वह
किताब आँखों के सामने रखकर बैठी रही। न आँखें पढ़ने की कोशिश कर
रही थीं और न ही दिमाग समझने की। मन पता नहीं कहाँ-कहाँ की
अन्धी सुरंगों मे भटक कर लौट आता है। यहीं इसी घर में, जहाँ
भविष्य की दिशा बताने वाला सूरज कभी चढ़ता ही नहीं। काल-कोठरी
शायद इससे भी बदतर होती होगी। अँधेरी, छोटी सी जगह, कोई बात
करने वाला नहीं, भरपेट खाना भी शायद नहीं मिलता होगा और दरवाजे
पर ताला- पहरा। बापू ऐसी ही किसी जगह पर साँसें लेता होगा जैसे
मैं और माँ इस छोटी-सी कोठरी में अबोले साँसें लेती हैं। बापू
भी शायद याद करता होगा, माँ को, मुझे। जैसे माँ करती है,
साँस-साँस में, बिन बोले, बिन कहे।
ज़िन्दगी इस घर में दिन, हफ़्तों, महीनों और सालों के हिसाब से
नहीं बीतती। साँसों के हिसाब से बीतती है। यह साँस, अगली साँस,
फिर एक और साँस। अटकी हुई साँसें । चलती हैं पर रुक कर, पीछे
मुड़-मुड़ कर देखती हुईं। पीछे छूटा वक्त शायद आकर हाथ पकड़ ले और
साँसें फिर सम पर आ जाएँ। बाकी तो सब कुछ असमतल है ही।
कोठरी के बाहर छोटा-सा ऊबड़-खाबड़ आँगन। जिसका एक छोर रसोई है और
दूसरा ग़ुसलखाना। बीच में पसरी चारपाई पर दिन में ज़िन्दगी का
ऊँघना। यहीं उसकी किताबें, माँ की सिलाई का सामान, बैठकर रोटी
खाना और आगे-पीछे के जालों मे उलझना चलता रहता है। दायाँ कोना,
बायाँ कोना, बीच की चारपाई और कोठरी में जाकर रात को सो जाना।
दीवार पर एक बापू की तस्वीर है। सभी कहते हैं उसकी शक्ल बापू
से मिलती है। रात को वह आँखें फाड़े छत को देखती है। माँ की
बुदबुदाहट सुनती है चुपचाप।
“माइया, कभी तो घर आ।"
माँ सिसकती है। शायद नींद में, शायद होश में। वह बुत बनी पड़ी
रहती है। दिन में कभी बापू की बात नहीं करती। बस चुपचाप काम
करती रहती है। वह कभी भी माँ को यह पता नहीं लगने देती कि वह
रात की माँ की सिसकती पीड़ा की गवाह है।
बाहर दरवाज़े का कुंडा हिलने की आवाज़ आई। प्रीत सतर्क होकर बैठ
गई। माँ ने शायद चाबी बाहर के ताले में लगाई होगी। फिर कुंडा
हटाकर दरवाज़ा खोला। भीतर आकर प्रीत पर नज़र डाली। अपनी सबसे
कीमती चीज़ को ठीक-ठाक देखकर दरवाज़ा फिर से बन्द कर दिया। वह
चुपचाप माँ को देखती है। माँ ने हाथ में उठाए थैले चारपाई पर
रख दिए फिर बढ़कर बाल्टी में रखे पानी से हाथ-मुँह धोया।
प्रीत चारपाई से उठी और मटके से निकालकर पानी का गिलास माँ की
ओर बढ़ा दिया। थैलों से सामान निकालने लगी तो वीरो ने बरज दिया,
“अभी सब कुछ अन्दर ही रख दे।"
प्रीत ने माचिस, नमक और दाल को रसोई के लिए बनी जगह पर रख दिया
और दूसरा थैला अन्दर की कोठरी के एक कोने में रख आई।
वीरो ने दोनों पैर समेट कर चारपायी पर रख लिए। प्रीत समझ गई,
माँ बहुत थक गई है। हफ़्ते में एक दिन बाजार जाती है, मदन कपड़े
वाले की दुकान से काम लेने। वह उसे कुछ रेशमी कपड़े और उन पर
मोती–सितारे, शीशे और कटोरियाँ जड़ने का सामान दे देता है।
बाजार से कुछ और भी सामान ले आती है वीरो। फिर चुपचाप बैठकर नई
दुल्हनों और जवान होती लड़कियों के शादी- ब्याह के कपड़ों को
सजाती रहती है। अपने ब्याह की ओढ़नी जो उसने मलमल के कपड़े में
लपेटकर रखी हुई है, उसे देखकर नमूने उतारती है। कभी उसे
थोड़ा-सा खोलती है और फिर देर तक अपलक उसे देखती रहती है। प्रीत
जानती है माँ इस वक्त यहाँ नहीं है।
“माँ, क्या सोच रही हो?” उसने एक बार झिझकते हुए पूछा।
“कितने बरस हो गए?” वीरो ने कितनी मासूमियत से पूछा था पर
प्रीत समझी नहीं।
“तुझे क्या पता? तू तो इतनी-सी थी, मेरी गोद में। कह गया था,
प्रीत का ख़्याल रखना, बेबे का भी। बेबे दिल की बुरी नहीं।
क्यों कहा था उसने ऐसा?"
