आज
बहुत दिनों बाद आभा अचानक पोर्ट ऑफ स्पेन के, इंडियन ग्रोसरी
स्टोर में मीना से टकरा गयी। दोनों ही एक दूसरे को देखकर चौंक
गयीं। दोनों ने एक दूसरे को जोर से गले लगाया।
आभा ने कहा, "तुम अचानक कहाँ गायब हो गई थीं। मैंने तुम्हें एक
दो बार फोन भी किया, लेकिन तुम्हारा फोन बंद था। फिर बाद में
किटी पार्टी में किसी ने बताया कि तुम हिंदुस्तान चली गयी हो।
मेरे पास तुम्हारा इंडिया का नंबर भी नहीं था। मुझे समझ ही
नहीं आया, क्या हुआ, सब ठीक तो है न। कब वापस आयीं? बच्चे कैसे
है? प्रदीप के क्या हाल हैं? किटी पार्टी में आना क्यों बंद कर
दिया?" आभा ने एक साथ कई प्रश्नों की बौछार कर दी। मीना इस
अप्रत्याशित स्थिति के लिए तैयार न थी।
उसने आभा से कहा , "फिर कभी बात करेंगे, अभी में जरा जल्दी मैं
हूँ"। वह इस समय यहाँ आभा के किसी प्रश्न का उत्तर नहीं देना
चाहती थी। आभा ने कहा, "कोई बात नहीं, कल दोपहर किटी पार्टी
हमारे घर पर है। तुम बारह बजे आ जाना।" मीना ने कहा- "नहीं कल
में व्यस्त हूँ, फिर कभी सही।"
मीना ने अपने बुटीक का कार्ड, पर्स से निकाल आभा के हाथ में रख
दिया और आभा को बाय बोलकर शीघ्रता से स्टोर से बाहर आ गयी।
मीना अपनी किसी भी पुरानी सहेली से न बात करना चाहती
थी, न ही मिलना चाहती थी। मीना तो किटी पार्टी की जान हुआ करती
थी। अचानक क्या हो गया। आभा को लगा कि मीना कुछ छुपाने की
कोशिश कर रही थी। उसका चेहरा भी बुझा बुझा सा लग रहा था। पर वह
कुछ समझ नहीं पायी।
आभा, मीना को पिछले कुछ साल से जानती थी। एक किटी पार्टी में
वह उसे पहली बार मिली थी। धीरे धीरे दोनों में अच्छी दोस्ती हो
गयी थी। जब भी किटी पार्टी में वो दोनों मिलतीं, एक साथ बैठकर
खूब मस्ती करतीं। पर कभी किसी ने एक दूसरे की व्यक्तिगत जिंदगी
के बारे में ज्यादा कुछ पूछने या जानने की कोशिश नहीं की।
आजकल की व्यस्त जिंदगी में दोस्ती भी अच्छा समय काटने की एक
जरूरत भर बन कर रह गयी है। दोस्ती में वो गहराई नहीं कि यदि एक
सहेली कुछ महीने न मिले तो दूसरी उससे मिलने के लिए अधीर हो।
हँसने हँसाने के लिए और मौज मस्ती के लिए "तू नहीं और सही, और
नहीं और सही" वाली स्थिति है।
आभा को बस इतना ही पता था कि मीना शादी के कुछ महीने बाद ही
अपने पति प्रदीप के साथ ट्रिनिडाड आ गयी थी। मीना और प्रदीप
दोनों के ही परिवार देहली में ही रहते हैं। प्रदीप यहाँ किसी
अच्छी कंपनी में इंजीनियर हैं। मीना के दो बच्चे मयंक और नेहा
हैं, जो दो अलग अलग यूनिवर्सिटी में पढ़ने अमेरिका चले गए हैं।
पहले बेटी नेहा गयी और दो साल बाद बेटा मयंक भी चला गया। दोनों
वहाँ हास्टल में रहते हैं और अब नेहा काफी खालीपन महसूस करती
है, इसलिए किसी के घर भी किटी पार्टी हो, सब जगह आ जाती है।
अगले दिन अपने घर किटी पार्टी में आभा ने अन्य महिलाओं को
बताया कि वह कल मीना से इंडियन ग्रोसरी स्टोर में मिली थी।
उसने मीना को आज आने के लिए भी कहा था। पर मीना ने मना कर
दिया। तब उन्हीं महिलाओं में से किसी एक ने कहा- "तुम्हें पता
नहीं, मीना और प्रदीप का तलाक हो गया है। अब वह यहाँ पोर्ट ऑफ
स्पेन में प्रदीप के साथ नहीं रहती। उसने सैंट अगस्टिन में एक
