खुली बाहें पसारे, साल भर एक
जैसा सदाबहार मौसम और दिन में कम से कम एक बार बारिश का मज़ा
देने वाला यह शहर चाहे पर्यटक हो या प्रवासी दोनों को ही अपनी
मीठी भाषा में सलामत देतंग कहता है, यानी कि “मलेशिया में आपका
स्वागत” है। तो समझिये कि लगभग दो साल पहले स्वाती और यश ने जब
अपने वतन भारत को मुंबई के छोर से अलविदा कहा तो परदेश में
मलेशिया के कुआलालंपूर के छोर ने उन्हें सलामत देतंग कहा। यह
स्वागत हर प्रवासी की तरह उनके लिये भी उत्सुकता और आशंका से
भारा हुआ था। कड़ी व्यस्ता और दौड़ के साथ सामंजस्य बैठाते दो
साल कैसे बीते पता ही नहीं चला।
तब से पहली बार भारत जाकर लौटी है स्वाती, पिछली बार दशहरे और
दिवाली पर भारत नहीं जा सकी थी, त्योहार सूने से रहे थे, इस
बार भी यश की व्यस्तता के कारण उन्हें जल्दी कुआलालंपूर लौटना
पड़ा है। भारत से लौटने के बाद कुछ दिन मन अनमना सा रहता है।
सुबह यश को ऑफिस और कीर्ति को स्कूल भेज कर स्वाती जब वापिस घर
में घुसी तो घर का इतना काम बिखरा पड़ा था कि वह चाहते हुए भी
उसको नजरअंदाज नहीं कर पा रही थी। आराम को गुडबाय बोल कर अपने
आलसी कदमों से थोड़ी और गुजारिश करते हुए उसने अपने कुर्ते की
आस्तीनों को मोड़ा और किचन मैं घुसी।
एक प्रवासी स्री सबसे ज्यादा अपने देश को तब याद करती है जब
उसको घर का सारा काम अकेले ही निपटाना पड़ता है। रसोई की एक
शेल्फ पर स्वाती ने एक छोटा-सा रेडियो रखा हुआ है। जैसे ही
उसने रेडियो का स्विच दबाया, उसका पसंदीदा गाना बजा। मलेशिया
के रेडियो स्टेशन में हिंदी गाने का बजना और वह भी आपके फेवरेट
गाने के सुरों का असर बिल्कुल तपती गर्मी में रिमझिम बरसात की
तरह होता है। रिमझिम के तराने लेके आई बरसात... और सचमुच
खिड़की पर बारिश की एक बौछार ने दस्तक दे दी।
स्वाती के बदन की फुर्ती ने फिर रुकने का नाम नहीं लिया। झटपट
रसोई का काम निबटाया और बेडरूम में आकर सूटकेसों को खोलकर
सामान जमाने लगी। रसोई का सामान, कपड़े और उपहार, कितने जतन से
पैक किया था सारा सामान...
