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					 चाय 
					का प्याला साथ की तिपाई पर रखते हुए, माँ ने प्यार से उसके सिर 
					पर हाथ फेरा। "उठ जा बेटे, आज तो तेरे लिये तेरी भाभी ने बहुत सा इन्तज़ाम 
					किया हुआ है। चलना नहीं।"
 उसने कुनमुना कर आँखे खोलीं। निगाहें माँ की बजाए साथ लगी 
					बैसीनेट में लेटी बच्ची पर पड़ीं। मुस्कुरा उठी, हाथ बढ़ा कर 
					उसका पाँव सहला दिया।
 
 बच्ची उठ चुकी थी, किलकारियाँ मार रही थी। माँ ने बच्ची को उठा 
					कर उसे पकड़ा दिया। ढेर सारी चुम्मियाँ लेने के बाद वह हड़बड़ा कर 
					उठी - "अरे यह तो गीली है?"
 "मैं इसका ख़्याल कर लूँगी, तू उठ कर तैयार हो जा।" कहते हुए 
					माँ ने बच्ची को उससे ले लिया।
 "माँ, भाभी को इतना ताम-झाम करने की क्या ज़रूरत थी। बेबी - 
					शॉवर तो बच्चा पैदा होने से पहले किया जाता है, बाद में थोड़े 
					ही।"
 "मैंने ही उसे रोका था। जब तक गोद लेने की सारी औपचारिकताएँ 
					पूरी होकर, बेबी घर न आ जाए, तब तक हम कुछ नहीं करना चाहते थे। 
					तुझे नहीं मालूम, लाल-फ़ीताशाही में भारत का नम्बर पहला है। साल 
					भर से तो हील-हवाले कर रहे थे। कहीं बात आख़िरी वक्त बिगड़ जाती 
					तो? मुझे वहम था।"
 माँ ने बच्ची को साथ लगे बिस्तर पर लिटाकर, वहीं उसको साफ़ करना 
					शुरु कर दिया।
 "मुझे अजीब-सा लगता है..." वह बात पूरी किए बिना ही चुप हो गई।
 
 बच्ची को भूख लगी थी, रोना शुरू कर दिया।
 "तुम्हारा पहला- पहला बच्चा है। हमने भी तो अपने चाव पूरे करने 
					हैं।" उन्होंने उमग कर बच्ची को उठा लिया और उसकी दूध की बोतल 
					लेने दूसरे कमरे में चली गईं।
 "पहला नहीं दूसरा", उसके मन में आया। वह फिर से बिस्तर पर लुढ़क 
					गई। सीने में एक गहरे अवसाद का गुबार उठा और उसकी पूरी चेतना 
					पर छा गया। नीम-बेहोशी सी छा गई। वह याद - न याद करने से परे 
					का हर पल सालता दर्द, कभी चेतना से मिटा ही नहीं।
 स्कॉट के काँपते हाथ के नीचे उसका बेजान सा पसीजता हाथ। दोनों 
					डरे हुए, सामने एक भुतहा सवाल - अब ?
 फ़ैसला स्कॉट ने किया था- "इसे ख़त्म करना होगा, अभी हम तैयार 
					नहीं।"
 
