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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.ए.ई. से पूर्णिमा वर्मन की कहानी- 'जड़ों से उखड़े'


दुबई हवाई अड्डे से शारजाह में अपने घर वाली बिल्डिंग तक पहुँचने में घड़ी देखकर १८ मिनट लगे थे। नेहा ज़रा चौंकी थी- इतनी जल्दी हम एक शहर से दूसरे शहर आ गए? उत्तर प्रदेश में तो एक गाँव भी पार नहीं होता इतनी देर में। हाँलाँकि बोली कुछ नहीं, सामान ऊपर पहुँचाना था, नाथूर सामान की ट्रॉली लिये खड़ा था, प्रकाश ने परिचय करवाया,
‘यह है नदीम, इस बिल्डिंग का नाथूर, यानी केअर टेकर।'
सहारनपुर के ही किसी गाँव का था सो प्रकाश से बड़ी दोस्ती हो गई थी उसकी। एक लिफ़्ट से ट्रॉली में लदकर सामान ऊपर गया साथ ही दूसरी लिफ़्ट से नेहा और प्रकाश। पल भर में वे लोग छठी मंज़िल पर इस ६०२ नंबर के फ्लैट में आ गए।

फ्लैट में पहुँचे तो एक बार पूरे घर का मुआयना कर नेहा बाहर ड्राइंगरूम में आ बैठी, जहाँ से बाहर सबकुछ साफ़ दिखाई देता था। काँच की बड़ी खिड़की के आगे एक बालकनी थी और वहाँ से दूर दूर तक जहाँ भी नज़र जाती थी रेत के सिवा एक बड़ी पक्की ज़मीन और सुनसान पड़ी एकमंज़िली इमारत के सिवा कुछ नहीं था।

‘यह शारजाह का पुराना एअरपोर्ट है, प्रकाश ने बताया, नया बन जाने के बाद यह ऐसे ही ख़ाली पड़ा है।’
फ़्लैट के दूसरी ओर मेनरोड थी जिसपर तेज़ी से दौड़ती हुई मोटरकारें सनसनाहट बनाए हुए थीं। घर हर तरफ़ से काँच लगा हुआ खुला था बस मुख्यद्वार ही बार बार बंद होता था। यह एक दूसरी दुनिया थी, नेहा की सहारनपुर की दुनिया से बिलकुल अलग। कोई अजूबा तो नहीं, पर फ़र्क तो था।

नेहा अपनी चेतना में वापस लौटी तो पता लगा कि नदीम रसोई में चाय बना रहा था। काँच के गिलास में चम्मच से चीनी घोलने की आवाज़ ड्राइंगरूम तक सुनाई दे रही थी। प्रकाश उसी के साथ बात कर रहा था। नेहा मोटी गद्दियों वाले सोफ़े से उठी और रसोई में आ गई। प्रकाश ने चाय का गिलास उसे पकड़ा दिया वैसे ही लाल चौखाने वाले झाड़न में लपेटकर जैसा दीवार की कील पर टंगा था, झाड़न में से एक नन्हा टैग बाहर झाँका- मेड इन पाकिस्तान। नेहा को बिजली का सा झटका लगा- देश के बाहर कदम रखा नहीं कि सीधा पाकिस्तान से सामना?
‘कोई हिंदुस्तानी झाड़न नहीं मिला क्या?’ नेहा ने पूछा।
'जो मिल गया वो ले लिया, किधर जाऊँ हिंदुस्तानी झाड़न ढूँढने?’ प्रकाश हँस पड़ा।  मुझे तो यह तुम्हारे हिन्दुस्तानी झाड़ने जैसा दिखा इसीलिये खरीदा। बाद में देखा- मेड इन पाकिस्तान।
चाय खासी गरम थी, झाड़न के बिना पकड़ी नहीं जा सकती थी। नेहा ने एक चुस्की ली तो दिमाग में चैन सा बिखर गया। रसोई का एक एक कोना साफ़ नज़र आने लगा।

