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					 दीदीई..... 
					कैसी हैं आप? सात समंदर पार से भी टेलीफोन पर उसकी आवाज़ की खनक पहचान पा 
					रही थी रेवा। खुशी हुई वह खनक सुनकर, क्योंकि आखिरी बार जब 
					उससे मिली बहुत उदास थी वह और उस उदासी के ऊपर जो मुस्कुराहट 
					का लबादा ओढ़ कर आई थी उसे और कोई समझे न समझे, रेवा बहुत 
					स्पष्ट रूप से पहचान पा रही थी। वह कुछ कहे इससे पहले ही फोन 
					कट गया। रेवा ने फिर मिलाया तो दूसरी ओर से व्यस्त लाइन की 
					डायलटोन आ रही थी। उसने कुछ देर फोन खाली छोड़ना मुनासिब समझा, 
					ताकि कॉल आ तो सके। फोन तो खाली छोड़ा लेकिन मन पर पड़ी दस्तक 
					उसे ले गई दूर एक देश में...
 रिश्ते कैसे बनते हैं यह रेवा ने अपना देश छोड़ने के बाद ही 
					जाना था।
 
 नई जगह, नए देश में अकेलेपन और टी.वी. से ऊब कर जब बच्चे 
					परेशान हो गए थे तो रेवा और जय उन्हें लेकर नजदीकी पार्क जाने 
					लगे थे। पारामारिबो का इकलौता पार्क, इकलौती बेकरी, फरनांडीज़ 
					के सामने। यूँ तो उस पार्क में कुछ भी खास न था, दिल्ली की हर 
					कॉलोनी खासकर एन.डी,एम.सी क्षेत्र की सरकारी कॉलोनियों जहाँ 
					रेवा और जय ने काफी समय बिताया था, में हर स्क्वेयर के बीच ऐसे 
					पार्क थे, खुले खुले जहाँ चलने के लिए विशेष ट्रैक बने थे और 
					एक कोना बच्चों के झूलों का तो एक कोना सुंदर फूलों का था और 
					पूरे पार्क में हरी मखमली घास बिछी थी। फरवरी मार्च को महीनों 
					में तो वे पार्क रंग-बिरंगे फूलों से गुलज़ार हो जाते थे। 
					लेकिन यहाँ यह एक अकेला पार्क था जो दूर दूर के लोगों के लिए 
					आकर्षण था। बड़े से पार्क के बीचोंबीच परगोला बना था जिसमें 
					गोलाकार पत्थर की मेजों के इर्द-गिर्द बिछी बेंचें पार्टी व 
					पिकनिक मनाने आए समूहों के लिए वरदान थीं। परगोले को चारों ओर 
					से घेरे सघन वृक्ष भरी दोपहर में भी शीतल रखते थे। रविवार को 
					तो पार्क में पिकनिक मनाने वालों की बहुत भीड़ रहती थी और 
					बच्चों की छुट्टियों में हर शाम माता-पिता बच्चों को ले आते 
					थे। वहीं कुछ क्रियोली भाँति भाँति के सूरीनामी व्यंजन बनाकर 
					बेचने चले आते थे और रंग-बिरंगे गुब्बारे वाले भी, गुब्बारे भी 
					कई आकर्षक आकारों में होते थे, शेर, चीता, गदा, बतख और बच्चे 
					मचल उठते थे उन्हें देखकर। शाम के समय पार्क के हर कोने में 
					लगी मद्धिम बत्तियाँ जगमगातीं तो एक सुंदर सुकून भरा वातावरण 
					उत्पन्न कर देतीं। परगोले के घेरे पर लगी झालर उसे और अकर्षक 
					बना देती।
 
 वे सब वहीं मिले थे सबसे पहले बच्चे, फिर संध्या और रेवा और 