 वह उसके फ़ौलादी फ़ैसले को सुन रही थी। सुनना कुछ और चाहती थी।
 "शादी हो जाने के बाद तुम जितने चाहे बच्चे पैदा करना।" स्कॉट 
					ने उसे लाड़ से बाँहो में भरकर तसल्ली देने की कोशिश की।
 "अभी शादी क्यों नहीं कर सकते?" उसने बहुत ख़ोखली आवाज़ में पूछा 
					।
 "तुम जानती हो कि मेरे माँ -बाप अपने समाज में कितने 
					प्रतिष्ठित लोग हैं। वह धूम-धाम से हमारी शादी करना चाहते हैं। 
					इतनी जल्दी सब कुछ नहीं हो पाएगा। चर्च में लोग हमारी इज़्ज़त 
					करते हैं। शादी से पहले बच्चा? वह लोग समाज में मुँह दिखाने 
					लायक नहीं रहेंगे।"
 वह सीधी उठकर बैठ गई। स्कॉट की आँखो में आँखे डाल कर पूछा था, 
					"और भ्रूण हत्या? वह चर्च को मंज़ूर है?"
 स्कॉट उखड़ गया था। "आख़िर तुम चाहती क्या हो? तुम्हारे माँ -बाप 
					को अगर पता लगा तो क्या वह इसे स्वीकार कर लेंगे?"
 दोनों में चुप्पी थी। दोषी तो वह भी उतनी ही थी। सारी दुनिया 
					से टक्कर लेकर, अकेले दम पर माँ बनने की हिम्मत तो उसमें भी 
					नहीं थी। उलझन, घबराहट, डर, सबको उसने अपनी ख़ामोशी के कफ़न तले 
					दबा दिया।
 
 स्कॉट ने ही किया सब इन्तज़ाम। अस्पताल में उसने भी क्लोरोफ़ॉर्म 
					सूँघ लिया। कुछ इस भाव से जैसे वह अपना सिर रेलगाड़ी की पटरी पर 
					रखकर, अब रेल गुज़रने का इंतज़ार कर रही हो। उसका सारा डर मर 
					चुका था। एक ठंडे काले अँधेरे में उसकी चेतना गुम हो गई। होश 
					आया तो उसके साथ कमरे में बस एक नर्स थी।
 
 पास आकर उसने बहुत नरमी से पूछा, "कैसा लग रहा है?"
 वह मृतवत पड़ी रही। अभी तक नहीं बता सकती कि उस वक्त कैसा लगा 
					था? शायद इतना ख़ाली कि जैसे... जैसे सरी दुनिया उजाड़ हो गई हो।
 स्कॉट बहुत प्यार से संभालकर उसके अपॉर्टमेंट में ले आया था। 
					पास बैठा रहा, माथा सहलाता रहा। वह होंठ भींचे चुप लेटी रही। 
					दर्द, दर्द, हर तरफ़ दर्द। आँखे बंद किए झेलती रही। स्कॉट की 
					तरफ़ देखा तक नहीं।
 तीन दिन बाद बेहद कमज़ोरी की हालत में उठकर काम पर चली आई थी। 
					दूसरे शहर में बैठे माँ -पापा को क्या खबर? वे जो उसके हर पल 
					की ख़बर रखना चाहते थे।
 
 स्कॉट धोखेबाज़ तो नहीं निकला। सिर्फ़ छह महीने बाद उसने सूर्या 
					के बाएँ हाथ की अनामिका में सगाई वाली अँगूठी पहना दी। उससे 
					मुस्कुराया तक न गया। फिर छह महीने बाद शादी भी हो गई -दोनों 
					परिवारों के चाव के साथ। सगाई वाली अँगूठी के साथ विवाहितों 
					वाला गोल छल्ला -"वैडिंग -बैंड" भी पहन लिया था उसने।
 
 अब स्कॉट ख़ुद चुहल करता। पूछता -" मुझे डैडी कब बना रही हो?"
 वह बेबसी से मुस्कुरा भर देती। अब उसके हाथ में नहीं था। दोनो 
					सोचते, नर्सरी वाला कमरा आबाद हो गया तो सब कुछ उसकी चेतना से 
					भी धुल-पुँछ जाएगा। मन के अँधेरे पर पीली धूप तिर आएगी।
 
 तीन साल बीत गए। सूर्या ने ही सुझाव दिया कि गर्भाधान क्लीनिक 
					भी आजमा कर देख लें। स्कॉट मान गया। फिर दर्द का एक और दौर। 
					अल्ट्रा-साउंड, रक्त- जाँच और टीकों का दौर। अण्डाणुओं और 
					शुक्राणुओं की परख नली में जनन क्षमता बढ़ा कर वापिस गर्भाशय 
					में रखने की प्रक्रिया। रोज़ क्लीनिक में जाँच के लिये जाना। 
					गर्भ ठहर गया। फिर टीके। डॉक्टर ने बहुत सावधानी बरतने को कहा।
 
