माँ की तरह वह भी सफाई की बात
करते करते र्दाशनिक हो जाया करती। तब की कही बातें अब अक्सर
याद आतीं कि तन, मन,
घर सभी की सफाई कितना जरूरी है। मन की शुद्धि का र्कायक्रम भी
इसी तरह हर स्तर पर करते रहना जरूरी होता है। हर पल
की जागरूकता . .सुबह शाम का
चिन्तन वन्दना . .सतसंग . .और ध्यान व तप... यही चर्या हो मन
के घर संसार की।
या तो यह विदेश के बदलते
वातावरण की या उम्र के इस पड़ाव की देन है कि योग और ध्यान में
अधिक रूचि जाग पड़ी। घर की मुर्गी दाल बराबर. . . . नहीं ऐसा
नहीं है। मॉ. भी आजकल योग के अभ्यास के लिए जाने लगी हैं यही
इस बात का प्रमाण है कि भारत में भी अधिक प्रचलन हो रहा है।
वरना तो एरोबिक की ही धूम थी हमारे समय में, मानसी ने सोचा।
आज भी उसे याद है जब वह पहले पहल भारत से अमेरिका पढ़ने के लिए
आई थी। माँ बाप तो शादी के बाद ही उसे भेजना चाहते थे पर उसकी
जिद्द चलते उन्होंने दो साल और पढ़ाई में बिताने की बात मान ली
थी। वह भी इस शर्त पर कि भारत लौट कर वह शादी का विषय और न
टालेगी। भारत में माता पिता उसके लिए रिश्ता ढूँढने में सक्रिय
थे ही। इधर उनके किसी मित्र ने अमेरिका आए युवक के बारे में
बताया तो उन्होंने तुरन्त मानसी को उसका पता ठिकाना तस्वीर
सहित भेजा था। कमल को भी मानसी की तस्वीर भेज दी गई थी। फोन पर
बातचीत हुई। उसके बाद
अगले ही सप्ताहान्त में दोनों मिले और परस्पर रजामंदी से जल्द
ही भारत जाकर प्रणय बंधन में बँध गए। माता पिता का किया चुनाव
उन्हें हर दृष्टि से भा गया था। दोनों पढ़े लिखे और लगभग एक
जैसे वातावरण में पले हुए। सुन्दर स्वस्थ और टिकाऊ बंधन और
क्या चाहिए।
भारत से विवाह संस्कार और चन्द खूबसूरत मधुमास के दिनों के
पश्चात वह विदेश लौटे तो मित्रों के बीच एक छोटे से जश्न के
बाद मानसी और कमल दोनों एक ही शहर में नौकरी ढूँढने और फिर
किराए का मकान लेने तक के सभी काम करने में जुट गए थे। बड़ी
कठिनाई से सप्ताहान्त में ही सप्ताह भर का खाना बनाना, घर की
साफ सफाई, मित्रों से मिलना जुलना सभी किया जाता। उन दो दिनों
की शामों में भारतीय परिधान में सजी मानसी भारतीयता से निहाल
हो उठती। समय हवा की तरह अदृश्य, अपनी द्रुत गति से गुजरता रहा
कि पता ही न चला कि कब दोंनो दो से चार और होते होते दो बड़े
बच्चों के माता पिता हो गए थे और उनके ये बच्चे युवावस्था में
कदम रख चुके थे। पुरानी तस्वीरें देख कर
ही याद आती कि दोंनों बच्चों शान और निशा के साथ साथ वे स्वंय
भी एक दौड़धूप के दौर से गुजरे हैं।
सुबह होते होते धूप में धुंध भी दिखने लगी है। अब दफ्तर के लिए
तैयार हो कर जो दोंनों निकलेंगे दूर दूर तक कोहरे की चादर में
लिपटी कारों की र्सिफ हैड या टेल लाइटस दिखाई पड़ती हैं। यदि
किसी वाहन की बत्ती न जली हो तो दूर से वाहन को देख पाना भी
असम्भव। चाहे जो हो जाए, दफ्तर तो समय से पहुँचना हुआ। आज वह
करीब बीस मिनट पहले घर से चल दी। भारतीयता से भरपूर पति पत्नी
विदेश की खूबियों का भी खुले दिल से स्वागत करते हैं। अक्सर
कहते कि समय की पाबन्दी तो कोई पूरब से ही सीखे। क्या भारत
में... पता नहीं यह आदत संस्कारी है या पूरब की देन। बचपन में
कई बार देर से स्कूल पहुँचने पर वह कोई न कोई बहाना ढूँढ
निकालती थी। मानसी को पिछले साल की घटना याद आयी जब भारत
यात्रा के दौरान वह अपनी सहेली से मिलने उसके घर गई थी, कहीं
