डेनमार्क का इस्कोन मंदिर घाटे
में चल रहा था। कोई नया सदस्य बन नहीं रहा और जो पुराने थे,
एक-एक करके छोड़ रहे। नये-नये हाईटेक आध्यात्मिक पंथ खुलते जा
रहे हैं जो लोगों को अधिक आकर्षित कर रहे हैं। रवि शंकर का
आर्ट ऑफ लिविंग। गुरूमाँ आनन्दमयी। पंतजलि योगपीठ। बाबा रामदेव
तो हर जगह छा गये हैं। लिहाजा यह पंथ जिसकी नींव वर्षों पहले
पड़ गई थी और जिसने पश्चिमी देशों में आध्यात्मिकता की एक लहर
डाल दी थी अब दिवालियेपन की नौबत में आ गया था। सेलेण्ड द्वीप
की परिसीमा हिलरोड में कई एकड़ भूमि में फैला विस्तृत एस्कोन
आश्रम जो कई वर्ष चला, अन्ततः अनुयायिओं को दिवालियेपन की वजह
से छोड़ना पड़ा और उन्हें एक छोटे से अहाते की शरण लेनी पड़ी। मगर
यह भी बरकरार रहे इसकी भी उन्हें संभावना कम लग रही थी।
उन्होंने भारत स्थित इस्कोन पंथ के अनुयायिओं से अनुरोध किया
कि इस पंथ को कोपनहेगन में जीवित रखने के लिए भारत से किसी को
भेजें जो यहाँ के नागरिकों को प्रेरित कर सके। उन्हें विश्वास
दिलायें कि बाबा रामदेव या फिर रवि शंकर का ‘आर्ट ऑफ लीविंग’
के अलावा भी आध्यात्म के नाम पर कुछ है।
बहरहाल भारत के अठ्ठाइस वर्षीय सद्भाव को दो वर्ष के लिए
कोपनहेगन भेजने का विचार किया गया। वह मनोहर व्यक्तित्व का
पढ़ा-लिखा व्यक्ति, कहा जाता है कि सद्भाव आईआईटी का एक
इंजिनियर है। पर न जाने किन कारणों से वह भौतिक संसार को छोड़
कर आध्यात्म की दुनिया में आ गया। आजीवन अविवाहित रह कर इस पंथ
के लिये अपना जीवन समर्पित करने का संकल्प ले लिया।
कोपनहेगन आने के लिए उसे वीजा की आवश्यकता थी। मगर दिल्ली
स्थित डेनिश राजदूत कार्यालय ने उसे रेजिडेन्ट परमिट वीजा देने
से स्पष्ट इंकार कर दिया। उनका कहना था कि इन मुल्कों से युवक
किसी प्रकार विकसित देशों में घुस जाते हैं और वहीं रह जाते
हैं। वहाँ गलत-सलत काम करके अपनी जीविका चलाते हैं। बहुत
समझाया, मिन्नतें की कि सद्भाव वहाँ स्थित पंथ में लोकहित के
लिए एक अहम कार्यभार को सँभालने जा रहा है। मगर अप्रवासन विभाग
के कर्मचारियों को इस प्रकार की आध्यात्मिक संस्थाओं के प्रति
कोई श्रद्धा ही नहीं। बल्कि उन्होंने आरोप लगाया कि ये
संस्थायें जनहित करने के बजाए वहाँ के नागरिकों को पथभ्रष्ट कर
रही हैं। आध्यात्म के नाम पर जनता को भ्रमित कर रही हैं।
बहरहाल सद्भाव को डेनमार्क के लिए रेजिडेन्ट वीजा नहीं मिल
पाया। डेनमार्क स्थित इस्कोन अनुयायी अपने पंथ के अस्तित्व को
लेकर इस कदर विचलित थे कि उन्होंने सुझाया कि फिलहाल सद्भाव
सिर्फ तीन माह के टूरिस्ट वीसा पर ही कोपनहेगन भिजवा दिया