					फिर जय और करन भाई। फिर पूरा परिवार, और परिवार से जो आत्मीयता 
					मिली वह परदेस में उनका सहारा बनी। एक सुनहरी सी कशिश भरी शाम 
					थी, मंद मंद शीतल वायु रह रह कर गुलमोहर की नन्हीं नन्हीं 
					पीली-पीली पत्तियों की बौछार कर जाती थी। जय बड़े बेटे के साथ 
					परगोले में बनी बेंच पर बैठकर बात कर रहे थे और रेवा तीन वर्ष 
					के नन्हे वेद को झूलों पर खिला रही थी। वेद की जिद थी कि वह 
					छोटे स्लाइड पर अपने आप फिसलेगा और ममा उसे बिलकुल नहीं 
					पकड़ेगी। रेवा थोड़ा दूरी पर पड़ी सतरंगी रंगों से रंगी लोहे 
					की कलात्मक बेंच पर बैठ गई थी, वह देख रही थी छोटा बालक 
					आत्मविश्वास से भरा स्लाइड पर फिसलता और फिर दौड़कर दूसरी ओर 
					जाता और फिर धीरे धीरे ऊपर चढ़ता। ऊपर की पटरी पर जाकर जब वह 
					खड़ा होता तो रेवा के दिल की धड़कन ठहर जाती किंतु बच्चे के 
					चेहरे पर फतह के भाव उसे ताली बजाने को बाध्य कर देते।
 इसी खेल के 
					बीच एक अन्य़ छोटी बच्ची आकर झूले पर फिसलने लगी थी। हमउम्र 
					बच्चे आपस में बहुत जल्दी घुलमिल जाते हैं, उन्हें अपने भावों 
					के आदान प्रदान के लिए भाषा की भी आवश्यकता नहीं होती। दोनों 
					हाथ पकड़ कर खेलने लगे। एक ऊपर पहुँचता तो दूसरा उसके फिसलने 
					की प्रतीक्षा करता और जब वह फिसल जाता तो ऊपर चढ़ता...मौन 
					सामंजस्य से भरपूर यह खेल काफी देर तक चलता रहा, वे ऐसे सहज हो 
					कर खेल रहे थे जैसे कि बरसों पुरानी पहचान हो। बच्चों और बड़ों 
					में यही अंतर होता है, बच्चे जितनी सहजता से आपस में मिल जाते 
					हैं बड़ों को वह दूरी पाटने में उतना ही समय लगता है। 
					 रेवा चुपचाप 
					बच्चों को देख रही थी कि अचानक उसके हाथ के पास बेंच पर एक 
					पीपल का पत्ता आ गिरा, उसने ध्यान ही न दिया था जिस पेड़ के 
					नीचे वह बेंच थी वह पीपल का पेड़ था। उसने पत्ता उठा लिया, उसे 
					छूकर एक सुखद सा अहसास हुआ, मानो परिचय का, यहाँ की मिट्टी में 
					भी पीपल फलते हैं, अपने देश में देवरूप में पूजा जाने वाला 
					पीपल, पीपल से जुड़ी कितनी यादें, बचपन की, अम्मा की, अम्मा के 
					साथ मंदिर जाने की और जब अम्मा मंदिर में कीर्तन में बैठी होती 
					तब सहेलियों के साथ पीपल के चबूतरे के चारों ओर पकड़न पकड़ाई 
					खेलने की। सुजाता कभी भी उनके साथ पीपल के पास नहीं खेलती थी, 
					वह तो संध्या समय पीपल वाले मंदिर के पास से भी नहीं जाती थी, 
					उसका कहना था पीपल में भूत रहते हैं। जब एक रोज़ उसने अम्मा से 
					यह कहा था तो अम्मा ने वहीं पीपल की छाँव में बैठकर बड़े प्यार 
					से उन दोनों को समझाया था कि लाडो, पीपल में तो लक्ष्मीजी का 