 वह काम से रोज़ तो छुट्टी नहीं ले सकती थी। फिर एक दिन कमर में 
					ज़ोर का दर्द उठा। डॉक्टर को फ़ोन किया तो उसने लेटे रहने की 
					हिदायत दी। दर्द तीव्र था और स्कॉट काम पर। उसने अपनी सहेली 
					प्रिया को फ़ोन किया। प्रिया उसी वक्त उसे अस्पताल ले गई। फिर 
					वही बेहोशी - बच्चा नहीं ठहरा, इस बार उनके चाहने पर भी।
 
 डॉक्टर ने तसल्ली दी। वही बार- बार हो जाता रहा। वह परेशान थी। 
					फिर शहर के सबसे प्रतिष्ठित स्त्री -रोग विशेषज्ञ के पास गई। 
					जब डॉक्टर ने सब पूछा तो वह छिपा न सकी। इस मोड़ पर उसे कोई डर 
					नहीं था। डॉक्टर ने पूरा इतिहास जाना, मुआयना किया। माथे पर बल 
					पड़े, उलझे और सुलझ गए। पास की कुर्सी पर बैठकर कोमलता से बोली 
					- "कई बार ऐसा हो जाता है। गर्भपात करवाने से हमेशा के लिये 
					नुक़्स पड़ जाता है। कभी तुम बच्चा चाहते नहीं और फिर कभी बच्चा 
					होता नहीं।"
 
 सूर्या जान गई कि इस सच को उसे आत्मसात करना ही होगा कि अब 
					उसकी कोख से कभी कोई बच्चा नहीं होगा। सोचती रही, यह मेरे शरीर 
					की सीमा, मेरी माँ बनने की सीमा तो नहीं हो सकती। दुनिया में 
					कितने बच्चे हैं जिन्हें माँ-बाप चाहिएँ और मुझे बच्चा।
 स्कॉट से पूछा _ "हम बच्चा गोद ले लें?"
 स्कॉट उसे बाहॊं में बाँधकर चुप रहा। वह उसका चेहरा नहीं देख 
					पाई। भर्राई हुई आवाज़ सुनी -
 "सूर्या, मुझे माफ़ कर दो।" वह फफक-कर रो पड़ा।
 सूर्या उसे देखती रही। नहीं जानती थी कि स्कॉट के आँसुओं से 
					उसके मन पर जमा ग्लेशियर भी पिघल जाएगा। दोनों एक-दूसरे को 
					चु्प कराते रहे। आज पहली बार उस अपने पहले अजन्मे बच्चे का शोक 
					करते रहे।
 "कुछ भी, कुछ भी करो सूर्या-जो तुम्हारी ख़ुशी लौटा सके।"
 ....
 
 सूर्या की खोज बढ़ती गई। उसने सोचा कि वह भारत से बच्चा गोद 
					लेगी ताकि बच्चा उससे और वह बच्चे से जुड़ाव महसूस कर सके। उसने 
					अन्तर्जाल के द्वारा गोद लेने वाली संस्था का पता लगाया, उनके 
					नियम जाने। माँ-बाप में से यदि एक भी भारतीय मूल का हो तो 
					बच्चा मिलने में कठिनाई नहीं थी। बस वह लग गई सारे आर्थिक 
					ब्यौरे जमा करवाने में। सभी औपचारिक दस्तावेज भाग-भाग कर 
					इकट्ठे करके भेजे। एजेंसी ने कुछ बच्चों के वीडियो भेजे। स्कॉट 
					और वह धड़कते दिल से देखते रहे। एक छोटी-सी बच्ची मुस्कुराती 
					हुई दिखी तो स्कॉट के मुंह से एकदम निकल गया - "सूर्या, 
					बिल्कुल तुम्हारी तरह।"
 
