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“प्रकाशक
महोदय! मेरी कहानी पसंद आई क्या?” फ़ोन पर एक काँपती आवाज़
उभरी।
“जी, कौन सी? यहाँ रोज़ सैकड़ों कहानियाँ आती हैं।” उस ओर से
एक बेपरवाह उत्तर आया।
“महोदय! वृद्ध पुरुष के संघर्ष वाली कहानी! ...‘टूटी छड़ी’
नाम था कहानी का।” काँपती आवाज़ ने स्मरण कराने की चेष्टा
की।
“लो, ये भी कोई नाम है! कोई कहानी है भला! कोरी बकवास।”
बेपरवाही ने अस्वीकृति पर मोहर लगाई।
“महाशय! जीवन की सच्चाई कूट-कूटकर भरी है कहानी में। आप
पढ़कर देखिए ...। अच्छी कहानी है।”
“सुनिए लेखक साहब! कोई यह कहता है भला कि मेरी कहानी बकवास
है?” बेपरवाही ने आक्रोश दिखाया।
“महोदय! कोई कमी हो तो बताएँ। मैं सुधार कर लूँगा।” काँपती
आवाज़ विनम्र हो गई।
“कमी ...। हाँ, कमी भी बताएँगे ...। आप ऐसा करें, ... २०००
रुपए भेज दें। वैसे तो तीन महीने तक की सामग्री का चयन हो
चुका है फिर भी कोशिश कर के आपकी अगले महीने छाप देंगे। आप
भी क्या याद करेंगे।” बेपरवाही अब सहानुभूति में ढली।
“जी, बहुत आभार आपका। प्रति कैसे मिलेगी?” कम्पन कम हुई,
आत्मविश्वास बढ़ा।
“८० रुपए की पुस्तक है। आप ५ प्रति खरीद लेना। वैसे क्या
नाम बताया आपने कहानी का?”
“टूटी छड़ी” काँपता स्वर कुछ दृढ़ हुआ।
“वैसे कैसे टूटी यह छड़ी कहानी में?” बेपरवाही जिज्ञासा में
बदली।
“जी, एक प्रकाशक की पिटाई कर के। वह प्रकाशक उस वृद्ध लेखक
से उसकी बौद्धिक संपत्ति भी माँग रहा था और पैसे भी।” |