। एक गहरी साँस ले कर बोली, “पाँच दिन पहले मेरा घर भी 
					आपके घर जैसा ही था, मेरे दो चाचा के परिवार और हमारा परिवार 
					बड़ी हवेली में रहते थे। पिछले हफ्ते, नहीं केवल पाँच दिन पहले 
					की तो बात है कि जब मैं माँ के साथ खड़ी शीरी बनाना सीख रही थी। 
					मेरी बड़ी बहन अपनी सुसराल से आई हुई थी, वो पेट से है, सो माँ 
					उसके लिये शीरी बना रही थी और माँ ने जबरन मुझे खड़ा कर लिया था 
					अपने साथ। सब से छोटी हूँ न, तो कुछ सिरचढ़ी सी हूँ।"
 
 वह पुरानी यादों में खोते हुए भी स्थिति के प्रति सजग थी । वह 
					एक अनजान घर में थी और एक अनजान औरत के सामने बैठी अपनी कहानी 
					सुना रही थी। आधी रात से ऊपर का न जाने कितना वक्त निकल गया 
					था। बाहर अँधेरा ठंडी काली स्याही सा फैला था। कभी-कभार किसी 
					चील की आवाज़ उस काली स्याही के ठंडेपन को तोड़ने की कोशिश करती 
					और फिर घना सन्नाटा फैल जाता। सन्नाटे कई बार बहुत ड़रावने होते 
					हैं। उनमें अनेक घटनाओं की बू होती है। इंसान अपने मन के हिसाब 
					से कोई एक बू उस सन्नाटे से चुन लेता है और आशंकाओं और डर के 
					ताने-बाने बुन कर उसमें घुटने लगता है।
 
 अलुश्का यानि अलुष्का ने जिस डर को चुना था वह उसकी कल्पना में 
					नहीं था, उस डर को वो झेल चुकी थी, भोग चुकी थी, आँख और कान के 
					ज़रिये वो डर बेहद डरावने सच के रूप में उसके अनुभव और जीवन का 
					दुखद हिस्सा बन चुका था जिस से बच कर वह कभी अपने पुराने सच 
					में नहीं जा पायेगी। जीवन का मधुर हिस्सा झटके से खींच कर तोड़ 
					दिया गया था।
 अपने उस सच के टुकड़ों को आँखों में समेट उसने आगे कहना शुरू 
					किया,
 “मेरे पिता एक कबीले के सरदार हैं। कुछ दिन पहले एक 
					...सभा...में उन्होंने खुले तौर पर सुन्नियों का विरोध किया 
					था, इस पर कुछ लोगों ने उन्हें धमकी भी दी थी!”
 जूली ने उसे रोका,
 “कैसा विरोध?”
 
 जूली ने भी अँधेरे से अपने और अपने परिवार के भविष्य के लिये 
					आशंकायें चुन ली थीं और अब हर आवाज़, हर बात में वो चिन्ता और 
					आशंका सिर उठा कर खड़ी हो जाती थी। वातावरण ही ऐसा था, बहुत से 
					यहूदी बेरूत, ट्रिपली और सिडान छोड़ कर जा चुके थे और जो रह गये 
					थे, उनमें से बहुत से जाने की सोच रहे थे। सुनने में आ रहा था 
					कि युद्ध लगभग समाप्ति पर है, लगता था कि किसी भी दिन युद्ध की 
					समाप्ति का समाचार आ सकता था पर जर्मनी में यहूदियों के साथ 
					हुए नृशंस व्यवहार पर ही बात नहीं ख़त्म नहीं हो रही थी। दुनिया 
					के बहुत से हिस्सों में यहूदियों के साथ दुर्व्यवहार हो रहा 
					था। वे डर और आशंकाओं से ग्रस्त हो फिलीस्तीन जा रहे थे जहाँ 
					उन्हें इज़रायल बनाना था। ज़िओनिस्ट लोगों ने दुनिया भर के 
					यहूदियों का आह्वान किया था कि वे अपने देश बनाने के लिये 
					इकट्ठे हों ताकि वे सुरक्षित रह सकें। यह वह समय था जब कि 
					पीढियों से साथ रह रहे अरब और ईसाइयों पर भी भरोसा नहीं किया 
					जा सकता था। इस युद्ध ने बहुत कुछ तोड़ा था, बहुत कुछ हमेशा के 
					लिए नष्ट कर दिया था।
 