गैस के पास योगर्ट के डिब्बे को साफ़ कर उसमें चीनी रखी गई थी। टाइलों के बीच एक बड़ी सी कील ठोंककर झाड़न टाँग दिया गया था। गिलास में पलटते समय गिरी हुई चाय चौतरे पर फैली हुई थी। यह प्रकाश की गृहस्थी थी। वह एक महीने पहले से शारजाह आ गया था और फ़ोन पर बताता रहा था कि कैसे मज़े से वह अपना खाना खुद पकाता रहा है।
बायीं ओर खाना पकाने वाले चौतरे पर डेढ़ शेल्फ़ वाला एक छोटा सा फ्रिज था जिसमें वेनिला आइसक्रीम के दो छोटे पैक रखे थे। नीचे ब्रेड थी, तरबूज़ का एक बड़ा टुकड़ा था, दरवाज़े वाली शेल्फ़ में संतरे के रस की एक बड़ी बोतल थी, टोमैटो केचप की बोतल थी और गुलाबी रंग की प्लास्टिक की एक और बोतल भी थी जिस पर स्ट्रॉबेरी मिल्क लिखा था। फ्रिज के ऊपर चार तोरियाँ रखी थीं।
‘ये तोरियाँ कब से खाने लगे? खुद बना लेते हो?’
‘नहीं नहीं, वो तोरियाँ नहीं हैं खीरे हैं। अरबी खीरे, बिलकुल मीठे। छीलने की भी ज़रूरत नहीं ऐसे ही खा लो।’
‘वाह कमाल है! नेहा ने कहा, क्या क्या ढूँढ लिया तुमने यहाँ!
प्रकाश मुसकुराकर एक खीरा छीलने लगा।

नेहा ने देखा कि चाय को उबालने वाला पैन सिंक में रखा था उसमें नल पूरी तेज़ी से खुला था और टी बैग नाली वाली जाली में अड़ जाने के कारण सिंक में पानी ऊपर तक आ गया था। इन सब हरकतों को लेकर बात-बात में प्रकाश से उलझने वाली नेहा का दिल आज कुछ भी कहने का न हुआ। उसने नल बंद किया और चाय का गिलास उठाकर वापस ड्राइंग रूम में आगई।

ड्राइंग रूम में गिलास रखने के लिये कोई मेज़ नहीं थी। लकड़ी का एक खोखा खाली पड़ा था। नेहा ने उसे पलटा और खींचकर सोफ़े के एक तरफ़ साइड टेबल की तरह लगा दिया। एक घूँट चाय पीकर उसने गिलास को खोखे पर रख दिया और सोफ़े की पीठ से पीठ सटाकर गर्दन पीछे टिका दी।
‘बहुत थकान है?’ प्रकाश ने पूछा
‘नहीं बस यह नई ज़िंदगी कैसे शुरू होगी वही सोच रही थी।’
‘बुरा लग रहा है?’
‘नहीं, तुम्हारी पहली पोस्टिंग जैसा कुछ-कुछ लग रहा है...लेकिन वह घर हमें फ़र्निश्ड मिला था, याद है? खाली नहीं था।’
‘हाँ वह बात तो है पर घर को लेकर इतनी सेंटी मत बनो। मैने कम सामान इसलिये ख़रीदा कि तुम अपनी पसंद से घर सजा सको। वैसे भी पिछले एक महीने काम की मारामारी में मुझे ज्यादा समय नहीं मिल पाया। सिर्फ यह सोफ़ा, बेड, रसोई की गैस और छोटा फ्रिज ही लिये थे। दिल करे तो इन्हें भी बदल सकती हो।’
‘हाँ ठीक है।’ नेहा ने धीरे से कहा और चाय की एक चुस्की ली- ‘पर्दों का क्या करेंगे?’
‘किसी दूकान पर चलकर बात कर लेंगे।’
‘हम कितने अकेले हो आए हैं, अचानक नेहा के मुँह से निकल गया
‘ऐसे नहीं कहते फिर... ’ प्रकाश ने टोंका।

नेहा को सहारनपुर का अपना महीन नक्काशी वाला डायनिंग टेबल याद हो आया। बस एक झोंके में वह आम का खोखा शीशम की सहारनपुरी मेज़ में परिवर्तित हो गया। फिर न जाने क्या हुआ। उस मेज़ के वर्तुलाकार भारी पाए लोहे के कलात्मक आकार में परिवर्तित होने लगे। ऊपर रखा वज़नी नक्काशीदार टॉप, हल्के पारदर्शी काँच में आकार लेने लगा। सहारनपुर की भारी मेज़ धीरे धीरे काँच का टॉप धारण किए लोहे की सरिया वाले पाँवों पर कैसे आ गई पता ही नहीं चला। यह पारंपरिक चेतना का विदेशीकरण कैसे हो गया... नेहा सोच ही रही थी कि खोखा फिर से अपनी जगह पर ठीक से दिखाई देने लगा।

आखिर में हम सब खोखे ही तो हैं चाहे लकड़ी के पाँवों पर नक्काशीदार टॉप हो या रॉट आयरन के पाँवों पर पारदर्शी काँच... खास बात यह है कि हम परिवर्तनों में कितने सहज रह पाते हैं।