 सूर्या टकटकी लगाकर देखती रही । बच्ची कहीं उसके भीतर उतर गई। 
					उसने छलछलाती आँखों से स्कॉट की ओर देखा।
 स्कॉट ने हामी में सिर हिलाया। दोनों ने कसकर एक-दूसरे को जकड़ 
					लिया। मन-मस्तिष्क में पता नहीं कितने ज़ोर का तूफ़ान चल रहा था। 
					वे एक-दूसरे का सहारा बने बहुत देर तक यों ही बैठे रहे - 
					निश्शब्द।
 
 उनकी अर्ज़ी स्वीकृत हो गई। बच्ची उनको मिल जाएगी। नए मेहमान की 
					तैयारियों में सूर्या उड़ती थी।
 माँ, पापा और स्कॉट सभी बच्ची लेने भारत पहुँचे। फिर से 
					औपचारिकताओं का सिलसिला। पापा ढाँढ़स देते -"मैं सँभाल लूँगा।"
 बच्ची लिये एक साधारण सी दिखती महिला सामने आई। पिछले कुछ 
					महीनों से ताराबाई ही उनकी इस अमानत का ख़्याल रखती थी।
 सूर्या काँप रही थी। माँ ने प्यार से उसे बिठा दिया - बच्ची 
					उसकी गोदी में थी।
 यह पल - लगा जैसे सदियों से वह इस पल की प्रतीक्षा कर रही थी।
 "मेरी बच्ची", वह धीरे से बुदबुदायी। उसने उसे सीने से भींच 
					लिया। आँखे बन्द कर लीं। गहरी साँसों के साथ ही रुके हुए 
					आँसुओं ने बग़ावत कर दी।
 माँ ने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा- "ख़ुशी का मौक़ा है, रोना 
					नहीं", और ख़ुद ही रो पड़ीं।
 स्कॉट सबसे पीछे चुपचाप खड़ा था। पापा ने पकड़कर उसे भी सूर्या 
					के साथ बिठा दिया। स्कॉट ने सूर्या को बच्ची समेत बाँह के घेरे 
					में ले लिया। पत्नी को देखा और यों मुस्कराया जैसे आज वह 
					बेकर्ज़ हो गाया हो।
 
 माँ और स्कॉट अमेरिका लौट आए, उन्हें नौकरी पर वापिस जाना था। 
					पापा अवकाश-प्राप्त थे, साथ-साथ लगे रहे। अब अमरीकी दूतावास से 
					बच्ची के दस्तावेज बनवाने थे।
 "नाम क्या दोगी बच्ची को?" पापा ने पूछा था।
 वह देखती रही बच्ची को, जिसके बारे में उसे कुछ भी नहीं मालूम। 
					न जन्म देने वाले, न जन्म-स्थान, न जन्म का कारण, न त्याग देने 
					की वजह। बस पता था तो इतना कि उसके अपने मूल की धरती ने उसे यह 
					बच्ची सौंपी है। चुप, सूर्या बहुत कुच सोच गई। फिर बोली,
 "मैं इसे सिया कहूँगी।"
 "सुन्दर नाम है, तुम्हारे नाम से मिलता हुआ।" पापा सहमत थे।
 ....
 
 सजी-संवरी सिया को गोद में उठाए माँ कमरे में आईं तो हैरान रह 
					गईं।
 "तेरी तबियत तो ठीक है न? अभी उठी तक नहीं।"
 "ठीक हूँ", कहकर उसने बच्ची को माँ से ले लिया। गुलाबी फ़्रॉक 
					में सिया उसे दुनिया की सबसे प्यारी बच्ची लगी। इतनी सुन्दर 
					आँखे, इतना भोला चेहरा और ये छोटे-छोटे गुलाबी होंठ.... वह 
					मुग्ध हो रही थी।
 "चल हट, बच्चे को माँ की ही नज़र सबसे पहले लगती है।"
 माँ काजल की पेंसिल लेकर सिया की कनपटी पर दिठौना लगाने ही जा 
					रही थी कि सूर्या ने रोक दिया।
 "यहाँ नहीं, बाएँ गाल पर छोटा सा तिल का निशान बनाओ, लिज़ टेलर 
					जैसा।"
 "जा बाबा, जल्दी से तैयार हो जा।"
 सूर्या नहा कर निकली तो देखा माँ कमरे में एक भारी -सी साड़ी और 
					गहनों का सैट, चूड़ियाँ, बिन्दी, सब रख गई थी।
 वह हंसी- "माँ, मुझे यह सब पहनने की आदत नहीं।"
 "आज तेरी गोद-भराई की रस्म होनी है। मेरी रानी बेटी, आज पहन 
					ले।" माँ ने पुचकार दिया।
 