जाये। वे बाद में डेनमार्क से ही उसका आवासकाल बढ़ाने के लिये
प्रबन्ध करेंगे। सो सद्भाव टूरिस्ट वीसा पर सेलेण्ड द्वीप पर
बसी डेनमार्क की राजधानी कोपनहेगन पहुँच गया।
इस्कोन मंदिर के छोटे से अहाते में एक हॉलनुमा कमरा भजन-कीर्तन
व प्रार्थना के लिए एक रसोई व कुछ कुटिया जैसी इमारतें
अनुयायिओं के निवास के लिए बनी थीं। पाँच अनुयायी मंदिर के
परिसर में रह रहे थे। सभी ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे थे। वैसे
तो सभी गोरे विदेशी थे मगर मंदिर की धार्मिक कार्यविधियों को
निभाने के लिए उन्होंने भारतीय नाम अपना रखे थे। संस्था का
प्रधान जयकृष्ण व उप प्रधान दिव्याभ, दोनों डेनिश थे। वैसे तो
सद्भाव सभी से मिला। सभी ने उसका जोरदार स्वागत किया।
सद्भाव ने आते ही सुप्त पड़े पंथ में सरगरमी लाने के लिए ठोस
कदम उठाये। मंदिर में आध्यात्मिक शांति वाले रोचक कार्यकलाप
चलाये। मन के भीतर की दिव्यता को खोलने के रहस्य बताये।
डेनमार्क बसे भारतीयों से व्यक्तिगत संपर्क स्थापित किया। उनके
घरों में जाकर वेद व गीता के उपवचन बोले। धर्मतत्वों व योग के
सम्मिश्रण का लोगों को अच्छा ज्ञान दिया। पंथ में जान सी आ गई।
पंथ का नगर में चल रहा गोविन्दा नामक शाकाहारी रेस्टोरेंट भी
लड़खड़ा रहा था। गोविन्दा शान-शौकत से परे, एक साधारण व विशिष्ट
रेस्टोंरेट था जो लोगों को कम कीमत में सादा शाकाहारी भोजन
उपलब्ध करवाता था। रेस्टोरेट की देख-रेख पंथ के अनुयायी ही
करते थे। शाम अपने कामों से लौटे थके हारे लोग वहाँ भोजन करने
आते थे, स्वादिष्ट भारतीय भोजन की लालसा में। मगर डेनिशों
द्वारा पकाये गये भारतीय भोजन में उन्हें वह स्वाद नहीं आता।
संयोगवश सद्भाव पाक-कला में भी निपुण था। हर सोमवार उसने
रेस्टोरेंट में रसोइये का कार्यभार सँभाल लिया। सोमवार
रेस्टोरेंट का एक विशिष्ट दिन जैसा बन गया। इस दिन वहाँ बड़ी
तादाद में लोग आने लगे। उनके डेनिश साथी भी उससे तेल-मसालों का
सही उपयोग करना सीखने लगे।
मंदिर ढंग से चलने लगा था और रेस्टोरेंट की हालत भी सुधर रही
थी। पंथ के सभी अनुयायी सद्भाव को पाकर बेहद खुश थे। भारत से
सद्भाव को बुलाना उन्हें सार्थक लग रहा था। उन्हें चाहत होने
लगी कि सद्भाव हमेशा के लिए डेनमार्क में बना रहे और संस्था की
सेवा करता रहे। मगर सद्भाव का वीजा
मात्र तीन माह का था जो देखते ही देखते समाप्ति पर आ गया।
इमीग्रेशन पर सद्भाव का अप्रवास काल बढ़ाने की निरंतर कोशिशें
की जा रही थीं, ऐसा लग रहा था कि जैसे डेनिश सरकार अपने यहाँ
स्थित भारतीय आध्यात्मिक संगठनों से बुरी तरह चिढ़ने लगी है।