अपार्टमेंट किराए पर लिया है। उसी में बुटीक खोल लिया है और
वहीं रहती है। देहली से बहुत सारे कपड़े ले कर आई है। पति से तो
बनाई नहीं, अब बुटीक चला रही है।"
आभा को यह सब सुनकर बहुत बुरा लगा, पर वह चुप रही। उसे बहुत
बेचैनी हो रही थी। जैसे ही किटी पार्टी खत्म हुई और सब महिलाएँ
अपने अपने घर चली गईं, आभा ने तुरंत मीना का दिया हुआ कार्ड
पर्स में से निकाला और मीना को फोन लगाया। उसने मीना से फोन पर
कुछ नहीं कहा, बस अपनी मिलने की जिज्ञासा व्यक्त की। उसे मीना
की बहुत चिंता हो रही थी। मीना भी आभा से मिलकर बहुत सारी
बातें करना चाहती थी। इसलिए उसने अगले दिन आने के लिए कह दिया।
अगले दिन जब आभा मीना के घर पहुँची तो मीना एक महिला को कुछ
कपड़े दिखा रही थी। मीना ने आभा से कहा, "तुम अंदर बैठो, मैं बस
अभी आती हूँ।"
महिला के जाने के बाद मीना अंदर आई, आभा को गले लगाया और फिर
चाय के लिए पूछा। आभा के हाँ कहने पर मीना ने दो कप चाय बनाई
और फिर एक प्लेट में नमकीन और कुछ बिस्किट लाकर आभा के पास आकर
बैठ गयी।
आभा बहुत बेचैन थी, इसलिए बिना किसी औपचारिक बातों के आभा ने
मीना से सीधा प्रश्न पूछा, "मीना कल किटी पार्टी में किसी ने
बताया कि तुम्हारा तलाक हो गया। क्या यह सच है?"
मीना के मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे, बस धीरे से सिर हिलाते
हुए हाँ बोल पायी।
“क्या हुआ मीना?, तुम्हारा परिवार तो इतना खुशहाल परिवार था ।
अचानक यह तलाक, कुछ समझ नहीं आ रहा।"
मीना की आँखों से अश्रुधार बह निकली, जैसे कोई बदली बहुत दिनों
से बरसने के लिए उतावली हो, उसने जोर से आभा को गले से लगाया
और फफक फफक कर रो पड़ी। जब आँसू कुछ थमे तो वह बोली, "तुम सही
कह रही हो आभा, देखने में सभी को यही लगता था कि हम एक खुशहाल
दंपत्ति हैं, लेकिन हमारे परिवार को पता नहीं कब किस की नजर लग
गयी कि धीरे धीरे सब खत्म हो गया। अफसोस तो यह है कि, मैं यह
भी तो नहीं कह सकती कि प्रदीप की कोई गर्ल फ्रेंड है, जिसकी
वजह से उसने मुझे छोड़ दिया।"
तो फिर क्या वजह हो सकती है, आभा की बेचैनी और भी बढ़ रही थी।
लेकिन वह सीधे सीधे पूछने में भी हिचकिचा रही थी। उसने मीना की
हथेली अपनी हथेलियों के बीच दबाकर धीरे से कहा-
"देखो मीना मेरा आशय तुम्हारी व्यक्तिगत जिंदगी में दखल देने
का कतई नहीं है, लेकिन मैं तुम्हारे लिए चिंतित हूँ और एक
अच्छी सहेली होने के नाते, यदि मैं तुम्हारी किसी भी तरह मदद
कर सकूँ तो बेझिझक मुझे बोल देना, या कभी कुछ बोलकर अपना मन
हल्का करना चाहो तो कभी भी मुझे फोन कर लेना, या मेरे घर आ
जाना । हमारी मित्रता सिर्फ किटी पार्टी तक सीमित नहीं होती।
यदि समय पर हम एक दूसरे के काम न आ सकें तो ऐसी दोस्ती किस काम
की?"
"मैं तुम्हें थोड़ा बहुत समझती हूँ आभा, तुम एक नेकदिल और
समझदार औरत हो, मैं तुम्हारे साथ अपना सुख दुख बाँट सकती हूँ।
लेकिन मैं स्वयं इतने मानसिक दवाब में हूँ कि कई बार मुझे डर
लगता है कि मैं पागल न हो जाऊँ।"
"तुम ऐसा क्यों सोचती हो, तुम्हारे इतने होनहार दो बच्चे हैं।"
"हाँ, बच्चे हैं भी और नहीं भी"
"क्या मतलब तुम्हारा?"