मुंबई के उसके घर में किंग साइज बेड पर दुनिया भर का का सामान
बिखरा पड़ा हुआ था। और ड्रेसिंग टेबल के पास पड़ा लाल रंग का बड़ा
सा सूटकेस ऐसा लग रहा था जैसे गुस्से से लाल हो गया हो और जोर
जोर से चिल्ला कर कह रहा हो पूरा समुद्र समेट लो मुझ छोटी सी
जान के अंदर। सही ही तो था, बिस्तर पर पड़े सामान को उस सूटकेस
में भरना समुद्र को बाल्टी में भरने जैसा नामुमकिन काम ही लग
रहा था स्वाती को। माँ के दिए लाडू, सासु माँ का इतने जतन से
निकाला हुआ गाय का देसी घी, नंदरानी के दिए गए हस्तकला के वाल
हैंगिंग, विदेश में न मिलने वाले मसाले और बर्तन सब कुछ जरूरी
था। किसी भी चीज़ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था। इसलिए
स्वाती ने एक-एक कर के किसी तरह सूटकेस में सामान लगाने की
अपनी कोशिश शुरू कर दी थी। कभी कुछ निकालती तो कभी कुछ लगाती।
और मन ही मन बड़बड़ाते हुए यश को कोसती भी जाती। आराम से बाहर
बैठे पंचायत कर रहे हैं, यह नहीं कि भीतर आकर थोड़ी मदद कर दें।
इतने में बेटी कीर्ति आई और धीरे से कंधों पर झूलती हुई बड़े ही
लाड़ से बोली- माँ इस बार अपने साथ ये तीन चनिया चोली भी ले
चले। नवरात्रि का त्यौहार आने वाला है। मैं इस बार सप्तमी,
अष्टमी और नवमी तीनों दिन अलग अलग रंग के चनिया चोली पहनकर ही
गरबा खेलूँगी। इतना सारा सामान सूटकेस में लगाना वैसे ही
मुश्किल था उसपर से कीर्ति मैडम की फ़रमाईश।
दिल है छोटा सा... छोटी सी आशा... रेडियो जाकी ने नया गीत क्या
समय पर लगाया था। इसीलिये तो स्वाती का काम बिना रेडियो के
नहीं चलता है। रेडियो स्वाती की जान है, उसकी खुशी है, वह कभी
कभी यह भी कहती है कि रेडियो उसके मन की बात सुनकर गा उठता है।
सब उसका मजाक भी बनाते हैं लेकिन सच सिर्फ वही जानती है। वह
जानती है कि रेडियो उसके दिल के साथ धड़कता है।
स्वाती रेडियो की दुनिया से घर की की दुनिया में आती जाती रहती
है। उसकी बेटी कीर्ति बारह साल की है, पिछले कुछ सालों से उसे
गरबा खेलने का खूब शौक रहा है। वह इस साल कुआलालंपूर में भी
गरबा खेलने की योजना बना रही थी। स्वाती ने उसे समझाते हुए
कहा- बेटा अभी हम नये नये बसे है कौलालम्पुर में, अभी तो शहर
का भी ठीक-ठाक अंदाज़ा नहीं लगा है। क्या मालूम वहाँ नवरात्रि
होती भी है कि नहीं। देखो न इतना सामान वैसे ही हो गया है। न
जाने तुम्हारे पापा को एक्स्ट्रा लगेज के कितने पैसे देने
पड़ेंगे। तू तो मेरी रानी बेटी है न। मान जा, अगली बार जो-जो
कहेगी सब ले चलेंगे। तब तक पता भी लग जायेगा कि कुआलालंपुर में
नवरात्रि होती भी है या नहीं और अगर होती है तो कहाँ होती है।
फिर तैयारी के साथ चलेंगे। ठीक है न लाडो।
मगर भगवान को मनाना आसान है, बच्चे की जिद्द तोड़ना मुश्किल।
कीर्ति कहाँ मानने वाली थी। स्वाती कुछ थकी थी कुछ परेशान और
उसी चिढ़ में उसने चार बातें अपनी नन्हीं परी को सुना दीं
जिसके कारण कीर्ति के आँसू टपक पड़े और उन आँसुओं से घर में
बाढ़-सी आ गयी। हर कोई परेशान हो उठा।
दादी अपनी पोती के आँखो में आँसू नहीं देख सकती इसलिए अपनी
बहुरानी और बेटे पर ही बरस पड़ी। "रूपया क्या संग ले जाओगे
बिटवा, एक तो औलाद है उसकी मन की करने से पहले भी इतना हिसाब
करते हो, आखिर खरीदे ही काहे थे ई सब ताम झाम जब बिटिया पहन कर
अपना सौक पूरा ही न कर सके तो।" अब कोई विकल्प न था स्वाती के
पास, उसने स्टोर रूम से एक और सूटकेस निकला और कीर्ति मैडम के
सारे चनिया चोली पैक कर दिये।
ढेर सारा सामान और एक्स्ट्रा लगेज देने की चिढ़ यश के चेहरे पर
साफ़ नजर आ रही थी इसलिए अपने पापा और माँ का मूड ठीक करने के
लिए प्यारी सी कीर्ति ने बड़े प्यार से कहा- पापा याद है जब आप
यह चनिया चोली मेरे लिये लाये थे, तब माँ ने क्या कहा था? उसने
कहा था न कि यह भार क्यों ले आये हो, एक दिन पहनेगी और साल भर
सँभालते चलो इतनी भारी ड्रेस को। पर आपने ही समझाया था कि यह
भार नहीं है स्वाती। देखना जब यह चनिया चोली पहन कर हमारी
गुड़िया गरबा खेलेगी तो सब देखते ही रह जाएँगे। और यही भार
तुमको तुम्हारा सम्मान लगेगा। आप प्लीज नाराज़ मत हो।
बस फिर क्या था जी, स्वाती और यश दोनों का दिल पसीज गया और
अपनी गुड़िया को गले लगा लिया। तीन लोगों का यह छोटा और सुखद
परिवार वापिस अपने देश से दूर कुआलालंपूर के अपने घर आ गया।
रेडियो में फिर से एक पुराना गीत बजने लगा था- यादों की बारात
निकली है फिर दिल के द्वारे...