प्रीत ने फिर बेचारगी से कंधे उचका दिए।
“मुझे पता है, कहता था किसी ज़रूरी काम से बाहर जा रहा हूँ,
जल्दी आ जाऊँगा।"
प्रीत टकटकी लगा कर देखती रहती है। कितनी बार तो सुन चुकी है।
“फिर अभी तक आया क्यों नहीं?”
प्रीत चुप।
“बीस साल तो हो गए होंगे? वीर जी कहते हैं वह पड़ोसी देश की कैद
में बन्द है। भला क्यों? सीधा –सादा मेरा माइया, भला ऐसा क्या
गलत कर दिया उसने?”
प्रीत ने माँ के कन्धे पर हाथ रख दिए। वह माँ के ढलकते चेहरे
और उसके बालों में बढ़ रही सफ़ेद तिले की तारों को देखती रहती
है। माँ अभी भी सोचती है कि वह नयी ब्याही वोटी (दुल्हन) है और
बापू उसका माइया है।
प्रीत गहरी साँस लेकर उठ खड़ी हुई। वीरो ने अपने सामने खड़ी
भरी-पूरी जवान लड़की को देखा तो उसके बदन में एक झुरझुरी सी
उठी। होश में आ गई। लौट आई वक्त की तार-तार हुई रस्सी पर सरक
कर वर्तमान में। वह वर्तमान, जिसके भविष्य पर अँधेरे का जंग
लगा ताला जड़ा है।
प्रीत रसोई में लौट आई। रसोई में कोई आड़ नहीं। वह वहाँ से माँ
को देख सकती है। ख़ुद अपनी दुनिया में अकेली हो सकती है। सोचती
है बापू को कभी देखा नहीं पर वह हर वक्त यहीं रहता है। जिस दिन
खाने को कुछ नहीं होता, उस दिन, जब छत टपकती है तब भी, जब
पड़ोसी उन्हें घूरते हैं, तब, जब बेबे ज़िन्दा थी, तब और जब अपने
छॊटे बेटे को याद करते-करते इस घर दुनिया से विदा हो गई, तब
भी। जब दीवाली आती है और घर में कोई दीया नहीं जलता तब, जब
होली पर कोई उनके घर रंग फेंकने नहीं आता, जब माँ बीमार होती
है और वह बेहोशी की हालत में “माइया, माइया” की पुकार लगाती है
तब, जब वह स्कूल की पढ़ाई ख़त्म कर लेती है तब। और ताया जी उस
दिन मिठाई लेकर आए थे। सीधे बापू की तस्वीर के पास ले गए। “ले
निन्धे, तेरी बेटी पास हो गई है।" और कहते हुए उनका गला रुंध
गया था।
प्रीत को लगता है उन सब ने अपनी ज़िन्दगी के ऊपर एक अदृश्य
जाल-सा फैलाया हुआ है और बापू भी उसी अदृश्य जाल में छटपटाता
होगा। बापू को सज़ा हुई है- उम्र क़ैद। वह जेल में है। हम नहीं।
पर हम क्यों ज़िन्दा जी चिने गए हैं इस ज़िन्दगी की नींवों में?
वह तो आक्रोश भी नहीं कर सकती। पता नहीं बापू पर खुद क्या
बीतती होगी? सुना है कैद में बड़ी यातनाएँ देते हैं। राज़
उगलवाने के लिए पता नहीं क्या-क्या क्रूरता की हदें पार करते
हैं वे लोग। प्रीत को ठंडा पसीना आ जाता है। सिर चकराने लगता
है। यह हिंसा की रील वह अपने दिमाग के अन्दर ही सील-बन्द करके
रखती है। मजाल है किसी को पता भी चल पाए इसका। माँ पर क्या
बीतती होगी? शायद उसके मन में ऐसे ख़्याल आते ही न हों। उसने
अपने को तसल्ली दे दी।
आजकल ताया जी जब आते हैं तो लगता है बापू भी उनके कंधे पर चढ़कर
आ जाता है। कुछ है साँठ- गाँठ ताया जी और बापू में जो शायद कोई
नहीं जानता। बेबे ज़िन्दा थी तो कलपती थी, “दुश्मनों ने मेरे
बेटे को झूठे इल्ज़ाम में कैद कर लिया। शराब ज़रूर पीता था, भटक
कर हद पार कर गया होगा। वह भला क्या जासूसी करेगा?”