					वास होता है, तभी तो हम पीपल की पूजा करते हैं। यह बहुत उपयोगी 
					वृक्ष है इसीलिए इसे कटने से बचाने के लिए कह दिया जाता है कि 
					पीपल पर भूत रहते हैं। और उस दिन के बाद सुजाता भी उनके साथ 
					पीपल के पास खेलने लगी थी। स्मृतियाँ भी पल में कहाँ से कहाँ 
					ले जाती हैं, एक पत्ते के साथ वह कितना पीछे घूम आई थी और वेद 
					के खेल पर ताली बजाना भी भूल गई थी, वेद भी अपनी नई दोस्त के 
					साथ मगन था, अब वह दोनों झूले के नीचे पड़ी रेत को मुट्ठी में 
					भरकर उसका फिसलना देख रहे थे, शायद उन्होंने अपना नया खेल बना 
					लिया था, जिसकी मुट्ठी में रेत बाद में खत्म होती वह जीतता 
					था... रेवा सोच ही 
					रही थी कि काफी देर हो गई अब वेद को वापस लौटने के लिए बुलाए 
					कि झूले के दूसरी ओर खड़ी महिला जो उस बच्ची की माँ थी आगे आई, 
					देखने में हमउम्र लगती थी, हिंदुस्तानी भी, बहुत संकोच के साथ 
					बोली, “दीदी आप भारत से हैं? मैंने आपको देखते ही समझ लिया था, 
					मेरा नाम संध्या है, सैंडी भी बुला सकते हैं” उसकी उँगलियों 
					में अभी तक फँसा पीपल का पत्ता देखकर वह बोली थी – “आपको पीपल 
					पसंद है?, मुझे भी, इस पार्क में यह मेरी पसंद की जगह है, जब 
					सब चुप हो तो यहाँ बैठकर पत्तों को सुनना बहुत अच्छा लगता है, 
					जैसे कोई संगीत हो”। उसके मुँह से हिंदी सुनकर रेवा को सुखद 
					आश्चर्य हुआ, बात का तार उसने पकड़ा ही था कि वह बोली, आप 
					रुकिए मैं अपने पति को बुलाती हूँ, उसको हिंदी आती है। रेवा 
					स्वतः ही बोल उठी – लेकिन आप भी तो हिंदी बोल रही हैं! वह 
					थोड़ा झिझक के साथ बोली - “मैं टूटा फूटा बोल लेती हूँ आप मेरी 
					बात को उतना बढ़िया से नहीं समझ पाएँगी, लेकिन मेरा पति हिंदी 
					फिल्में ताकता है वह अच्छे से बात कर सकता है” और बड़े उत्साह 
					के साथ वह न सिर्फ अपने पति अपितु साथ में परिवार के बाकी 
					सदस्यों को भी बुला लाई, तब तक जय और बड़ा बेटा भी उधर ही आ गए 
					थे और सब लोग आपस में मिले, औपचारिकताएँ तुरंत ही आत्मीयता में 
					बदल गईं, उनके लिए हमारा भारत से होना ही काफी था। भारत! उनके 
					पूर्वजों का देश! जिससे हर सूरीनामी हिंदुस्तानी का दिल एक 
					अटूट बंधन में बँधा होता है। दोनों परिवार जब अलग हए तो एक 
					दूसरे के फोन नंबरों का आदान प्रदान और दोबारा जल्दी मिलने का 
					वादा हो चुका था। 
 दो दिन बाद रविवार था और सुबह ही करन भाई का फोन आ गया कि आज 
					हम आपको अपना घर दिखाना चाहते हैं। स्नेह भरे आमंत्रण को 
					ठुकराने का सवाल ही नहीं था। इस तरह आपसी स्नेह और मैत्री का 
					नया संबंध पनपता गया। घनिष्ठता बढ़ती गई। संध्या ने अपनी 