यश का मानना है कि जहाँ भी वे तीनों साथ हैं वही घर है, अब
चाहे वह भारत हो या विदेश। मगर स्वाती को हमेशा ही थोड़ा समय
लगता है अपने देश, अपने घर की यादों को भुलाने में। खैर समय
जल्दी ही बीत गया और त्योहारों के मौसम ने फिर से दस्तक दे दी।
स्वाती नवरात्रि की पूजा घर पर भी करती थी इसलिए वो कुआलालंपुर
में ही बसे लिटिल इंडिया नाम की एक जगह पर अपनी सहेली के साथ
चली गई। सुना था कि यहाँ पूजा का सभी सामान मिल जाता है। और
जैसा सुना था उससे भी ज्यादा देखने को मिला। अरे यह लिटिल
इंडिया तो बिलकुल अपने नाम को सार्थक कर रहा है। सब कुछ मतलब
सबकुछ उपलब्ध था यहाँ पर। मनभर और बेहद तसल्ली के साथ स्वाती
ने सारा सामान खरीदा और टैक्सी लेने के लिए मोड़ तक आई।
टैक्सी में बैठते ही उसने जी भरकर रजनी को धन्यवाद दिया और
बोली, तुमने तो मेरी नवरात्रि की पूजा सफल कर दी दोस्त। बस एक
गम है। कीर्ति के लिए नवरात्रि का मतलब है खूब धमाल मचाना, रात
भर गरबा खेलती थी जब हम मुंबई में थे। इस बार भी इतना लड़ झगड़
कर अपने तीन चनिया चोली लायी है। मगर इस साल मेरी बच्ची उदास
हो जायेगी। यहाँ कहाँ से लाऊँ वो मुंबई वाली धूम।
स्वाती का इतना ही कहना था की रजनी ने बतया की जब माँ दुर्गा
तुम्हारी सुन सकती है तो अपनी छोटी सी बिटिया की क्यों नहीं
सुनेगी। यहाँ पुडु सेंट्रल में लक्ष्मी नारायण मंदिर है। वह ९
दिन नवरात्रि का त्यौहार बहुत धूम धाम से मनाया जाता हैं। गरबा
तो पूछ मत कैसा होता है। तू हैरान हो जायेगी लोगों का जोश
देखकर।
बस फिर क्या था, स्वाती और कीर्ति ने उत्सव की तैयारियाँ शुरू
कर दीं और दुर्गा अष्टमी का दिन भी आ ही गया। लाल रंग की शीशे
और गोटे से सजी चनिया चोली में कीर्ति सच में छोटी दुर्गा का
अवतार ही लग रही थी। न जाने कैसे उस समय रेडियो में क्या जादू
था कि उसी समय यह गीत बज उठा- बेबी डॉल में सोने की...