ताया जी चुपचाप नज़रें झुकाए बैठे रहते। बेबे की हालत जब बहुत
ख़राब थी तो वह ज़बरदस्ती उसे अपने घर ले गए। माँ भी गई हुई थी
उस दिन बेबे को देखने। ताया जी घर आए तो प्रीत चुपचाप आकर उनके
पास बैठ गई। उनसे उसे अपने बापू की महक आती है। वह जितना रख
सकते हैं उनका ख़्याल रखते हैं। अब माँ को भी कपड़ों पर कढ़ाई का
काम मिलने लगा है तो घर में चूल्हा जल ही जाता है। ताया जी
प्रीत को देखते हैं तो पिघल से जाते हैं। उस दिन भी उसके सिर
पर हाथ रखते हुए बोले थे, “तुझे देखते ही लगता है कि निन्धा
आकर खड़ा हो गया है।"
“ताया जी, बापू को क्यों उन्होंने कैद कर रखा है?” उसने बहुत
धीमे से उनसे पूछा था। वह सवाल जो अजगर की तरह उसके अन्दर
अक्सर फन फैलाए फुंफकारता रहता।
“क्या पता?”
“आपको भी नहीं?” उसे विश्वास नहीं हुआ।
“मुझे शक है,...”, वह अपने आप से बोले थे।
प्रीत पास सरक आई।
“जाने से पहले उसने कहा था, बहुत ख़ास काम से जा रहा हूँ, कुछ
रोज़ में लौट आऊँगा। वीरो और प्रीत का ख़्याल रखना।"
मैं चौंका था। पूछा, कहाँ जा रहा है तू? बस वह हँस दिया था।
आकर बताऊँगा, कहकर चला गया। मुझे तभी शक हो गया था। मुझे भी
इसी एक ख़ास काम के लिए पूछा था किसी ने। रक़म भी थमाई थी। कहा
था- अपने बूते पर जा। अगर नाक़ामयाब हुआ तो तू हमें नहीं जानता
और हम तुझे नहीं।
पीछे मेरे परिवार का क्या होगा? मेरी यही चिन्ता थी। तब उस
आदमी ने साफ़ कहा था-
“देख, खुलकर उनकी मदद करने का मतलब है, कबूलना कि तू हमारा
बन्दा है। अगर कुछ कर सकेंगे तो कर देंगे, वादा नहीं कर सकते।"
मेरी हिम्मत नहीं पड़ी, मैं नहीं गया। लगता है जवानी के जोश में
निन्धे ने हामी भर दी होगी।"
एक निस्तब्धता-सी छा गई थी। दोनों घूँट- घूँट बिना तारों की
रात का ज़हर
गटकते रहे।
“पुत्त”, ताया जी ने उसके सिर पर हाथ रख दिया। “यह मेरा वहम भी
हो सकता है। इसका ज़िक्र कभी किसी से न करना। अपनी माँ से भी
नहीं।"
बेबे चली गई। माँ कभी हँसी ही नहीं। बस चुपचाप काम करती रहती।
हरवक्त काम। ताया जी ने दाखिले का फार्म भरवाया था। “प्राइवेट
बी.ए कर ले। कहीं नौकरी मिल गई तो शायद तेरी माँ की बूढ़ी होती
हुई हड्डियों को भी थोड़ा आराम मिल जाए।"
माँ शून्य में ताकती है। सिर का पल्ला ठीक करके आँखें झुका
लेती है।
“वीर जी, कुछ तो करो।"
कुछ क्या? बापू को छुड़ा लाएँ? घर की आर्थिक हालत पर जादू की
छड़ी घुमा दें या, या...? प्रीतो अँधेरे में गोते खाती है। सपने
देखना भी ग़लत है। जिस लड़की का बाप जेल में हो, घर में खाने के
लाले पड़े हों उस लड़की की माँ सिर्फ़ अनजानी लड़कियों के शादी के
जोड़ों पर ही सलमे-सितारे टांक सकती है। ज़िन्दगी अँधेरी कोठरी
के बाहर इन्द्रधनुष देखने की कल्पना तक की इज़ाज़त नहीं देती।
उसकी हथेलियों की मेंहदी पर भी दीवारें चिनी हुई हैं। वह गहरी
साँस लेकर नज़रें झुका लेती है।
बाहर किसी ने कुंडा खटखटाया।
“प्रीत पुत्तर...”
