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                     बाहर 
					तेजी से गुजरती बसों, कारों की आवाज़ से सुचित्रा ने सुबह होने 
					का अंदाज़ा लगा लिया। 'पता नहीं यहाँ जल्दी आँख क्यों नहीं 
					खुलती है?’ मुश्किल से एक आँख खोल कर उसने साइड टेबल से घड़ी 
					उठा कर देखा। आठ बज रहे थे। 'अभी तो आठ ही बजे हैं, अभी से उठ 
					कर क्या करूँगी,' सोच कर फिर से कंफर्टर लपेट कर लेट गई। 'क्या 
					सुकून भरी जिंदगी है यहाँ’, सुचित्रा के होठों पर मुस्कराहट 
					खेल गई। 'जब से यहाँ आई हूँ न बी.पी. बढ़ा है न ही माइग्रेन 
					हुआ है। दिल्ली में तो हर दूसरे दिन माइग्रेन में ब्रूफेन खा- 
					खा कर भी दर्द से तड़पती रहती थी'। नवीन बार-बार मना करते, 
					“इतनी ब्रूफेन मत खाया करो। मालूम है न कितनी खतरनाक दवा है 
					यह, कोई प्राब्लम हो जाएगी तब पछताओगी।” 
 नवीन का प्रवचन उसके सिर दर्द को और भी बढ़ा देता। ‘एक तो वैसे 
					ही माइग्रेन में बातचीत का मन नहीं करता। न रोशनी भाती है न 
					खाना- पीना, ऊपर से नवीन कमरे में घुसते ही सीख देने लगते हैं। 
					उस समय तो जवाब देने की भी इच्छा नहीं होती है'। मन ही मन 
					कुढ़ते हुए सुचित्रा लाइट बुझा कर सिर तक चादर तान लेती। ‘सारी 
					तकलीफ डिनर बनाने की है’, वह चिढ़ कर बड़बडाती, ‘अब नौकरानी 
					बीमार पड़ गई तो खाना कौन बनाएगा? बाप बेटी बेटा, सब तो लाट 
					साहब हैं। पता है, इस समय खाना बनाना तो दूर माँ खाने की गंध 
					भी नहीं बर्दाश्त कर सकती है'। जब उसे सिर दर्द होता है, सारे 
					घर को जैसे साँप सूँघ जाता है। सब भन्नाए, गुस्साए घूमते हैं।
 
 ‘सारी दुनिया ही स्वार्थी है', सुचित्रा ने करवट बदली, किसी के 
					लिए कुछ भी कर लो, मजाल है जो दुःख में कोई सिरहाने खडा हो 
					जाए। एक ये कनिका है, कहते हैं- लड़की की माँ रानी- क्या खाक 
					रानी, रानी तो वो है... सुचित्रा तो बेचारी सबकी नौकरानी ही 
					है।'
 माइग्रेन में उसे उल्टियाँ लग जाती हैं। मजाल है जो कनिका उस 
					समय उसके पास फटक जाए। कभी घर में कोई न हो और आना ही पड़े तो 
					वाश-बेसिन पर पानी का गिलास रख कर ऐसे भागेगी कि बस। गुस्से से 
					बदन में आग लग जाती है। एक बार दर्द ठीक होने के बाद इस बात पर 
					डाँटने लगी तो उल्टा वह उसपर ही चिल्ला पड़ी, "मुझे घिन आती 
					है, क्या चाहती हो तुम्हारे साथ मैं भी वहाँ वॉमिट करने लगूँ?" 
					उस दिन सुचित्रा खून का घूँट पी कर रह गई थी, ‘इस जमाने की हवा 
					ने खून-पानी कर दिया है...’
 
 ट्रन...ट्रन....फोन की घंटी से उसकी सोच टूटी। अपनी सोच पर खुद 
					ही शर्मिंदा होते हुए उसने सोचा, ‘ओह, बच्चों से इतनी दूर रह 
					कर भी वह कभी – कभी उनके बारे में कितना उल्टा-सीधा सोचने लगती 
					है। कैसी अजीब माँ है वह भी। अच्छा हुआ फोन आ गया।' सुचित्रा 
					ने फोन उठा कर "हलो" कहा।
 "ह..लो.. जूजा हेयर.." दूसरी तरफ से आवाज़ आई।
 "ओह जूजा", सुचित्रा खुश हो गई, "कैसी हो"?
 "मैं ठीक हूँ, क्या मैं आज आपके पास आ सकती हूँ?", वह पूछ रही 
					थी।
 "हाँ, हाँ क्यों नहीं, आओ, लंच साथ ही करेंगे"
 "ओ.के. मैं बारह बजे तक पहुँच जाऊँगी।"
 "ठीक है, मैं इंतजार करूँगी।" और सुचित्रा ने फोन काट दिया।
 ‘चलो आज का दिन बिताने का तो इंतज़ाम हुआ', उसने खुशी से सोचा। 
					जूजा उसके पति नवीन की छात्रा है मगर सुचित्रा से उसकी अच्छी 
					पटती है। इडॉलॉजी डिपार्टमेंट में हिंदी की स्टूडेंट होने के 
					कारण उसकी हिंदी भी अच्छी खासी है। सुचित्रा ने कंफर्टर हटा कर 
					एक तरफ किया। पैरों में स्लीपर डाल कर हाथों को फैला एड़ियाँ 
					ऊँची कर उसने ज़ोरदार अँगड़ाई ली। कितनी आलसी हो गई है वह। 
					‘शायद सैंन्ट्रल हीटिंग के कारण आँखें हमेशा भारी लगती हैं, 
					इसी लिए जल्दी उठने का मन नहीं करता है।’ उसने अपने को तसल्ली 
					दी, ‘दिल्ली जा कर सब ठीक हो जाएगा।'
 