उसकी सहेली को काम पर पहुँचने के लिए देर न हो जाए, सोच कर वह
सुबह आठ बजे अपनी सहेली के यहाँ पहुँची थी। फोन पर बात करके
अन्दाज हो गया था कि उसे साढ़े नौ और दस के बीच दफ्तर पहुँचना
होता है। पर सहेली की तैयारी की रफ्तार इतनी धीमी कि उस दिन कम
से कम ग्यारह बजे दफ्तर पहुँची होगी। एक लापरवाह हँसी के साथ
उसने बताया कि आज तो वह दफ्तर में कह सकती है कि विदेश से उसकी
सहेली आई हुई है, इसीलिए देर हो गई। मुझे चाय का प्याला दे
उसने आराम से कपड़े धोए, कुछ इस्तरी किए। आज उसके पास आफिस देर
से जाने का अच्छा बहाना जो था। इस तरह के विचार आते ही मानसी
झुँझलाने लगती है। वह नहीं चाहती कि भारत के प्रति कोई
नकारात्मक विचार मन में आए पर ऐसा
हो जाता है। जाने अनजाने मन तुलना कर ही बैठता है।
आजकल बातों ही बातों में भारतीय संस्कृति की चर्चा अधिक होने
लगी। समय रहते भारत के अधिक चक्कर न लगा पाने का अफसोस भी होता
था। लगता कि बच्चों को भारतीय संस्कार न मिल पाए जो भरे पूरे
परिवार और वातावरण से मिल सकते थे। इस जागरूकता के चलते उठने
जागने, खाने पीने में धीरे धीरे बातों का प्रभाव पड़ने लगा।
बच्चों को हर सम्भव मौके पर बताया जाता कि भारत में हम यही काम
कैसे किया करते थे।
कहाँ तो खाने से पहले एक पैग लेना स्वास्थयर्वधक माना जाता पर
इधर यकायक कमल ने घर में शराब आदि न लाने का निश्चय कर डाला
था। यूँ तो आज भारत में भी पीना पिलाना अधिक सामान्य होता जा
रहा है। बिना शराब के कोई अच्छी पार्टी होती ही नहीं। हवाई
अडडे की शुल्क मुक्त दुकान से हर बार वह शौकीन रिश्तेदारों की
माँगें पूरी करते आए है.। यह सोच कर खुश ही होते थे कि कुछ
उपहार तो लेना ही है, पसन्द का ही ले लिया जाए तो और अच्छा। अब
हालत यह कि लिकर याने शराब की माँग करने वाले रिश्तेदार भी
मानसी और कमल को कम भाने लगे थे। कमल और मानसी इस बारे में भली
भाँति समझौता कर चुके थे अबके इन शौकीन लोगों को किसी तरह
टालना होगा। वह समाज में बढ़ रही बुराइयों
का न तो हिस्सा बनना चाहते हैं और न ही अपने बच्चों पर इसका
असर होने देना चाहते हैं।
शान और निशा के युवा हो जाने की चेतना ने माता पिता को बरबस
जीवन के मूल्यों को करीब से परखने का मौका दिया था। स्वयं को
पूर्वी संसार की सभ्यता में ढालते ढलते यकायक दोनो भारतीय
सभ्यता के प्रति अधिक सजग हो उठे थे। स्वंय उनके अन्दर तो भारत
और वहाँ की संस्कृति जन्म और परवरिश की देन थी। यूँ भी नहीं कि
पाश्चत्य और भारतीय सभ्यता में निहित गुण अवगुण से वो अपरिचित
थे पर अपनी जड़ों से लगाव उनपर जोर जमा रहा था। शान और निशा में
भारतीयता का भाव रहे यह बात अब अहम बन गई थी। यह बच्चे जो
विदेशी माहौल में पले बढ़े आज माता पिता की बातों को किसी पिछड़े
देश की सभ्यता जताते थे। कमल के भाई ने तो अमरीकी गोरी लड़की से
शादी की थी और उनके तीनों चचेरे भाई बहन मिश्रित रक्त की पहचान
थे। यह बात अलग है कि कुछ समय से उनके चाचा चाची अलग रह रहे थे
और बच्चे कभी माँ और कभी पिता के पास रह रहे थे। भिन्न
संस्कृतियों का मेल इतना सुगम भी नहीं। व्यक्ति आदतों का गुलाम
है और पीढ़ी दर पीढ़ी संस्कृति की भी आदत हो जाती है। इसी आधार
को ले मनुष्य सब देखता
परखता है। अनुभव से यही जाना था उन्होंने।
जवानी के मदिर झोंको को किसी सम्बल की जरूरत कहाँ पड़ती है।