"जब से बच्चों को पता चला है तो बच्चे मुझे ही दोष दे रहे हैं।
बच्चे भी मुझसे नाराज हैं। उनका कहना है कि क्या आप थोड़ा झुक
नहीं सकती थीं। आपको पापा का स्वभाव अच्छी तरह पता था, फिर आप
क्यों दिल्ली चली गईं। हमें क्यों नहीं बताया। बच्चों को क्या
पता कि बच्चों को कोई परेशानी न हो, इसीलिए बच्चों से हमेशा सब
कुछ छुपाती रही। सोचा था कि यदि बच्चों से कुछ कहेंगे तो बच्चे
परेशान हो जायेंगे, उनकी पढ़ाई पर बुरा असर पड़ेगा।
अब तो ऐसा महसूस होता है कि बच्चों को भी मेरी जरूरत नहीं है।
बच्चों की पढ़ाई का पूरा खर्चा प्रदीप देते हैं। इसलिए वह एक
अच्छे पिता हैं और मैं एक बुरी माँ, जो उनके पिता के साथ निभा
नहीं सकी।"
"लेकिन थोड़ा बहुत जो तुम्हें, मैं समझती हूँ, और तुम्हारे बारे
मैं जो सुना है, तुम तो एक बहुत अच्छी माँ थीं। अपने बच्चों की
अच्छी तरह परवरिश करती थीं। फिर बच्चे ऐसा कैसे कह सकते हैं।"
"मीना मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। क्या तुम्हारा किसी के साथ
अफेयर हो गया था?"
"नहीं आभा,ऐसा कुछ नहीं, क्या तुमको लगता है कि मैं ऐसी औरत
हूँ, सच बोलना।" मीना अब तक पूरी तरह संयत हो चुकी थी।
"नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है मीना, लेकिन कुछ तो कारण होना
चाहिए, तलाक का। कोई बिना बात को ही तो तलाक नहीं ले लेता।
किटी पार्टी में लेडीज़ क्या क्या बकवास कर रही थीं। औरतों को
तो गपशप करने के लिए एक चटपटा टॉपिक मिल गया था। मुझे बहुत
बुरा लग रहा था, तुम्हारे बारे में, सब बे सिर पैर की बातें कर
रही थीं।"
"आभा क्या तुम्हें भी ऐसा लगता है कि मेरी वजह से यह सब हुआ।"
"नहीं री पगली, यदि मैं भी ऐसा सोचती, तो मैं भी उन की बातों
मैं शामिल होकर चटखारे लेती। तुम्हारे पास तुम्हारा दर्द
बाँटने नहीं चली आती।"
मीना फिर से भावुक होकर आभा के गले से लगकर रोने लगी। जब वो
थोड़ा शांत हुई, आभा उठकर किचिन में जाकर मीना के लिए एक गिलास
पानी लेकर आई, और उसको पीने के लिए दिया।
"मीना, अब मैं जाती हूँ फिर कभी आऊँगी। अपना खयाल रखना।"
आभा जाने लगी तो मीना ने उसका हाथ पकड़ लिया। मीना की पकड़ बहुत
मजबूत तो नहीं थी, फिर भी आभा निर्विरोध वहाँ बैठ गयी।
"आभा मत जाओ, मैं आज सब कुछ बता कर अपना मन हल्का कर लेना
चाहती हूँ। पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि जो मैं आज तक
किसी से न कह पायी, तुम से कह सकती हूँ। पर कुछ समझ नहीं आ रहा
आभा, कि मैं कहाँ से शुरू करूँ।
मेरी और प्रदीप की शादी हम दोनों के माँ बाप द्वारा तय की गयी
थी। इसलिए हम दोनों का प्यार शादी के बाद ही प्रफुल्लित हुआ।
लेकिन कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि हमारा तलाक हो जायगा।
मैं इस तलाक के लिए पूरी तरह से प्रदीप को दोषी नहीं ठहरा सकती
हूँ। शायद यही हमारे भाग्य में था। इसलिए ऐसा हुआ।"
"फिर भी कुछ तो बताओ कि हुआ क्या, शायद मैं तुम्हारी मदद कर
सकूँ।" आभा ने कहा।
"नहीं आभा, अब बहुत देर हो चुकी है। दूध एक बार फट जाए तो फिर
उसे दोबारा कोई ठीक नहीं कर सकता। अब मुझे अपनी इस नई जिंदगी
