| 
					
					 बरसों 
					से खुल कर हँसा नहीं हूँ मैं, यदा कदा कर्तव्य स्वरूप 
					मुस्कुराहट ज़रूर आ जाती है। 
 ...कहा जाता है मैं अवसाद का शिकार हूँ। यूरोप के एक बड़े से 
					शहर के अनेक डॉक्टरों ने मेरा हर संभाव इलाज किया किन्तु मेरी 
					उदासी की घटाओं पर कोई सुनहरा किनारा दिखाई नहीं दिया। मैं 
					अपना हृदय किसी के समक्ष खोल नहीं सकता, सभ्य समाज का प्राणी 
					हूँ, किन्तु आज के समाचार-पत्र में छपे एक आलेख ने मुझे अंदर 
					तक झकझोर दिया – आलेख था – "फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी"।
 
					
					हजारों मील दूर एक देश के वासियों की गाथा जिन्होंने अपनी 
					संस्कृति अपनी भाषा को जीवित रखा। उनका दिल हिन्दुस्तानी है, 
					हाँ बस दिल ही तो! ऐसे दिल से मैं टकरा गया था बरसों पहले... 
					विश्वविद्यालय में दूर देश से आई परी सी एक लड़की... कहती थी 
					अमरीका से, पर पहनती थी साड़ी! जब हमारी हमउम्र लड़कियाँ चौड़े 
					पाँयचों वाली बेलबौटम और कसे हुए ब्लाउज, बड़े फूलों वाली 
					मैक्सी व काफ्तान के साथ नव प्रयोग कर रही थी और उनकी आधुनिकता 
					प्लैटफ़ार्म हील्स पर अपना नियंत्रण बैठा रही थी, सादगी की उस 
					प्रतिमा पर मैं दिल हार गया था।
 मैं अर्थशास्त्र एम ए फ़ाइनल का छात्र था और वह प्रथम वर्ष की। 
					वरिष्ठ होने के नाते औपचारिक सा परिचय हुआ... उन दिनों आज की 
					तरह रैगिंग नहीं होती थी पर सीनियर छात्र आने वाले नए 
					विद्यार्थियों के लिए स्वागत आयोजन करते थे, सभी नवागंतुकों को 
					अपना परिचय देना होता था।
 
					
					ऊँचा जूड़ा बनाए, साड़ी में लिपटी उस फूल सी किन्तु सकुचाई लड़की 
					ने बताया कि वह दक्षिण अमरीका के एक देश से आई है जहां 
					हिंदुस्तानी काफी संख्या में हैं, पूर्वी हिन्दी का पुट लिए 
					उसके लहजे से लगा कि बिहार के किसी ग्राम क्षेत्र से है, वैसे 
					भी उस समय हमें लगता था कि अमरीका से आने वाली लड़कियाँ पूरब 
					पश्चिम की सायरा बानो सी ही होंगी जिन्हें सुधारने के लिए एक 
					'भारत' की जरूरत होगी और हम सब वह भारत बनने का ख्वाब देखते थे 
					किन्तु यहाँ हमारे समक्ष थी एक अभिजात उच्च कुल की किन्तु 
					अमरीका में जन्मी प्रगति जिसके पिता किसी परियोजना पर विदेश गए 
					और वहीं बस गए। प्रगति का जन्म व २२ वर्ष तक की परवरिश अवश्य 
					विदेश में हुई किन्तु उसके रोम रोम में भारतीयता कूट कूट कर 
					भरी हुई थी। हैरत सी हुई सुन कर कि वह स्नान किए बिना कुछ खाती 
					पीती नहीं थी, स्नान करके, प्रार्थना करने के बाद ही वह पहला 
					निवाला मुंह में डालती थी। यहाँ तो हर युवा अंग्रेजीयत के रंग 
					में रंगा जा रहा था, बैड-टी के बिना सुबह न होती थी। हम भी 
					चाचा को देख देख बिना दाँत माँजे चाय पीकर अपने को अँग्रेज 
					समझने लगे थे, किंतु प्रगति को देख आत्मावलोकन किया…. और 
					सुधरे! माँ इस परिवर्तन को समझ न पाईं।
 प्रगति से प्रत्यक्ष पहचान न भी बढ़ती यदि प्रोफेसर साहब ने एक 
					रोज़ कक्षा के बाद बुला कर पढ़ाई में उसकी मदद करने को न कहा 
					होता। परीक्षाएँ नजदीक आ गईं थी, हम एक साथ बैठकर पढ़ते थे, कभी 
					कभी अन्य दोस्त भी शामिल हो जाते थे, नोट्स का आदान प्रदान आम 
					था, फ़ाइनल वर्ष के छात्र जूनियर छात्रों को प्रश्नपत्र 
					गैस-पेपर आदि देते रहते थे। यदा कदा कैंटीन व लॉन में बैठ साथ 
					अध्ययन भी करते थे। धीरे धीरे अध्ययन की अवधि बढ़ती गयी और फिर 
					अध्ययन के साथ साथ अन्य बातों के लिए समय निकलने लगा था। 
					सप्ताह में एक बार थिएटर व बाहर खाने का खर्च प्रगति के 
					जेबखर्च से निकल आता था। पश्चिमी संस्कृति की यह बात मुझे 
					हमेशा से बहुत पसंद रही कि जेबखर्च नाम की सुविधा बहुत कम आयु 
					से ही शुरू हो जाती है। किंतु वह उन दिनों की सोच थी जब मैं 
					जेबखर्च लेने वाले पाले में था। एक आम इंसान की यही तो विडंबना 
					है कि उसका आचरण उसके पाले से निर्धारित होता है, वक्त ज़रूरत 
					के अनुसार विचार भी बदलते रहते हैं, मान्यताएँ भी... खैर!
 