					माताजी के जन्मदिन पर रेवा को सपरिवार अपनी माताजी के घर 
					आमंत्रित किया। सहज, सरल और मधुर लोगों से मिलना दिल को बहुत 
					अच्छा लगा।
 
 सप्ताह दो सप्ताह में परिवारों का मिलना आम हो गया, कभी एक 
					दूसरे के घर पर तो कभी पिकनिक पर या पार्क में, और कुछ नहीं 
					बनता तो खरीददारी कराने के लिए एक नए बाज़ार को दिखाने के 
					बहाने ही। तब तक संध्या ने बिटिया के जन्म के बाद काम पर जाना 
					शुरू नहीं किया था सो उसे काफी समय रहता था। कभी कुछ नया बनाकर 
					ले आती तो कभी कुछ सीखने आ जाती। फिर उसने वापस काम पर जाना 
					शुरू किया, खुश थी कि जिस नामचीन वकील के यहाँ पहले काम करती 
					थी वहीं से बुलावा आ गया था। किंतु बहुत समय घर पर रहने कारण 
					जिंदगी के नए सुरों पर ताल बैठाने में थोड़ी कठिनाई हो रही थी, 
					थकान, व्यस्तता के चलते अब उन लोगों का मिलना जुलना काफी कम हो 
					गया था। रेवा और जय के एक माह की छुट्टियों में भारत जाने और 
					वापसी पर मुलाकातों का सिलसिला थम सा गया। कार्य के दबाव के 
					रहते समय की कमी थी जिससे मिलना बहुत ही कम हो गया और फिर धीरे 
					धीरे रेवा को एक खिंचाव का आभास होने लगा। रेवा सोचती रही शायद 
					किसी बात से तकलीफ हुई हो... कई बार संध्या से फोन पर बात करने 
					का प्रयास किया लेकिन हर बार उसे व्यस्तता का एक नया बहाना 
					मिला, फलतः फोन भी कम होते गए। रेवा कारण जानने को बेचैन थी, 
					वह भूल से भी उन भले लोगों का दिल न दुखाना चाहती थी, और जाने 
					अनजाने यदि उससे भूल हो भी गई हो तो उसका प्रायश्चित करना 
					चाहती थी पर किसी भी प्रकार अवसर नहीं मिल रहा था।
 
 संध्या के बड़े बेटे की दसवीं वर्षगाँठ थी, उसने बहुत आग्रह से 
					बुलाया। रेवा यह अवसर छोड़ना न चाहती थी, करन ने कार्यालय से 
					आधे दिन की छुट्टी ली, उपहार पहले ही खरीद लिया था, रेवा ने 
					संध्या का मनपसंद गाजर का हलवा बनाया और पहुँच गए संध्या के 
					घर। घर में उत्सव का माहौल था, संध्या और करन दोनों के परिवार 
					वाले और मित्र उपस्थित थे किंतु दोनों के ही चेहरे बुझे बुझे 
					से लग रहे थे, शायद तैयारियों में थक गए होंगे। रेवा पहले की 
					भाँति संध्या के पीछे पीछे रसोई में पहुँच गई, आज वह सब 
					गलतफहमियाँ दूर करने का मन बना कर आई थी, उसने कहा, “संध्या, 
					तुम मुझे दीदी कहती हो तो आज मेरी एक बात का मान रख लो...
 
 पूछिए दीदी मैं कोसिस करूँगी। (उसकी ज़ुबान से श सायास निकलता 
					था, जब भी परेशान श को स ही कहती)
 मुझे बताओ तुम इतनी उदास क्यों हो, क्या मुझ से नाराज़ हो, 
					क्या मुझसे या हम में से किसी से कोई भूल हुई है?”