प्रीत ने माँ की ओर देखा। वीरो ने हुंकारा भरकर इजाज़त दे दी।
सीधी होकर बैठी और और दुपट्टे से सिर ढक लिया। आज ताया जी के
चेहरे पर चमक थी। प्रीत उनके लिए कोठरी से एक बैठने लायक
कुर्सी खींच लाई। खुद भी माँ के साथ लग कर बैठ गई।
“अच्छी ख़बर है।"
प्रीत ने साँस रोक ली और वीरो को पता ही नहीं चला कि वह चेहरा
उठाकर जेठ को एकटक देख रही है।
“लगता है निन्धे को माफ़ी मिल जाएगी और वह जल्दी रिहा हो
जाएगा।" कहते हुए उनका अपना गला रुंध गया।
“ओए मालिक, ओए मेरे मालिक।" वीरो आकाश की ओर हाथ उठाकर फफक
पड़ी। वहीं चारपाई पर लुढ़क गई। दहाड़ें मार कर जोर- जोर से रोती
जा रही थी।
“माँ को सम्भाल” कहकर वह चले गए।
प्रीत गुमसुम देख रही थी माँ को छटपटाते हुए। बाँध कैसे टूटता
है? संयम के सारे कगार कैसे ढहते हैं? चुप्पी की राख में दबा
ज्वालामुखी कैसे उम्मीद की एक हवा से फट पड़ता है और उस लावे
में झुलसती हुई औरत कैसे तड़पती है? वह औरत जिसने बीस साल से
अपने आदमी को देखा तक नहीं, जिसकी छुअन भूल चुकी है, जिसकी
आवाज़ तक नहीं सुनी, उसकी याद भर से इतनी पीड़ा, इतना दर्द! बह
आया वह दर्द प्रीत के कलेजे तक। बस निश्शब्द रोती रही।
वीरो की हिचकियाँ धीमी पड़ने लगीं तो प्रीत ने माँ के कन्धे को
छुआ। वीरो जैसे दर्द के कितने दरिया पार कर आई थी। लौट आई अपनी
सख़्त और खुरदुरी ज़मीन पर। धुँधली आँखें खोलीं तो प्रीत का
आँसुओं भरा चेहरा सामने था। झपट कर बेटी को सीने से चिपका
लिया। “ना पुत्त ना।"
प्रीत सोचती है कैसी है यह माँ? आप कलेजा फाड़ कर रोई है और
मेरा भीगा चेहरा देखकर सब भूल गई। उसने माँ की ठुड्डी हाथ में
लेकर उसे छोटी बच्ची की तरह पुचकारा, "माँ, तू भी ना।" दोनों
फिर से लिपट गईं।
-----------
वीरो की आँखों में उम्मीद जगी है। नव-यौवना की तरह दिल फिर से
धड़कना शुरु हो गया। कब आएगा वोह? वह प्रतीक्षा करती है लेकिन
अब बेसब्र होकर।
“वीर जी, वह कब आएगा?” वीरो पूछती है।
“पता नहीं।" जेठ जी सिर झुका लेते हैं।
“लगता है वह किसी और नरीन्दर की खबर थी हमारे निन्धे की नहीं।
पर तू हिम्मत रख। मैं अपनी अर्जियाँ भेजना बन्द नहीं करूँगा जब
तक वह रिहा नहीं हो जाता। मेरी भी जंग जारी रहेगी उसे वापिस
लाने की।"
ताया जी की कमर झुक गई है। उनके पीछे दरवाज़ा बद करने आई प्रीत
ने महसूस किया।
-------
बाहर ताबड़-तोड़ पानी बरस रहा है। रह-रह कर बिजली कौंधती है और
रात की सारी बदसूरती उजागर कर जाती है। ऊपर से हवा का बेक़ाबू
गुस्सा । चीज़ें उड़ने-पटकने की आवाज़ें दहला जातीं। वीरो चुपचाप
कोठरी में आँखें बंद किए पड़ी है। वीर जी बहुत दिनों से नहीं
आए। उसने भी नहीं पूछा। बस चुप रहती है। क्यों जीती है? किस
लिए जीती है? उसे ख़ुद नहीं मालूम। बस, लगता है उसकी रगों में
खून नहीं, दर्द पिघल कर बहता है। जैसे कोई उसका दिल चीरता है
बिना किसी आरे या कुल्हाड़े के। बस गूँगी चीखें सीने के खोखल
में घुमड़ती हैं और वहीं दम तोड़ देती हैं। ऊपर से सब सामान्य
लगता है। तमाशा चलता रहता है और वह भी धागों से बंधी कठपुतली
की तरह नाचती जाती है। यह क्या हुआ? न जीना न मरना। बस साँसें
लेते जाना। साँसों की तार बस बंधी है एक उस नाम से जिसकी सूरत
भी याद में धुँधला गई है।
प्रीत रसोई का काम निबटा कर अपनी चारपाई पर लेटने लगी तो नज़र
माँ के चेहरे पर पड़ गई। अँधेरे में माँ का चेहरा अजीब-सा लगा ।
हाथ बढ़ा कर माथा छुआ तो तप रहा था।
वीरो ने उसका हाथ हटा दिया। “सो जा।" कहकर करवट बदल ली।
आधी रात को प्रीत की आँख खुली तो लगा वीरो चारपाई पर सीधी तनी
बैठी है, चौकस-सी।
“क्या बात है माँ?”