चाय खत्म कर नेहा पलंग पर लेटी तो उसे लगा जैसे साथ आए सात सूटकेस अचानक कहीं गुम से गए हैं। यह १५०० वर्ग फुट का फ्लैट इतना बड़ा हो गया है कि शाम की धूप के साथ हर ओर खालीपन फैलने लगा है। इसको भरने के लिये जिन चीज़ों की ज़रूरत होती हैं उनमें से इन सात सूटकेसों में शायद ही कुछ है। वह चिर संपन्न सुगृहणी अचानक निरापन्न सी हो आई है। यह कैसा विचार है? मन ही मन उसने पता लगाने की कोशिश की, क्या उसे ऋषि और कनु की याद सताने लगी है? वे भारत ही रुक गए थे माँ और बाबूजी के साथ। सालाना इम्तेहान के बाद आने वाले हैं अप्रैल में। तबतक यहाँ भी सबकुछ ठीक हो जाएगा। कान हवाई जहाज़ की झनझनाहट से अभी तक साफ़ नहीं हुए थे।

फ़ोन की घंटी बजी तो नेहा की तंद्रा टूटी। एफ्ट्रॉन से फ्रिज की डिलेवरी वाले आ रहे थे। साफ़-सुथरी हिंदी में बात हुई।
‘हाँ हाँ फ्लैट नं ६०२ यानी छठी मंज़िल पर’
‘ठीक है मैं अभी आता हूँ।’
‘क्या आप पहुँच गए?’
‘हाँ मैं बिल्डिंग के नीचे हूँ।’
‘पोर्टर है आपके पास? ’
‘नहीं ऐसा तो कुछ नहीं।’
‘अच्छा सहायता के लिये ड्राइवर होगा?
‘नहीं मैं खुद ही ड्राइव करता हूँ।’
‘तो क्या मैं मदद के लिये किसी को भेजूँ?
‘नहीं नहीं मैं अकेले ही काफ़ी हूँ, बस आप दरवाज़ा खोलें।’

‘क्या हुआ?’ प्रकाश ने पूछा।
‘फ्रिज आया है और ऊपर लाने वाला कोई नहीं।’ ‘मैं देखता हूँ, कहते हुए प्रकाश ने दरवाज़ा खोला तो कोट और टाई में जगमगाता हुआ एक हिंदुस्तानी बंदा दरवाज़े के सामने ही खड़ा था। साढ़े पाँच फुट के बड़े फ्रिज को मोटे गत्ते वाले पैकिंग बॉक्स में बँधे स्ट्रैप से उसने एक हाथ में ऐसे पकड़ रखा था जैसे सूटकेस।

यह बंदा पहलवान है या फ्रिज इतना हल्का है, नेहा ने सोचा, और फ्रिज लेटाकर पकड़ा है। कैसा नादान है, यह नहीं मालूम कि फ्रिज को सीधा पकडना चाहिए। टेढ़ा पकड़ने से कंप्रैसर का तो हो गया होगा सत्यानाश।

पर बंदे ने इस सबसे बेखबर फ्रिज को सीधा खड़ा कर दिया। जेब से एक विशेष प्रकार का चाकू निकालकर गत्ते के कवर को वहीं चीर दिया। सामने चमचमाता हुआ सफ़ेद फ्रिज खड़ा था। उसने ज़रा धक्का दिया और फ्रिज गोलियों नुमा पहियों पर रसोई की ओर बढ़ चला। हर तरफ़ से सफेद सपाट। पीछे से भी, जैसा नेहा ने भारत में कभी देखा नहीं। फ्रिज रसोई के कोने में रोक कर उसने पहियों के पास स्थित नन्हें नन्हें स्तंभों को चूड़ियों पर नीचे फर्श पर गिरा कर जमाया तो फ्रिज स्थिर हो गया। प्लग को सॉकेट से जोड़ा और स्विच ऑन। कोई आवाज़ नहीं।