 “नहीं दीदी, यह बात नहीं है, संध्या ने कहा और उसी रौ में कहती 
					गई, शायद मुझे आपसे छिपाना नहीं चाहिए था, मैंने करन से तलाक 
					ले लिया है!” हैरान, हतप्रभ उसका मुँह देखती रह गई रेवा, जिस 
					सहजता से कह गई थी एक बार लगा मज़ाक कर रही है, किंतु उसकी 
					आँखों में छिपा दर्द कह रहा था कि वह सच है। तभी उसकी भौजी 
					अंदर आ गई और उसने आँख से ही रेवा को समझा दिया कि उसके सामने 
					कोई बात नहीं।
 
 भौजी कहने आई थी कि सभी लोग पार्टी बस पर सवार हो चुके हैं और 
					रेवा और संध्या का इंतज़ार कर रहे हैं। सूरीनाम में जन्मदिन या 
					कोई और जश्न मनाने के लिए पार्टी बस एक आम आयोजन था। पार्टी के 
					लिए किराए की बस एक सुख-साधन है। आमतौर पर एक पारंपरिक बस को 
					संशोधित कर मनोरंजक प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया जाता है, 
					रंग-बिरंगे गुब्बारों से सजी बस में मस्ती में गाते बजाते 
					खाते-पीते लोग शहर का चक्कर लगा आते हैं, सड़क से आते-जाते लोग 
					भी उन्हें देख, मुस्कुराते, हाथ हिलाते आगे बढ़ जाते हैं। लगभग 
					दो घंटे बाद बस वापस पहुँची तो संध्या फिर से सभी मेहमानों के 
					साथ व्यस्त हो गई थी, आने जाने वालों की भीड़ में कुछ और कहने 
					सुनने का अवसर नहीं हुआ। चलते चलते रेवा बस यही कह पाई, 
					“संध्या फोन करना” और संध्या ने नम आँखों के साथ उसका हाथ 
					हल्का सा दबा दिया।
 
 काफी दिन फिर चुप्पी के निकल गए। रेवा संध्या की सोच सोच कर 
					बहुत परेशान थी। एक अजब झंझावात में थी, समझ नहीं पा रही थी कि 
					कुछ समय पहले तक जो रिश्ता इतना मजबूत दिखता था उसे अचानक 
					किसकी नज़र लग गई, ऐसा क्या हुआ होगा जिसके कारण संध्या और करन 
					ने एक दूसरे से अलग होने का फैसला कर लिया। वह उसका दर्द 
					बाँटना चाहती थी, कई बार फोन पर बात करने की कोशिश की पर बात न 
					हुई, फिर एक दिन उसका फोन आया, सीधा सपाट वाक्य – “दीदी आपसे 
					मिलना चाहती हूँ, लेकिन अपने और आपके घर के बाहर। कब और कहाँ आ 
					जाऊँ?”
 फिर वहीं फरनांडीज़ वाले पार्क में मिली थीं दोनों, इस बार 
					अकेले!
 
 पीपल के नीचे वाली बेंच पर ही बह उठी थी आँसुओं की अविरल 
					झड़ी... रेवा ने बहने दिया, उसकी पीठ पर हलके स्पर्श से सहलाती 
					रही, उसकी हिचकियाँ सुनती रही, बस सुनती रही थी, मौन! वह जानती 
					थी मन की पीड़ा बह कर ही कम हो सकती है, होगी भी या नहीं वह 
					नहीं कह सकती, हर व्यक्ति को अपने मन की पीड़ा तो स्वयं ही 
					भोगनी होती है, लेकिन कभी कभी किसी से मन की बात कहकर हमारा मन 
					भी हल्का हो जाता है। रेवा बस वह निमित्त बनना चाहती है। बहुत 
					बह जाने के बाद उसने कहा – मुझे माफ कर देना दीदी, मैं आपको 
					परेशान करना नहीं चाहती थी, बहुत सोचा बहुत सोचा पर बस अब टूट 
					गई हूँ, मैंने करन से तलाक ले लिया है, परिवार में कोई नहीं 
					जानता। इसका कारण करन का किसी और महिला के साथ संबंध है।
 “संध्या कहीं कोई गलतफहमी...”