मनचले झोंकें आवारा विचारों का संग पा मदमस्त विचरते हैं। उस
उम्र के भरे गले का रसिक उन्माद भरा गीत अक्सर व्यस्क बड़ों का
डरा देता है। या फिर अपने समय को याद कर अपने बच्चों से स्वंय
से भिन्न आशाएँ रखते हैं। इसी तरह के विचार और चिन्ता रहते थे
मानसी और कमल को। बच्चों को इस उम्र में एक दिशा एक भरोसे की
जमीन और उन्मुक्त आसमान चाहिए। और तीनों का संतुलित मिश्रित
आधार। ताकि वे अपने सुदृढ़ भविष्य को एक गहरी नींव पर खड़ा कर
सकें हर पीढ़ी अपने को अग्रसर मानती है और अपनी सोच पर भरोसा रख
आगे बढ़ती है। साथ ही उनका अबोध मन पुराने के साथ अन्यमनस्क
संबध रखता है। जब आवश्यकता
हो तो बच्चे बन जाएँ और नहीं तो बड़े हैं ही।
मानसी को अधिक चिन्ता रहती है निशा की। विदेश में पैदाइश और
पलना बढ़ना। सामाजिक वातावरण दो अतियों में बँटा हुआ। आठ दस
भारतीय परिवार लगभग हर सप्ताह मिलते। साथ साथ खाना खाते,
खेलते, हँसी मज़ाक सब चलता। बच्चे अपनी अलग टोली में खेलते। सब
सुन्दर सुगम परिवार जैसा। जाने अनजाने बातों बातों में विदेश
और विदेशी नीतियों रिवाजों की निन्दा भी हो जाती। दूसरी ओर
बच्चों के स्कूल के साथी और दोस्त सभी तरह की पृष्ठभूमि के
होते। ऐसे में बच्चे क्या सही गलत सीख पाएँगें ?
यूँ हम भारतीयों को शिकायत रहती है कि दूसरे लोग हमें अलग
देखते है या नीचा देखते हैं। पर स्वयं की सोच पर इस कदर परदा
क्यूँ अपनी बातों में काले लोगों की हँसी उड़ाने में पीछे नहीं
रहते। उन्हें कम बुद्धि समझना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानने
में कोई शर्म नहीं। गोरे लोगों का मित्र बनने में खुशी और काले
लोगों से दोस्ती करने में शर्म महसूस करते हैं। इस अजीबोगरीब
माहौल में बच्चों का सामाजिक ज्ञान और आचरण कितना सुलझा हो
सकता है इसका अनुमान लगाना
ही कठिन है।
भारत से दूर आकर भी भेदभाव की भावना से मुक्ति नहीं मिल पाई
अपितु जातिवाद व्यवस्था न कहला कर यह रंगभेद के रूप में जन
सामान्य पर हावी है। बच्चे जाने किससे मित्रता गढ़ बैठें यह
चिंता लगी रहती। परोक्ष रूप से कुछ कहना भी सम्भव नहीं कि कहीं
कुछ गलत सीख बैठें।
अभी पड़ोस के ही बच्चों की बात लो। पिछले सप्ताह उनके घर के आगे
पुलिस की गाड़ी खड़ी थी। पटेलभाई भागे भागे आए थे कि आप ही चल कर
पुलिस को समझाओ कि भारत में बच्चों को सही गलत समझाने के लिए
यह सब किया जाता है। बच्चों के दादा दादी भारत से आए हुए हैं।
जबसे वे दोंनों यहाँ आए हैं वही दिन भर बच्चों को देखते हैं।
बच्चों को प्रीस्कूल में सिखाया गया है कि कोई उन्हें हाथ
लगाने का अधिकार नहीं रखता। दोंनों आपस में झगड़ रहे थे कि दादी
ने उन्हें धमकाया और कमरे में बंद कर देने और थप्पड़ लगा देने
की बात कही। बच्चों ने आव देखा न ताव . .फोन करके पुलिस को
बुला डाला। क्योंकि स्कूल में सिखाया गया था कि कोई ऐसा कुछ
करे जो तुम्हें ठीक न लगे तो पुलिस को रिर्पोट करो। भारत से आए
माँ बाप को लाख समझाने के बाद भी बच्चों की यह करनी नागवार
लगी। उनका कहना था कि इस उम्र तक कभी उन्होंने ऐसा कोई काम
नहीं किया कि पुलिस के साथ सवाल जवाब हो। अब विदेश में आकर
बच्चे बदतमीज़ी सीख रहे हैं जो उनकी समझ से बाहर है। बच्चों को
यह समझ होनी चाहिए कि बड़े जो कर रहे हैं वह उनकी भलाई के लिए
ही है। मैंने मन ही मन सोचा कि भारत में ही नहीं बचपन को सारी