गया कंप्रेसर, नेहा ने सोचा। सेल्समैन ने मुस्कुरा कर अपने बैग से सात आठ इंच के आयताकार आकार का कुछ निकाला और फ्रिज खोलकर अंदर रख दिया। नेहा ने देखा फ्रिज का बल्ब तो जल रहा था।
‘यह थर्मामीटर है,’ उसने बताया। मैं देखता हूँ कि फ्रिज ठीक से काम कर रहा है या नहीं। कहते हुए उसने फ्रिज बंद किया तो उस नाजुक दरवाजे के फूलपान धक्के से हवा हवाई फ्रिज दो इंच पीछे खिसक गया।
‘अरे यह क्या? यह इसी तरह खिसकता रहेगा?’
‘नहीं, नहीं आप इसमें सामान रखेंगी तो अपने आप भारी हो जाएगा। फिर ऐसे नहीं खिसकेगा।’
पाँच मिनट बाद उसने फ्रिज खोला, थर्मामीटर चेक किया और बोला,
‘यह बिलकुल ठीक काम कर रहा है। आप इसमें सामान रख सकती हैं।’
उसने मुसकुराते हुए ‘बाय’ में हाथ हिलाया और चलता बना।
नेहा ने चैन की साँस ली। अच्छा मनोरंजन रहा। देश क्या बदला है सारी दुनिया पलट गई है। कार में बाई तरफ़ की बजाए दाहिनी तरफ़ बैठो, सड़क पार करते समय इधर नहीं उधर देखो...

इस देश में पहुँचे नेहा को सिर्फ तीन घंटे हुए हैं पर वह कम से कम तीस संवेगों से गुज़र चुकी है। कभी रोमांच का पहाड़, कभी मनोरंजन की बारिश, कभी उदासीनता की गहरी घाटी तो कभी निराशा का सैलाब, क्या हो गया है उसे? कैसा बड़ा सुपर मार्केट, इतने सारे लोग और उसकी पहचान का कोई नहीं। ऐसा कभी सहारनपुर में हो सकता था? शहर के सब लोग जानते थे उसे। ज़रा घर से बाहर कदम निकाला तो भाभी जी नमस्ते, भाभी जी नमस्ते कहते सब हालचाल पूछते।

यहाँ के नोट कितने मूल्य के हैं वह समझना भी इतना आसान नहीं। एक तरफ़ पूरा अरबी दूसरी तरफ़ सिर्फ नंबर अंग्रेज़ी में। हर नोट के साथ आधा मिनट यही समझने में खर्च हो जाता है कि यह नोट है कितने मूल्य का। काउंटर पर खड़ी लड़की ने झट से पूछ लिया--
नई नई आई हैं इंडिया से?
हँस दी थी सुनकर।

आते ही बिल्डिंग के नीचे बने सुपर मार्केट में चली गई। सोचा था कुछ खाने पीने और सफाई का सामान ले आएगी, पोछे में डालने का खुशबूदार फ़िनायल, चीनी के बर्तन साफ़ करने का लिक्विड सोप, कपड़े धोने का साबुन, झाड़ू और कुछ पोंछे। लेकिन वहाँ पहुँच कर समझ नहीं पाई कि कौन सी बोतल उठाई जाए। बहुत सी ब्रांड के पोछे वाले फ़िनायल थे, कोई उसकी पहचान का नहीं था। बर्तन धोने के भी बहुत से लिक्विड सोप, पर उसका वाला कहीं नहीं। कपड़े धोने के साबुन टॉप लोडिंग मशीन के दूसरे, फ्रंट लोडिंग मशीन के दूसरे उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या ले क्यों कि वाशिंग मशीन तो अभी तक घर में आई ही नहीं थी। एक मैगी सॉस था जाना पहचाना, सो ज़रूरत न होने पर भी पहचान की वजह से उठा लिया। झाड़ू और पोछे तरह तरह के थे पर वैसे कभी इस्तेमाल नहीं किए थे सो कोई नहीं उठाया।
 
नेहा को लगा उसे वनवास मिला है यहाँ उसकी पहचान, आदतें और सुविधाएँ नहीं हैं। नहीं...नहीं.. वनवास नहीं पुनर्जन्म। हाँ पुनर्जन्म ही है। अच्छा है कि सिर्फ़ नई चीज़ों के साथ तादात्म्य बैठाना है, पुरानी चीज़ों को फिर से सीखने का दर्द उसे नहीं झेलना होगा।

गैस के चूल्हे पर एक और चाय उबलने की कगार पर थी।
‘अ...अ देखो चाय उबलकर गिर न जाए।’ प्रकाश ने कहा जो सिंक में पड़े बर्तन साफ़ करने लगा था। सालों से नेहा ने बर्तन साफ़ नहीं किए थे, भारत में कितने लोग अपने हाथों से बर्तन साफ़ करते हैं? लेकिन इस रसोई में दो सिंकों में रखकर बर्तन साफ करने की नई शैली उसे काफ़ी रोचक लगी।