 घड़ी साढ़े आठ बजा रही थी। कमरे में अभी भी अँधेरा था। 
					सुचित्रा ने प्लास्टिक की रस्सी खींच कर लकड़ी के ब्लाइंडर को 
					ऊपर किया। कमरा रोशनी से भर गया। बाहर की धूप ने उसके अंदर तक 
					उजाला कर दिया। शुक्र है भगवान का कि आज धूप निकली है वरना 
					सर्दियों में तो यहाँ ऐसा मनहूस अँधेरा छाया रहता है कि बाहर 
					देखते ही डिप्रेशन होने लगता है। लगता है आज का दिन अच्छा 
					रहेगा। कदम आप से आप कंप्यूटर टेबल की ओर बढ़ गए। जब से यहाँ 
					आई है कंप्यूटर इस तरह जिंदगी का हिस्सा हो गया है कि लगता है 
					जैसे अभी तक वह इसके बिना जिंदा कैसे थी? रोज़ की तरह उसने 
					स्काइप और जी टॉक पर लॉग-ऑन किया। कोई और ऑन- लाइन नहीं था। 
					हरी लाइट केवल उसके नाम के आगे ही जल रही थी। यू-ट्यूब खोल कर 
					उसने अपनी मन पसंद गायिका गीता दत्त के गाने लगा दिए…
 
 "ऐ..ल्लो.. मैं हारी पिया..." गीता दत्त की मधुर शरारती आवाज़ 
					से फ्लैट भर गया। सुचित्रा नें गुनगुनाते हुए एलेक्ट्रॉनिक 
					केटल का स्विच ऑन कर दिया। मिनटों मे पानी उबल गया। कप में चाय 
					का सैशे डाल कर उसने उबलता पानी डाला और कप ले कर खिड़की से 
					टिक कर खड़ी हो गई। जब नवीन बाहर रहते हैं तो वह ऐसे ही खिड़की 
					से टिक कर बाहर देखते हुए चाय पीती है। सुबह की चाय अकेले पीना 
					उसको बिल्कुल पसंद नहीं है।
 
 सुचित्रा का ध्यान भारत की ओर चला गया। ‘जो भी हो अपना देश 
					अपना देश ही होता है'। यहाँ आकर उसने इस बात को बड़ी गहराई और 
					तीव्रता से महसूस किया है। अब उसे अहसास होता है कि विदेश जाने 
					वाले भारतीय क्यों सारी सुख- सुविधाओं के बावजूद सारी उम्र 
					अपने देश वापस जाने का सपना देखते रहते हैं। दिल्ली में इतनी 
					खुशनुमा जाड़े की छुट्टी की सुबह में वह बाल्कनी की गुनगुनी 
					धूप में बैठ कर चाय पीती। कितनी रौनक रहती है पूरी कॉलोनी में 
					छुट्टी के दिन'।
 
 बगल की फ्लैट की सुनीता की सास का चेहरा आँख के आगे घूम गया। 
					उनका तो सर्दियों में सारा काम ही छज्जे में होता है। नित्य 
					कर्मों से फारिग हो मंदिर से लौटते ही वे कभी मटर कभी साग लेकर 
					छज्जे में चटाई बिछा कर बैठ जाती हैं। मजाल है सामने की सड़क 
					से कोई उनकी निगाह में आए बिना गुज़र जाए। सुनीता को कोई नहीं 
					जानता पर उसकी सास को करीब- करीब सब जानते हैं। वे हर किसी को 
					सलाह देती हैं, हर किसी का हाल- चाल पूछतीं हैं, छोटे बच्चों 
					को लड़ियातीं तो गलतियों पर डाँटती भी हैं। एक तरह से उस 
					आधुनिक कॉलोनी में वे पुराने बुज़ुर्गों की पीढ़ी का प्रतीक 
					हैं। न जाने कैसे वात्सल्य और रुआब से भरा है उनका व्यक्तित्व। 
					कई बार उनकी बेमतलब की ताका- झाँकी और पूछताछ से झुँझलाए लोग 
					भी मन से उनकी इज्ज़त ही करते हैं। शायद उनकी उपस्थिति सभी को 
					एक बड़े-बूढ़े की उपस्थिति की आश्वस्ति देती है।
 