 परीक्षा के बाद लगभग तीन माह का अवकाश था। कॉलेज बंद होने से 
					पहले, प्रगति ने बताया वह छुट्टियों में वापस चली जाएगी... 
					मुझे जैसे किसी ने ज़ोर से धक्का दिया हो, मैं आसमान में विचर 
					रहा था, ज़मीन पर आ पड़ा... लगा वह स्वप्न की भांति खो न जाये। 
					स्वप्न जो कहाँ कहाँ ले जाते हैं और फिर आँख खुलते ही ला पटकते 
					हैं निर्मम जग की कठोर भूमि पर, जहां पनपने को कभी मिट्टी तो 
					कभी जल कम रहता है और यह दोनों पर्याप्त मात्र में हों तो जाने 
					कितनी खरपतवारें आपका अस्तित्व लीलने को तैयार खड़ी रहती हैं। 
					उस दिन कुछ खाया न गया, लगता था मानो कुछ बहुत व्यक्तिगत छूट 
					रहा हो, घर पर माँ से यह बात छिप न सकी थी, माँ से वैसे भी कुछ 
					छिपता कहाँ है? किन्तु समय ऐसा भी न था कि बच्चे माता-पिता से 
					इतना खुले हों, लिहाज होता था और दिल की बातें सिर्फ मित्रों 
					के समक्ष ही रखी जाती थीं। विवाह आदि भी माता-पिता की इच्छा से 
					ही होते थे, फिर भी माँ के सामने अपनी व्यथा रखी तो मेरी बात 
					पूरी होने पर वह पहले से और अधिक चिंता में दिखाई देने लगी। 
					माँ ने कुछ न कहा, बाबू से बात करूंगी कह कर उठ गईं, मैं माँ 
					को देख रहा था लगता था जैसे भीतर ही भीतर किसी से लड़ रहीं हों 
					लेकिन बाहर का आवरण कुछ मालूम न होने देता था, स्पष्ट था जिस 
					बात से वह स्वयं संतुष्ट न हों बाबू के सामने कैसे रखें। बाबू 
					थे भी बड़े सख्त, पक्के चोटी वाले ब्राह्मण जो बाहर किसी के हाथ 
					का पानी भी नहीं पीते थे। और सबसे कठिन बात यह थी कि मुझे 
					प्रगति के अलावा प्रगति के बारे में कुछ मालूम नहीं था। बस 
					मालूम था कि वह मुझे बहुत अच्छी लगती है, मैं उसके आसपास रहने 
					में अपने को पूर्ण समझता हूँ!
 
 दो दिन तक माँ कुछ न बोली, उसके अंतर में एक गहन विमर्श चल ही 
					रहा था, कि हमारे मामा जी पधारे; माँ के जुड़वा भाई, उनके बहुत 
					निकट थी माँ, जो बाबू से न कह पाती मामा से खुल कर कह देती, और 
					मामा जी से गहन विमर्श के बाद माँ शांत दिखाई दीं, जैसे कि राह 
					मिल गयी हो।
 
 यह तो बहुत बाद में पता चला कि उस रोज़ माँ की आँख में एक सपना 
					आँज दिया था मामा ने... विदेश का सपना!!! वह सपना जो उन्होंने 
					एक रोज़ देखा तो था पर उसे पंख न मिल सके थे. माँ ने प्रगति को 
					घर बुलाया और उसके बाद तो उन्हें कोई संशय ही न रहा। मामाजी ने 
					एक बंद लिफाफा प्रगति को पकड़ाकर विदा किया...उसमें बंद संदेश 
					का अंदाज़ा हम सब को था।
 