लिहाजा ऐसी संस्थाओं से जुड़े लोगों की कोई भी बात मानने को वह
तैयार ही नहीं थी।
अंततः हताश होकर एस्कोन के लोगों ने सद्भाव को एक उपाय सुझाया
जिसे सुनकर कुछ पलों के लिए सद्भाव की सासें रुक गईं।
"तुम यहाँ किसी डेनिश महिला से शादी कर लो। डेनिश महिला के पति
होने के नाते तुम्हें यहाँ रहने के अधिकार मिल सकते हैं,
जयकृष्ण बोला।
सद्भाव हक्का बक्का, आवेश में बोला "यह क्या अनर्थ करने को कह
रहे हो? मैं बह्मचारी हूँ।"
''यह शादी केवल कागजों तक ही सीमित
रहेगी। तुम्हारे बह्मचर्य पर कोई आँच नहीं आयेगी। तुम्हारा उस
औरत से कोई दैहिक संबंध नहीं रहेगा।" आर्यन बोला। "मिशन को उसे
इसके लिए कुछ धन देना पड़ेगा। जिसका इन्तजाम मिशन कर लेगा। तीन
साल बाद, उस डेनिश महिला का पति होने के नाते जब तुम्हें यहाँ
की नागरिकता मिल जायेगी तब तुम तलाक ले लेना।"
सद्भाव खामोश बना रहा।
संदेश ने उकसाया, "इन मुल्कों में कितने ही लोग इसी तरीके से
अपने को व्यवस्थित करते हैं। यह कोई नई बात नहीं हैं।"
"मेरी तुलना उन आम लोगों से मत करिये, प्लीज" सद्भाव सकते में
बोला। "मैं लोकहित में संलग्न एक पंथ का अनुयायी हूँ। मेरे
जीवन के उद्देश्य ऊँचे हैं।"
"तुम ऊँचे उद्देश्यों की पूर्ति के लिये ही यह रास्ता अपना रहे
हो," आर्यन ने टिप्पणी की।
"हाँ सद्भाव, तुम्हारी भावना ऊँची है। तुम्हारा लक्ष्य श्रेष्ठ
है। वहाँ की सरकार तुम्हें बेवजह ही यहाँ रहने की अनुमति नहीं
दे रही है। जिससे तुम्हें मजबूरन यह रास्ता अपनाना पड़ रहा है।
लेकिन अच्छे कार्य के लिए उठाया हर कदम अन्ततः ठीक ही होता
है," हरिहरण ने भी स्वर मिलाया।
सद्भाव मन में कई संदिग्ध सवाल लिये अनमने मन से मान गया। उसका
तीन माह का वीजा खत्म हो रहा था जिस वजह से उसे इंडिया हर हाल
में लौटना था। संदेश भी उसके साथ जा रहा था। सावन, कृष्ण
जन्माष्टमी का समय नजदीक था। संदेश तीन माह मथुरा, वृन्दावन
में रह कर आध्यात्मिक साधना में लिप्त होना चाहता था।
जयकृष्ण बोला, "सद्भाव, तुम संदेश के साथ बेफिक्र होकर जाओ।
संदेश के साथ वहाँ आत्मिक आनन्द उठाओ। तीन माह उपरान्त जब तुम
कोपनहेगन आओगे तो हम एक महिला का बन्दोबस्त करके रखेंगे जो
तुमसे कागजी विवाह करने को राजी हो जायेगी। फिर तुम्हें
डेनमार्क से कोई नहीं निकाल सकता।"
तीस वर्षीय सिलविया का कागजातों में पति कोई और होता, जिंदगी
उसकी किसी और के ही साथ गुजरती। सिलविया एक क्लीनिक में डॉक्टर
की सेक्रेटरी थी। कागजी शादी उसके लिए अतिरिक्त आय का एक साधन
थी। गरीब मुल्कों से नौकरी की तलाश में भटकते युवकों को वह
कागजों में अपना पति बना कर विदेशी भूमि पर व्यवस्थित करने में