 सुचित्रा की आँखें अनायास ही सामने की बिल्डिंग के सूने छज्जों 
					की ओर उठ गई। लगा, इन बंद खिड़कियों के पीछे अकेली अकुलाई 
					घबराई सी न जाने कितनी ‘अम्मा’ बेचैनी से सड़क पर जाते किसी 
					अपने को ढ़ूँढ रही हैं। ‘अम्मा’, हाँ सुचित्रा उन्हें अम्मा ही 
					कहती है। उन्हें आंटी कहलवाना पसंद नहीं। वे कहती हैं 'चाची, 
					ताई, अम्मा, बुआ, मौसी...अपने यहाँ कम रिश्ते हैं जो मुई आंटी 
					के बिना काम नहीं चलता। मुझे चाहे जो कहो, आंटी मत कहो 
					सुचित्रा'। कॉलोनी में जो भी नया आता है, एक बार अम्मा को आंटी 
					कहने पर मीठी झिड़की जरूर खाता है। अगले ही क्षण वे उसकी चाची, 
					ताई बन कर उसे बेसन के लड्डू, तिल की पट्टी वगैरह खिला रही 
					होती हैं।
 
 "वक्त ने किया... क्या हसीं सितम...". गाना बदल गया था। गीता 
					दत्त की गम में डूबी आवाज़ ने उसे भी गमगीन कर दिया। बाहर सड़क 
					लगभग सूनी थी। तरह-तरह की गाड़ियाँ भागी जा रही थीं, पर लोग 
					इक्के दुक्के ही दिखाई दे रहे थे। लंबे कोट, दस्ताने और कैप 
					बता रहे थे कि बाहर खासी ठंड है। कितनी सुनसान बेरौनक सड़कें 
					होती हैं यहाँ।
 सुचित्रा को याद आया पिछले साल जब नई- नई यहाँ आई थी तो दिल्ली 
					की भीड़-भाड़ और प्रदूषण से उकताया मन इस शांति से खुश हो गया 
					था। "कितना सुकून है यहाँ", उसने नवीन से कहा था।
 "हाँ, अगर बुदा की तरफ रहो तो और भी शांति है"। नवीन ने कहा 
					था।
 "अच्छा? तो तुमने उधर क्यों मकान नहीं लिया? वह तो सुना है 
					यहाँ का पॉश इलाका है"।
 "हाँ, मगर तुम वहाँ नहीं रह पाओगी"।
 "क्यों"
 "कुछ दिनों में खुद ही समझ आ जाएगा"। नवीन दूसरे कमरे में चले 
					गए। उसने अपने को अपमानित महसूस किया, ‘पता नहीं क्या सोचते 
					हैं.. मैं कोई गँवार हूँ जो पॉश जगह नहीं रह पाऊँगी...? आखिर 
					दिल्ली में भी तो हम अच्छे इलाके में रहते हैं..." सुचित्रा 
					भुनभुनाती रही।
 
 कल्चरल एक्सेंच के अंतर्गत नवीन को बुदापेश्त की यूनिवर्सिटी 
					में विज़िटिंग प्रोफेसर के रूप में तीन वर्ष के लिए नियुक्त 
					किया गया था। उन्हें सेशन के बीच में ही यहाँ ज्वाइन करना 
					पड़ा। बच्चे पढ़ रहे थे, उनके पेपर पास आ रहे थे इसलिए नवीन 
					अकेले ही आए थे। बच्चे इतने छोटे नहीं थे कि उन्हे छोड़ा न जा 
					सके, मगर उसका ही मन नहीं माना। बाद में दोनों को दादा-दादी के 
					पास छोड़ कर वह नवीन के पास आ गई। गाँव से एक नौकरानी बुला 
					लेने से सास, ससुर को भी आसानी हो गई।
 