 प्रगति की वापसी पर उसके माता-पिताजी साथ आये थे, उनकी दिली 
					ख्वाहिश थी कि प्रगति भारत में विवाह करे और यहीं रह जाए, यही 
					कारण था कि वह मामा की पुकार पर दौड़े चले आये । और फिर तुरत 
					फुरत न जाने कैसे सब संपन्न हो गया, उसकी पढ़ाई का एक वर्ष बचा 
					था और मैं नौकरी करने लगा था। यूनिवर्सिटी के पास ही हमने एक 
					छोटा सा घर किराए पर ले लिया था क्योंकि बाबूजी का मानना था की 
					मुझे अब अपनी गृहस्थी का बोझ स्वयं उठाना चाहिए। यह पहला अवसर 
					था प्रगति को निकट से जानने का। कुछ घंटे मिलना और चौबीसों 
					घंटे साथ रहने का अंतर सामने आने लगा, आवरण के भीतर की 
					बारीकियाँ दिखाई देने लगीं। किंतु हम आदर्शवादी थे...
 
 और फिर जब प्रगति की परीक्षाएँ समाप्त हुईं तो हमने छुट्टियों 
					में कन्याकुमारी घूमने का कार्यक्रम बनाया किन्तु मामाजी व माँ 
					की राय थी कि हम प्रगति के माँ बाबूजी के पास चले जाएँ, उसका 
					मन बहल जाएगा और मुझे उन्हें जानने का अवसर मिलेगा। छोटी सी 
					गृहस्थी बस ही तो रही थी, लम्बे समय के लिए छुट्टी की अर्जी 
					नामंजूर हो गयी तो माँ ने त्यागपत्र देने का हौसला बढ़ाया। 
					चलते चलते मामा ने कहा था, अगर कोई अच्छा अवसर मिले तो हाथ से 
					न निकलने देना, और प्रगति की ओर देखते हुए बोले थे – “बहू अपने 
					बाबू से कहकर बबुआ का काम कहीं ठीक करा दीजो नहीं तो तुम्हें 
					अपने माई-बाप से दूर रहना पड़ेगा!” माँ व मामा के सपने व प्रगति 
					की खुशी के आगे मेरी इच्छा... योजना कुछ व्यक्त ही न हो पाई। 
					बहुत ठगा सा अनुभव किया मैंने। किंतु मामा के शब्दों से प्रगति 
					को संबल मिला, ससुराल पहुँचते ही प्रस्ताव मिला कि मैं बाबूजी 
					के कारोबार में हाथ बंटाऊँ, लेकिन मैं अपने बूते पर कुछ करना 
					चाहता था, मुझे बहुत आराम से वहां के विश्वविद्यालय में नौकरी 
					मिल गयी और तब मैं खुलकर साँस लेने लगा। ज़िन्दगी दौड़ने लगी,नए 
					नए फूल खिले, बगिया महकने लगी, सब कुछ व्यवस्थित था किन्तु 
					प्रगति के अंतस में एक बेचैनी थी जिसे मैं महसूस करता था जैसे 
					किसी चिड़िया को पिंजरे में डाल दिया हो...
 
 प्रगति के बड़े भैया अपने व्यवसाय को बढ़ाना चाहते थे और पास के 
					ही एक द्वीप पर नया कार्यालय खोला था प्रगति वहाँ जाकर हाथ 
					बँटाना चाहती थी, तीन बच्चों के साथ विस्थापित होना खेल नहीं 
					था नए स्थान पर स्वयं को स्थापित करने की जद्दोजहद हम दोनों 
					समझते थे, मगर प्रगति ने शायद अपने नाम को सार्थक करने की ठान 
					ली थी। मैंने कभी उसे किसी बात से रोका नहीं था, मेरी मौन 
					सहमति पा प्रगति ने सब व्यवस्था कर ली और मैं मूक उसका साथ 
					देता गया। अब तक प्रगति का हर रूप निरख चुका था और जिंदगी से 
					समझौता कर लिया था। यूँ हमारे व्यक्तित्वों की टकराहट कभी नहीं 
					हुई। जो टकराहट हुई थी वह अपने अंतर्द्वंदों की थी दो 
					संस्कृतियों के दैनंदिन अंतरों की थी। अनुभव से सीखा कि हमारे 
					आकलन सतही होते हैं, अक्सर यह आकलन प्रकट विचारों का होता है। 
					अलग परिवेश में रहने से उपजी आदतें जो जीवन का अभिन्न हिस्सा 
					बन जाती हैं उन पर किसी का ध्यान नहीं जाता। सामंजस्य बिठाना 
					तब तक सही लगता है जब तक उन सामंजस्यों से जीवन मूल्यों का 
					ह्रास न हो। जब यही सामंजस्य जीवन मूल्यों पर हावी होने लगते 
					हैं तो लगता है आपकी जड़ें काटी जा रही हैं।
 
