गली
के हर घर में दीयों की रोशनी झिलमिला रही थी।
पटाखों की आवाज़ से पूरा मोहल्ला गूँज रहा था, लेकिन चौधरी
जी के पुराने मकान पर अंधेरा पसरा पड़ा था। दरवाज़े पर न
कोई दिया, न कंदील।
पास-पड़ोस में चर्चा थी—“बेटा अमेरिका में, बहू ससुराल आती
नहीं और अब बुढ़ापे में अकेले रह गए।
दिन भर वे चुपचाप घर के सामान्य कार्यों में लगे रहे। नहाए
धोए, पूजा-पाठ किया। मुहल्ले के अन्य परिवारों की तरह घर
को सजाने का कोई उत्साह न था, जैसे उनके मन के दिये बुझ गए
हों, आखिर सजाएँ तो किसके लिए...?
शाम हुई तो लक्ष्मी पूजन के बाद आराम करने को लेट गए। धूम
धड़ाका उन्हें अब ज्यादा रास नहीं आता, इसलिये दिवाली की
रात घर से बाहर भी नहीं निकलते। जाने कब उनकी आँख लग गयी।
रात गहराई और वातावरण शांत हो गया, तभी अचानक उनकी आँख
खुली। मन में आया कि गली में जाकर देखें कि क्या नजारा है?
दरवाजा खोला ही था कि उनकी आँखों में हजारों दिये जल उठे -
शायद मोहल्ले के बच्चों ने चुपके से उनकी अंधेरी चौखट पाकर
दिये सजा दिए थे।
वर्षों से बुझे दीयों में
लहराती लौ भी जैसे फुसफुसा कर कानों में कह रही थी -
दीवाली घर में नहीं, दिलों में रोशनी जलाने का नाम है।”
१ अक्टूबर
२०२५ |