सहायता करती, और बदले में उनसे धन ऐंठती। एक टर्की युवक को वह
कागजी विवाह द्वारा डेनमार्क में व्यवस्थित करवा चुकी थी। एक
वर्ष पूर्व जब उस टर्की युवक ने वहाँ की नागरिकता हासिल कर ली
तो सौदे के मुताबिक सिलविया ने तलाक लेकर उसने उससे छुटकारा
पाया। जयकृष्ण व अन्य अनुयायियों ने जब सिलविया से संपर्क किया
और सद्भाव के विषय में बताया तो वह उससे कागजी विवाह के लिए
सहज ही तैयार हो गयी। सिलविया को इस सेवा के लिए प्रति माह डेढ़
हजार यूरो मिलेगा। तलाक के समय उसे दस हजार की राशि दी जायेगी।
सारा वार्तालाप जयकृष्ण व पंथ के अन्य लोग ही उससे कर रहे थे।
सद्भाव का इससे कोई सरोकार नहीं था। कोर्ट में जब वह व सद्भाव
विवाह के लिए आमने-सामने उपस्थित हुए तो सिलविया ने पहली बार
उसे तब देखा। वह सद्भाव के व्यक्तित्व से अनायास ही मुग्ध हो
गयी। लंबी, कसरती देहयष्टि, प्रशस्त कंधे, लोम युक्त भुजाएँ,
लुभावने होंठ,... मन ही मन वह बोली, "यह तो बड़ा शालीन व आकर्षक
छवि का युवक है।"
सद्भाव सिलविया के मन-मस्तिष्क में छा गया। कितने ही पुरूषों
ने उसकी जिन्दगी को स्पर्श किया था मगर जो भाव वह सद्भाव के
लिए महसूस करने लगी थी अभी तक किसी के लिए नहीं किये थे।
सद्भाव की जिन्दगी व उसकी गतिविधियों को जानने की उसे जिज्ञासा
होने लगी।
एक सोमवार शाम को रेस्टारेंट में जब सद्भाव भोजन पका चुका था
और अपना पका भोजन ग्राहकों को रूचि से खाते देख वह विभोर सा हो
रहा था, सिलविया भी चुपचाप एक कोने में बैठी थी, सद्भाव की
दृष्टि अनायास ही उस पर पड़ी। उसके चेहरे के भाव बदल गये।
सिलविया ने मुस्कुराते हुए अभिवादन किया, "हरे कृष्णा।"
सकपका कर वह उसके नजदीक आया। सहमे स्वर में बोल।, "तुम यहाँ
क्यों आयी हो?"
सिलविया उसी तरह मुस्कुराते हुए बोली, "मैंने सुना है तुम खाना
बहुत अच्छा पकाते हो। मैं तुम्हारे हाथों का पकाया खाना खाने
आयी हूँ।"
सद्भाव ने मन ही मन सोचा कि सिलविया यहाँ आ गई है और बिना खाना
खाये नहीं जायेगी। जल्दी से इसे खाना खिला कर यहाँ से दफा करो।
"क्या खाना है तुमको?"
सिलविया ने चारों तरफ दृष्टि दौड़ाई। लोग काँसे की थाली में
परसी कई चीजें खा रहे थे। वह बोली, "वह सब दे दो।"
सद्भाव थाली परोस कर ले आया। सिलविया ने एक प्रफुल्ल अचरज से
थाली में परसे व्यंजनों को निहारा। सद्भाव उसे उनके नामों से
परिचित करवाने लगा, "चना, पालक-पनीर, आलू-गोभी, रायता, पूरी,
चावल और खीर।" सिलविया थाली में झुककर बड़े चाव से भोजन करने
लगी। चटखारे लेती हुए बोली, "भारतीय भोजन व आध्यात्म...दोनों
ने पश्चिमी देशों में बड़ी प्रसिद्धि पायी है। उदर की पूर्ति के