 भगवान भला करे स्काइप का, लगता ही नहीं कि बच्चे दूर हैं। रोज़ 
					शाम को बच्चों से न केवल बात हो जाती है वरन् उन्हें आमने 
					सामने देख लेने से ऐसा लगता है जैसे बुदापेश्त और दिल्ली एक हो 
					गए हों। जब दिल्ली में लाइट चली जाती है तब उसका मन बेचैन हो 
					जाता है, "हंगरी विकसित देश नहीं है। इनकी आर्थिक स्थिति भी 
					बहुत खराब है, लेकिन कम से कम बिजली पानी की प्रॉब्लम तो नहीं 
					है", ऐसे समय में वह देर तक बड़बड़ती रहती, "अगर कहीं दो घंटे 
					के लिए भी बिजली-पानी काटना पड़ता है तो घर-घर में नोटिस चिपक 
					जाते हैं, एलाउंसमेंट होती है जैसे पता नहीं उन दो घंटों में 
					ही प्रलय आने वाली हो"।
 "हम लोगों की शुरू से आदत है न, मगर इन लोगों के लिए यह बहुत 
					बड़ी बात है"। नवीन समझाने की कोशिश करते।
 
 "मेरा नाम चिन्-चिन् चूँ...".गीता दत्त फिर खुश हो गई थी। उसका 
					ध्यान टूटा, न जाने कब से खाली कप लिए खड़ी थी। गीता दत्त के 
					सुर से सुर मिलाती वह रसोई की ओर चल दी।
 ‘जूजा के खाने के लिए क्या बनाऊँ?’ सुचित्रा सोचने लगी। 
					तीन-चार दिनों से ब्रेड-व्रेड ही खा लेती थी। अकेले के लिए 
					खाना बनाने का मन ही नहीं करता है। जब से नवीन कॉन्फ्रेंस में 
					रोमानिया गए हैं तब से वह ऐसे ही काम चला रही है। पिछली बार तो 
					वह भी नवीन के साथ चली गई थी मगर इस बार खुद ही नहीं गई। एक ही 
					जगह बार-बार जाने का फायदा नहीं था, दूसरी बात कि रोमानिया के 
					लिए हर बार वीसा का भी चक्कर पड़ता था।
 
 अब उसकी समझ में आने लगा कि शुरू में नवीन ने क्यों कहा था कि 
					तुम बुदा में नहीं रह सकती। वह तो पेश्त के बेहद चहल-पहल वाले 
					इलाके में रहती है। घर के पास ही ‘लहल तेर’ जैसी सब्जी की 
					मार्केट है और दूसरी ओर ‘वेस्टऐंड’ जैसा मॉल है। जब मन आए पैदल 
					ही घूमते हुए निकल जाओ। अच्छा ही है कि वह बुदा जैसे सुनसान 
					इलाके में नहीं रहती है।
 नहाते- धोते, पूजा- पाठ करते ग्यारह बज गए। गीता दत्त गाते- 
					गाते न जाने कब थक कर चुप हो गई थी। उसे रिपीट करने के चक्कर 
					में वह कंप्यूटर की ओर गई। जूजा का मेल आया हुआ था...घर में 
					कुछ प्रॉब्लम हो जाने के कारण वह आधा घंटा देर से आने वाली थी।
 ‘कोई बात नहीं,’ उसने उत्तर टाइप करके भेज दिया।
 
 ‘तो... अभी हड़बड़ी वाली बात नहीं है, आराम से सोचा जा सकता 
					है’, सुचित्रा ने अपने आप से कहा और किचन में दालों का खाना 
					खोल कर खड़ी हो गई, ‘तो सुचित्रा जी, आज जूजा के बहाने आप भी 
					कुछ प्रॉपर खा लें। वैसे भी एक टाइम का दो टाईम तो चल ही जाता 
					है।'
 ‘घर में प्रॉब्लम?’ अचानक ध्यान जूजा के मेल की ओर चला गया। 
					‘इनके घर में कैसी प्रॉब्लम होती होगी जहाँ न सास न ससुर, न 
					बेटा न बेटी..?’
 “क्यों घर की समस्या केवल हिंदुस्तानियों की कॉपीराइट है?". 
					नवीन उसकी बात पर हँसते हैं।
 “अरे अकेले अकेले रह कर भी न जाने क्या दुःख रहता है इन्हें 
					परिवार का? कहीं हिंदुस्तान जैसे फैमिली सिस्टम में रहते तब 
					क्या हाल होता?" सुचित्रा को तो इनके रिश्ते ऐसी भूलभुलैया 
					लगते हैं कि पूछो मत। अभी पीछे उसने नवीन की एक और स्टूडेंट को 
					घर बुलाया था अपनी मम्मी के साथ। वह अकेली आई। पूछने पर बताया, 
					“मेरी मम्मी के पति का बेटा अपनी पत्नी को लेकर आने वाला था 
					इसलिए मम्मी नही आ सकीं।"
 ‘माँ के पति का बेटा..? रिश्ता सुनते ही उसका सिर घूम गया, एक 
					मिनट बाद हिसाब लगा पाई, “मतलब तुम्हारा भाई न?”
 “उ... हाँ, हॉफ ब्रदर।"
 ‘हे राम’ उसने मन ही मन सोचा कैसे कैसे रिश्ते? संबोधनों से ही 
					लंबी दूरी का एहसास हो रहा है। पिता से प्रेम हो सकता है, 
					सौतेले पिता से भी लगाव हो सकता है पर माँ के हस्बैंड से भला 
					बच्चों का क्या रिश्ता?...धन्य है यूरोप...’
 