 कैरिबीयन संस्कृति भारतीय संस्कृति से बिलकुल भिन्न है, खाओ 
					पियो मौज करो का सिद्धान्त लिए जीने वाले लोगों में 
					हिंदुस्तानी समाज ऐसा है जो प्रत्यक्षतः अपनी जड़ों से गहरा तो 
					जुड़ा है किन्तु पश्चिमी परिवेश में रहने के कारण उसमें इस कदर 
					ढल गया है कि तीन वक्त तो क्या दो वक़्त का खाना पकाना भी 
					मुश्किल लगता है। टीनबंद खाना खाकर यूँ तो लोग ज़िन्दगी भी 
					गुज़ार लेते हैं और उसमें कुछ बुराई भी नहीं है किन्तु यदि ताज़े 
					पके खाने की कमी महसूस करना और वह प्राप्त न होने पर स्वयं 
					पकाने की कोशिश करना और उसी प्रक्रिया में बीते समय की 
					खिलखिलाती रसोई में जा पहुंचना और उसे अपने आसपास न पा कर 
					उदासी से भर जाना यदि अवसाद है तो इसका आरंभ विवाह के कुछ 
					वर्षों बाद ही हो गया था किंतु हम उसे पहचानना नहीं चाहते थे। 
					आखिर हम एक संभ्रांत परिवार थे...शिक्षित, सभ्य... विवाद से 
					दूर!!!
 
 अरूबा एक बहुत सुंदर स्थान है किंतु वहाँ मेरे लिए उपयुक्त 
					अवसर न थे सो मैंने घर पर रहकर बच्चों की ज़िम्मेदारी सहर्ष 
					स्वीकार कर ली। ज़िंदगी फिर सामान्य हो चली थी मुझे घर रहने 
					में कोई संकोच न था क्योंकि मैं समझता था की बच्चों को माता 
					अथवा पिता किसी एक के निरंतर साथ की आवश्यकता होती है। माता 
					पिता यदि दोस्त की भूमिका में सही बैठ पायें तो यह उनकी सबसे 
					बड़ी उपलब्धि है। बच्चे बड़े हो रहे थे और मैं उनका दोस्त बन 
					रहा था। मेरे घर रहने से प्रगति पूर्ण रूप से स्वतंत्र 
					थी...सही कहूँ तो जीवन में आनंद आने लगा था। ऐसे ही एक दिन 
					हल्के फुल्के अंदाज़ में प्रगति के घर लौटते ही हम चारों उससे 
					मज़ाक करने लगे और बच्चे भारतीय भोजन की माँग कर बैठे... 
					प्रगति शायद थकी थी और अप्रत्याशित ढंग से चिढ़कर कुछ बहुत 
					अप्रिय सा कह गई...बच्चे तुरंत वहाँ से हट गए... मैं हतप्रभ 
					खड़ा रह गया... उसके एक वाक्य ने हमारे बीच कईं प्रकाश वर्षों 
					की दूरी भर दी थी। वह दूरी जिसे हम प्रत्यक्ष होने से रोकते आ 
					रहे थे अब प्रकट होने लगी थी...मेरी सहन शक्ति जवाब दे रही थी। 
					मैंने मौन की राह पसंद की...
 
 धीरे धीरे मैं अजनबी सा होता गया, प्रगति से, अपने आप से...
 बच्चे पढ़ने बाहर चले गए, मैं अकेला... और अकेला होता चला 
					गया...दिल के शीशे में पड़ा बाल कभी साफ न हुआ। एक रोज़ रात्रि 
					में तीव्र पीड़ा से आँख खुली, बहुत घुटन हो रही थी, सोचा 
					खिड़की खोल दूँ, किंतु उठने की कोशिश में गिर गया, बचने के 
					प्रयास में तिपाई से टकराया...आवाज़ सुनकर प्रगति दौड़ी आई, 
					मेरी हालत का अंदाज़ा लगते ही एम्बुलेंस को बुलाया। उसका 
					अंदाज़ा सही था...मेरा हृदय कमज़ोर हो गया था। बहुत दिन बाद 
					प्रगति को अपने निकट, अपने लिए चिंतित पाया, लगता था वक्त ठहर 
					जाए...साँस रुक जाए...पर न उसे न रुकना था न रुकी। घर लौटे तो 
					जैसे थे वैसे ही हो गए।
 