चाय लेकर वह बेडरूम में आ गई जहाँ से ठक-ठक की आवाज़ें लगातार आ रही थी। फर्नीचर वाले कपड़े रखने वाली बड़ी अलमारी के अलग अलग हिस्सों को जोड़ने में लगे थे। आधा घंटा भी न बीता था कि अलमारियों में आकार आ गया। न गंदगी, न बुरादा, न धूल। गत्ते के बक्सों के कटे फटे टुकड़े थे जिसे उठाकर कॉरीडोर में उसी जगह रख दिया जहाँ फ़्रिज का डिब्बा रखा था।
‘क्या नाथूर को बुलाकर इन्हें फेंकवाना है? ’ नेहा ने पूछा।
‘नहीं सब काम हो जाने दो सब कूड़ा एकसाथ फेंकवाना होगा। एक बार फेंकवाने के ३० दिरहम देने होते हैं।’
‘३० दिरहम यानी ३५० रुपये? कूड़ा फेंकवाने के इतने पैसे?... खुद ही फेंक देंगे।'
‘क्या क्या काम खुद करोगी? नाथूर गाड़ी लेकर आएगा और इन्हें रिसाइकिल होने वाली खास जगह पर फेंक कर आएगा जो यहाँ से थोड़ी दूर है। वह हम खुद नहीं कर सकते अभी।’
कूड़ा फेंकने के इतने कानून? नेहा परेशान सी हो आई।

घर में हर लाइट पाइंट पर छत से बिजली के तार लटके थे यानी लैंप शेड या लाइट कवर उन्हें खुद लगवाने थे। प्रकाश बार बार एलेक्ट्रीशियन को फ़ोन करने में लगे थे। लेकिन वह कभी यहाँ होता कभी वहाँ। सारे घर में सिर्फ़ रसोई और टॉयलेट की बत्तियाँ ही जल रही थीं, जो इस बिल्डिंग के नदीम उर्फ़ नाथूर उर्फ़ केयर टेकर ने खुद ही सुपर मार्केट से लेकर लगा दी थीं। वहाँ लाइट बॉक्स पहले से लगे थे उनमें सिर्फ़ ट्यूब लाइटें लगानी थी। फ़िलहाल पूरे घर में रोशनी के नाम पर जलता, तारों की दोहरी डोरी पर छत से एक फुट नीचे लटका धीमी रोशनी का एक बल्ब उदासी सी बढ़ा रहा था। नए लाइट शेड डिब्बों में रखे थे, छत से चिपकने वाले नन्हें गुंबदाकार।

अचानक वह धीमी रोशनी वाला बल्ब सहारनपुर के ड्राइंगरूम में लगे फ़ीरोज़ाबादी झूमर में तबदील हो गया। पूरा कमरा दीपावली के बाद ठीक से साफ़ किए गए झूमर की तेज़ रोशनी से जगमगा उठा। रौनकों का रेला सा आया और शांत हो गया। फिर धीरे धीरे झूमर का आकार सिमटने लगा। उसकी सूरत बदलने लगी और उसकी शक्ल छत से लगने वाले विलायती लाइट शेड में ढल गई। पीली रोशनी पिघल कर नीली हो गई। शांति की एक अजनबी परछाईं दीवारों से उतरी और फ़र्श में समा गई। एक बार फिर से सब कुछ बदला और सिर्फ़ बल्ब रह गया। ओह! यह सब क्या है अंतरराष्ट्रीय चेतनाओं में डूबती उतराती नेहा ने अपने सिर को झटका दिया। प्रकाश कुछ कह रहे थे,
‘ज़रा सी देर में एलेक्ट्रीशियन पहुँच जाएँगे और काम शुरू हो जाएगा।'
‘आँ...हाँ...’
‘कैसी अनमनी सी हो रही हो...क्या हुआ बहुत थक गई हो?’
नेहा क्या जवाब दे?

उसे लगा जब से आई है काम तो सब प्रकाश ही किए जा रहे हैं, वह तो ऐसे ही बैठी है इधर-उधर। आखिर क्या है जो उसको परेशान कर रहा है, बार बार भटका रहा है... वह खुश है या दुःखी है... या अनमनी... पल भर को वह सहारनपुर में होती है और पल भर को शारजाह में... कभी सहारनपुर के फ़रनीचर स्थानीय फ़रनीचरों तक आते जाते हैं तो कभी लाइटशेड... उसका दिमाग तो ठीक है? क्या वह सचमुच थक गई है? या वह नई जगह और नई परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित करने में मुश्किल महसूस कर रही है... उड़ान इतनी लंबी तो नहीं थी कि थकान हो जाती, शायद जड़ों से उखड़ने का दर्द था जो रह रह कर टीस रहा था।

 

९ जून २०१४

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