 खाना बना कर वह कंप्यूटर पर मेल चेक करने बैठ गई। समय कब बीत 
					गया पता ही नहीं चला। अचानक इंटरकॉम घनघना उठा।
 “वेलकम जूजा” सुचित्रा को पता था और कौन हो सकता है।
 जूजा ने घर में घुसते ही ज़ोर से साँस ली “हलो सुचित्रा, मुझे 
					तुम्हारे घर की यह महक बहुत अच्छी लगती है।"
 “हाँ, मैंने अभी-अभी पूजा की है न। अगरबत्ती की सुगंध है"।
 कुछ देर इधर- उधर की बातें करने के बाद उसने खाना लगा दिया। 
					हंगेरियन लोग बहुत देर तक धीरे- धीरे खाना खाते हैं।
 
 सुचित्रा ध्यान से जूजा के चेहरे को देख रही थी। एक उदासी 
					लगातार जूजा पर छाई हुई थी। यहाँ के लोग आमतौर पर व्यक्तिगत 
					बातें दूसरों से करना पसंद नहीं करते हैं, पर जूजा उससे अपने 
					घर- परिवार की बातें कर लेती है, फिर भी सुचित्रा ने कुछ पूछने 
					की पहल नहीं की।
 ‘कोई सेंसिटिव ईश्यू न हो’, उसने सोचा। जूजा चुपचाप कुछ सोचते 
					हुए खा रही थी, आखिर सुचित्रा से रहा नहीं गया, उसने पूछ ही 
					लिया, “तुम ठीक हो न जूजा"।
 “अँ...हाँ..”.उसने चौंकते हुए उत्तर दिया, “मैं बिल्कुल ठीक 
					हूँ"। वह सोचती हुई बोली, “मगर मेरे साथ बहुत बुरा हुआ"। 
					सुचित्रा उसका चेहरा देखती रही।
 “मालूम है सुचित्रा, मेरी माँ ने मुझे घर से निकाल दिया” जूजा 
					ने प्लेट में नज़रे गड़ाए हुए ही कहा।
 
 “घर से निकाल दिया?", सुचित्रा हैरान थी, “यहाँ के बच्चे तो 
					खुद ही घर में नहीं रहना चाहते। मुझे लगता था कि माता-पिता 
					कितने दुखी और उदास होते होंगे इस बात से कि उन्नीस-बीस साल का 
					बच्चा उसी शहर में उनसे अलग रहे, पढ़ाई और भविष्य बनाने की तरफ 
					सोचने की बजाय कमाई के बारे में सोचे। खुले आम प्रेम करता घूमे 
					और कभी कभार वीक-एंड में उनसे मिलने आ जाया करे। हमारे देश में 
					तो इस उम्र में माँ-बाप बच्चे और उसके भविष्य को लेकर अतिरिक्त 
					सतर्क हो जाते हैं। इस समय यदि कदम डगमगाए तो सारी जिंदगी 
					बर्बाद हो सकती है"।
 
 “हाँ मगर हमारे यहाँ ऐसा नहीं है। यहाँ बच्चे साथ रहते हैं तो 
					माना जाता है कि वे बहुत आरामतलब और आलसी हैं"।
 “तो अब तुम कहाँ रहोगी?”
 “अभी तो फिलहाल अपनी फ्रैंड के यहाँ, फिर देखो"।
 “ओह, मगर उन्होंने ऐसा किया क्यों?” सुचित्रा अभी भी हैरान थी। 
					जितना उसने जूजा को समझा है वह काफी समझदार और सुलझी हुई लड़की 
					लगी थी। उसका कोई ब्वाय फ्रैंड भी नहीं है। माँ भी अकेली है 
					दोनों बेटे अपनी अपनी गर्ल-फ्रैंड्स के साथ अलग रहते हैं। माँ 
					या बहन से उनका कोई खास रिश्ता नहीं है, ऐसे में यदि कोई बच्चा 
					साथ रहे तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है?. जूजा के पिता 
					नहीं हैं, यह उसने बहुत पहले ही बता दिया था। भैया, यहाँ के 
					रिश्ते…
 