 “नहीं दीदी, कोई गलतफहमी नहीं है। यह संबंध आज का नहीं है, 
					पुराने जन्म का है, ऐसा वह मानता है, मुझसे विवाह होने के पहले 
					का है। विवाह उसने अपने पिता का मान रखने के किया”।
 
 हमारी कहानी, वह कहानी है जो गलत शुरू हुई, हमें जुड़ना ही 
					नहीं था, या शायद जुड़ना और यह भोगना ही हमारी नियति था। हमारा 
					संबंध करन के पिता ने जोड़ा था, वह मेरे पिता के मित्र थे। 
					मुझे बहुत प्यार करते थे, लेकिन दीदी उन्होंने यह भूल की, कि 
					करन और उस काली औरत के संबंध के बारे में जानते हुए भी उसे 
					स्वीकृति नहीं दी और मेरा हाथ थमा दिया। हमने कोशिश की, उसने 
					बहुत कम मैंने बहुत ज़्यादा! करन के पिता ने मुझसे वादा लिया 
					था, हमें समझाया था कि गृहस्थ जीवन में पति-पत्नी दो पहियों की 
					तरह परिवार रूपी गाड़ी को चलाते हैं। अगर इनमें से एक भी पहिया 
					कमजोर हुआ तो पूरी गाड़ी चरमरा जाती है। पति-पत्नी का रिश्ता 
					एक ऐसा रिश्ता होता है जो पूरे जीवन काल तक निभाना होता है। 
					मैं यह समझती हूँ, लेकिन दूसरे पहिए का होना तो ज़रूरी है न 
					दीदी, कमज़ोर ही सही, गाड़ी से जुड़ा तो रहे न। उसे बाँधने के 
					लिए मैंने रवि को संसार में लाने का फैसला किया, पिता बनने के 
					समाचार से कुछ समय वह बदल गया था, वे हल्के गुनगुने दिन थे, 
					इसी पार्क में ले आता था वह मुझे।
 यहीं इस पीपल 
					के नीचे बैठकर मैंने भी पुत्र की कामना की थी, बहुत छोटी थी तब 
					से धुँधला सा याद था, एक बार आजी ने बताया था भारत में उनके 
					गाँव में पुत्र कामना के लिए पीपल की पूजा की जाती थी, अपने 
					शांत तरीके से मैं इस पीपल को नमन कर पुत्र कामना करती थी 
					क्योंकि वह पुत्र चाहता था। तब यह धानी रंग की नई कोंपलों से 
					लदा था, जब वे कोंपले हवा से झरती तो दैवी आशीष सा अनुभव होता 
					था। इसी जगह उसके कंधे पर सिर टिका कर बैठती तो आँखें खोलने की 
					इच्छा न होती, डरती थी मेरे काँच के महल में दरार आ जाएगी। वह 
					पुत्र का पिता बना, तीन-चार वर्ष सुंदर बीते, वह वास्तव में एक 
					अच्छा व संवेदनशील पिता है। मैं उस पर विश्वास करने लगी, 
					जिंदगी से प्यार करने लगी थी, लेकिन पिताजी की मृत्यु के बाद 
					करन का रुख बिलकुल बदल गया।  पिताजी शायद 
					जानते थे कि करन का सुधार सतही है, शायद इसी कारण वह हमारा यह 
					घर और उसके बगल का जमीन का टुकड़ा दोनों मेरे नाम कर गए थे। 
					करन को उनकी वयीसत पढ़कर बहुत झटका लगा था। कुछ ही दिनों में 
					वह वापस पुराने रूखे व्यवहार पर आ गया, परिवार बच्चों की 
					जिंदगी का मूल आधार है, अपने रवि को उसके पिता के प्यार से मैं 
					वंचित नहीं करने चाहती थी, चुपचाप रिसती रही, अपने परिवार को 
					कभी कुछ न कहा, करन रवि और जमीन दोनों के कारण मुझसे बँधा था। 
					मैं किस्मत समझ निभाती रही। कभी कभी वह मेरे पास आता, मुझे 
					उससे किसी और की बू आती पर फिर भी हर बार एक नई उम्मीद और ढेर 
					सारे अश्रुजल के साथ समर्पित होती रही। मैं हर हाल में परिवार 