 जब अलुष्का ने विरोध की बात की तो जूली के कान खड़े हो गये! हर 
					जगह ही आजकल विरोध है, पर पता रहना चाहिये कि किस बात का विरोध 
					है!
 अलुष्का की आवाज़ और धीमी हो कर एक फुसफुसाहट में बदल गई थी, 
					“मेरे पिता सहमत नहीं थे कि यहूदी लोगों को भगाने के लिये दहशत 
					का सहारा लिया जाये! वे मार-काट नहीं चाहते थे। पर बाकी के अरब 
					इस बात पर ज़ोर दे रहे थे कि अब जब कि यहूदी इज़रायल बनाना चाहते 
					हैं तब ऐसे में हमारा यह फर्ज़ है कि हम उन्हें यहाँ से पूरी 
					तरह खदेड़ दें और अगर वे अपनी मर्ज़ी से न जायें तो फिर तलवारें 
					तो हैं ही।"
 
 सिर नीचे कर के यह सब बताते हुये भी अलुष्का को लगा कि जूली 
					इतने कपड़ों से ढँके होने पर भी काँप गई। अलुष्का आवाज़ सामान्य 
					करते हुये बोली, “मेरे पिता, चाचाओ और भाई और कुछ साथ के थोड़े 
					से लोगों ने इस विचार का विरोध किया और तलवार उठाने, लोगों को 
					परेशान करने के बजाये इंतज़ार करने को कहा ताकि यहूदी लोग स्वयं 
					ही चले जायें पर लोगों ने उनका विरोध किया। आप तो जानती हैं न, 
					मुफ्ती साहेब के कहने से यहाँ क्या-क्या हो रहा है? पहले यह सब 
					था? हम सब ही तो साथ साथ रह रहे थे! पर कभी ये गोरे लोग, कभी 
					ये मुफ्ती, तो कभी कोई और..कुछ न कुछ होता ही रहता है! जब से 
					यह खबर आयी है कि यहूदियों को अपनी ज़मीन मिलेगी, बस तब से तो 
					और खलबली मची है।"
 
 बोलते-बोलते वह एकाएक रुक गई..उस की साँस बहुत तेज़ चल रही थी! 
					साँस तो तेज़ जूली की चलनी चाहिये थी पर... एकाएक अलुष्का की 
					तेज़ साँस सुबकियों में बदल गई! वो घुटनों में मुँह डाल सुबकने 
					लगी!
 जूली को समझ नहीं आया कि अचानक क्या हुआ। वो चुप सी बैठी रह 
					गईं कुछ क्षण! हाथ साँत्वना देने को बढ़े नहीं, क्या कहें!! वो 
					अभी सोच ही रही थीं कि अलुष्का ने नाक सुड़क मुँह ऊपर उठाया। 
					उसका गोरा मुँह और आँखॆं लाल थीं।
 “मार डाला उन्होंने!”
 "हँ???” मिसेज बेन अब्राहम केवल यही कह पाईं!
 