 “उन्होंने सुबह मुझसे घर की चाभियाँ ले लीं। आने से पहले मैं 
					अपना सामान फ्रैंड के यहाँ रख कर आ रही हूँ इसीलिए लिखा था कि 
					मुझे देर हो जाएगी"। जूजा अपने विचारों में खोई बोल रही थी।
 “तुम्हारा खर्च कैसे चलेगा?” सुचित्रा उसके लिए परेशान हो उठी 
					थी।
 “मेरे पास एक कमरे का एक बहुत छोटा फ्लैट है, उससे बीस हजार 
					फॉरेंत किराया आता है फिलहाल उसी से काम चलाऊँगी। रहूँगी इसी 
					फ्रैंड के घर में। खाने का खर्च मैं दे दिया करूँगी"।
 “और रहने का?” पूछते-पूछते उसने खुद को रोक लिया।
 ‘वाह रे यूरोप, बच्चे भी कितने प्रैक्टिकल हैं' वह मन ही मन 
					हिसाब लगाने लगी। ‘बीस हजार फॉरैंत मतलब भारत के करीब पाँच 
					हजार रुपये। बुदापैश्त में जितनी महँगाई है उस हिसाब से ये 
					लड़की कैसे काम चलाएगी, भगवान ही जाने'।
 “ऑन्या (माँ) चाहती है कि मैं कोई नौकरी कर लूँ"। सोच में डूबी 
					जूजा मानों खुद से ही बात कर रही थी। वह भूल गई कि वह सुचित्रा 
					से बात कर रही है।
 “तो, तुम्हें काम मिला नहीं?”
 “मिला, मगर मैं ‘कोई भी’ काम नहीं करना चाहती, मैं अपनी शर्तों 
					पर काम चाहती हूँ"।
 सुचित्रा चुप हो गई। जूजा सूप की तरह धीरे- धीरे दाल पीती रही। 
					सुचित्रा उसे पहले भी समझा चुकी थी कि दाल के साथ चावल को कैसे 
					मिला कर खाया जाता है, मगर वह हमेशा पहले दाल पीती है फिर कॉटे 
					से चावल और सब्जी खाती है। अभी भी वह ऐसे ही खा रही थी, मगर 
					सुचित्रा ने टोकना ठीक नहीं समझा।
 “जानती हो सुचित्रा”, जूजा दाल में चम्मच हिलाते हुए बोल रही 
					थी, “ऑन्या के नए ब्वाय फ्रैंड ने भी उनकी इस बात को गलत कहा"।
 “नया ब्याय फ्रैंड?” सुचित्रा चौंक गई। इतना समय हो गया हंगरी 
					में रहते, मगर अपनी उम्र के लोगों के ब्वाय- फ्रैंड, 
					गर्ल-फ्रैंड की बातें आज भी सहज हो कर नहीं झेल पाती है। नवीन 
					उसकी इस बात पर हँसते हैं, “यह योरोप है डॉर्लिंग, यहाँ शादी 
					की सिल्वर-जुबली, गोल्डन-जुबली एक साथ मनाने का रिवाज़ कम ही 
					है। यहाँ के लोग प्रसाद जी की इस बात को मानते हैं---पुरातनता 
					का यह निर्मोक सहन करती न प्रकृति पल एक...”
 “अच्छा?” सुचित्रा हँसने लगती, “मगर जनाब यह केवल आदमियों के 
					लिए ही नहीं है”
 “हाँ-हाँ मैंने कब मना किया है जानेमन, आपके लिए भी मैदान खुला 
					है....”
 
 माँ का ‘नया ब्वाय फ्रैंड’ दिमाग में अटक गया था, “पहले वाले 
					को छोड़ दिया क्या?” सँभालते सँभालते भी मुँह से निकल गया, 
					हालाँकि कह कर वह डर गई कि कहीं जूजा बुरा न मान जाए।
 “हाँ,” जूजा ने वैसे ही अनमने से उत्तर दिया। उसके लिए यह बहुत 
					सामान्य सी बात थी।
 “क्यों" सुचित्रा की हिम्मत बढ़ गई, “तुमने बताया था वे पिछले 
					चौदह पंद्रह सालों से एक साथ थे?”
 सुचित्रा को याद आया पहली बार जब जूजा ने माँ के ब्वाय- फ्रैंड 
					के बारे में बताया था तो उसने पूछ लिया था कि मम्मी उनसे शादी 
					क्यों नहीं कर लेतीं?
 “क्योंकि वे अपनी व्यक्तिगत जिंदगी जीना चाहती हैं। अपनी 
					आज़ादी नहीं खोना चाहतीं हैं"। एक बेटी के मुँह से अपनी माँ के 
					बारे में ऐसी बातें सुन कर वह अवाक् रह गई थी।
 “हाउ लकी”, रात को उसने नवीन को छेड़ते हुए कहा था, “दोनों 
					हाथों में लड्डू हैं।”
 ...“क्योंकि वह जब भी छुट्टी लेता था अकेले ही घूमने चला जाता 
					था। खूब महँगे होटलों में रहना, क्रूज़ में घूमना। मगर कभी 
					आन्या को लेकर नहीं गया। न ही उन्हें कोई अच्छा गिफ्ट दिया” 
					जूजा बता रही थी।
 “केवल इसलिए तुम्हारी माँ ने उन्हें छोड़ दिया?” सुचित्रा की 
					जिज्ञासा अब पचीस वर्षीया जूजा से हट कर उसकी पचपन वर्षीया माँ 
					पर टिक गई थी।
 “केवल?” अब जूजा थोड़ी सजग हुई, “यह छोटी बात तो नहीं? पंद्रह- 
					सोलह सालों में आन्या पर कभी पैसे नहीं खर्चे, उन्हें हमेशा 
					घूमने- फिरने के लिए अपनी सहेलियों के साथ जाना पड़ता है। खुद 
					अपने पैसे खर्च करने पड़ते हैं"।
 “लेकिन तुम तो कहती थीं कि वे तुम्हारे घर के बहुत सारे काम कर 
					देते हैं”, सुचित्रा अभी तक इस ‘नए’ को गले नहीं उतार पा रही 
					थी।
 