पूरा परिवार तैयार होकर लक्ष्मी नारायण मंदिर गया। और वहाँ की
रौनक देखकर तो दंग ही रह गया। संगमरमर से बना विशाल मंदिर बेहद
छोटे हजारों बल्बों की रोशनी में झिलमिला रहा था। इतनी चमक थी
के मानो दीवाली की रात हो। मंदिर के प्रांगण में बल्ब की
लड़ियों के नीचे रेशमी तोरण झूल रहे थे। उनके बीच बीच में
कपड़े से बने हुए बड़े बड़े कंदील अपनी शोभा बिखेर रहे थे।
कपड़ों और गहनों से सजे स्त्री पुरुष बच्चे उत्सव का समा बाँध
रहे थे। सारा वातावरण मन को मोह लेने वाला था।
यही नहीं मंदिर के आँगन में दुर्गा जी एक पंडाल सजाकर मूर्ति
भी रखी गई थी। जिसके चारों ओर लोग गरबा कर रहे थे। हर कोई रंग
बिरंगे परिधान में था। लड़कियों ने सुन्दर सुन्दर लहँगे और
चनिया चोली पहनी हुई थी। लड़के कुर्ते पैजामे में सज रहे थे। पल
भर को भी एहसास न हुआ की अपने देश अपनी संस्कृति से दूर हैं।
एक ओर पूजा अर्चना चल रही थी, घंटे घड़ियाल और शंख बज रहे थे
तो दूसरी ओर ढोल मजीरे और भजन का कार्यक्रम चल रहा था, जिस पर
किसी नृत्य संस्था की सात-आठ नृत्यांगनाएँ नृत्य कर रही थीं।
संगीत नृत्य और भक्ति से सराबोर यह आयोजन आनंद से विभोर कर
देने वाला था।
स्वाती यश जल्दी ही इस दृश्य का हिस्सा बन गए। लगा जैसे वे
बरसों बाद डांडिया और गरबा की दुनिया में लौटे हैं। नन्हीं
कीर्ति का खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था। स्वाती और यश भी
कीर्ति को देखकर बहुत खुश हुए। जब वे नाच नाचकर थक गए तब बाहर
की ओर आ गए।
बाहर खान पान का पूरा बंदोबस्त था। जहाँ भारतीय भोजन की
व्यवस्था थी। यहाँ बहुत से भारतीय परिवार मिले। और ऐसा लगा कि
कुछ दोस्तियाँ आगे तक भी साथ रहेंगी। पंडित जी ने बताया कि राम
नवमी को एक भारतीय परिवार ने मंदिर में ही महाजागरण का आयोजन
भी किया है जिसमें सभी भारतीय आमंत्रित हैं। कितनी अच्छी बात
है स्वाती ने सोचा, कुछ लोगों से फिर से मिलने का सहज अवसर
मिलेगा। वरना यहाँ के व्यस्त जीवन में अपने लिये भी समय
निकालना मुश्किल हो जाता है।
कुछ लोग अभी तक मंदिर के प्रांगण में अपनी अपनी मस्ती में झूम
रहे थे। लेकिन अधिकतर लोग वापसी की मुद्रा लेने लगे थे। तभी एक
ओर पुरस्कारों की घोषणा होने लगी। सबसे अच्छा नृत्य करने वाले,
सबसे अच्छा गाने वाले, और अनेक प्रकार के पुरस्कार प्राप्त
करने वालों के नाम पुकारे जा रहे थे। तभी कीर्ति के नाम की
घोषणा हुई उसे सबसे अच्छे परिधान का पुरस्कार मिला था। दो दिन
के लिए अपने परिवार के साथ लंकावी के एक रिसोर्ट में रहने
का... कीर्ति के पैर धरती पर नहीं बल्कि हवा में नाच रहे थे।
स्वाती भी खुश थी, सबसे सुन्दर चनिया चोली थी उसकी लाडो रानी
की... सब लोग तारीफ के लम्बे लम्बे पुल बाँध रहे थे। घर वापिसी
के पूरे रास्ते स्वाती बहुत मगन और तृप्त थी। आज स्वाती को भी
एक प्राइज मिला था, माँ अम्बे ने यहाँ कुआलालंपुर में स्वाती
के लिए एक छोटा सा भारत जो भेज दिया था। वे तीनों आपस में बात
करने में व्यस्त थे... अपनी अपनी भावनाओं, खुशियों को आपस में
सहेजते हुए। इसलिये स्वाती ने कार में रेडियो आन करना ठीक नहीं
समझा लेकिन उसे पता था कि इस समय रेडियो में वही गाना आ रहा
होगा- आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे... |