 “मार डाला, मेरे पिता को, मेरे एक चाचा और मेरे एक भाई को.... 
					मेरी आँखों के सामने मार डाला! माँ ने मुझे अंदर की तरफ धक्का 
					दिया और "भाग" कहा ! बाहर की तरफ जाते-जाते मुझे अम्मा का 
					गरारे के पैर में उलझ कर गिरना ही दिखा, गिरते-गिरते भी उनके 
					हाथ का इशारा मुझे भागने को कह रहा था। सुल्ताना और बड़ी आपा घर 
					के बाहर गईं हुई थीं सो पता नहीं उनका क्या हुआ? पता नहीं 
					अम्माँ का क्या हुआ? पता नहीं चाचा का क्या हुआ? ...मुझे कुछ 
					नहीं पता कि सबका क्या हुआ? वो नंगी तलवारें लेकर घर में घुसे 
					थे और तख़्त पर बैठे घर के तीन मर्दों को उन्होंने बिना कोई 
					मौका दिये काट डाला था, यह कह कर कि "यहूदियों का साथ देते हो, 
					उन्हीं के पास जाओ!!” मैं हवेली के पीछे बने चोर दरवाज़े से 
					निकल कर खेतों की तरफ भागी और उस तरफ बने कच्चे-पक्के मकानों 
					के पीछे छुपती छिपाती भागती रही। मुझे नहीं पता कि मैं कब तक 
					भागी होऊँगी। कोई गाँव था, वहाँ मैने पूछा कि मैं कहाँ हूँ, तो 
					उसने बताया कि मैं बारजा शहर की तरफ़ जा रही थी। रात मैंने उसी 
					गाँव की मस्जिद के पास बने कमरे में बिताई थी। किसी ने मुझ से 
					नहीं पूछा कि मैं कौन हूँ, सब अनेकों उलझनों में हैं और फिर सब 
					इस बड़ी लड़ाई के दौरान पागल सी दिखने वाली औरतों को देखने के 
					आदी होते चले जा रहे हैं। लोगों ने सोचा होगा कि मैं भी कोई 
					ऐसे ही पागल हूँ जिसका शौहर लड़ाई में मारा गया होगा। मैं चार 
					दिन चल कर यहाँ पहुँची हूँ। रास्ते में संतरे और केले खा कर, 
					कभी सूखी काक (ब्रेड) खा कर मैंने गुज़ारा किया। पर मुझे यह याद 
					था कि आप लोग सिडान में रहते हैं, समुद्र किनारे बने किले के 
					पास के मोहल्ले में!”
 
 वो सारी कहानी जैसे एक साँस में सुनाती चली गई थी कि कहीं कोई 
					सिरा छूट न जाये या लंबा न हो जाये। उसने वो सब बातें छुपा ली 
					थीं कि खेतों में बच कर भागते हुये वो कितनी बार गिरी थी, 
					कितनी बार उसकी कोहनियाँ छिलीं और सिडान आकर वो कैसे पतली-पतली 
					गलियों के घुमावदार भूलभुलैया जैसे चक्कर में पड़ कर रोने लग गई 
					थी। हर तरफ से निकलने की कोशिश करके भी वो दर्ज़ियों वाली गली 
					में ही वापस लौट आती थी। किसी से उनका पता भी नहीं पूछ सकती 
					थी। समय ही ऐसा है! यहू्दी के घर का पता पूछने का समय नहीं है 
					यह! अरब लोग कितने नाराज़ हैं यहूदियों से! हिटलर कितना नाराज़ 
					था उनसे! लगता है कि सारी दुनिया उनके पीछे पड़ी है, तभी तो वो 
					अपनी ज़मीन का टुकड़ा ढूँढ रहे हैं! वे एक लाख यहूदियों को 
					फिलीस्तीन पहुँचने, इज़रायल बनाने के लिये पुकार रहे हैं। 
					फिलीस्तीनी अपनी ज़मीन के लिये परेशान हैं। सब को अपनी ज़मीन 
					चाहिये पर ज़मीन तो वही है, उधर समुद्र और इधर ज़मीन माँगते लोग! 
					आपस में लड़ कर मर जाने वाले लोग! इसी ज़मीन के नीचे दफन कर दिये 
					जाने वाले लोग! अलुष्का ने यहूदियों का कब्रगाह देखा था इस शहर 
					में, जो समुद्री हवा और इस भागमभाग में उपेक्षित पड़ा था। छह गज़ 
					ज़मीन के नीचे सोया आदमी भी क्या इस ज़मीन के लिये लड़ा था?
 