लिए भोजन और आत्मा की शुद्धि के लिए आध्यात्म। तुम यह बहुत
अच्छा कर रहे हो कि इन दोनों लाइनों में लगे हो। हम लोगों को
इनकी जरूरत है।
खाना पकाने का हमें धैर्य नहीं है और हम इतने भौतिकतावादी हो
गये हैं कि आत्मा के ज्ञान का हमें कोई बोध ही नहीं रहा।"
सद्भाव चुपचाप उसे भोजन करते हुए निहारता रहा।
भोजन के उपरांत वह कीमत अदा करने लगी तो सद्भाव से लेते नहीं
बना। "आज तुम पहली बार आयी हो। आज रहने दो। लेकिन अगर फिर कभी
आओगी तो कीमत देनी पड़ेगी।
"थैंक्यू" कहते हुए व एक मुस्कान बिखेरते हुए सिलविया
रेस्टोरेंट से बाहर निकल गयी।
उसके बाद सिलविया हर सोमवार को गोविन्दा आने लगी। भोजन करती।
पर्स खोलकर कीमत उसकी ओर बढ़ाती मगर सद्भाव से उससे भोजन की
कीमत लेते नहीं बनता।
प्रत्येक रविवार दोपहर तीन बजे से मंदिर में भजन-कीर्तन व गीता
का पाठ होता, उसके बाद लंगर का आयोजन। एक रविवार सद्भाव बड़े
मनोयोग से गीता के पाठ की व्याख्या कर रहा था। वहाँ अचानक
सिलविया प्रकट हो गयी तो कुछ पलों के लिए उसका धाराप्रवाह चल
रहा भाषण थम गया। सिलविया ने एक खिलखिलाह के साथ हाथ हिलाते
हुए उसे अभिवादन किया, "हरे कृष्णा।" सद्भाव ने स्वयं पर
नियंत्रण बनाये रखा। किसी तरह गीता पाठ की व्याख्या भी उसी
प्रवाह से जारी रखी। सुस्पष्ट वाणी से नीति वाक्यों की जोरदार
व्याख्या करना और उसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद, सिलविया को
अत्यधिक प्रभावित कर गया। उसे सद्भाव और भी अच्छा लगने लगा।
साथ ही गीता के विषय वस्तु ने उसके मन को छू लिया।
सिलविया अब अक्सर सद्भाव को फोन करके उसका हालचाल पूछने लगी।
बोलती कि अगर उसे किसी भी प्रकार की कोई तकलीफ हो तो वह उससे
बोले। वह उसकी हितैषी है। उसकी फोनकॉल सद्भाव को परेशान कर
देती। मगर वह उसे रोक नहीं सकता था। आश्रम से एक दिन सिलविया
गीता की एक प्रति भी साथ ले गई पढ़ने के लिए। वेदों व उपनिषदों
का वह ज्ञान अर्जित करने लगी। हिंदी सीखने लगी। कहती कि न जाने
क्यों उसे भारतीय संस्कृति, इतिहास, दर्शन आदि में आस्था सी हो
रही है। मिलने पर वह सद्भाव से उनकी चर्चा शुरू कर देती।
सद्भाव को भी उसके साथ अपने भारतीय आचार-विचार व वेद-पुराण की
चर्चा करने में आनन्द आता।
फिर एक दिन वह समय आ ही गया, जिसका सद्भाव को डर था और सिलविया
को इन्तजार। वह सुस्पष्ट उससे बोली, "सद्भाव, मैं तुम्हें अपने
हृदय से पति मानने लगी हूँ। तुम्हारे साथ अपनी सारी जिन्दगी
गुजारना चाहती हूँ।"
"यह नामुमकिन है। तुम केवल मेरी आध्यात्मिक मित्र बन सकती हो।"
"क्यों मैं तुम्हें अच्छी नहीं लगती?"