 “हाँ, मगर काम तो नया वाला भी कर देता है"।
 “ओह, तो नए वाले घुमाने भी ले जाते हैं?”
 “हाँ, अभी वे लोग इटली घूम कर आए हैं। आन्या बहुत खुश थी,” 
					जूजा का चेहरा माँ की खुशी य़ाद कर खुश हो गया। कुछ देर के लिए 
					वह अपना दुख भूल गई थी।
 “कल शाम पीटर और दानियल दोनो माँ को समझाने भी आए थे"।
 “दोनों, मीन्स?” सुचित्रा फिर चौंकी, “तुम्हारी माँ के एक्स और 
					प्रेज़ेंट ब्वॉय फ्रैंड्स? वे दोनों एक दूसरे को जानते हैं?”
 “हाँ.. वे आपस में मित्र हैं,” इस बार जूजा को सुचित्रा की 
					हैरानी से आश्चर्य हुआ, "इसमें क्या खास बात है?”.
 “तुम्हारी मम्मी को लेकर उनके बीच कोई मन मुटाव नहीं हुआ?”
 “नहीं, यह तो आन्या की पसंद है। भारत में ऐसा नहीं हो सकता है 
					न?”
 “नहीं, भारत में तो टी.वी. सीरियल्स में भी यह सब दिखाने पर 
					लोग नाराज़ हो जाते हैं"।
 “वहाँ के बच्चे खुशकिस्मत हैं”.जूजा ने आह भरी, “सारी ज़िंदगी 
					‘अपने’ माँ- बाप के साथ रह पाते हैं"। जूजा ने अपने पर जोर 
					देते हुए कहा, "हमारे यहाँ तो....”
 सुचित्रा तुरंत दिल्ली पहुँच गई..
 
 “...मॉम ये अंकल बिल्कुल वेल्लै हैं क्या... जब देखो स्काइप 
					मिला कर ‘हैल्लो...सुचित्रा जी... ‘शुरू हो जाते हैं...।” 
					कानों में बेटी की आवाज़ गूँज गई।
 “कनिका तमीज़ से बात करो, वे तुमसे बहुत बड़े हैं।" उसके 
					डाँटने पर कनिका पैर पटकती हुई चली गई थी।
 नवीन के बुदापेश्त आ जाने के बाद सुचित्रा ने घर पर स्काइप 
					डाउनलोड कर लिया था। उसने क्या, बेटे ने ही कर दिया था। नवीन 
					से रोज़ बात होने लगी। एक दिन आकाश के नाम से उसके स्काइप 
					एड्रैस पर इंन्विटेशन आया तो उसने उत्सुकता-वश येस कर दिया। 
					उधर से कैमरा भी ऑन था।
 “क्या मैं सुचित्राजी से बात कर सकता हूँ?”
 “जी हाँ, बोल रही हूँ,” अनजान चेहरा देख कर उसने कैमरा नहीं ऑन 
					किया, “पहचाना सुचित्रा जी?” चेहरे ने मुस्कराते हुए पूछा।
 “न...नहीं" सुचित्रा ने पहचानने की कोशिश करते हुए कहा।
 “मैं आकाश, एम.ए. में आपके साथ पढ़ता था।"
 “आकाश...?” सुचित्रा ने उस बुढ़ाते चेहरे में इक्कीस वर्षीय 
					आकाश को आखिर ढूँढ ही लिया, “ओह आकाश, इतने दिनों बाद अचानक? 
					कैसे हो? कहाँ हो?” प्रश्नों की झड़ी ही लग गई, "तुम्हें मेरा 
					स्काइप एड्रैस कैसे मिला?”
 “बस ढूँढ ही लिया” आकाश ने गर्व से कहा।
 