दुनिया में ही बड़ों की उँगली थाम सीखने की चाह होती है। यह बात
अलग है कि कुछ अपवादों के चलते बच्चों की सुरक्षा के हित में
कुछ नियम बनाए गए हैं
जिन्हें आँख बंद करके पालन करना कठिन हो रहा है।
अपने बच्चे तो अब छोटे भी नहीं रहे। एक उम्र होती है जब अपनी
जड़ो से जुड़ना सीखना आसान होता है। एक बार सोच परिपक्व हो जाए
तो बस खुली सोच हो तभी व्यक्ति कुछ बदलाव ला सकता है। अपनी सोच
पर अड़ी युवावस्था को बहुत समय लगता है यह समझने में कि पुराने
ख्यालों वाले पुराने लोगों की बातें कभी न पुरानी होने वाली
होतीं हैं। सत्य तो सदा सत्य है। सत्य की उम्र नहीं होती बस
समझ की दूरी परम सत्य को समय रहते कई बार जान नहीं पाती।
मानसी मन ही मन कई बार मन ही मन प्रार्थना कर बैठती है कि उसके
परिवार को खासकर बच्चों को सद्बुद्धि मिले। बच्चे पढ़ लिख कर
अपने पैरों पर खड़े हो जाएँ और अपना जीवन साथी चुनने में भूल न
कर बैठें। एक छोटी सी भूल किस कदर सता सकती है इसका अहसास तो
बहुत बाद में हुआ करता है। बच्चों के भविष्य पर कोई आँच न आए
इसी के लिए तो माँ बाप इतने जतन से सारी दिशाएँ दिखा कर बच्चों
को अपनी राहें चुनना भी सिखाते हैं। वह अक्सर मन ही मन मन्नतें
मना बैठती है। यह बात उसने अपनी माँ दादी से ही तो सीखी। हर
छोटी बड़ी बात पर वह हजारों हजार मन्नतें माँगा करतीं। उनका
मानना है कि जिसने सब कुछ दिया है उसके आगे झोली फैलाने में
क्या झिझक। आज वही भावना मानसी का दिल हल्का कर देती है। तर्क
का भाव हटा देने से कंधों का बोझ हल्का हो जाता है। काश कि वह
अपने बच्चों को यह गहरी बात समझा पाती। सब बीमारियों की एक ही
अनोखी अचूक दवा। बस उस ऊपर वाले पर या यूँ कहो
कि प्रकृति पर छोड़ देना कितनी
अद्भुत कला है। प्रकृति अपने नियमों के साथ चलती है। स्वयं को
र्सवस्व मान कर चलना अहंकार की जड़ को पानी देना है।
सुबह से शाम तक इसी तरह के विचारों का एक ताना बाना मानसी के
मन में चलता रहता है। कोई सूत्र हाथ में आए न तो उसके पास इतना
समय होता और न ही इतनी ऊर्जा। किसी दिन बैठ कर इन उलझे धागों
को सुलाझाएगी जरूर। कब यह ताना बाना आरम्भ हुआ इसका ही अनुमान
लगाना कठिन है उसके लिए।
र्कायालय से लौटने पर वह रसोईघर में ही अटक जाती और रात गहराने
से पहले उसे दम भर भी वक्त नहीं मिलता। बच्चे लौटते कोई छोटी
मोटी नाश्ते की चीज लेकर कम्पयूटर या टेलिविजन में गुम हो
जाते। पति काम से लौट कर टेलिविजन पर खबरें और शेयर र्माककेट
देखने में समय बिताते। खाना बन जाने के उपरान्त ही वह सबको
आवाज देकर खाने की मेज पर बुलाती है। बड़े जतन से वह यह तो कर
पाई है कि शाम का खाना सब एक साथ ही खाते हैं। उतने थोड़े समय
में ही वह सबकी दिनचर्या के मोड़ तोड़ जान लेती है। बच्चे अपने
मित्रों पार्टी पढाई की बातें बताते और पति अपने काम के बारे
में।
आज काम से आकर उसकी बेटी सीधे सीढियों से ऊपर जाने की बजाय आकर
मानसी के गले में बाहें डाल कर कुछ कहने को बेताब है। मानसी भी
अपने सवालों के साथ तैयार रहती है ऐसे मौकों के लिए। आजकल बेटी
को देख कर यों भी जी भर आता है। शादी ब्याह की बात करने को तो
तैयार ही नहीं होती। पर अबके जो घर से जाएगी तो फिर तो मेहमान
सी ही लौटा करेगी। पिछले
कई सालों में बच्चे कॉलेज हास्टेल जाते पर छुट्रिटयों में घर
ही लौटते।
“क्या हुआ?”