को ही स्वीकार करना है। थोड़ा समय लगेगा फिर धीरे धीरे आदत हो
जाएगी।" कहकर मीना फिर रो पड़ी।
"ऐसा क्या हो गया मीना, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा।" आभा की
बेचैनी और भी बढ़ गयी थी।
"आभा यदि कहानी सुनाने बैठूँ तो शायद पूरा दिन निकल जायगा, और
कहानी खत्म नहीं होगी और यदि एक वाक्य में कहना चाहूँ, तो वह
यह है कि हम दोनों की हठधर्मिता और हम दोनों का आत्मसम्मान ही
हमें ले डूबा।
शादी के तुरंत बाद ही हम दोनों यहाँ आ गए थे। इसके पहले कि हम
दोनों एक दूसरे को समझ पाते, हमारे दो बच्चे मयंक और नेहा हो
गए। हम दोनों ही बच्चों के माँ बाप की हैसियत से अपनी अपनी
ज़िम्मेदारी बखूबी निभाते रहे। मैं घर और बच्चे सँभालती और
प्रदीप अपनी नौकरी।
छोटी मोटी नोंक झोंक जो साधारण तौर पर प्रत्येक दंपत्ति में
होती है। हमारे बीच भी होती थी। कभी मैंने गुस्से में कुछ कहा
तो प्रदीप को बहुत गुस्सा आता, और बोलते,
-तुम से तो बात करना ही बेकार है।
और फिर वह चुप्पी साध लेते। फिर मैं ही सब भुला कर फिर बात
करने लगती। भले ही गलती प्रदीप की हो, मैं सॉरी बोल देती,
जिससे घर में शांति पूर्ण और खुशहाल माहौल रहे। प्रदीप को तो
जैसे अपनी किसी गल्ती का कभी एहसास ही नहीं हुआ।
कई बार जब हम किसी पार्टी में अकेले जाते और बच्चे गाड़ी में
नहीं होते तो हमारे बीच पूरे रास्ते, एक अजीब सी दिल को भेदने
वाली खामोशी पसरी रहती। पार्टी में पहुँचकर मैं औरतों के साथ
बात करने लगती और प्रदीप दोस्तों के साथ कहकहे लगाने लगते।
मुझे समझ में ही नहीं आता कि जो इन्सान पिछले एक घंटे से गाड़ी
में होंठ सिल कर बैठा हुआ था, वह अचानक कैसे इस तरह कहकहे
लगाने लगा। पार्टी के बाद, वापसी में फिर वह और मैं दो
मूर्तियों की तरह गाड़ी मैं बैठकर सफर करते। कभी किसी बात पर
गुस्सा आता तो हम लोग कोई भी बात करने से पहले हमेशा यही सोचते
रहे कि हमारे झगड़ने से बच्चों पर गलत असर पड़ेगा। कभी अपने बारे
में तो सोचा ही नहीं। बस शायद दोनों के ही मन में अंदर ही अंदर
कुछ दरकता रहा।
धीरे धीरे बच्चे बड़े हो गए और एक एक कर दोनों अपनी अपनी
यूनिवर्सिटी में पढ़ने बाहर चले गए। रह गए हम दोनों अकेले। हम
दो लगभग मूक प्राणी, गिने चुने वाक्यों में अपना वार्तालाप
करते। मैं भी अपनी तरफ से कभी ज्यादा बात करने की कोशिश नहीं
करती, जिससे कोई भी कुछ ऐसा न बोल दे, जिससे झगड़ा शुरू हो जाये
क्योंकि झगड़े के बाद गल्ती किसी की भी हो, बोलने की पहल मुझे
ही करनी होती थी और अब इस पहल से मैं थक चुकी थी। इसलिए सोचा-
न होगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। अब झगड़ा ही नहीं करूँगी। झगड़े से
बचने के लिए दोनों खामोश होते गए। बस जो खामोशी पहले सिर्फ कार
में ही हुआ करती थी, उसने घर पर भी अपना डेरा डाल दिया।
जब बच्चे पास थे तब, कभी छोटा मोटा झगड़ा होने पर भी अपने कमरे
में ही एक ही पलंग पर सोते थे। जिससे कि बच्चे कहीं कुछ गलत
अंदाजा न लगा लें। समझदार इंसान सिर्फ बड़ों का ही नहीं बच्चों
का भी लिहाज करता है।