 अलुष्का कुछ नहीं जानती! जो वो सुनती रही है, उसी के हिसाब से 
					सोचती है। अम्माँ डाँटती थी कि तू हवाई किले न बनाया कर, पर 
					अगर सब उसके जैसे हवाई किले बना कर उन में रह पाते तो ज़मीन के 
					लिये यह लड़ाई न होती! लड़ाई न होती तो उसे अपने पिता, चाचा और 
					भाई को मरते हुये न देखना पड़ता! घर से सब को छोड़ कर भागना न 
					पड़ता!
 
 मिसेज बेन-अब्राहम उसकी कहानी को गुनती चुप बैठी थीं। कुछ देर 
					चुप रह कर बोलीं,
 “पर यहीं क्यों आईं?”
 अलुष्का ने एक लंबी साँस ली और ना जाने क्या सोचते हुए गर्दन 
					हिलायी,
 “कई कारण हैं, मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं कहाँ जाऊँ, जो 
					तलवार लेकर घर में घुसे थे, उनमें हमारे कबीले के लोग भी थे, 
					वो हमारे सारे रिश्तेदारों को जानते थे, मैं जाती भी कहाँ?, 
					फिर दो दिन में लगभग २० किलोमीटर चलने के बाद मुझे पता चला कि 
					मैं इसी शहर की तरफ बढ़ रही हूँ तो दिमाग में सिमहा के घर के 
					शहर के अलावा और इस शहर में आप के घर के अलावा कहीं और जाने की 
					बात मेरे दिमाग में ही नहीं आई, कुछ भी सोच समझ कर कहाँ हो 
					पाया?” उसने धीरे से कहा !
 “और अगर हम लोग भी बाकी यहूदियों की तरह घर छोड़ कर जा चुके 
					होते तो?”
 “तो मैं यहीं रहती, इसी घर के एक कोने में, यह सोचती हुई कि 
					शायद सिमहा लड़ाई से लौट कर यहीं आए।”
 
 जूली एक ढीली लंबी साँस छोड़ कर बोलीं, ”तुम यहाँ पनाह लेने आई 
					हो पर कल इस घर के लोग अपने बाप-दादाओं का यह शहर छोड़ कर जा 
					रहे हैं!”
 अलुष्का ने कुछ हैरानी से उन्हें देखा। वैसे तो उसे यह भी 
					उम्मीद नहीं थी कि वे लोग उसे मिलेंगे, कितने ही यहूदी तो जा 
					चुके थे।
 “कल सुबह? आप भी? सिमहा तो लौटा नहीं है अभी! लड़ाई बंद होने 
					वाली है, यही सुना है, तो वो कुछ समय में लौट आयेगा फिर..”
 वो कुछ ज़्यादा ही बोलते जाने से फिर सकुचा गई!
 “हाँ, लड़ाई बंद होने वाली है, पर यहाँ की लड़ाई, हमारी लड़ाई 
					कहाँ बंद हुई है? मुफ़्ती अल-हुसायनी ने क्या कहा है, पता है न, 
					कि वो यहाँ यहूदियों को नहीं रहने देगा!” एक लंबी साँस ले कर 
					वो चुप हो गईं। फिर कुछ मिनट ऐसे ही बीते, असमंजस जैसे! फिर 
					जैसे खुद से बोलते हुये बोलीं,
 “जाना तो पड़ेगा! पर मैं सिमहा का इंतज़ार करे बिना नहीं जा 
					सकती। वो आयेगा तो ढूँढेगा! उसे क्या पता चलेगा कि हम कहाँ 
					हैं? मैं नहीं जा सकती..मैं अपनी और अपने बेटे की ज़िंदगी एक 
					दूसरे के इंतज़ार में नहीं बीतने दे सकती! वो हमें मार कर खत्म 
					कर सकते हैं पर यह भी कहाँ ज़रूरी है कि हम ज़िंदा उस अपनी कही 
					जाने वाली ज़मीन पर पहुँच ही जायेंगे? पर कोई रिश्तेदार बात 
					नहीं सुनता, वो सब जाना चाहते हैं!”
 “और आप के पति क्या कहते हैं?”
 “वो मे्रे कारण मजबूर हैं। अपने लड़के की माँ के कारण, वो भी 
					नहीं जा पायेंगे!”
 