 माँ आज ख़ुद भी कोई कम नहीं सजी थीं। बच्ची को कार-सीट में डाल 
					वह पीछे बैठीं और सूर्या गाड़ी चला रही थी। माँ की सेंट की 
					खुशबू उसे अच्छी लगी। भाभी ने सिर्फ़ औरतों को ही बुलाया था, 
					पापा घर ही रह गए। सोचा, स्कॉट भी अगर उसके साथ आया होता तो इस 
					भारतीय-अमरीकी खिचड़ी का स्वाद वह भी लेता पर उसे तो नौकरी करनी 
					ही थी। सूर्या ने जो नवजात बच्ची के लिये अवैतनिक छह महीने की 
					छुट्टी ली हुई है।
 एक घंटे बाद ज्यों ही वह भाई के दरवाज़े पर पहुँचे, माँ ने 
					बच्ची को सूर्या को पकड़ा दिया और ख़ुद दो क़दम पीछे हो लीं।
 सूर्या के घर में दाख़िल होते ही ऊपर की बॉल्कनी से गुलाब की 
					पंखुड़ियों की बारिश होने लगी। उसने देखा, भाई की छोटी- छोटी 
					दोनों बेटियाँ ऊपर से फूल बरसा रही थीं।
 
 "वैल्कम, वैल्कम" की आवाज़ें गूंजने लगीं। स्कॉट की बहन ने 
					खटाक-खटाक तस्वीरें लेनी शुरु कर दीं। भाभी आगे बढ़कर उससे लिपट 
					गईं -"मुबारक, बहुत-बहुत मुबारक।"फिर उसे सहेज कर बड़े कमरे में 
					ले गईं जहाँ एक सिंहासन-नुमा कुर्सी गुलाबी गद्दियों से सजाई 
					हुई थी। लेजाकर भाभी ने उसे वहीं बैठा दिया। कुर्सी के ऊपर " 
					हैप्पी बेबी शॉवर" लिखे बैलून, पूरे कमरे में "बेबी शॉवर" लिखे 
					बैनर, मख़मली भालू, और गुलाबी गुलाब के गुलदस्ते। उसका मन 
					कृतज्ञता से भर गया। भाभी ने बड़े जतन से सब तैयारी की थी।
 वह औरतों से घिरी थी। माँ की सहेलियाँ मतलब आंटियाँ, रिश्ते की 
					औरतें, उसकी सहेलियाँ, स्कॉट के दोस्तों की पत्नियाँ, बहन, सभी 
					का जमघट था। माँ ने फिर से सिया को ले लिया। कहा- -"बेटा, आज 
					तेरा दिन है।"
 आँटी बोलीं -"हमारे यहाँ तो सातवें महीने में ही गोद-भराई की 
					रस्म होती है। अब यहाँ अमरीका में आकर सब अपनी- अपनी सहूलियत 
					से रिवाज़ों को तोड़ते- मरोड़ते रहते हैं।
 
 भाभी ने बहुत बढ़िया रेस्तराँ से खाना मंगवाया था। सब खाने में 
					लग गए। गप्पें, कहक़हे, सजी -संवरी औरतें, झालरें, गुबारे, फूल- 
					सब कुछ एक गर्भवती औरत के लिये। बधाइयाँ, आशीषें, ख़ुशियाँ। 
					सूर्या केन्द्र-बिन्दु थी , इस सब की।
 "बहुत प्यारी बच्ची है। आँखें बिल्कुल तुम्हारे जैसी।" वह 
					मुस्करा दी।
 " पता नहीं कैसे कलेजे पर पत्थर रख कर इसकी माँ ने किन हालातों 
					में इसे दिया होगा? एक आंटी दूसरी आंटी से कह रही थी।
 "लड़की जो है, हमारे देश में लड़कियाँ घर की दीवारें भी हिला 
					सकती हैं।"
 "पर है बच्ची सुन्दर। हो सकता है किसी अच्छे घर की लड़की की 
					अवैध संतान हो।"
 