“श्शश, चुप। देख बाहर कुंडा खटक रहा है।"
“हवा बहुत है न, इसलिए।"
“नहीं, कोई है जो खटखटा रहा है।"
“कोई नहीं है, तेरा वहम है।"
“ध्यान से सुन।"
प्रीत ने ध्यान से सुना। लगा वाक़ई कोई दरवाज़ा खटखटा रहा है। वह
डर गई।
“जा देख, कौन आया है?”
“कोई नहीं है माँ। आधी रात को, इस हरहराती रात में भला कौन
आएगा?” कहते हुए प्रीत की अपनी आवाज़ काँप रही थी।
“वह आया है।"
“कौन?”
“मेरा माइया, तेरा बापू।"
माँ तुझे ताप ज़्यादा ही चढ़ गया है।
दरवाज़े का कुंडा बहुत ज़ोर-ज़ोर से बजने की आवाज़ आ रही थी।
वीरो चारपाई से नीचे उतर गई। “तू नहीं जाएगी तो मैं ही खोल
देती हूँ।"
वीरो ने ज्यों ही कोठरी से बाहर क़दम रखा, पानी की तेज़ बौछार
उसे अन्धा कर गई। इससे पहले फिसल कर गिरती प्रीत ने उसे अपनी
बाँहों मे बाँध लिया। खींच कर अन्दर ले आई।
“माँ, कोई नहीं है।" प्रीत ने बड़ी बेचारगी से जैसे मिन्नत की ।
“है।" उसे पूरा विश्वास था।
“अच्छा, आवाज़ दे। अपने आप पता चल जाएगा। अगर कोई होगा तो ज़रूर
जवाब देगा।"
“तू बुला।" वीरो ने बेटी की ओर देखा। जैसे आगुन्तक का आना, न
आना, सही-ग़लत, सब-कुछ प्रीत की एक पुकार पर निर्भर हो।
प्रीत काँप रही थी। “माँ, मुझे डर लग रहा है। कोई ग़लत आदमी भी
हो सकता है। औरत की आवाज़ सुनकर कहीं...?” उसका चेहरा पीला पड़ने
लगा।
वीरो पर जैसे वहशत छाई हुई थी। वह प्रीत को धकेल कर फिर से
बाहर लपकी।
पानी रुक गया था।
उसने काँपती-सी आवाज़ लगाई। “माइयाआआ”
उधर से कोई जवाब नहीं आया।
“मैं आ रही हूँ।" वह सतर्क क़दमों से दरवाज़े के पास आकर रुक गई।
हवा थम चुकी थी और कुंडे का खटकना बंद था। वह दरवाज़े को पकड़कर
आहट लेने लगी।
प्रीत ने पीछे से कंधे पकड़कर उसे अपनी ओर घुमा दिया। सहारा
देकर वापिस अपनी कोठरी में लाई और माँ को धीरे से चारपाई पर
लिटा दिया।
वीरो लाल, फटी हुई आँखों से छत को घूर रही थी।
प्रीत ने प्यार से दुपट्टे के साथ उसका चेहरा पोंछना चाहा।
वीरो ने झटक दिया। फिर सिसकने लगी।
“तुम सब ने उसे आने नहीं दिया न?”
प्रीत उसे चुपचाप देखती रही जैसे पिछली ज़िन्दगी की सारी सड़क
नाप आई हो। पूछा, “माँ, तूने उसे जाने ही कब दिया था?”
|