बहुत सँभल कर चलने पर भी कभी ठोकर लग ही जाती है। एक दिन किसी
बात पर झगड़ा हुआ, बच्चे थे नहीं और हम लोग अलग अलग कमरे में
सोने चले गए। मैंने सोचा प्रदीप आएँगे मना कर कमरे में ले
जायेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। हमारे बीच जो गिने चुने
वाक्यों बाला वार्तालाप था। उसको भी पूर्ण विराम लग गया। मैं
घर का काम करती और वो नौकरी। मैं समय पर खाना बना कर दे देती,
और वो खाकर चले जाते।
एक दिन मेरा सब्र का बाँध टूट गया। मैंने हिंदुस्तान का टिकट
खरीदा और अपनी मम्मी के पास आ गयी। आने से पहले टेलीफोन के पास
एक नोट पैड पर लिख कर छोड़ गयी, कि मैं हिंदुस्तान माँ के पास
जा रही हूँ। देहली जाने से पहले बच्चों से यही कहकर गयी थी कि
नानी के साथ थोड़े दिन रहने के लिए जा रही हूँ। जब से तुम दोनों
चले गए हो घर में बहुत बोरियत होती है। जब तुम लोग छुट्टी पर
आओगे, उसके पहले मैं बापस आ जाऊँगी।
माँ पुराने घर में, जहाँ मैं पली बढ़ी थी, वहाँ अकेली रहती थीं।
भैया भाभी अपने बच्चों के साथ बैंगलोर में रहते थे। माँ को
मैंने कुछ नहीं बताया था। वे वृद्ध थीं और बुढ़ापा अपने आप में
एक बीमारी होता है। उनकी देख रेख में, मैं अपना समय बिताने
लगी। माँ बहुत खुश थीं। रोज कहतीं,- बेटा, अच्छा हुआ तुम आ
गईं। मुझे ढेरों आशीष देतीं। लेकिन मुझे अंदर ही अंदर बहुत
बेचैनी हो रही थी। मैंने सोचा था कि मेरे जाने के बाद प्रदीप
को मेरी कमी अखरेगी, प्रदीप फोन करेंगे, मुझे वापस आने के लिए
कहेंगे और मैं चली जाऊँगी। लेकिन वही 'ढाक के तीन पात', मैं
फिर एक बार गलत साबित हो गयी।
तीन महीने बाद प्रदीप ने मेरी माँ के घर तलाक के कागजात भेज
दिये। मैंने ऐसा सपने मैं भी नहीं सोचा था। मैं अपना आपा खो
बैठी और माँ को बता दिया। माँ इस सदमे को सह नहीं पायीं और
उनका हार्ट फेल हो गया। इसके बाद मुझे प्रदीप से नफरत सी हो
गयी। मैंने तलाक के कागजात पर हस्ताक्षर कर भेज दिये।
हिंदुस्तान में रहती तो पड़ोसी और रिश्तेदार चैन से जीने नहीं
देते। हर वक्त उनकी पैनी दृष्टि मेरे आस पास रहती। माँ के मरने
के बाद वैसे भी अब मेरा वहाँ रहने का मन भी नहीं था। इसलिए
यहाँ वापस आना ही श्रेयस्कर समझा। सोचा था यहाँ कम से कम कभी
कभी बच्चे घर आते रहेंगे तो मेरा मन लगा रहेगा। अब तो ऐसा
महसूस होता है, जैसे किसी ने मेरे वजूद का पूरा पेड़, जड़ से
उखाड़ कर फेंक दिया है और अब इस पेड़ की नियति में सिर्फ और
सिर्फ इसी मिट्टी के ऊपर दम तोड़ना ही लिखा है।
पर तुम्हीं बताओ कि क्या इस सब में पूरी तरह दोष मेरा ही है?
मैं औरत हूँ तो हर वक्त मुझे ही झुकना चाहिए। मर्द
का
कोई फर्ज नहीं होता क्या? हमेशा समझौता करना औरत के हिस्से में
ही क्यों आता है? घर परिवार सब कुछ बिखर गया। क्या प्रदीप का
इतना अभिमानी होना सही है? क्यों मेरे बच्चे भी सिर्फ मुझे ही
दोष दे रहे हैं।"
मेरे पास मीना के किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। मैं
किंकर्तव्य विमूढ़, निःशब्द बस एकटक लगाए, मीना के पथराये चेहरे
को देखे जा रही थी, जिसके गालों पर लुढ़के आँसू अब पूरी तरह सूख
चुके थे। |