 सूर्या का पाँव जैसे नंगी बिजली की तार पर पड़ गया। टाँगे काँप 
					रही थीं। जाकर सोफ़े पर एक ओर बैठ गई। चक्कर-सा आ रहा था।
 माँ घबाराई हुई आईं। "सूर्या तबियत ठीक है न?"
 "यों ही सिर में दर्द हो रहा है।" उसने जबरन मुस्कराने की 
					क़ोशिश की।
 खाना लगभग ख़त्म हो चुका था। भाभी ने सबको बुला लिया। सूर्या को 
					उसी सिंहासन-नुमा कुर्सी पर बिठा दिया।
 "पहले हम अपनी रस्म कर लें, फिर तुम अपनी करते रहना।" माँ ने 
					ऐलान कर दिया।
 सूर्या माँ की दी ओढ़नी से सिर ढँक कर बैठ गई। माँ ने उसकी आरती 
					उतारी, माथे पर कुमकुम का टीका लगाया, मुँह मीठा करवाया। फिर 
					झोली में नारियल, फल और मेवे रखे। साड़ी के ऊपर गहने का डिब्बा 
					धरा। छोटी सी थैली में शगुन के डॉलर भरकर दिए। सिर पर चावल और 
					फूल रखकर, आशीषें देते हुए सिर चूम लिया।
 
 सूर्या चुपचाप आँखे झुकाए अपने हाथों की ओर देखती रही। बाएँ 
					हाथ की अनामिका में पड़े "वैडिंग-बैंड" को घुमाती रही, उस छल्ले 
					की जादुई ताक़त के नीचे वह दबती जा रही थी। लगा जैसे उसकी 
					ज़िन्दगी के मंच पर कोई जादूगर अपना "शो" कर रहा है। पृष्ठ-भूमि 
					के दृश्य बदलते जा रहे हैं। कभी ठंडा अन्धेरा, भयानक क्लीनिक 
					का कमरा सामने आ जाता , और फिर कभी घूमकर गोद-भराई की रस्म का 
					यह आयोजन। क्या सिर्फ़ इस शादी के छल्ले की वजह से? उंगली में 
					पड़ा हुआ "वैडिंग-बैंड" मज़ाक उड़ाता सा लगा। कितना कुछ घुमड़ा और 
					फिर सिमट गया।
 वह यंत्रवत मुंह मीठा करवाती रही, सिर पर फूल डलवाती हुई।
 
 "जा, अब ऊपर जाकर अपने अमरीकी कपड़े पहन ले।" माँ ने झकझोरा तो 
					वह होश में आई।
 "भई, अब हमने अपने हिसाब से बेबी शॉवर करना है।" भाभी ने भी 
					घोषणा कर दी।
 "सूर्या जल्दी आओ।"
 "बस, दो मिनट में।" कहकर सूर्या जल्दी से खिसक कर ऊपर आ गई। आज 
					रात उन्हें यहीं रुकना था। उसने साड़ी बदलकर सुन्दर सी ड्रैस 
					पहन ली। धीरे-धीरे चलकर नीचे आई। भाभी और लीसा ने मोर्चा 
					सम्भाला हुआ था। कागज़-पेंसिलें बंट चुकी थीं - लीसा सबको खेल 
					खिलाने लगी।
 सबने लिखना था कि सामने वाली टोकरी में बच्चे के इस्तेमाल की 
					कौन-कौन सी चीज़ें हैं? ठीक बताने वाले के लिये इनाम तैयार था।
 भाभी ने दूसरा खेल शुरु किया। " सूर्या का वज़न बच्चा होने के 
					दौरान कितना बढ़ा?"
 "ओ-ओ, छोड़ो।" भाभी को अपनी ग़लती का एहसास हुआ।
 