 आकाश आजकल स्लोवाकिया में था। पत्नी, बच्चों के साथ लखनऊ में 
					रहती थी। अभी उसके प्रोजैक्ट का एक साल और था। वहाँ के अकेलेपन 
					और घुटन से घबराया आकाश ढूँढ- ढूँढ कर पुराने दोस्तों को 
					कनेक्ट कर रहा था। यह सुन कर कि सुचित्रा के पति भी हंगरी में 
					हैं वह बहुत खुश हुआ और नवीन से भी कनेक्ट हो गया। फिर क्या था 
					करीब- करीब रोज़ आकाश स्काइप पर आता और वे देर तक बातें करते। 
					आकाश से बात करते हुए उसे ऐसा लगता जैसे वह अभी भी यूनिवर्सिटी 
					में पढ़ने वाली सुचित्रा है।
 
 कुछ समय बाद उसने महसूस किया कि आकाश का कॉल आते ही बच्चों के 
					मुँह चढ़ जाते हैं। घर में तनाव सा पसर जाता है। बेटे ने तो 
					नहीं मगर एक दिन बेटी ने बोल ही दिया, “क्या मॉम ये आकाश अंकल 
					रोज ही क्यों फोन कर देते हैं?”
 “यों ही, बेचारे स्लोवाकिया में बोर होते रहते हैं...”
 “तो टाइम पास के लिए आप ही मिली हैं..?” कनिका ने उसकी बात बीच 
					में ही काट दी..."बीबी बच्चे नहीं हैं इनके बात करने को..??”
 सुचित्रा का जी धक् से रह गया। बित्ते भर की लड़की और दस 
					बित्ते की ज़बान, “क्या मतलब है तुम्हारा?”
 “मुझे नहीं अच्छा लगता इनका इस तरह रोज़ बात करना..” कनिका की 
					टोन सुन कर वह सन्न रह गई।
 “क्यों भाई आपको क्या तकलीफ है मेरे बात करने से..?” उसका मन 
					किया मार मार कर इस लड़की के गाल लाल कर दे।
 “अब आप को कोई क्या समझाए?.. नहीं पसंद तो बस नहीं पसंद..” 
					सुचित्रा को लगा जैसे बेटी ने जवाब नहीं दिया बल्कि उसके मुँह 
					पर तमाचा मारा है। अपमान और दुख से उससे बोला नहीं गया। आँखों 
					में आँसू आ गए। हर टॉपिक पर बात कर सकने और अपने को बहुत 
					मॉडर्न समझने वाले ये बच्चे...
 मन में बहुत कुछ घुमड़ रहा था पर न जाने क्यों अपनी ही बेटी से 
					अपनी सफाई देने में मन बेहद अपमानित भी महसूस कर रहा था। 
					सुचित्रा ने खून का घूँट पी कर कंप्यूटर ऑफ किया और अपने कमरे 
					में आ गई। मन कर रहा था अभी नवीन को फोन करूँ...। उसने ध्यान 
					दिया कि हमेशा कनिका की बत्तमीज़ी पर माँ की तरफ से बोलने वाले 
					विकास ने भी आज बहन को कुछ नहीं कहा बल्कि अपने कमरे में सुनी- 
					अनसुनी करता हुआ बैठा रहा। शर्म और अपमान से बुत बनी सुचित्रा 
					चीख चीख कर रोना चाह रही थी।
 
 ठंडे मन से सोचने के बाद सुचित्रा ने इस टॉपिक को खत्म करने 
					में ही भलाई समझी। उस दिन के बाद से वह स्काइप केवल नवीन से 
					बात करने के ही वक्त लगाती और तुरंत ऑफ लाइन हो जाती। न वह 
					ऑनलाइन रहेगी न आकाश की कॉल आ पाएगी। सुचित्रा ने सोच लिया। वह 
					बच्चों के सामने आकाश का नाम तक नहीं लेना चाहती थी। कभी नवीन 
					ने
  आकाश 
					के बारे में कुछ बात भी करनी चाही तो उसने टाल दिया।... और एक 
					दिन सुचित्रा ने आकाश का नाम भी स्काइप से हटा दिया। 
 “अच्छा सुचित्रा, मैं चलती हूँ” जूजा कह रही थी। सुचित्रा को 
					लगा जैसे जूजा ने उसे अचानक ही दिल्ली से खींच कर बुदापेश्त 
					में ला पटका हो। “अच्छा”, वह इतना अचकचा गई कि समझ नहीं आया कि 
					जूजा को क्या कहे उसे लगा जैसे वह बहुत थक गई है, जैसे इस बीच 
					उसने दिल्ली- बुदापेश्त की लंबी यात्रा की हो। जूजा को विदा कर 
					वह बिस्तर पर ढह गई।
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