‘कुछ नहीं मॉम’
“कोई तो बात होगी...”
‘अगर तुम कोई सवाल न करो तो ही बताऊँगी...
“अच्छा बिटिया ठीक है नहीं पूछूँगी”
‘आय एम सीइंग समवन’ बस ऐसे ही दोस्ती है... सोचा कि तुम्हें
बता दूँ’
“कहाँ मिली?” सवाल था कि रुक न पाया।
‘किसी सहेली ने मिलवाया था’
निशा का जवाब पाकर हौसले बढ़ गए थे।
“कहाँ का है ?”
‘उससे क्या फर्क पड़ता है ?’
“नहीं ऐसे ही पूछ
लिया...”
‘जानती हूँ . . .वैसे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता पर तुम्हें
अच्छा लगेगा मॉम . . . भारत का ही है’ ‘पर शादी की बात मुझसे न
करना।’
मानसी ने यकायक एक चैन की साँस ली। मन में अनेकों ख्याल और
सवाल उठ रहे हैं पर वह जानती है कि उसका कोई सवाल बेटी की नजर
में गलत साबित होगा और निशा रूठ कर सीढ़ियों से धड़धड़ाती हुई
अपने कमरे में जा कर बन्द हो रहेगी। मन नहीं माना तो पूछ ही
बैठी
“माँ बाप के साथ रहता है या अकेला ?”
निशा जानती है कि माँ के सवालों के पीछे गहरे अर्थ रहते हैं
फिर भी उसने जवाब दिया है।
‘देख रहा है अपने लिए घर’
“कब से जानती हो ?”
‘यही कोई चार महीने से’
. . .और मुझे नहीं बताया ?”
‘क्यूँकि मैं जानती थी कि बताते ही तुम्हारा रिर्सच प्रोजेक्ट
शुरू हो जाएगा’
‘अब आगे मत पूछना . . .’
निशा अगले सप्ताह अपने
अर्पाटमेंट में जा रही है, जो घर से ज्यादा दूर नहीं। काम पर
यह उसका पहला ही हफ्ता है। अपनी डिग्री करने के बाद वह अपनी
पसन्द के रिसर्च के काम की तलाश में थी। लाख चाहने पर भी वह
रिश्ते शादी की बात करने को तैयार न होती। मित्र परिवार कोई
रिश्ता लाते भी तो वह मिलने को तैयार न होती। अब नौकरी लग गई
है तो वह पूरी तरह से अपने पैरों पर खड़े होना चाहती है। मानसी
और कमल भी रोक नहीं पाए थे। बस यही उम्मीद करते थे कि समय रहते
बच्चे विवाह का भी सोचें।
“अच्छा सुन निशा” “अगले सप्ताह नए साल पर घर पर ही डिनर
करेंगें तू अपने मित्र को बुला ले” “हम भी मिल लेंगें”
‘जब मैं चाहूँगी तो तुम से पूछ कर जरूर मिलाऊँगी’ ‘मैने गलती
की . . .तुम्हें बताना ही नहीं चाहिए था यह सब’ कह कर धड़धड़ाते
कदमों से निशा अपने कमरे में चली गई है।
स्टोव
पर चाय का पानी रखते हुए मानसी ने गहरी साँस ली है। हे ईश्वर
तेरी कृपा . . . संस्कार तो अच्छे ही पाए हैं बेटी ने . . .
लड़का भारतीय है। मानसी स्वयं समझ नहीं पाती कि खुले प्रगतिशील
विचारों वाली विदुषी मानसी को ऐसे मौकों पर क्या हो जाता है .
. . अब वह बेचैनी से कमल का इन्तजार कर रही है जैसे कि चाय के
साथ मुँह मीठा कराने का अवसर हो। |