 औरतों की टोलियाँ बनाई गईं। लिखो, किस को सबसे ज़्यादा शिशु-गीत 
					आते हैं?
 "हिन्दी के या अंग्रेज़ी के?" किसी ने सवाल किया।
 भाभी हिचकी। फिर बोलीं -"कोई भी।"
 
 सूर्या बच्ची को गोद में लिये, बोतल से दूध पिलाती रही। बेमन 
					से सब तमाशा देख रही थी। कोई जीतता, कोई जानबूझ कर शैतानी 
					करता, ठहाके, हँसी मज़ाक चलता रहा।
 
 "तोहफ़े खोलो।" किसी ने फ़रमायश रखी। सूर्या ने बड़ी कतरता से माँ 
					की ओर देखा। उपहारों का प्रदर्शन उसे बहुत घटिया लगता था। कहा-
 "उठी तो सिया जग जाएगी। मैं बाद में खोल कर सबको धन्यवाद का 
					कार्ड भेज दूँगी।"
 भाभी चाय बना लाईं। लीसा ने ही सूर्या की ओर से सब मेहमान 
					औरतों को एक-एक छोटा सा लिफ़ाफ़ा भेंट किया। बधाई, धन्यवाद, थोड़ी 
					देर तक और चलता रहा।
 
 धीरे- धीरे मेहमान चले गए। भैया वापिस घर के अन्दर आ गए। भाभी 
					बिखरा घर समेटने लगीं और माँ उनकी मदद की कोशिश करती रहीं।
 सूर्या सिया को लेकर ऊपर आ गई। कमरे का दरवाज़ा अन्दर से बन्द 
					कर लिया। एकान्त से बड़ी राहत महसूस हुई। बिस्तर के पास ही बड़ी 
					सी आराम-कुर्सी रखी थी, वहीं बैठ गई। उसके दायीं ओर लगा लिवर 
					दबा कर, पाँव वाले हिस्से से कुर्सी ऊँची कर ली। अब वह अधलेटी 
					सी हो गई। सिया उसके सीने पर थी। उसने घुटने मोड़कर उसे गोदी 
					में बिठा लिया।
 
 सूर्या का मन जाने कैसा -कैसा हो रहा था। कब से वह जिसका सामना 
					नहीं करना चाह रही थी, वही अब सामने आकर अड़ गई। उसे अक़्सर लगता 
					है जैसे पर्दे, दरवाज़ों के पीछे छिपकर कोई छाया उसे निहारती 
					रहती है। बार-बार एक काँपती, डरी हुई औरत पर्दे के पीछे से 
					झाँकती खड़ी नज़र आती। आज भी सूर्या उससे आँखे चुरा रही थी। एक 
					अपराध-भाव जैसे उसने कोई चोरी की हो। जिसका हक़ था इस बेबी-शॉवर 
					का, वह तो वंचित ही रह गई।
 
  वह औरत प्रसव-पीड़ा से सिर्फ़ तड़प कर रह गई होगी। उसके बाद असीम 
					ख़ालीपन, हाथ में सिर्फ़ मुट्ठी-भर रेत। यातनाओं से गोद भरी गई 
					होगी। पता नहीं अपने बच्चे को कभी सीने से लगा भी पाई होगी या 
					नहीं? 
 सूर्या ने बच्ची को अपने सीने से भींच लिया। बच्ची ज़ोर-ज़ोर से 
					रोने लगी। चुप करवाने की क़ोशिश में उसने बच्ची को बेतहाशा 
					चूमना शुरु कर दिया। लगा जैसे वह ख़ुद भी उसी डरी हुई औरत की 
					तरह है, जो रोज़ एकान्त पाते ही पर्दे के पीछे आकर खड़ी हो जाती 
					है। सूर्या आज फूट-फूट कर रो रही थी। उसके साथ-साथ बच्ची का 
					चेहरा भी गीला हो गया।
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