सद्भाव ने उसे भरपूर दृष्टि से देखा- गोरे रंग की सिलविया,
पतली छरछरी रमणीय स्वरूप की थी। "तुम एक सुन्दर महिला हो,
सिलविया। मगर तुम मेरे धर्म व नियम को समझो। मैं शादी नहीं कर
सकता।"
"तुम मुझसे शादी कर चुके हो, सद्भाव," सिलविया दृढ़ता से बोली।"
तुम मेरे पति हो।
"वह मेरी एक विवशता थी। वह शादी नहीं, एक समझौता है।"
"हर शादी एक समझौता है।" कुछ पल ठहर कर वह उससे बोली, "मैंने
गीता पढ़ ली है। भगवान कृष्ण के चरित्र को समझने लगी हूँ। कृष्ण
तो प्रेम के देवता थे। हँसी व मुग्धता के प्रतीक थे। उन्होंने
जीवन को भरपूर जीया। रास, श्रृंगार, मनोरंजन... किसी भी चीज से
पलायन नहीं किया। तुम क्यों उसमें तल्लीन होना चाहते हो जो
पलायन की ओर ले जाती है।"
"सिलविया, यह पलायन नहीं एक साधना है। मेरा सन्यास खोखला नहीं
है। हमारे लिये तलाक लेने का समय आने वाला है। तुम तलाक लेकर
कोई दूसरा पति खोजो और विवाह करके अपनी तरह की जिन्दगी जीयो।
मैं तुम्हारी अच्छी जिन्दगी के लिए प्रार्थना करूँगा।"
"मैंने तुम्हें अपना पति हमेशा के लिए मान लिया है, सद्भाव।
मैं तुम्हें तलाक नहीं दे सकती।"
आग्रह करते हुए वह बोली, "देखो, मेरे पास अपनी नानी का दिया एक
अच्छा फ्लैट है। मेरी एक नियमित नौकरी है। जिससे ठीक-ठाक आय हो
जाती है। फिर तुम भी इतने पढ़े-लिखे हो। तुमने यहाँ इतने कम समय
में डेनिश भाषा भी सीख ली है। तुम्हें यहाँ कहीं भी एक अच्छी
नौकरी मिल सकती है। गृहस्थ जीवन भी किसी साधना से कम नहीं। तुम
अपने ब्रह्मचर्य के खोल से बाहर आकर जीवन का असली खोल, गृहस्थ
जीवन अपना कर तो देखो मेरे साथ। हम दोनों की जिन्दगी बहुत मधुर
रहेगी। किसी के प्रेम अनुबन्ध में समा, सन्तति को जन्म देना,
वंशरूपी वेला को आगे बढ़ाना ही प्रकृति का शास्वत नियम है। हम
दोनों साथ मिलकर पंथ के लिए भी कार्य करेंगे। आखिर तुम्हारे
पंथ के सभी अनुयायी ब्रह्मचारी तो नहीं हैं।"
"बाद की मैं नहीं कह सकता लेकिन अभी फिलहाल मेरा मन इस बात की
बिल्कुल गवाही नहीं दे रहा है। मैं अपने अन्तर्मन के विपरीत
नहीं जाना चाहता।"
सिलविया खोये स्वर में बोली, "अगर तुम मेरे पास नहीं आ सकते तो
मैं तो तुम्हारे पास आ सकती हूँ।
तन में सूती धोती व गले में रूद्राक्ष की कंठी लपेट सिलविया
सद्भाव व अन्य अनुयायियों के साथ मंदिर की एक कुटिया में रहने
लगी। सुबह चार बजे उठती। नहा-धोकर पूजा-पाठ वगैरह करती।
आश्रमियों जैसी जिन्दगी जीती। सद्भाव के साथ मिलकर प्रवचन
बोलती। कई संस्थाओं व ऑफिसों में जाकर वह प्रशंसकों को
आध्यात्म की शिक्षा देती।
उस दिन जब वह पहली बार एस्कोन मंदिर गये तो भगवा वस्त्र धारी
पंथ के अनेकों अनुयायियों में एक महिला अनुयायी ऐसी थी जो
मंदिर की कार्यविधियों में बड़ी सक्रिय थी। हमारा ध्यान उसकी ओर
सहज ही आकर्षित हो गया। उसका नाम मीरा था। प्रवचन-उपवचनों के
बाद लंगर जब लगा तो मीरा ने बड़े प्यार से हमें भोजन करवाया।
अपने कौतुहल स्वभाववश मैंने उससे प्रश्न पूछने शुरू कर दिये।
"आपने यह भगवा वस्त्र क्यों धारण किये? इतने सारे आदमियों के