 अलुष्का ने लंबी साँस ली! पता नहीं वो साँस एक साथ मिल जाने की 
					राहत की थी या मिसेज़ बेन-अब्राहम के दिल को समझ पाने की। जूली 
					ने उसकी तरफ़ देखा, बोलीं,
 “सुबह तुम सब को सिमहा की दोस्त की जगह अपने को उसकी मंगेतर 
					बताना! इस तरह तुम हमारे साथ ही रह सकोगी।”
 अलुष्का ने चुपचाप "हाँ" में गर्दन हिलाई। वो फिर बोलीं,
 “और सुनो, तुम्हारा नाम अलुश्का साका है, बेरूत से आई हो, 
					बचकर... और ..और तुम्हारी सगाई बेरूत में हुई जब सिमहा ३ साल 
					पहले १९४२ में तुम्हें वहाँ मिला था, तुम्हारा पहली नज़र का 
					प्यार था ...और तुम लोगों ने उसी हफ़्ते में सगाई कर ली थी। 
					अच्छा, रुको!!” कह कर वो तेज़ी से रसोई की तरफ चली गईं। लौटीं 
					तो उनके हाथ में आदमियों के पहनने वाली एक अँगूठी थी पर अँगूठी 
					का नाप कुछ छोटा था, जैसे वो सबसे छोटी अँगुलि में पहनने वाली 
					अँगूठी हो। इस अँगूठी को उन्होंने अलुष्का का हाथ पकड़ अँगूठे 
					में पहना दिया। अँगूठी ठीक आ गई, देख मिसेज़ बेन-अब्राहम को चैन 
					मिला।
 
 बाहर रात बीतने के आसार से लग रहे थे। आसमान की स्याही कुछ कम 
					हो रही थी। मिसेज़ बेन-अब्राहम ने पहली बार अलुष्का को भरपूर 
					नज़र देखा और कुछ मुस्कुरा दीं। अब वो कुछ निश्चिंत दिखाई दे 
					रही थीं। उनके साथ एक और इंतज़ार करने वाला शामिल हो गया था। 
					उन्हें इत्मीनान होने लगा था कि जो वो कर रही हैं, वह ठीक है! 
					वो रहने की ज़िद न पकड़तीं तो कल ही सब यहाँ से चल पड़ने को उतारू 
					थे। उनके ज़िद पकड़ जाने से दिन भर बात होती रही और अंत में उनके 
					न मानने पर शेष सबने अगली सुबह ही शहर छोड़ने का निर्णय ले लिया 
					था। अगर वो चली जातीं तो...पर जाती कैसे? उन्हें सिमहा का 
					इंतज़ार है फिर अब यह लड़की भी तो है, सिमहा की मंगेतर!
 वो उसके चेहरे को छू कर प्यार से बोलीं,
 “कुछ देर को लेट जाते हैं! घंटे भर में तो सुबह हो ही जायेगी।"
 अलुष्का उनके चेहरे के बदले हुए भाव देख कर मन में कुछ हैरान 
					थी। उसने कुछ नहीं छुपाया था मिसेज़ बेन-अब्राहम से और अब वह 
					उनके कहे से वो अलुश्का साका थी, उनके बेटे की मंगेतर!
 
 ज़िंदगी को कुछ देर और पकड़े रहने का एक नया बहाना दोनों मिल गया 
					था, इसी से शायद वो दोनों निश्चिंत होकर लेट गईं!
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