					को टूटने से बचाना चाहती थी, एक आखिरी उम्मीद के संग मैंने एक 
					नया फैसला किया, फिर से माँ बनने का, बीते मधुर पलों को फिर से 
					जीने का, पहले यह सुनकर वह नाराज़ हुआ पर फिर उसके अंदर का 
					पिता पिघल गया, पिता बनना कहीं उसे अपने पुरुषत्व का बोध 
					कराता, संपूर्ण होने का एहसास, वह एहसास जो उसने कहीं और नहीं 
					पाया, मैं उसे उस संपूर्णता का अनुभव कराती, उसका अहं तनिक और 
					ऊँचा उठ जाता। कुछ समय लौटा पर उधार का ही रहा।  वह दोनों तरफ से लाभ लेता रहा, मैं उसकी मित्र से भी मिली और 
					जब उसने मुझे बताया कि वह किसी बीमारी के कारण माँ नहीं बन 
					सकती है, और करन को बच्चे बहुत पसंद हैं यही कारण है कि करन 
					मेरे साथ है। तब मैं बुरी तरह टूट गई। मन करता था किसी नदी में 
					कूद जाऊँ किंतु बच्चों की जिम्मेदारी है मुझ पर, मैं अपने 
					बच्चों को नहीं छोड़ सकती, तो वक्त के साथ बहते रहने का निर्णय 
					लिया, आपकी गुनहगार हूँ आपसे बचती रही, शायद अपने आप से ही बच 
					रही थी, बूढ़ी माँ को दुख नहीं देना चाहती इसलिए अभी भी उसके 
					साथ हूँ, जश्नों में भी शरीक हूँ, मेरे नाम है लेकिन उसके पिता 
					का घर है, उसे निकालते नहीं बनता, वह अपने मन से आता है, अपने 
					मन से जाता है, कभी कागज पर लिखकर कभी रवि को बोलकर, रवि सब 
					समझता है, कहता कुछ नहीं, वह जानता है हम तलाक ले चुके हैं पर 
					वह भी यही चाहता है कि उसका पिता उसके साथ रहे। समय के साथ-साथ 
					जब बच्चे बड़े होते हैं तो हालातों को देखते हुये माँ-बाप 
					द्वारा किये गये निर्णय को समझने की सोचते हैं, मेरा बच्चा भी 
					समझने की कोशिश कर रहा है।
 
 ... और आज संध्या की यह चहक, कुछ खास होने का संकेत कर रही है, 
					जानने को उत्सुक रेवा ने फिर से फोन मिलाया...फोन उठाते ही 
					संध्या की वही चहकती आवाज आई, दीदी... खुशखबर है, करन की 
					गर्लफ्रेंड उसे छोड़ गई। जिसके साथ गई वह बहुत पैसे वाला है। 
					कल दोनों हॉलैंड जा रहे हैं।
 “अरे वाह! बधाई हो संध्या, तुम्हारे लिए बहुत खुश हूँ कि 
					तुम्हें करन वापस मिल गया”।
 “नहीं रे दीदी वो तो मेरा था ही नहीं, बहुत तरस आ रहा है उसकी 
					हालत देखकर, टूट गया है, पर अब मेरा नहीं है मैं अभी तक समर्पण 
					कर रही थी, अब त्याग कर रही हूँ, अपना घर अलग बना लिया है, 
					बहुत जल्दी वहाँ चले जाएँगे।
  आप 
					मेरे लिए दुआ करना मैं अपने बच्चों को सफल और अच्छा इंसान 
					बनाने में सफल होऊँ। जानती हैं इस समय मैं उसी पीपल के नीचे 
					बैठी हूँ, जहाँ हम पहली बार मिले थे, अब यहाँ आपको भी महसूस 
					करती हूँ, पिछले एक घंटे से बैठकर सोच रही थी, आगे क्या करूँ 
					और अचानक ही लगा कि अब उसकी तनिक भी चाह नहीं है, मुझे बोध हो 
					गया है। दीदी बुद्ध ने भी तो पीपल के पेड़ के नीचे ही ज्ञान 
					प्राप्त किया था ना, मैं बुद्ध तो नहीं पर यह जान गई हूँ कि 
					अपना सुख दूसरे के आसरे नहीं है। फोन रखती हूँ दीदी, सुख से 
					रहना”। मेरे बोधिवृक्ष के पत्ते धीरे धीरे देर तक हिलते रहे।
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