बीच आप अकेली औरत... किस बात के वशीभूत होकर आपने ऐशो-आराम
वाली मोहक जिन्दगी का त्याग किया? मीरा हँसी और हतप्रभ बोली,
"तुम वो सब प्रश्न कर रहे हो जो तुम्हें नहीं करने चाहिए। मेरा
तुम्हें जवाब देने का मन तो है पर ये जवाब मुझे तुम्हें नहीं
देने चाहिए। जय कृष्णा..." कहकर वह उठकर चली गयी। हम अपनी जगह
बैठे ही रह गये।
मीरा ने मेरे जेहन में एक उत्कन्ठा मचा दी थी। दूसरे हफ्ते ही
मैंने इस्कोन के पुजारियों को अपने घर बुलाकर कीर्तन करवाया।
भजन सुनने के लिए अपने सभी परिचितों को भी आमंत्रित किया। मेरा
घर खचाखच भर गया। सद्भाव, जयकृष्ण, संदेश, दिव्याभ, आर्यन,
हरिहरण व मीरा, तन पर भगवे वस्त्र, माथे पर चन्दन, गले पर
रूद्राक्ष व हाथों में संगीत वाद्य। इनमें सिर्फ सद्भाव भारतीय
था बाकी सभी गोरे थे। जब मेरे सारे मेहमानों ने स्थान ग्रहण कर
लिया तो उन्होंने अपने संगीत वाद्य कसे, एक-दूसरे को देखकर
मुस्कुराये, फिर भजन गाने आरम्भ कर दिये। मदन, मोहन, गोपाल,
गोविन्दा, कन्हैया, मुरारी... श्रीकृष्ण भगवान के सभी उपनामों
पर उन्होंने तबले, मंजीरे, हारमोनियम व गिटार की धुन के साथ एक
के बाद दूसरे भजन गाये। मीरा ने उठकर दोनों हाथ ऊपर करके नृत्य
भी किया। समय जैसे थम गया हो। हम सभी कुछ क्षणों के लिए भक्ति
रस में डूब गये। भजन के उपरांत, लंगर के दौरान अकेले में मौका
पाते ही मैंने मीरा को कुरेदा। उसे ऊपर से नीचे निहारते हुए
मैं बोली, "मीराजी आश्चर्य होता है कि आप..."
"विकट प्रश्न मत किया करो। दुनिया में सब कुछ संभव है," कह कर
वह फिर टाल गई।
खैर दो-तीन मुलाकातों के बाद मैंने मीरा को विवश कर दिया कि वह
मेरे विकट प्रश्नों के सीधे ढंग से उत्तर दे दे, वर्ना...।
"तुम मुझे धमका रही हो?"
"नहीं मीरा जी। आपकी गोरी त्वचा, नीली आँखें, व सुनहरे बालों
के सापेक्ष ये गेरूवे वस्त्र, चन्दन का टीका व रूद्राक्ष की
कंठी...प्रकट करता है कि पश्चिम व पूरब के इस अन्तर मिलन में
बहुत कुछ छिपा है।"
"तुम नहीं मानोगी," कह कर उन्होंने एक लंबी साँस भरी। फिर एक
क्षण रुक कर अपनी सारी कहानी सुनाई जिसे सुनकर मैं व मेरे
मित्र आश्चर्य से भर गये।
"तो आप मीरा नहीं, सिलविया हैं।
"मीरा तो मेरा पंथ के लिए अपनाया नाम है।"
"आप यहाँ खुश हैं?" मैंने पूछा।
"तुम बहुत सवाल करती हो," एक उलाहना से वह बोली। फिर साँस भरते
हुए बोली, "हाँ, मैं अपने काम से बहुत खुश हूँ। पश्चिम देश
विकास की पराकाष्ठा में पहुँच गये। यहाँ के नागरिक सांसारिक
सुखों को इतना अधिक भोग चुके हैं कि
तरबतर
हो गये। मगर भावनात्मक दृष्टिकोण से वे एकदम शून्य हैं। मैं
उन्हें आत्मा के सुख की प्राप्ति के लिए मशवरे देती हूँ।"
"साथ ही मुझे उस दिन का भी इन्तजार है जब सद्भाव मेरी बात
मानेगा और सही अर्थों में मेरा पति बनेगा," मीरा एक उम्मीद के
साथ बोली।
मीरा अपनी बात पूरी करके हमारे बीच से सहसा उठकर चली गयी और हम
अपनी जगह बैठे हतप्रभ मनन करने लगे कि किसका सन्यास ज्यादा
सच्चा है- सद्भाव का या सिलविया का? |