 डॉक्टरों ने स्थान बदलने की सलाह दी थी... क्रिसमस की 
					छुट्टियों में बच्चे आए और सारी बात जानकर अपने साथ ले जाने की 
					ज़िद करने लगे किंतु मैं अपना निर्णय ले चुका था और इस बार सब 
					मेरी बात मान गए... सामान्यतः कहीं न जाने वाली प्रगति भी हम 
					सबके साथ चलने को तैयार थी और पहली बार हम सब साथ भारत गए। 
					बच्चों की जिद पर भारत भ्रमण का कार्यक्रम बनाया था, इक्कीस 
					दिन भारत भ्रमण के बाद माँ के घर पहुँचे।
 
 जीवन के पन्ने जब पलट जाते हैं तो मनचाही पंक्तियों को चाह कर 
					भी पुनः पढ़ पाना संभव नहीं होता। परछाइयों तक पहुँच मुश्किल 
					होती है। मैं माँ के घर आया था, यह देख क्षोभ हुआ कि घर माँ का 
					न रहा था...इतने बरसों में माँ स्वयं मेहमान हो गई थी जिसके 
					प्रस्थान की सबको प्रतीक्षा थी। वक्त के फेर पर हैरान 
					था...पिछली बार बाबू की बरसी पर आना हुआ था, तब तक माँ का जोर 
					था...परेशान थी पर कमान थामे थी, धीरे धीरे शायद स्वयं ही सब 
					छोड़ती चली गई होगी, आज अजीब हाल में थी... हर समय मुझे खोजती 
					थी , यादों के बीहड़ में भटकती थी, अपनी काल्पनिक दुनिया में 
					बाबू से लड़ती कि मुझे परदेस जाने से रोका क्यों नहीं? 
					...बरसों बाद जाना कि मुझे बाहर भेजने का अफसोस रहा था उसे!!! 
					मैं सोचता रहा – हम में से किसी ने कुछ न पाया था! मैं उसे ऐसे 
					न छोड़ सकता था, इस उम्र में देश से बाहर जाना न वह चाहती थी न 
					मैं उसे उसकी मिट्टी से दूर करना चाहता था, सो माँ के पास रह 
					गया... बच्चे निराश हो प्रगति के साथ लौट गए।
 
 माँ खुश थी, मैं खुश था, किंतु माँ वर्ष भर भी मेरे साथ न रह 
					सकी। मुझे पता चला प्रगति अरूबा का काम समेट कर बच्चों के पास 
					रहने लगी है, समझ न पाया कि क्या मेरे यहाँ रह जाने से वह 
					अकेली हो गई होगी? काश व्यक्त किया होता उसने! पर मैं भी कहाँ 
					कुछ कह पाया था कभी! भावनाओं को शब्द मिले नहीं और एक-दूसरे के 
					मौन को हमने समझी नहीं!
 
 माँ के जाने पर संवेदना का संक्षिप्त सा कार्ड भेजा था प्रगति 
					ने, अस्वस्थता के कारण आ पाने में असमर्थता व्यक्त की थी। वक्त 
					ने जो खाई बना दी थी हमारे बीच, समय के साथ अगले सप्ताह मेरी 
					बड़ी बेटी का विवाह है... मुझे निमंत्रण
  नहीं 
					है, उन्हें डर है मैं अवसादग्रस्त कोई फसाद खड़ा न कर 
					दूँ...बेटी एक यूरोपीय से विवाह कर रही है, कुछ वर्षों से वह 
					एक साथ रह भी रहें हैं, संबंध आजमाने के लिए! 
 मैं आहत हूँ किंतु उससे कहीं अधिक चिंतित हूँ, अपनी बेटी के 
					लिए क्योंकि अपने जिए हुए अनुभव से मैं जानता हूँ कि दो देशों 
					– दो विभिन्न परिस्थितियों में रहने वालों की संस्कृतियाँ 
					समान्तर तो चल सकती हैं किन्तु उनका मेल बहुत मुश्किल है, बहुत 
					बहुत से बलिदान करने पड़ते हैं, स्व को होम करना पड़ता है और 
					उनके आमेलन के प्रयास में ज़िंदगी होम करके कुछ हासिल नहीं।
 |